साँग/saang

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साग  : पुं० [सं० शाक] १. कुछ विशिष्ट प्रकार के पौधों की वे पत्तियाँ जो तरकारी आदि की तरह पकाकर खाई जाती हैं। शाक। भाजी। जैसे—सोए, पालक, मरसे या बथुए का साग। पद—साग-पात= (क) खाने के साग, पत्ते, कन्द, मूल आदि। (ख) बहुत ही उपेक्ष्य और तुच्छ वस्तु। जैसे—वह तो औरों को अपने सामने साग-पात समझता है। २. पकाई हुई भाजी। तरकारी। जैसे—आलू का साग, कुम्हड़े का साग। (वैष्णव)
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सागर  : पुं० [सं०] १. समुद्र, जो पुराणानुसार महाराज सगर का बनाया हुआ माना जाता है। उदथि। जलधि। २. बहुत बड़ा तालाब। झील० ३. दशनामी संन्यासियों का एक भेद। ४. उक्त प्रकार के संन्यासियों की उपाधि। ५. एक प्रकार का हिरन। पुं० [अ० सागर] १. बड़ा प्याला। कटोरा। २. शराब पीने का प्याला।
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सागर  : अव्य० [?] सामने। सम्मुख। उदा०—प्रीतम को जब सागस लहै।—नंददास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागर-धरा  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी। भूमि।
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सागर-मेखला  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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सागर-लिपि  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक प्राचीन लिपि।
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सागर-संगम  : पुं० [सं०] नदी और समुद्र का संगम स्थान, विशेषतः वह स्थान जहाँ समुद्र की लहरें नदी की धारा से मिलती हैं। (एस्चुअरी)
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सागरज  : वि० [सं०] सागर या समुद्र से उत्पन्न। पुं० सुमद्री नमक।
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सागरनेमि  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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सागरमुद्रा  : स्त्री० [सं०] इष्टदेव। का ध्यान या आराधना करने की एक प्रकार की मुद्रा।
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सागरवासी (सिन्)  : वि० [सं० सागर√वस् (रहना)+णिनि] १. समुद्र में वास करने या रहनेवाला। २. समुद्र के तट पर रहनेवाला।
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सागरांत  : पुं० [सं० ष० त०] १. समुद्र का किनारा। समुद्र-तट। २. समुद्रतट का विस्तार।
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सागरांता  : स्त्री० [सं० सागरांत-टाप्] पृथ्वी।
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सागरांबरा  : स्त्री० [सं० ब० स० सागराम्बरा] पृथ्वी।
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सागरालय  : पुं० [सं० ब० स०] सागर में रहनेवाले वरुण।
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सागा  : पुं० [सं० सह] संग। साथ। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागार  : वि० [सं० स०+आगार] आगार से युक्त। आगार या घर वाला। पुं० गृहस्थ।
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सागी  : क्रि० वि० दे० ‘सागे’। उदा०—मेरी आरति मेटि गुसाँईं आई मिलौ मोंहि सांगी री।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागू  : पुं० [अं० सौंगों] १. ताड की जाति का एक प्रकार का पेड़ जिसके तने से आटे की तरह गूदा निकलता है। दे० ‘सागूदाना’।
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सागूदाना  : पुं० [हिं० सागू+दाना] सागू नामक वृक्ष के तने का गूदा जो पहले आटे के रूप में होता है और फिर कूटकर दानों के रूप में बनाकर सुखा लिया जाता है। यह पौष्टिक होता है और जल्दी पच जाता है, इसीलए प्रायः रोगियों को पथ्य के रूप में दिया जाता है।
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सागें  : क्रि० वि० [सं० सह] संग। साथ। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागो  : पुं०=सागू।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सागौन  : पुं० [सं० शाल] एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत सुन्दर तथा मजबूत होती है और इमारत के काम आती है। शाल वृक्ष।
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साग्निक  : वि० [सं०] १. अग्नि से युक्त। अग्निसहित। २. यज्ञ की अग्नि से युक्त। पुं० वह गृहस्थ जो सदा घर में अग्निहोत्र की अग्नि रखता हो। अग्निहोत्री।
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साग्र  : वि० [सं० तृ० त०] आदि से लेकर, पूरा। कुल। सब।
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