मिथ्या/

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मिथ्या  : वि० [सं०√मथ् (मंथन करना)+क्यप्, नि० सिद्धि] १. जो अस्तित्व में न हो, पर फिर भी जिसका अज्ञानवश या भ्रमवश बोध होता हो। २. असत्य। झूठा। ३. कृत्रिम। बनावटी। ४. निराधार। जैसे—मिथ्या आग्रह। ५. कपट-पूर्ण। ६. नियम या नीति के विरुद्ध। जैसे—मिथ्या आचरण।
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मिथ्या दृष्टि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] नास्तिकता। पुं० नास्तिक।
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मिथ्या-निरसन  : पुं० [सं० कर्म० स०] शपथपूर्ण सच्ची बात अग्राह्य करना या न मानना।
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मिथ्या-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०]=छायापुरुष।
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मिथ्या-मति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. धोखा। २. गलती।
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मिथ्या-योग  : पुं० [सं० कर्म० स०] चरक के अनुसार वह कार्य जो रुप, रस, प्रकृति आदि के विरुद्ध हो। जैसे—मल मूत्र आदि को रोकना।
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मिथ्या-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] झूठ बोलना।
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मिथ्या-वादी (दिन्)  : वि० [सं० मिथ्या√वद् (बोलना)+णिनि, उप० स०] [स्त्री० मिथ्यावादिनी] असत्य-वादी। झूठा।
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मिथ्याचार  : पुं० [सं० मिथ्या-आचार, ब० स०] ऐसा आचरण या व्यवहार जिसमें सत्यता न हो। कपटपूर्ण आचरण। २. उक्त प्रकार का आचरण करनेवाला व्यक्ति।
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मिथ्यात्व  : पुं० [सं० मिथ्या+त्व] १. मिथ्या होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. माया।
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मिथ्याध्यवसिति  : स्त्री० [सं० मिथ्या-अध्यवसिति, कर्म० स०] साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें किसी कल्पित या मिथ्या बात को आधार बनाकर कोई और मिथ्या बात कही जाती है।
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मिथ्याहार  : पुं० [सं० मिथ्या-आहार, कर्म० स०] ऐसी चीजें साथ-साथ खाना जिनकी प्रकृति परस्पर भिन्न या विरुद्ध हो। जैसे—मछली या मांस के साथ दूध पीना।
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