भ/bh

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भ  : १. हिन्दी वर्णमाला का चौबीसवाँ और पवर्ग का चौथा वर्ण जो व्याकरण तथा भाषा विज्ञान के दृष्टिकोण से ओष्ठय अघोष महाप्राण तथा स्पर्श व्यंजन हैं० २. छंद शास्त्र मे भगण का अल्पार्थक तथा संक्षिप्त रूप। [सं०√भा+ड०] ३. नक्षत्र। ४. ग्रह। ५. राशि। ६. पर्वत। पहाड़। ७. भौंरा। ८. भ्रम। भ्रांति। ९. शुक्राचार्य।
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भ-चक्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. राशियों या ग्रहों के चलने का मार्ग। कक्षा। २. नक्षत्रों का वर्ग या समूह।
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भइया  : पुं० [हिं० भाई+इया (प्रत्यय)] १. भाई। २. भाई अथवा बराबर वालों के लिए सम्बोधन-सूचक शब्द।
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भँइँस  : स्त्री०=भैंस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भँइँसा  : पुं० =भैंसा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भँइँसुर  : पुं० =भसुर (जेठ)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भई  : अव्य० [हिं० भाई] संबोधन रूप में प्रयुक्त होनेवाला एक अव्यय। जैसे—भई वाह ? क्या बात है।
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भउ  : पुं० =भव। (संसार)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भउजाई  : स्त्री०=भौजाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भक  : स्त्री० [हिं० भभकना] आग के एकाएक भभकने से होनेवाला शब्द। पद—भंक से=एकाएक। सहसा।
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भक-भूर (रि)  : वि० [सं० भेक] १. मूर्ख। २. उजड्ड। उदाहरण—चाह की चटकते भयो ते हियें खोंय जा के, प्रेमपरि कथा कहै कहा भकभूर सों।—घनानन्द।
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भकटना  : अ०=भकसना।
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भकटाना  : अ० स०=भकसाना।
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भकड़ना  : अ०=भगरना।
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भकभकाना  : अ० [अनु०] १. ‘भक-भक’ शब्द करके जलना या रह-रहकर चमकना। २. चमकना। स० १. उक्त प्रकार से जलाना। सुलगाना। २. चमकाना।
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भकराँध  : स्त्री० [हिं० भगरना अथवा भक+गंध] सड़े हुए अनाज की गंध। भुकरायँध।
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भकराँधा  : वि० [हिं० भकराँध+आ (प्रत्यय)] दुर्गंन्ध से युक्त या सडा हुआ। (अन्न)।
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भकरुँड  : पुं० [सं० भग्न+रुण्ड] छिन्न-भिन्न या कटा हुआ धड़।
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भकवा  : वि० =भकुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भकसना  : अ० [अनु०] एक प्रकार का सड़ना कि दुर्गंन्ध निकलने लगे। स०=भकोसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भकसा  : वि० [हिं० भकसाना या भकटाव] खाद्य पदार्थ।
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भकसाना  : स० [सं० भकसना का स०] इस प्रकार सड़ाना कि दुर्गन्ध निकलने लगे। अ०=भकसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भकसी  : स्त्री० [?] काल-कोठरी (पूरब)।
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भकाऊँ  : पुं० [अनु०] बच्चों को डराने के लिए एक कल्पित जन्तु। हौआ।
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भंकार  : पुं० [सं० भं√कृ (करना)+अण्] १. भीषण शब्द। २. भनभनाहट।
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भंकारी  : स्त्री० [सं० भंकार+ङीष्] १. भुनगा। २. चौपायों को काटनेवाला एक प्रकार का मच्छर।
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भकुआ  : वि० [सं० भेक] १. मूर्ख। मूढ़। २. बहुत घबराया हुआ।
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भकुआना  : अ० [हिं० भकुआ] १. मूर्ख बनना। २. घबरा जाना। स० १. किसी को भकुआ बनाना। बेवकूफ बनाना। २. बहुत ही घबराहट में डालना।
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भकुड़ा  : पुं० [हिं० भाँकुट] वह मोटा गज जिससे तोप मे बत्ती आदि ठूँसी जाती है।
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भकुड़ाना  : स० [हिं० भकुड़ा+आना (प्रत्यय)] १. लोहे के गज से तोप के मुँह में बत्ती भरना। २. उक्त प्रकार से तोप का नल साफ करना।
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भकुरना  : अ० [?] नाराज या रुष्ट होना। मुँह फुलाना। उदाहरण—भकुर गई है तो भकुरी रहै।—वृन्दावनलाल वर्मा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भकुवा  : वि० =भकुआ।
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भकूट  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का राशियोग जो विवाह की गणना में शुभ माना जाता है। (फलित ज्योतिष)।
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भकोसना  : स० [सं० भक्षण] १. बहुत बड़े बड़े तथा एक पर एक कौर मुँह में ठूँसते चलना। २. लाक्षणिक अर्थ में बहुत बड़ी संपत्ति हजम कर या खा-पी जाना।
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भकोसू  : वि० [हिं० भकोसना] १. भकोसनेवाला। २. बहुत अधिक खानेवाला। भुक्खड़। ३. बहुत बड़ी संपत्ति हजम करने या खापी जानेवाला।
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भक्त  : वि० [सं०√भज् (सेवा करना)+क्त, कुत्व] [भाव० भक्ति] १. बाँटा हुआ। भागों में बाँटा हुआ। जिसका या जिसके विभाग बंटे हुए हो। २. सबको बाँटकर हिस्से के मुताबिक दिया हुआ। ३. अलग या पृथक् किया हुआ। ४. किसी का पक्ष लेनेवाला। पक्षपाती। ५. अनुगामी। अनुयायी। ५. किसी पर भक्ति और श्रद्धा रखनेवाला। पुं० १. पका हुआ चावल। २. धन। ३. वह जो श्रद्धापूर्वक किसी को उपासना या पूजा करता या किसी पर पूरी निष्ठा रखता हो। ४. वह जो धार्मिक दृष्टि से मांस-मछली खाना पाप समझता हो।
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भक्त-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्ध भिक्षुओं की भोजनशाला।
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भक्त-तूर्य्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का बाजा जो भोजन के समय बजाया जाता था।
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भक्त-दाता (तृ)  : पु० [सं० ष० त०] भरण-पोषण करनेवाला।
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भक्त-दास  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] वह भक्ति जिसे अपने सेव्य या स्वामी से केवल भोजन-कपड़ा मिलता हो।
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भक्त-पुलाक  : पुं० [सं० ष० त०] १. भात का कौर। २. माँड़। पीच।
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भक्त-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भक्त-मंड  : पुं० [सं० ष० त०] माँड़। पीच।
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भक्त-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०]=भक्तमंड।
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भक्त-वच्छल  : वि० दे० ‘भक्तवत्सल’।
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भक्त-वत्सल  : वि० [सं० स० त०] [भाव० भक्त-वत्सलता] जो भक्तों पर कृपा करता और स्नेह रखता हो। पुं० =विष्णु।
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भक्त-शरण  : पुं० [सं० ष० त०] भोजनशाला। रसोई-घर।
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भक्त-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. पाकशाला। रसोई घर। २. भक्त के बैठकर धर्मोपदेश सुनने का स्थान।
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भक्त-सिक्थ  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘भक्तपुलाक’।
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भक्तजा  : स्त्री० [सं० भक्त√जन् (उत्पत्ति)+ड+टाप्] अमृत।
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भक्तता  : स्त्री० [सं० भक्त+तल्+टाप्] भक्ति।
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भक्तत्व  : पुं० [सं० भक्त+त्व] किसी के खंड या विभाग होने का भाव।
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भंक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं०√भंज् (तोड़ना+तृच्] वह जो भंग या भग्न करता हो
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भक्ताई  : स्त्री० [हिं० भक्त+आई (प्रत्यय)] भक्ति।
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भंक्ति  : स्त्री० [सं०√भंज्+क्तिन्] १. भंग या भग्न करने या होने की अवस्था या भाव। २. अस्थि-भंग।
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भक्ति  : स्त्री० [सं०√भज्+क्तिन्] १. कोई चीज काटकर या और किसी प्रकार की टुकड़े या भागों में बाँटने की क्रिया या भाव। विभाजन। २. उक्त प्रकार से काटे हुए टुकड़े या किये हुए विभाग। ३. अंग। अवयव। ४. खंड। टुकड़ा। ५. ऐसा कोई विभाग जिसकी सीमाएँ रेखाओं के द्वारा अंकित या निश्चित हों। ६. उक्त प्रकार का विभाजन करनेवाली रेखा। ७. किसी प्रकार की रचना। ८. भावभंगी। ९. उपचार। १॰. किसी के प्रति होनेवाली निष्ठा, विश्वास या श्रद्धा। ११. उक्त के फलस्वरूप किसी के प्रति होनेवाला अनुराग,या स्नेह अतवा की जानेवाली किसी की सेवा-शुश्रुषा या अर्चन-पूजन। १२. धार्मिक क्षेत्र में, आराध्य, ईश्वर, देवता आदि के प्रति होनेवाला वह श्रद्धापूर्ण अनुराग जिसके फलस्वरूप वह सदा उसका अनुयायी रहता और अपने आपको उसका वशवर्ती मानता है। (डिवोशन)। विषेश-शांडिल्य के भक्तिसूत्र में यह सात्विकी राजसी और तामसी तीन प्रकार की कही गई है। १३. किसी बडे के प्रति होनेवाली पूज्य बुद्धि, श्रद्धा, या आदरभाव। १४. जैन मतानुसार वह वमन जिसमें निरतिशय आनन्द हो और जो सर्वप्रिय अनन्य प्रयोजनविशिष्ट तथा वितृष्णा का उदयकारक हो। १५. साहित्य में ध्वनि, जिसे लोग कुछ गौण और लक्षणागम्य मानते हैं। १६. प्राचीन बारत में कपड़ों की छपाई, रंगाई आदि में बनी हुई कोई विशेष आकृति या अभिप्राय। १७. छंद शास्त्र मे एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण, भगण और अंत में गुरु होता है।
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भक्ति-गम्य  : वि० [सं० तृ० त०] भक्ति द्वारा प्राप्य। पुं० शिव।
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भक्ति-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर-दर्शन या मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्गों में से एक जिसमें ईश्वर को भक्ति से अनुरक्त तथा प्रसन्न किया जाता है।
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भक्ति-योग  : पुं० [सं० ष० त०] १. उपास्यदेव मे अत्यन्त अनुरक्त होकर उसकी भक्ति में लीन रहना। सदा भगवान् में श्रद्धापूर्वक मन लगाकर उनकी उपासना करना। २. भक्ति का साधन।
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भक्ति-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] साहित्य में कुछ लोगों का ०यह मत या सिद्धांत कि काव्य में ध्वनि प्रमुख नहीं, बल्कि भक्ति (गौण और लक्षण गम्य है)।
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भक्ति-वादी (दिन्)  : वि० [सं० भक्तिवाद+इनि] भक्तिवाद सम्बन्धी भक्तिवाद का। पुं० वह जो भक्तिवाद का अनुयायी या समर्थक हो।
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भक्ति-सूत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैष्णव संप्रदाय का एक सूत्र ग्रन्थ जो शांडिल्य मुनि का रचा हुआ माना जाता है और जिसमें भक्ति का विस्तृत विवेचन हैं।
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भक्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० भक्ति+मतुप्] [स्त्री० भक्तिमती] १. जिसके विभाग हुए हों। २. जिसके मन में किसी प्रकार के प्रति भक्ति हो।
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भक्तिल  : वि० [सं० भक्ति√ला (लेना)+क] १. भक्तिदायक। २. विश्वसीय। पुं० विश्वसनीय घोड़ा।
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भक्ती  : स्त्री०=भक्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भक्तोपसाधक  : पुं० [सं० भक्त-उपसाधक, ष० त०] १. पाचक। रसोइया। २. वह जो परोसता हो।
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भक्ष  : पुं० [सं०√भक्ष् (भोजन करना)+घञ्] १. भोजन कराना। खाना। २. खाने का पदार्थ। भक्ष्य। खाना। भोजन।
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भक्षक  : वि० [सं०√भक्ष्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० भक्षिका] १. भोजन करनेवाला। खादक। २. खा जानेवाला। जैसे—नर-भक्षक।
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भक्षकोर  : पुं० [सं० भक्ष√कृ (करना)+अण्, उप० स०] १. हलवाई। २. पाचक। रसोइया।
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भक्षण  : पुं० [सं०√भक्ष्+ल्युट—अन] [वि० भक्ष्य, भक्षित, भक्षणीय] १. किसी वस्तु को दाँतों से काटकर खाना। २. भोजन। करना। ३. आहार। भोजन।
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भक्षणीय  : वि० [सं०√भक्ष्+अनीयर] जो खाया जा सके अथवा जो खाया जाने को हो।
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भक्षना  : स० [सं० भक्षण] १. भक्षण करना। खाना। २. बुरी तरह से अपने अधिकार में कर दुरुपयोग करना।
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भक्षयित (तृ)  : [सं०√भक्ष्+णिच्+तृच्] भक्षण करनेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भक्षित  : भू० कृ० [सं०√भक्ष्+क्त] खाया हुआ। पुं० आहार।
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भक्षी  : वि० [सं० भक्ष+इनि] [स्त्री० भक्षिणी] समस्त पदों के अन्त में खानेवाला। भक्षक। जैसे—कीट-भक्षी, मांस-भक्षी।
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भक्ष्य  : वि० [सं०√भक्ष्+ण्यत्] खाने जाने के योग्य। जो खाया जा सके। पुं० खाने-पीने की चीजें। खाद्य पदार्थ।
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भक्ष्याभक्ष्य  : वि० [सं० भक्ष्य-अभक्ष्य, द्व० स०] खाद्य और अखाद्य (पदार्थ)
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भख  : पुं० =भोजन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भखना  : स० [सं० भक्षण=प्रा० भक्खन] १. भोजन करना। खाना। २. निगलना।
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भखी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की गास जो छप्पर छाने के काम आती है।
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भंग  : पुं० [सं०√भंज्+घञ्] १. टूटने की क्रिया या भाव। २. वि-घटित करने की क्रिया या भाव। ३. ध्वंस। नाश। ४. पराजय। हार। ५. खंड। टुकड़ा। ६. भेद। ७. कुटिलता। टेढ़ापन। ८. बीमारी। रोग। ९. गमन। जाना। १॰. पानी के निकलने का स्थान। सोत। स्रोत। ११. डर। भय। १२. तरंग। लहर। १३. बाधा। विघ्न। १४. लकवा नामक रोग। १५. निश्चय प्रतीति नियम आदि से पढ़नेवाला अन्तर। १६. कर्त्तव्य व्यवस्था आदि का बीच में कुछ समय के लिए रूकना और ठीक तरह से न चल सकना (ब्रीच) जैसे—शांति भंग। स्त्री० [सं० भंगा०] एक पौधा जिसकी पत्तियां नशीली होने के कारण लोग पीसकर पीते हैं। भाँग। पुं० =विभंग।
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भग  : पुं० [सं० भज्+घ्] १. सूर्य। २. बारह आदमियों मे से एक। २. चंद्रमा। ४. धन-सम्पत्ति। ऐश्वर्य। ४. इच्छा। कामना। ६. माहात्म्य ७. प्रत्यन्न। ८. धर्म। मोक्ष। १॰. सौभाग्य। ११. कांति। चमक। १२. पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र। १३. एक देवता। दक्ष के यज्ञ में वीरभद्र ने इनकी आँख फोड़ दी थी। १४. छह प्रकार की विभूतियाँ, सभ्यगैश्वर्य, सम्यज्वीर्य, सम्यग्यश, सम्यकश्रिव और सम्यज्ञान कहते हैं। स्त्री० [सं० भग्न] स्त्रियों की योनि।
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भग-काम  : वि० [सं० भग√कम्+णिङ्+अण्, उप० स,] संयोगसुख का इच्छुक।
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भंग-पद  : पुं० [सं० मध्य० स०] श्लेष कथन के दो भेदों में से एक जिसमें किसी की कही हुई बात के शब्दों के टुकड़े करके और उन्हें आगे या पीछे जोड़कर कुछ और ही मतलब निकाला जाता है।
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भग-भक्षक  : पुं० [सं० ष० त०] स्त्रियों का दलाल। कुटना।
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भंग-रेखा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चित्र-कला में ऐसी रेखा जो बिलकुल सीधी न हो, बल्कि आकर्षक या सुन्दर रूप में किसी ओर कुछ मुड़ी हुई हो। (कर्व)।
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भगई  : स्त्री० [हिं० भगवा] कपड़े का वह लंबा टुकड़ा जिसे पहले कमर में लपेटक फिर लंगोटी की तरह लाँग लगाई जाती है।
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भंगड़  : पुं० [हिं० भांग+अड़ (प्रत्यय)] वह जो नित्य भाँग पीने का अभ्यस्त हो। जिसे भाँग पीने की लत हो।
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भँगड़ा  : पुं० [हिं० भंगेड़ी] बड़े ढोल के ताल पर होनेवाला पंजाबियों का एक प्रकार का लोक नृत्य। विशेष—अभी कुछ दिन पहले तक पंजाब के जाट और सिक्ख खूब भंग पीया करते थे, हो सकता है कि उस भंग की तरंग में खूब नाचने के कारण इसका नाम भँगड़ा पड़ा हो।
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भगण  : पुं० [सं० ष० त०] १. खगोल में ग्रहों का पूरा चक्कर जो ३६॰ अंश का होता है। २. छंदशास्त्र में तीन वर्णों का एक गण जिसका आदि का वर्ण गुरु और अन्त के दोवर्ण लघु होते हैं। जैसे—कारण, पोषण।
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भगत  : वि० [सं० भक्त] [स्त्री० भगतिन] १. भक्ति करनेवाला। भक्त। २. विचारवान्। पुं० १. साधु या संन्यासी। २. वह जो धार्मिक विचार से मांस-मछली आदि न खाता हो। ३. वैष्णव जो तिलक लगाता और मांस आदि न खाता हो। ४. राजपूताने की एक जाति इस जाति की कन्याएँ वेश्यावृत्ति और नाचने-गाने का काम करती है। दे० ‘भगतिया’। ५. होली मे वह स्वांग जो भक्तों आदि का रचा जाता है। इसमें भगतों का उपहास होता है। ६. श्रंगारस प्रधान तथा लोक-कथा पर आश्रित एक प्रकार का संगीत रूपक जो प्राय नौटंकी (देखें) की तरह होता है प्रायः पुरसा भर ऊंचे मंच पर अभिनीत होता है। इसमें प्रायः व्यंग्य और हास्य का भी अच्छा मिश्रण रहता है। ७. वेश्या के साथ बाजा बजानेवाला संगतिया। (राज०) ८. मंत्र-तंत्र से भूत-प्रेत झाड़नेवाला पुरुष। ओझा। सयाना।
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भगत-बाज  : पुं० [हिं० भगत+फा० बाज] १. स्वांग भरकर लौड़ों को अनेक रूप का बनानेवाला पुरुष २. लौड़ों को नाच-गाना सिखानेवाला व्यक्ति।
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भगत-वछल  : वि० दे० ‘भक्त वत्सल’।
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भगतावना  : स०=भुगतना।
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भगति  : स्त्री०=भक्ति।
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भगतिन  : स्त्री० [हिं० भगत] भक्त स्त्री। स्त्री० [हिं० भगतिया का स्त्री०] रंडी। वेश्या।
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भगतिया  : पुं० [हिं० भक्त] [स्त्री० भगतिन] राजपूताने की एक जाति। कहते है कि ये लोग वैष्णव साधुओं की संतान है जो अब गाने-बजाने का काम करते हैं और जिनकी कन्याएं वेश्यावृत्ति करती और भगतिन कहलाती है।
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भगती  : स्त्री०=भक्ति।
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भगदड़  : स्त्री० [हिं० भागना+दौड़ना] संकट की स्थिति में भीड़ का संत्रस्त होकर इधर-उधर भागना। क्रि० प्र०—मचना।
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भगंदर  : पुं० [सं० भाग√दृ (विदारण करना)+णिच्+खश्, मुम्] एक प्रकार का फोड़ा जो गुदावर्त के किनारे होता है। यह नासूर के रूप में होता है और इतना बढ़ जाता है कि इसमें से मल-मूत्र निकलने लगता है। (फिस्च्यूला)।
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भगन  : वि० =भग्न।
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भगनहा  : पुं० [सं० भग्नहा] करेरुआ नामक कंटीली बेल।
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भंगना  : अ० [हिं० भंग] १. भग्न होना। टूटना। २. किसी से दबाना। स० १. भग्न करना। तोड़ना। २. किसी को दबाना या हराना।
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भगना  : अ०=भागना पुं० =भाग्नेय। (भान्जा)।
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भगनी  : स्त्री०=भगिनी। (बहन)।
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भगर  : पुं० [हिं० भगरना] १. सड़ा हुआ अन्न। २. दे० ‘भगल’। पुं० [देश] [स्त्री० भगरी] १. छल। कपट। २. ढोंग। मुहावरा—भगर भरना=ढोंग करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भगरना  : अ० [सं० विकरण, हिं० बिगड़ना] खत्ते में गर्मी पाकर अनाज का सड़ने लगना। संयो० क्रि०—जाना।
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भँगरा  : पुं० [हिं० भाँग+रा=का०] भाँग के पौधों के रेशों से बुना हुआ एक प्रकार का मोटा कपड़ा। पुं० =भँगरैया।
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भंगराज  : पुं० [सं० भंगराज] १. कोयल की तरह की एक प्रकार की चिड़िया जो बहुत सुरीली और मधुर बोली बोलती है। और प्रायः सभी पशु-पक्षियों की बोलियों की नकल करती है।
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भंगरैया  : स्त्री० [सं० भृंगराज] जमीन पर फैलनेवाला एक क्षुप झिसके फूल पीले,सफेद या नीले रंग के होते हैं और बीज काली जीरी की तरह छोटे-छोटे होते हैं।
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भगल  : पुं० [देश०] १. छल। कपट। धोखा। २. आडम्बर। ढोंग। ३. इन्दर्जाल। जादू। ४. किसी नकली चीज को असली बताकर अथवा साधारण चीज को बहुमूल्य बना देने का ढोंग रचकर दूसरों को ठगने की कला या क्रिया। जैसे—ताँबे या पीतल को सोना बनाने का प्रलोभन देकर दूसरों को ठगना (स्विंडलिंग)।
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भगलिया  : पुं० [हिं० भगल] १. ढोंगी। पाखंडी। २. कपटी। छलिय। ३. ऐंन्द्रजालिक। जादूगर। ३. वह जो लोगों का विश्वासभाजन बनकर उन्हें ठगता हो। (स्विन्डलर)
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भगली  : पुं० =भगलिया। स्त्री०=भगल।
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भगवंत  : पुं० [सं० भगवत का बहु० भगवन्त] भगवान।
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भगवती  : स्त्री० [सं० भगवत्+ङीष्] १. देवी। २. गौरी ३. सरस्वती। ४. गंगा। ५. दुर्गा।
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भगवत्  : वि० [सं० भग+मतुप्, वत्व] [स्त्री० भगवती] १. ऐश्वर्यशाली। २. पूज्य। मान्य। पुं० १. भगवान। २. विष्णु। ३. शिव। ४. गौतम बुद्ध। ५. कार्तिकेय। ६. सूर्य। ७. जैनों के जिनदेव।
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भगवदभक्त  : पुं० [सं० भगवत-भकत्, ष० त०] १. भगवान् का भक्त। ईश्वर भक्त। २. विष्णु का भक्त। ३. दक्षिण भारत के वैष्णवों का एक सम्प्रदाय।
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भगवदभक्ति  : स्त्री० [सं० भगवत-विग्रह, ष० त०] भगवान् का भक्ति।
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भगवदीय  : वि० [सं० भगवत+छ-ईय] १. भगवदभक्त। २. भगवत्-संबंधी।
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भगवद्लीला  : स्त्री० [सं० भगवत-लीला, ष० त] ईश्वरीय लीला।
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भगवद्विग्रह  : पुं० [सं० भगवत-विग्रह, ष० त०] भगवान् का विग्रह या मूर्ति।
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भगवा  : पुं० [हिं० भक्त] एक प्रकार का रंग जो गेरू के रंग की तरह का लाल होता है। वि० उक्त प्रकार के रंग के रँगा हुआ। जैसे—भगवे कपड़े, भगवा झंडा।
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भगवान  : वि०=भाग्यवान्।
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भगवान् (वत्)  : वि० [सं० दे० भगवत्] १. ऐश्वर्यशाली। २. पूज्य। मान्य। ३. कुछ क्षेत्रों में पारिभाषिक रूप में ऐश्वर्य, बल यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य से सम्पन्न। पुं० १. ईश्वर। परमेश्वर। २. शिव। ३. विष्णु। ४. गौमतबुद्ध। ५. जिनदेव। ६. कार्तिकेय। ७. कोई पूज्य और आदरणीय व्यक्ति। जैसे—भगवान वेदव्यास।
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भगहर  : स्त्री०=भगदड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भगहा (हन्)  : पुं० [सं० भग√हन् (मारना)+क्विप्] १. शिव। २. विष्णु।
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भंगा  : स्त्री० [सं० भंग+टाप्०] भाँग का पौधा और उसकी पत्तियाँ।
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भगाई  : स्त्री० [हिं० भागना] १. भागने की क्रिया या भाव। २. भगदड़।
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भगांकुर  : पुं० [सं० भग-अंकुर, ष० त०] अर्श रोग। बवासीर।
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भगाड़  : पुं० [?] पोली जमीन के धँसने या बैठ जाने के फलस्वरूप होनेवाला गड्ढा।
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भगाना  : स० [सं० व्रज] १. किसी को भागने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कोई भागे। २. बच्चे स्त्री आदि को उसके अभिभावकों से चोरी उठाकर या फुसलाकर कहीं ले जाना। (ऐब्डक्शन) ३. दूर करना। हटाना। अ०=भागना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भँगार  : पुं० [सं० भंग से] १. वह गड्ढा जो बरसात के दिनों में वर्षा के पानी से भर जाता है। २. वह ग़ड्ढा जो कूआँ बनाते समय पहले खोदा जाता है। पुं० [हिं० भाँग] १. घास-फूस। २. कड़ा-करकट।
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भगाल  : पुं० [सं०√भज् (सेवा कनरा)+कालन्, ज-ग] (मनुष्य की) खोपड़ी।
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भगाली  : वि० [हिं० भागल+इनि] १. भगाल-संबंधी। २. खोपड़ी धारण करनेवाला। पुं० शिव।
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भगास्त्र  : पुं० [सं० भग-अस्त्र, मध्य० स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र।
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भंगि  : स्त्री० [सं०√भंज्+इन्] १. भंग होने की अवस्था या भाव। विच्छेद। २. कुटिलता। टेढ़ापन। ३. शरीर के अंगों की ऐसी विशिष्ट मुद्रा या संचालन जो किसी प्रकार के मनोभाव का सूचक हो। ४. तरगं। लहर। ५. भाँग। ६. ब्याज। ७. प्रतिकृति।
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भगिना  : पुं० =भाग्नेय (भान्जा)।
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भगिनिका  : स्त्री० [सं० भगिनी+कन्+टाप्, इत्व] छोटी बहन।
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भगिनी  : स्त्री० [सं० भग+इनि+ङीष्] १. बहन। २. भाग्यवती। स्त्री।
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भगिनी-पति  : पुं० [सं० ष० त०] बहनोई।
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भगिनीय  : पुं० [सं० भगिनी+छ-ईय] बहन का लड़का। भगिनेय। भांजा।
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भंगिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० भंग+इमनिच्] १. वह कलापूर्ण शारीरिक मुद्रा, जिससे कोई विशिष्ट मनोभाव प्रकट होता है। २. वक्रता। कुटिलता।
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भंगियाना  : अ० [हिं० भाँग] भाँग के नशे में चूर होना। स० भाँग पिलाकर नशे में चूर करना।
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भंगी (गिन्)  : वि० [सं० भंग+इनि] [स्त्री० भंगिनी] १. भंगशील। नष्ट होनेवाला। २. भंग करने या तोड़नेवाला। स्त्री० [सं० भंग+ङीष्] १. रेखाओं के झुकाव से खींचा हुआ चित्र। या बेल-बूटे। २. मनोभाव प्रकट करनेवाली शारीरिक मुद्रा या अंग-संचालन भंगी। वि० [हिं० भाँग] भाँग पीनेवाला। भँगेड़ी। पुं० [?] [स्त्री० भंगिन] झाड़ू देने तथा मैला उठानेवाला व्यक्ति।
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भगीरथ  : पुं० [सं० भ-गीर, द्व० स०, भगीर-रथ, ब० स०] अयोध्या के एक सूर्यवंशी राजा जो राजा सागर के पर-पोते थे तथा जिन्होने तपस्या करके स्वर्ग से गंगा नदी की अवतारना कराई थी। वि० [सं०] भागीरथ की तपस्या के समान बहुत बड़ा, भारी या विशाल। जैसे—भागीरथ प्रयत्न।
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भगीरथ-सुता  : स्त्री० [सं० ष० त०] गंगा।
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भंगुर  : वि० [सं√भंज्+घुरच्] १. भंग होने अर्थात् टूट-फूटकर या विघटित होकर नष्ट होनेवाला। नाशवान्। जैसे—क्षणभंगुर। २. टेढा। वक्र। उदाहरण—उरज भार भंगुर जाति गति जाकी।—नन्ददास। ३. छली। धूर्त। पुं० नदी का मोड़ा या घुमाव।
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भंगुरा  : वि० [सं० भंगुर+टाप्] १. अतिविषा। अतीस। २. प्रियंगू।
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भगेड़  : वि० =भगेलू।
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भँगेड़ी  : पुं० [हिं० भाँग+एड़ी (प्रत्यय)] वह जिसे भाँग पीने की लत हो। प्रायः बहुत भाँग पीनेवाला। भंगड़।
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भँगेरा  : पुं० =भँगेरा। (भँगरैया)।
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भँगेला  : पुं० =भँगरा।
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भगेलू  : वि० [हिं० भागना+एलू (प्रत्यय)] १. जो कहीं से छिपकर भागा हो। भागा हुआ। २. जो काम करने पर भाग जाता हो। कायर।
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भगोड़ा  : पुं० [हिं० भागना+ओड़ा (प्रत्य)] १. वह जो कहीं से छिप या डरकर भाग गया हो। २. वह जो दण्ड भोगने के भय से कहीं भाग गया हो। (ऐब्सकांडर)। ३. कायर या डरपोक व्यक्ति।
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भगोल  : पुं [सं० ष० त०] नक्षत्र चक्र। खगोल।
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भगौता  : पुं०=भागवत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भगौती  : स्त्री०=भगवती।
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भगौहाँ  : वि० [हिं० भागना+औहाँ (प्रत्यय)] १. जिसमें भागने की प्रवृत्ति हो। २. कायर। डरपोक। वि० =भगवा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भग्गा  : वि० [हिं० भागना] (पशु या पक्षी) जो प्रतिद्वंन्द्वी से डरकर या पराजित होकर भाग गया हो।
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भग्गी  : स्त्री०=भगदड़
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भग्गुल  : पुं० =भगोड़ा।
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भग्गू  : वि० [हिं० भागना+ऊ (प्रत्यय)] १. जो विपत्ति देखकर भागता हो। भागनेवाला। २. कायर। डरपोक।
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भग्न  : वि० [सं०√भज् (टूटना)+क्त] १. टूटा हुआ। खंडित। २. हारा हुआ। पराजित। पुं० दे० ‘विभंग’।
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भग्न-दूत  : पुं० [सं० कर्म० स०] प्राचीन भारत में रणक्षेत्र से हारकर बागी हुई सेना जो राजा के पराजय को समाचार देने आती थी।
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भग्न-पाद  : पुं० [सं० ब० स०] फलित ज्योतिष में पुनर्वस,उत्तराषाढ़ कृतिका, उत्तरा फाल्गुनी, पूर्वभाद्रपद और विशाखा ये छह नक्षत्र जिनमें से किसी एक मनुष्य के मरने से प्रिपाद दोष लगता है और धर्मशास्त्र के अनुसार जिसकी सान्ति करना आवश्यक होता है।
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भग्न-मना (नस्)  : वि० [सं० ब० स०] जिसका मान टूट गया हो। हतोत्साह।
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भग्न-मान  : वि० [सं० ब० स०] जिसका मान नष्ट हो चुका हो। तिरस्कृत।
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भग्नात्मा (त्मन्)  : पुं० [भगन्-आत्मन्, ब० स] चन्द्रमा।
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भग्नावशेष  : पुं० [सं० भग्न-अवेशष, ष० त०] १. किसी टूटी-फूटी चीज के बचे हुए टुकड़े। २. किसी टूटे-फूटे मकान या उजड़ी हुई बस्ती का बचा हुआ अंश। खँडहर।
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भग्नांश  : पुं० [सं० भग्न-अंश० कर्म० स०] मूल द्रव्य का कोई अलग किया हुआ भाग का अंश।
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भंग्य  : वि० [सं०√भंज्+ण्यत्] जो भंग किया जा सके या भंग किया जाने को हो। पुं० भाँग का खेत।
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भचक  : स्त्री० [हिं० भचकना] भचकने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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भचकना  : अ० [हिं० भौंचक] आश्चर्य से निमग्न होकर रह जाना। [अनु० भच] चलने के समय पैर का कुछ रूककर उठना या टेढ़ा पड़ना कि देखने में लंगड़ाता हुआ-सा जान पड़े।
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भच्छ  : पुं० =भक्ष्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भच्छक  : वि० =भक्षक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भच्छन  : पुं० =भक्षण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भच्छना  : स० [सं० भक्षण] भक्षण करना।। खाना।
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भंजक  : वि० [सं०√भंज्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० भंजिका] भंग करने या तोड़ने-फोड़नेवाला।
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भंजन  : पुं० [सं०√भंज्+ल्युट्—अन०] १. भंग करना। २. तोड़ना-फोड़ना। ३. ध्वंस। नाश। ४. आक। मदार। ५. भाँग। ६. व्रण की वह पीड़ा जो वायु के प्रकोप में कारण होती है। वि० =भंजक (समस्त पदों के अंत में) जैसे—भव-भय भंजन)।
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भजन  : पुं० [सं०√भज् (सेवा करना)+ल्यु-अन] १. खण्ड, टुकड़े या भाग करना। २. श्रद्धापूर्वक ईश्वर और उसकी लीलाओं का गुणगान और स्मरण करना। ३. वह गेय पद जिसमें ईश्वर और उसकी लीलाओं का गुण-कथन हो।
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भंजनक  : अ० [सं०√भंज्+ल्युट्+अन+कन्] एक तरह का रोग जिसमें दाँत टूट जाते हैं और मुँह कुछ टेढ़ा हो जाता है।
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भँजना  : अ० [सं० भंजन] १. मग्न होना। टुकड़े-टुकड़े होना। २. भाँजा या मोड़ा जाना। ३. तहों या परतों के रूप में मोड़ा जाना। जैसे—कागज भंजना। ४. इधर-उधर घुमाना या चलाया जाना। जैसे—तलवार पाटा या लाठी भँजना। ५. बड़े सिक्के का छोटे सिक्कों मे परिवर्तन होना। भूनना। जैसे—रुपया भँजना। स०=भाँजना।
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भंजना  : अ० [सं० भंजन] पात्र आदि का टूट-फूट जाना। स० तोड़ना-फोड़ना। स०=भाँजना। अ०=भागना। स०=भगाना।
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भजना  : स० [सं० भजन] १. किसी की सेवा सुश्रूषा करना। २. किसी का आश्रय लेना या आश्रित होना। ३. कहीं जाकर पहुँचना। ४. ईश्वर और उसकी लीलाओं का श्रद्धापूर्वक कथन और स्मरण करना। ५. बार बार किसी का नाम लेते हुए जप करना। जैसे—राम भजो, सुख पाओगे। ६. भोगना। ७. धारण या वहन करना। उदाहरण—भजत भार भयभीत है घुन चन्दनु बन माल।—बिहारी। [सं० वर्जन पा० वजन] १. भागना। उदाहरण—नर कौ भज्यौ नाम सुनि मेरो, पीठ दर्द जमराज। सूर। २. प्राप्त होना। पहुँचना।
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भजनानंदी (दिन्)  : पुं० [सं० भजनानंद+दीर्घ] १. वह जिसे ईश्वर भजन मे ही आनन्द मिलता हो। २. वह जिसकी जीविका आदि करने से चलती हो।
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भजनानन्द  : पुं० [सं० भजन-आनन्द, मध्य० स०] वह आनंद जो परमेश्वर या देवता के नाम का भजन करने पर मिलता हो।
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भँजनी  : पुं० [हिं० भाँजना] करघे की वह लकड़ी जो ताने को विस्तृत करने के लिए उसके किनारों पर लगाई जाती है। भँसरा।
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भजनी  : पुं० [हिं० भजन] १. वह जो प्रायः ईश्वर-भजन करता हो। २. दे० ‘भजनीक’।
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भजनीक  : पुं० [हिं० भजनी] १. भजन गाने और उनके द्वारा लोगों का मनोरंजन करनेवाला। २. जिसका पेशा भजन गाकर लोगों को उपदेश देना तथा मनोविनोद करना हो।
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भजनीय  : वि० [सं०√भज+अनीयर] १. जिसे भजना उचित हो अर्थात् जिसे भजना चाहिए। २. जिसका आश्रय लिया जा सकता हो या लिया जाना उचित हो।
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भजनोपदेशक  : पुं० [सं० भजन-उपदेशक, सुप्सुपा, स०] भजन के द्वारा या माध्यम से उपदेश देनेवाला व्यक्ति।
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भंजा  : स्त्री० [सं० भंज्+अच्—टाप्] अन्नपूर्णा।
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भंजाई  : स्त्री० [हिं० भाँजना] १. बाँजने की अवस्था, क्रिया, ढंग या भाव २. कोरे या छपे हुए कागज को परतों में मोड़ने की क्रिया भाव या मजदूरी। स्त्री० दे० ‘भुनाई’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भँजाना  : स० [हिं० भँजना का स०] १. किसी को कुछ भाँजने में प्रवृत्त करना। २. भाँजने का काम किसी से कराना। भँजवाना। (दे० ‘भाँजना और भँजना’)। अ०=भँजना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भजाना  : स० [हिं० भजना का प्रे० रूप] भजने या भजन करने में प्रवृत्त करना। अ०=भजना (भागना)। स० १. भगाना। २. परे करना या हटाना। उदाहरण—कीर पिंजरै गहत अंगुरी ललन लेत भजाई।—सूर।
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भजार  : वि० [हिं० भजना] मित्र। दोस्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भजियाउर  : पुं० [हिं० भाजी+चावर (चावल)] १. चावल दही, घी आदि एक साथ पकाकर बनाया हुआ नमकीन खाद्य पदार्थ। २. दही, साग-भाजी, आदि मिलाकर पकाये जानेवाले चावल।
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भट  : पुं० [सं०√भट (बोलना)+अच्] १. युद्ध करने या लड़नेवाला। योद्धा। २. पहलवान। मल्ल। ३. सिपाही। सैनिक। ४. प्राचीन काल की एक वर्णसंकर जाति। ५. दास। पुं० १. भटनास। २. =भट्ट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भट  : पुं० =भट्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भट-कटैया  : स्त्री० [सं० कंटकारी, हिं० कटेरी, या कटाई] एक प्रकार का कँटीला छोटा क्षुप जो बहुधा औषध के काम में आता है।
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भट-तीतर  : पुं० [हिं० भट=बड़ा+तीतर] प्रायः एक फुट लंबा एक प्रकार का पक्षी जो जाड़े में उत्तरपश्चिम भारत में पाया जाता है। प्रायः इसके मांस के लिए इसका विस्तार शिकार किया जाता है।
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भटई  : स्त्री० [हिं० भाट] १. भाट होने की अवस्था या भाव। २. भाट का काम या पेशा। भाटों कीसी खुशामद या चापलूसी अथवा झूठी तारीफ।
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भटक  : स्त्री० [हिं० भटकना] भटकने की क्रिया दशा या भाव।
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भँटकटैया  : स्त्री०=भटकटैया।
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भटकन  : स्त्री० [हिं० भटकना] भटकने की क्रिया या भाव। भटक।
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भटकना  : अ० [सं० भ्रम] १. व्यर्थ इधर-उधर घूमते-फिरते रहना। २. ठीक रास्ता भूल जाने पर इधर-उधर घूम-फिरकर उसे ढूँढ़ते फिरना। ३. धोखे या भ्रम में पड़कर निश्चित तत्त्व तक न पहुंचना। ४. मन या विचार का शान्त न रहकर इधर-उधर जाते फिरना।
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भटका  : पुं० [हिं० भटकना] १. व्यर्थ घूमने की क्रिया। २. चक्कर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भटकाई  : स्त्री०=भट-कटैया।
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भटकान  : स्त्री०=भटकन।
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भटकाना  : स० [हिं० भटकना का स०रूप] किसी को भटकने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम या बात करना जिससे कोई भटके।
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भटकैया  : पुं० [हिं० बटकना+ऐया (प्रत्यय)] १. भटकनेवाला। २. भटकानेवाला। स्त्री०=भट-कटैया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भटकौहाँ  : वि० [हिं० भटकना+औहाँ (प्रत्यय)] १. भटकता रहनेवाला। २. भटकानेवाला। भुलावे में डालनेवाला।
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भटना  : अ० [?] गड्ढे आदि का पाटा या भरा जाना। पटना। उदाहरण—बहु कुंडशोनित सों भटे, पितु तर्पणादि क्रिया सची।—केशव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भटनास  : स्त्री० [देश] १. एक लता और उसकी फलियाँ। २. उक्त फलियों के बीज जो डाल की तरह राँध कर खाये जाते हैं। भटवाँस।
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भटनेर  : पुं० [सं० भटनगर] सिंधु नद पर स्थित एक प्राचीन राज्य।
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भटनेरा  : पुं० [सं० भट+नगरा] १. भटनेर नगर का निवासी। २. वैश्यों की एक जाति। वि० भटनेर नगर या उससे संबंध रखनेवाला।
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भटभटी  : स्त्री० [अनु०] ऐसी अवस्था जिसमें आँखों में चकाचौंध होने के कारण कुछ दिखाई न पड़े। उदाहरण—बात अटपटी बढ़ी, चाह चटपटी रहे, भटभटी लागै जौ पै बीच बहनी बसै।—घनानन्द।
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भटभेरा  : पुं० [हिं० भट+भिड़ना] १. दो वीरों का सामना। मुकाबला। भिंडत। २. टक्कर ठोकर या धक्का। ३. अनायास हो जानेवाली भेंट या सामना। उदाहरण—गली अँधेरी साँकरी माँ भटभेरा आनि।—बिहारी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भटवाँस  : पुं० =भटनास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भंटा  : पुं० =बैंगन।
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भटा  : पुं० =भंटा (बैगन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भंटाकी  : स्त्री० [सं०√भण् (शब्द)+टाकन्+ङीष्] भंटा। बैंगन।
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भटियार  : पुं० [?] संगीत में एक प्रकार का राग।
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भटियारपन  : पुं० [हिं० भठियारा+पन (प्रत्यय)] १. भठियारे का काम। २. भठियारों की तरह की लड़ाई या अश्लील आचरण या व्यवहार।
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भटियारा  : पुं० =भठियारा।
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भटियारी  : स्त्री० [?] संपूर्ण जाति की एक संकर रागिनी जिसमें ऋषभ कोमल लगता है।
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भटियाल  : पुं० =भटियाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भटुआ  : पुं० [?] वह सूखी हल्की भूमि जिसमें केवल जाड़े की फसल होती है।
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भटू  : स्त्री० [सं० भट का स्थानिक स्त्री] १. स्त्रियों के संबोधन के लिए एक आदर-सूचक शब्द। २. सखी। सहेली।
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भटेरा  : पुं० [देश] वैश्यों की एक जाति।
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भटेस  : पुं० [?] एक प्रकार का पौधा।
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भटै  : स्त्री०=भटई।
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भटैया  : स्त्री०=भटकटैया।
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भटोट  : पुं० [देश] मध्य-युग में यात्रियों के गले में फाँस लगानेवाला ठग। (ठगों की परिभाषा)।
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भटोला  : वि० [हिं० भाट+ओला (प्रत्यय)] १. भाट का। भाट-संबंधी। २. भाटों के लिए उपयुक्त। पुं० वह भूमि जो भाटों को निर्वाह के लिए पुरस्कार रूप में मिली हो।
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भट्ट  : पुं० [सं०√भट्+तल्] १. ब्राह्मणों की एक उपाधि जिसके धारण करनेवाले दक्षिण भारत, मालव आदि कई प्रांतों में पाये जाते हैं। २. विशिष्ट रूप से महाराष्ट्र ब्राह्मणों की उपाधि। ३. दे० ‘भट’। ४. दे० ‘भाट’।
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भट्टाचार्य  : पुं० [सं० भट्ट-आचार्य, द्व० स०+अच्] १. दर्शनशास्त्र का पंडित। २. सम्मानित अध्यापक (पदवी रूप में प्रयुक्त) ३. बंगाली ब्राह्मणों की एक जाति या वर्ग।
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भट्टार  : पुं० [सं० भट्ट√ऋ+अण्, वृद्धि] (पदवी रूप में प्रयुक्त)।
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भट्टारक  : वि० [सं० भट्टार+कन्] [स्त्री० भट्टारिका] पूज्य। माननीय। पुं० १. राजा। २. मुनि ३. पंडित। ४. सूर्य। ५. देवता।
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भट्टिनी  : स्त्री० [सं० भट्ट+इनि+ङीष्] नाटक की भाषा में राजा की वह पत्नी जिसका अभिषेक न हुआ हो। स्त्री० हिं० भट्ट का स्त्री।
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भट्टी  : स्त्री०=भट्ठी।
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भट्ठा  : पुं० [सं० भ्रष्ट, प्रा० भट्ठ] [स्त्री० अल्पा० भट्ठी] वह स्थान जहाँ कूड़ा०कोयला आदि जलाकर ईटें पकाई जाती है। आँवाँ।
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भट्ठी  : स्त्री० [सं० भ्रष्ट, प्रा० भट्ठ] १. वह घिरा हुआ आधान या स्थान जिसमें धातु आदि गलाने अथवा कुछ विशिष्ट प्रकार की चीजें सेकने के लिए आग जलाई जाती है अथवा ताप उत्पन्न किया जाता है। मुहावरा—भट्ठी दहकना= (क) किसी का कारोबार जोरों पर होना। बहुत आय होना। (ख) किसी काम या बात की बहुत अधिकता या जोर होना। २. वह स्थान जहाँ देशी शराब बनती हो।
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भठियाना  : अ० [हिं० भाटा+इयाना (प्रत्य)] समुद्र में भाटा आना। समुद्र के पानी का नीचे उतरना।
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भठियार  : पुं० =भटियार (राग)।
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भठियारखाना  : पुं० [हिं० भटियारा+फा० खाना] १. भठियारों के रहने का स्थान। २. वह जगह जहाँ बहुत शोरगुल होता हो। ३. कमी ने तथा असभ्य लोगों की बैठक।
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भठियारा  : पुं० [हिं० भट्ठा+इयार (प्रत्यय)] [स्त्री० भठियारन, भठियारिन, भठियारी] सराय का मालिक या प्रबंधक जो यात्रियों के टिकने तथा खाने पीने आदि की व्यवस्था करता था।
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भठियारी  : स्त्री०१. भठियारा का स्त्री। २. भठियारपन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भठियाल  : पुं० [हिं० भाटा] समुद्र के पानी का नीचे उतरना। भाटा।
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भठिहारा  : पुं० [स्त्री० भठिहारिन]=भठियारा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भंठी  : स्त्री० [?] १. बाधा। विघ्न। २. अड़चन। (राज०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भठुली  : स्त्री० [हिं० भट्ठी+उली (प्रत्यय)] ठठेरों की मिट्टी की बनी हुई छोटी भट्ठी जिसमें गढ़ने से पहले चीजें तपाते या लाल करते हैं।
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भंड  : पुं० [सं०√भंड् (प्रतारण)+अच्] वि० १. अश्लील या गंदी बातें बकनेवाला। २. किसी बात को स्थान-स्थान पर कहते-फिरनेवाला। ३. धूर्त। ४. पाखंडी। जैसे—भंड तपस्वी। पुं=भाँड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भड़  : पुं० [अनु०] भड़ शब्द जो प्रायः किसी चीज के गिरने से होता है। पुं० =भट (योद्धा)।
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भँड़-ताल  : पुं० [हिं० भाँड़+ताल] एक प्रकार का गाना और नाच जिसमें गानेवाला गाता है और शेष समाजी उसके पीछे तालियाँ बजाते हैं। भँड़-तिल्ला।
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भँड़-तिल्ला  : पुं० [हिं० भाँड़+तिल्ला] १. भँड़-ताल। २. आंडबर पूर्ण काम।
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भँड़-फोड़  : पुं० [हिं० भाँड़ा+फोड़ना] १. मिट्टी के बर्तन तोड़ना-फोड़ना। २. दे० ‘भंडा-फोड़’। वि० १. मिट्टी के बरतन तोड़-फोड़कर नष्ट करना। २. किसी का भंडा-फोड़ या रहस्योद्घाटन करना।
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भड़आई  : स्त्री०=भड़आपन।
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भंडक  : पुं० [सं० भंड+कन्] खिँडरिच पक्षी।
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भड़क  : स्त्री० [अनु०] भड़कने की अवस्था या भाव। स्त्री० [?] तीव्र चमक-दमक।
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भड़कना  : अ० [अनु० भड़क+ना (प्रत्यय)] १. कोयले, गोहरे आदि का आग से स्पर्श होने पर सहसा जोरो से जल उठना। २. किसी प्रकार के मनोभाव का सहसा तीव्र या प्रबल होना। जैसे—क्रोध भड़कना। ३. पशुओं का भयभीत होकर या सहमकर अपनी सामान्य गति या स्तान छोड़कर उछलने-कूदने या इधर-उधर भागने लगना। ४. व्यक्ति का प्रायः दूसरों की बातों में आकर आवेश या क्रोध से युक्त होना और कुछ का कुछ करने लगना। ५. किसी के पास या समीप जाने में हिचकना और सशंकित रहकर उससे दूर या परे रहना। जैसे—मुझे देखकर वह भड़कता है।
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भड़कवदार  : वि० [हिं० भड़क+फा० दार] भड़कीला।
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भड़काना  : स० [हिं० भड़कना का स० रूप] १. अग्नि प्रज्वलित करना। ज्वाला बढ़ाना। २. उत्तेजित या क्रुद्ध करना। ३. तीव्र या प्रबल करना। ४. ऐसा काम करना जिससे कोई या कुछ भड़के। ५. किसी को इस प्रकार भ्रम में डालना या भयभीत करना कि वह कोई काम करने के लिए तैयार न हो। जैसे—किसी का ग्राहक भड़काना। संयो० क्रि०—देना।
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भड़कीला  : वि० [हिं० भड़क+ईला (प्रत्यय)] [भाव० भड़कीलापन] जिसमें खूब चमक-दमक हो। भड़कदार। वि० [हिं० भडकना] जल्दी भड़कनेवाला।
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भड़कीलापन  : पुं० [हिं० भड़कीला+पन (प्रत्यय)] १. भड़कीले होने की अवस्था या भाव। २. चमक-दमक।
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भड़कैल  : वि० [हिं० भड़कना] जल्दी, चौंकने बिदकने या भड़कनेवाला।
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भडंग  : पुं० [अनु०] [भाव० भंडगी] १. दिखाने की झूठी बात। आंडबर। उदाहरण—धरि शखौ ज्ञान गुन गौरव गुमान गोइ गोपनि कौ आवतन भावत भडंग है।—रत्नाकर। २. भाँडपन।
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भडंगी  : स्त्री०=भडंक वि० दिखावा करनेवाला। आंडबर रचनेवाला।
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भंडन  : पुं० [सं०√भंड् (बिगाड़ना)+ल्युट-अन] १. हानि। क्षति। २. कवच।
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भंडना  : स० [सं० भंडन] १. क्षति या हानि पहुँचाना। २. खराब करना। बिगाड़ना। ३. तोड़ना-फोड़ना। ४. किसी को चारों ओर बदनाम करते फिरते रहना।
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भडंबा  : पुं० [सं० विडंबा] १. दिखावटी ठाठ-बाट। आंडबर। २. व्यर्थ का बहुत बड़ा जंजाल या बखेड़ा।
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भड़भड़  : स्त्री० [अनु] १. भड़भड़ शब्द जो प्रायः एक चीज पर दूसरी चीज जोर-जोर से पटकने अथवा बड़े-बड़े ढोल आदि बजाने से उत्पन्न होता है। आघातों का शब्द। २. व्यर्थ की बातें और हो-हल्ला। ३. दे० ‘भीड़-भाड़’।
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भड़भड़ाना  : स० [अनु०] भड़-भड़ शब्द उत्पन्न करना। अ० किसी चीज में से भड़-भड़ शब्द उत्पन्न होना।
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भड़भड़िया  : वि० [हिं० भड़-भड़+इया (प्रत्यय)] १. भड भड़ अर्थात् व्यर्थ बहुत अधिक बातें करनेवाला। २. मन में छिपाकर बात न रख सकनेवाला। भेद की बातें दूसरों पर प्रकट कर देनेवाला। ३. जो डींग तो बहुत हाँकता हो पर काम कुछ भी न करता हो।
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भँड़भाँड़  : पुं० [सं० भांडीर] एक प्रकार का कटीला क्षुप जिसकी पत्तियां नुकीली लम्बी और कँटीली होता है। इसके पौधे से पीले रंग का दूध निकलता है जो घाव और चोट पर लगाया जाता है।
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भड़भाँड़  : पुं० [सं० भांड़ार] एक कँटीला पौदा जिसके बीजों का तैल जहरीला होता है। सत्यानासी। मोय।
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भड़भूँजा  : पुं० [हिं० भाड़+भूँजना] हिन्दुओं में एक जाति जो भाड़ में अन्न भूनने का काम करती है। भुजवा। भुरजी।
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भँडरिया  : स्त्री० [हिं० भंडारा+इया (प्रत्यय)] दीवारों में बनी हुई खानेदार तथा पल्लोंवाली छोटी अलमारी। वि० [हिं० भड्डरि] १. ढोंगी। पाखंडी। २. चालाक धूर्त। पुं० =भड्डर।
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भड़री  : स्त्री० [देश०] १. अनाज की मँड़ाई हो जाने पर भी पौधों में बचा हुआ अन्न। गँठा।
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भड़वा  : पुं० =भड़ुआ।
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भड़वाई  : स्त्री०=भड़आई।
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भड़साई  : स्त्री० [हिं० भाड़] भड़भूँजे का भाड़ या भट्ठी जिसमें वह अनाज के दाने भूनता है। मुहावरा—भड़साई दहकना या धिकना=किसी काम या बात की बहुत उन्नति या प्रबलता होना। (व्यंग्य)।
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भड़सार  : स्त्री० [हिं० भाड़+शाला] वह भँडरिया जिसमें पकाया हुआ भोजन रखा जाता है।
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भँड़साल  : स्त्री० [हिं० भाँड+सं० शाला] अन्न इकट्ठा करके रखने का स्थान। खत्ती। खत्ता।
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भड़हर  : स्त्री०=भँडेहर।
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भंडा  : पुं० [सं० भाँड़] १. पात्र। बरतन। २. भंडार। ३. भेद। रहस्य। मुहावरा— (किसी का) भंडा फूटना=रहस्य विशेषतः कुचक्र का पता लोगों को लगना। भेद प्रकट होना। भंडा फोड़ना=गुप्त रहस्य खोलना। सब पर भेद प्रकट करना। ४. वह लकड़ी या बल्ला जिसका सहारा लगाकर मोटे और बारी बल्लों को उठाते या खिसकाते हैं।
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भंडा-फोड़  : वि० [हि० भाँड़ा+फोड़ना] दूसरों का रहस्य विशेषतः कुचक्र लोगों पर प्रकट करनेवाला। पुं० किसी के गुप्त रहस्यों या कुचक्रों का सब पर किया जानेवाला उद्घाटन।
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भँड़ाना  : स० [हिं० भाँड] १. उछल-कूद मचाना। उपद्रव करना। २. तोड़ना-फोड़ना। स० [हिं० भंडना का प्रे०] भंडने का काम किसी से कराना।
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भंडार  : पुं० [सं० भांडार] १. कोष। खजाना। २. किसी चीज या बात का बहुत बड़ा आधान या आश्रय स्थान। जैसे—विद्या का भंडार। ३. अनाज रखने का कोठा। खत्ता। खत्ती। ४. वह कमरा या कोठरी जिसमें भोजन बनाने के लिए अन्न् बरतन आदि रखे जाते हैं। ५. उदर। पेट। ६. खोपड़ी। ७. नदी का तल। तलहटी। ८. किसी राजा या जमींदार की वह भूमि या गाँव जिसमें वह स्वंय खेती करता है। ९. दे० ‘भंडारा’।
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भड़ार  : पुं० =भंडार।
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भंडारा  : पुं० [हिं० भंडार] १. साधु-सन्यासियों आदि का भोज। वह भोज जिसमें संन्यासियों और साधुओ को खिलाया जाता है। क्रि० प्र०—करना।—देना। २. उदर। पेट। ३. खोपड़ी। ४. जीव-जन्तुओं का झुंड या समूह। क्रि० प्र०-जुड़ना ५. दे० ‘भंडार’।
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भंडारी  : पुं० [हिं० भंडार+ई (प्रत्यय)] १. भंडार का प्रधान अध्यक्ष या व्यवस्थापक। भंडार का प्रबंधक। २. रसोइया। ३. खजांची। ४. तोपखाने का दरोगा। स्त्री० [हिं० भंडार+ई प्रत्यय)] १. कोश। खजाना। २. छोटी कोठरी। स्त्री०=१. भँडरिया। २. भंडार।
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भड़ाल  : पुं० [सं० भट] योद्धा। वीर।
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भड़ास  : स्त्री० [हिं० भड़ से अनु०] १. वह गरमी जो तपी हुई जमीन पर पानी गिरने या छिड़कने से उत्पन्न होती है। २. आवेश में आकर तथा कड़े शब्दों में किसी पर प्रकट किया जानेवाला मानसिक असंतोष। क्रि० प्र०—निकालना।
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भड़िक  : अव्य० [अनु०] १. अचनाक। सहसा। २. चट-पट। तुरन्त। ३. बिना सोचे-समझे और एकदम से।
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भंडिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० भंड+इमनिच्] छल। धोखा।
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भँड़ियाई  : स्त्री० [हिं० भाँड़] भाँड़ों या विदूषकों का-सा आचरण या व्यवहार। अव्य० [हिं० भँड़िहा] चोरी से। छिपे-छिपे।
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भंडिर  : पुं० [सं०√भंड्+इलच्, र—ल] सिरस का वृक्ष। शिरीष।
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भंडिल  : पुं० [सं० भंड+इलच्] १. सिरस का पेड़। २. दूत। ३. कारीगर। शिल्पी। वि० १. अच्छा। उत्तम। २. मांगलिक। शुभ। वि० १. अच्छा। उत्तम। २. मांगलिक। शुभ।
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भँड़िहा  : पुं० [सं० भांड़+हर] चोर।
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भड़िहा  : पुं० [सं० भांडहर] [भाव० भड़िहाई] चोर। तस्कर। (बुदेल।)
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भड़िहाई  : क्रि० वि० [हिं० भड़िहा] चोरों की तरह। लुक-छिप या दबकर। स्त्री०=चोरी।
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भंडी  : स्त्री० [सं० भंड+इनि] १. मंजीठ। २. सिरिस का पेड़।
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भड़ी  : स्त्री० [हिं० भड़काना] भड़काने की क्रिया या भाव। विशेषतः किसी को मूर्ख बनाने अथवा किसी का अहित चाहने के उद्देश्य से उसे कोई गलत काम करने के लिए दिया जानेवाला बढ़ावा। क्रि० प्र०—देना।—में आना।
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भंडीर  : पुं० [सं० भंड+ईरन्] १. चौलाई का साग। २. बड़ का पेड। वट। २. भंड़-भाँड़। ४. सिरस।
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भड़ुआ  : पुं० [हिं० भाँड़] १. वेश्याओं के साथ तबला या सारंगी बजानेवाला। सरपदाई। २. वेश्याओं का दलाल।
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भड़ुआपन  : पुं० [हिं० भड़ुआ+पन (प्रत्यय)] भड़ुआ होने की अवस्था काम या भाव।
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भंडूक  : पुं० [सं०√भंड्+ऊक] १. भाकुर नामक मछली। श्योनाक। सोना-पाढ़ा।
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भँडेर  : पुं० [देश] एक वृक्ष जिसकी छाल चमड़ा रँगने के काम में आती है। स्त्री०=भँड़ेहर।
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भँडेरिया  : पुं० =भंडडर। स्त्री०=भँडरिया।
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भडे़रिया  : पुं० =भड्डर।
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भंडेरियापन  : पुं० [हिं० भँडेरिया+पन (प्रत्यय)] १. ढोंग। मक्कारी। २. चालाकी। धूर्तता।
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भँडेहर  : स्त्री० [हिं० भाँड़ा] १. मिट्टी के छोटे-छोटे बरतन। २. घड़े के आकार-प्रकार के मिट्टी के छोटे-छोटे पात्रों का एक पर एक रखा हुआ थाक। ३. लाक्षणिक अर्थ मे, बहुत अलंकृत तथा सजाई हुई ऐसी वस्तु जो देखने में भद्दी लगती हो।
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भँडेहरी  : स्त्री० [हिं० भाँड़+हरी (प्रत्यय)] १. भाँड़ों का काम। २. भाँड़पन। वि० भाँड़ों का-सा।
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भड़ैत  : पुं० [हिं० भाड़ा] [भाव० भड़ैती] १. वह जिसने किसी की दुकान या मकान भाड़े या किराये पर लिया हो। किरायेदार। २. भाड़े पर दूसरों का काम करनेवाला व्यक्ति।
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भँड़ैती  : स्त्री० [हिं० भाँड़] १. भाँड़ों का काम या पेशा। २. भाँडों की सी ओछी बातें या हास-परिहास।
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भड़ोलना  : स० [देश] रहस्य प्रकट कर देना। गुप्त बात खोल देना। भेद बताना। जैसे—तेरी सब बातें भड़ोलकर रख दूँगी। (स्त्रियाँ)
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भँडौआ  : पुं० [हिं० भाँड़] १. भाँड़ों के गाने का गीत। २. व्यंग्य और हास्य से युक्त ऐसी कविता या गीत जो कहे या गाये जाने के योग्य न हो।
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भड्डर  : पुं० [सं० भद्र] ब्राह्मणों मे निम्न श्रेणी की एक जाति। इस जाति के लोग फलिक ज्योतिष या सामुद्रिक आदि की सहायता से लोगों का भविष्य बताकर अपनी जीविका चलता है।
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भण  : पुं० [?] ताड़ का वृक्ष। (डिं०)
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भणन  : पुं० [सं०√भण् (बोलना)+ल्युट-अन] १. कथन। २. वार्तालाप।
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भणना  : अ० [सं० भणन] कहना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भणित  : भू० कृ० [सं०√भण् (करना)+क्त्] जो कहागया हो। कहाहुआ। स्त्री० कही हुई बात। उक्ति।
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भणिता  : स्त्री० [सं० भणित] कविता में होनेवाला कवि का उपनाम। छाप।
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भणिता (तृ)  : पुं० [सं०√भण् (कहना)+तृच्] बोलनेवाला। वक्ता।
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भणिति  : स्त्री० [सं०√भण् (कहना)+क्तिन्] १. किसी की कही हुई बात। २. उक्ति० कथन। ३. कहावत। लोकोक्ति। ४. वाणी। उदाहरण—ललित भणिति का किया प्रीतिवश चपल अनुकरण।—पन्त।
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भतरौड़  : पुं० [हिं० भात+रौड़] १. मथुरा और वृन्दावन के बीच का एक स्थान जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि यहाँ श्रीकृष्ण ने चौबाइनों से भात माँगकर खाया था। २. आसपास की भूमि से कुछ ऊँची भूमि यास्थान। ३. मंदिर का शिखर। ४. ऊँची जगह। टीला।
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भतवान  : पुं० [हिं० भात+वान] पूरब में, वर और उसके साथ कुछ और कुँआरे लड़कों को विवाह से पहले कन्यापक्ष द्वारा कच्ची रसोई खिलाने की एक रस्म।
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भतहा  : पुं० [हिं० भात] १. वह जो भात खाता हो, अथवा भात खाना अधिक पसन्द करता हो। २. वह व्यक्ति जिसके हाथ की कच्ची रसोई खाई जा सके। ३. वह जो रूखे-सूखे भोजन पर ही सन्तुष्ठ रहकर नौकरी करता हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भतार  : पुं० [सं० भर्तार्] विवाहिता स्त्री का पति। खाविंद। खसम।
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भंति  : स्त्री०=भ्रांति। अव्य०=भ्रांति। (प्रकार)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भति  : स्त्री०=भाँति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भतीजा  : पुं० [सं० भातृच्] [स्त्री० भतीजी] भाई का पुत्र। भाई का लड़का।
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भतुआ  : पुं० [देश] सफेद कुम्हड़ा। पेठा।
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भतुला  : पुं० [देश] आग पर पकाया या भूना हुआ आटे का पेड़ा। बाटी।
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भत्ता  : पुं० [सं० भरण] वह धन जो किसी कर्मचारी को उसके वेतन के अतिरिक्त कुछ विशिष्ट अवसरों (जैसे—महँगी यात्रा आदि) पर अतिरिक्त व्यय के विचार से दिया जाता है। एलावेन्स।
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भद  : स्त्री० [अनु०] किसी चीज के गिरने का शब्द। जैसे—भद से गिर पड़ना।
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भदई  : वि० [हिं० भादों] १. भादों संबंधी। भादों का। २. भादों में होनेवाला। स्त्री० भादों में तैयार होनेवाली फसल।
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भदकारी (रिन्)  : वि० [सं० भेद√कृ णिनि, उप० स०] भेदक।
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भदंत  : वि० [सं०√भन्द् (कल्याण)+झच्-अन्त, न-लोप] १. पूजित। सम्मानित। २. संन्यस्त। पुं० बौद्ध भिक्षु।
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भदभद  : वि० [अनु०] १. बहुत मोटा। २. भद्दा।
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भदरंगा  : वि० [हिं० बदरंग] जिसका रंग फीका पड़ गया हो। उदाहरण—न तो कभी उसका रक्त घुलेगा, न कभी वह भदरंगा होगा।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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भदवरिया  : वि० [हिं० भदावर+इया (प्रत्य)] भदावर प्रांत का।
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भदाक  : पुं० [सं०√भन्द+आकन्, न-लोप] १. सौभाग्य। २. अभ्युदय।
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भदावर  : पुं० [सं० भद्रवर] आधुनिक ग्वालियर प्रेदश का पुराना नाम।
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भदेस  : पुं० [हिं० भद्दा+देश] ऐसा देश जो आहार-बिहार जल-वायु आदि के विचार से बहुत कराब हो। खराब या बुरा देश। वि० कुरूप। भद्दा।
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भदेसल (सिल)  : वि० [हिं० भदेस] १. भदेस-संबंधी। २. भदेस में रहने या होनेवाला।
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भदेसिया  : वि० [हिं० भदेस] १. भदेस में रहने या होनेवाला। २. गँवार। ३. भद्दा। भोड़ा।
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भदैल  : पुं० [हिं० भादों] मेंढक।
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भदैला  : वि० [हिं० भादो] भादों मास में उत्पन्न होनेवाला। भादों का।
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भदौरिया  : वि० [हिं० भदावर] भदावर प्रांत का। पुं० १. बदावर प्रांत का निवासी। २. क्षत्रियों की एक जाति।
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भदौह (हा)  : वि० [हिं० भादो] [स्त्री० भदौंही] भादों में होनेवाला। जैसे—भदौहा अमरूद।
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भद्द  : स्त्री० [हिं० भद्दा] १. वह स्थिति जिसमें किसी को अपमानित और लज्जित होना पड़े। अपमान। २. किसी को तुच्छ ठहरानेवाला। काम या बात।
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भद्दव  : पुं० =भादों (महीना)।
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भद्दा  : वि० [अनु० भद्द] [स्त्री भद्दी] १. (पदार्थ) जिसका बनावट मे अंग-प्रत्यंग की सापेक्षिक छोटाई-बढ़ाई का ध्यान न रखा गया हो, और इसलिए जो देखने में कुरूप या बेढ़ंगा हो। २. (बात) जो शिष्टों और सभ्यों के लिए उपयुक्त न हो। अश्लील। फूहड़। जैसे—भद्दी गालियाँ। ३. जिसमें कला, सुरुचि आदि का अभाव हो। (आक्वर्ड)।
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भद्दापन  : पुं० [हिं० भद्दा+पन (प्रत्यय)] भद्दे होने का भाव।
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भद्र  : वि० [सं०√भन्द+रन्, न-लोप] १. शिष्ट सभ्य और सुशिक्षित। २. कल्याण या मंगल कामना करनेवाला। शुभ। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। ४. भला। साधु। पुं० १. क्षेम-कुशल। २. कल्याण। मंगल। ३. चन्दन। ४. शिव। ५. खंजन पक्षी। ६. बैल। ७. सुमेरू पर्वत। ८. कदंब। ९. सोना। स्वर्ण। १॰. मोथा। ११. एक प्राचीन देश। १२. विष्णु का एक द्वारपाल। १३. उत्तर दिशा के दिग्गज का नाम। १४. रामचन्द्र की सभा का वह सभासद जिसके मुँह से सीता की निन्दा सुनकर उन्होने सीता को बनवास दिया था। १५. बलदेव का एक सहोदर भाई। १६. पुराणानुसार स्वायंभुव मन्वंतर के विष्णु से उत्पन्न एक प्रकार के देवता जो तुषित भी कहलाते है। १७. हाथियों की एक जाति जो पहले विन्धायचल में होती थी। १८. संगीत में स्वर-साधना की एक प्रणाली जो इस प्रकार होती थी—सारेगा, रेगरे, गमग, मपम, पधप, धनिध, निसानि, सारेसा। सा नि सा, नि ध प ध, प म प, ग रे ग, रे सा रे, सा नि सा। पुं० [सं० भद्रकरण] सिर, दाढ़ी, मूँछों आदि के बालों का मुंडन। उदाहरण—सो जोगी सिर भद्र कराइ।—गोरखनाथ।
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भद्र-काष्ठ  : पुं० [सं० ब० स०] देवदारु वृक्ष।
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भद्र-कुंभ  : पुं० [सं० कर्म० स०] =मंगल घट।
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भद्र-गणित  : पुं० [सं० कर्म० स०] बीज गणित की वह शाखा जिसमें चक्रविन्यास की सहायता से गणना की जाती है।
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भद्र-घट  : पुं० [सं० कर्म० स०] मंगल घट।
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भद्र-तरुणी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का गुलाब।
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भद्र-दंत  : पुं० [सं० ब० स०] हाथी।
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भद्र-दारु  : पुं० [सं० कर्म० स०] देवदारु।
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भद्र-द्वीप  : पुं० [सं० कर्म० स०] पुराणानुसार कुरू वर्ष के अन्तर्गत एक द्वीप का नाम।
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भद्र-निधि  : पुं० [सं० ब० स०] पुराणानुसार एक प्रकार का महादान।
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भद्र-पद  : पुं० [सं० कर्म० स०] इन्द्रजी।
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भद्र-पदा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्]=भाद्रपद।
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भद्र-पर्णा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] गंधप्रसारिणी लता।
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भद्र-पीठ  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. अच्छा और बढ़िया आसन। २. वह सिंहासन जिस पर राजाओं या देवताओं का अभिषेक होता है।
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भद्र-बला  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. गन्ध प्रसारिणी लता। २. माधवी लता।
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भद्र-बल्लिका  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] अनंतमूल।
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भद्र-बाहु  : पुं० [सं० ब० स०] रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न वसुदेव के एक पुत्र।
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भद्र-मख  : वि० [सं० ब० स०] १. जो देखने में भला आदमी जान पड़े। भला-मानुस। २. सुन्दर० पुं० पुराणानुसार एक नाम का नाम।
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भद्र-मंद  : पुं० [सं० कर्म० स०] हाथियों की एक जाति।
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भद्र-रेण  : पुं० [सं० ब० स०] ऐरावत।
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भद्र-विराट्  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक वर्णार्द्वसम वृत्त जिसके पहले और तीसरे चरण में १॰ और दूसरे और चौथे चरण में ११ अक्षर होते है।
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भद्र-शाख  : पुं० [सं० ब० स०] कार्तिकेय।
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भद्र-श्रवा (वस्)  : पुं० [सं० ब० स०] पुराणानुसार धर्म के एक पुत्र का नाम।
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भद्र-श्री  : पुं० [सं० ब० स०] चंदन का वृक्ष।
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भद्रक  : पुं० [सं० भद्र+कन्] १. एक प्राचीन देश का नाम। २. चना,मूँग आदि अनाज। ३. नागरमोथा। ४. देवदार। ५. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ऽ॥ ऽ।ऽ ॥। ऽ।ऽ ॥। ऽ।ऽ ।॥ ऽ (भ र न र न र न ग) और ४, ६, ६, ६, पर यति होती है। ६. कोई अच्छी बात। उत्तम गुण। उदाहरण—क्या कहूँ मिर्च है अद्रक है,इस मछन्दर में कुछ भी भद्रक हैं।—मीर। ७. दृढ़ता। मजबूती। जैसे—तुम्हारी बात में कुछ भी भद्रक नहीं है। उदाहरण—मुतलक तेरी बात में नहीं है भद्रक।—रंगीन।
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भद्रकंट  : पुं० [सं० ब० स०] गोक्षुर। गोखरू।
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भद्रंकर  : वि० [सं० भद्र√कृ (करना)+खच्, मुम्] मंगलकारक। शुभ।
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भद्रंकरण  : पुं० [सं० भद्र√कृ+ख्युन्-अन, मुम] मंगल-साधना।
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भद्रकाय  : पुं० [सं० ब० स०] हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।
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भद्रकार  : वि० [सं० भद्र√कृ (करना)+अण्, उप० स०] मंगल या कल्याण करनेवाला। पुं० महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश।
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भद्रकारक  : वि० [सं० ष० त०] मंगलकारक। पुं० एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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भद्रकाली  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. दुर्गा देवी की एक १६ भुजाओं वाली मूर्ति। २. कात्यायिनी। ३. कार्तिकेय की एक मातृका। ४. गंद-प्रसारिणी लता। ५. नागरमोथा।
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भद्रकाशी  : स्त्री० [सं० भद्र√काश् (प्रकाशित होना)+अच्,+ङीष्] भद्र-मुस्ता। नागरमोथा।
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भद्रचारू  : पुं० [सं०] रूक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
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भद्रज  : पुं० [सं० भद्र√जन् (उत्पन्न करना)+ड] इन्द्रजौ।
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भद्रता  : स्त्री० [सं० भद्र+तल्+टाप्०] भद्र होने का भाव। शिष्टता। शभ्यता। शराफत। भलमनसी।
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भद्रदेह  : पुं० [सं०] पुराणानुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।
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भद्रमंद्र  : पुं० =भद्रमंद।
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भद्रमनसी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] ऐरावत की माता का नाम।
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भद्रमुखी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] =चन्द्रमुखी (सुन्दरी स्त्रियों के लिए संबोधन)।
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भद्रमुस्तक  : पुं० [सं० कर्म० स०] नागरमोथा।
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भद्रमुस्ता  : पुं० [सं० कर्म० स०] नागरमोथा।
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भद्रवती  : स्त्री० [सं० भद्र+मतुप्, वत्व०+ङीष्] १. कटहल। २. नग्नजिति के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण की एक कन्या का नाम।
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भद्रवल्ली  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] माधवी लता।
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भद्रश्रय  : पुं० [सं० भद्र√श्रि (शोभा)+अच्] चंदन।
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भद्रसेन  : पुं० [सं० ब० स०] १. देवकी के गर्भ से उत्पन्न वसुदेव का एक पुत्र। २. भागवत के अनुसार कुंतिराज के पुत्र का नाम। ३. बौद्धों के अनुसार मारपापीय आदि कुमति के दलपति का नाम।
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भद्रा  : स्त्री० [सं० भद्र+टाप्] १. कल्याणकारी सक्ति। २. कैकेयराज की कन्या जो श्रीकृष्ण को ब्याही गई थी। ३. आकाश गंगा। ४. गौ। ५. दुर्गा। ६. पृथ्वी। ७. सुभद्रा का नाम। ८. रास्ता।९. गन्ध प्रासरिणी लता। १॰. जीवंती। ११. शमी। १२. बच। बचा। १३. दंती। १४. हलदी। १५. दूब। दूर्वा। १६. चंसुर। १७. कटहल। १८. बरियारी। १९. छाया के गर्भ से उत्पन्न सूर्य की एक कन्या। 2॰. गौतम बुद्ध की एक शक्ति। 2१. कामरूप देश की एक नदी। 2२. पिंगल में उपजाति वृत्त का दसवाँ भेद। 2३. पुराणानुसार भद्राश्ववर्ष की एक नदी जो उपाजत वृत्त का दसवाँ भेद कही गई है। 2४. ज्योतिष में द्वितीया सप्तमी द्वादशी तिथियों की संज्ञा। 2५. फलित ज्योतिष में एक अशुभ योग जो कृष्ण पक्ष की तृतीया और दशमी के शेषार्द्ध में तथा अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वार्द्ध में रहती है। विशेष—कहते है कि जब यह योग कर्क,सिंह कुभ या मीन राशि में होता है तब पृथ्वी पर जब मेष,वृष,मिथुन या वृश्चिक राशि में होता है तब पाताल में और जब कन्या धनु,तुला या मकर राशि में होता है तब यह योह स्वर्ग में होता है। इस योग के स्वर्ग में रहने पर कार्य सिद्धि पाताल में रहने पर धन प्राप्ति और पृथ्वी पर रहने पर बहुत अनिष्ट होता है। इसे विशिष्ट भद्रा भी कहते हैं। 2६. कोई विशिष्ट अनिष्टकारक बात या बाधा। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। स्त्री० [सं० भद्राकरण हिं० भद्र०] कोई ऐसा काम या बात जिससे किसी की बहुत बड़ी आर्थिक हानि या अपमान आदि हो। जैसे—आज वहाँ उनकी अच्छी भद्रा हुई। मुहावरा—किसी के सिर की भद्रा उतरना= (क) किसी प्रकार की हानि विशेषतः आर्थिक हानि होना। (ख) बहुत अधिक अपमान या दुर्दशा होना।
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भद्राकरण  : पुं० [सं० भद्र+डाच्√कृ (करना)+ल्युट-अन] सिर मुंड़ाना। मुंडन।
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भद्राकृति  : वि० [सं० भद्रा-आकृति, ब० स०] सुन्दर या भव्य आकृतिवाला।
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भद्रांग  : पुं० [सं० भद्र-अंग, ब० स०] बलराम।
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भद्रात्मज  : पुं० [सं० भद्र-आत्मज, उपमि० स०] खड्ग।
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भद्रानन्द  : पुं० [सं० भद्र-आनन्द, कर्म० स०] संगीत में एक प्रकार की स्वर साधना प्रणाली जो इस प्रकार है—आरोही—सा रे ग म, रे ग म प, ग म प ध, म प ध नि, प ध नि सा। अवरोही—सा नि ध प, नि ध म प, ध प म ग,प म ग रे, म ग रे सा।
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भद्राभद्र  : वि० [सं० भद्र-अभद्र, द्व० स०] भद्र और अभद्र। भलाबुरा।
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भद्राराव  : पुं० [सं० भद्र-अश्व, ब० स०] जंबू द्वीप के नौ खंडों या वर्षों में से एक खंड या वर्ष।
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भद्रावती  : स्त्री० [सं० भद्र+मतुप्, वत्व, दीर्घ,+ङीष्] १. कटहल का पेड़। २. एक प्राचीन नदी।
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भद्रासन  : पुं० [सं० भद्र-आसन, कर्म० स०] १. मणियों से जुड़ा हुआ राजसिंहासन जिस पर राज्याभिषेक होता है। भद्रपीठ। 2. योग साधना का एक प्रकार का आसन।
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भद्रिका  : स्त्री० [सं० भद्रा+कन्+टाप्, इत्व] १. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगण, नगण और रगण होते हैं। २. भद्रा तथियाँ। (दे० ‘भद्रा’)। ३. फलित ज्योतिष के अनुसार योनिगी दसा के अन्तर्गत पाँचवीं दशा।
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भद्री (द्रिन्)  : वि० [सं० भद्र+इनि, दीर्घ, न-लोप] भाग्यवान्।
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भद्वान् (वत्)  : वि० [सं० कर्म० स०] मंगलमय। पुं० देवदारु वृक्ष।
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भनक  : स्त्री० [सं० भागन] १. धीमा शब्द। मन्द ध्वनि। २. यों ही उड़ती सी खबर जिसकी प्रामाणिकता निश्चित न हो। जैसे—मेरे कान में यों ही इसकी भनक पड़ी थी।
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भनकना  : स० [सं० भणन] १. भनभन शब्द करना। २. बोलना। कहना। अ० भनभन शब्द होना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भनना  : स० [सं० भणन] कहना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भनपैरा  : वि० [हिं० भन+पैर] [स्त्री० भनपैरी] जिसके कहीं पहुँचते ही अनेक प्रकार के दोष या हानियाँ लगती हों। खराब और बुरे पैर या पैरोंवाला। जैसे—क्या मुझे भी आप उसी की तरह भनपैरा समझते हैं।
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भनभनाना  : स० [अनु०] भनभन शब्द करना। गुंजारना। अ० भनभन शब्द होना।
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भनभनाहट  : स्त्री० [हिं० भनभनाना+आहट (प्रत्यय)] भनभनाने की क्रिया,भाव या शब्द। गुंजार।
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भनित  : भू० कृ० स्त्री०=भणित।
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भपाढ़ा  : पुं० [हिं० भँपाना=दिखाना] छल। जैसे—उसके भपाड़े में मत आना। क्रि० प्र०—में आना।—में पड़ना।
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भबकना  : अ०=भभकना।
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भबका  : पुं० =भभका।
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भबकी  : स्त्री०=भभकी।
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भबूका  : वि० पुं० =भभूका।
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भँबूरी  : स्त्री० [हिं० बबूर] =फुलाई। (वृक्ष)।
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भब्भड़  : पुं० [हिं० भीड़+भाड़०] १. भीड़-भाड़। २. झगड़े-बखेड़े का या व्यर्थ का काम।
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भंभ  : पुं० [सं० भं√भा (शोभित होना)+क] १. चूल्हे का मुँह। २. धूआँ। ३. मक्खी।
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भभक  : स्त्री० [हिं० भक से अनु०] भभकने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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भभकना  : अ० [हिं० भभक] १. किसी चीज का सहसा जोर से जल उठना। भड़कना। २. ताप आदि के योग से किसी चीज का जोर से उबल या फूट पड़ना। ३. जोर से बाहर निकलना। जैसे—पनाले में से दुर्गन्ध भभकना।
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भभका  : पुं० [हिं० भभकना या भाप] गंडे के आकार का बंद मुँहवाला वह उपकरण जिसमें से अर्क चुआया जाता है।
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भभकी  : स्त्री० [हिं० भभक] ऐसी आवेशपूर्ण धमकी जो दुर्बल होने पर भी आपको प्रबल सिद्द करने के लिए दी जाय। जैसे—बंदर भभकी।
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भंभर  : पुं० [सं० भ्रमर] १. बड़ी मधु-मक्खी। सारंग। २. बर्रे। भिड़। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भँभरना  : अ० [हिं० भय+ना (प्रत्यय)] १. भयभीत होना। डरना। अ०=भभरना।
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भभरना  : अ० [हिं० भय] १. भयभीत होना। २. घबरा जाना। ३. धोखे या भ्रम में पड़ना। ४. कांतिहीन या विवर्ण होना।। रंगहीन होना। ५. हरहराकर गिर पड़ना।
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भभरा  : पुं० =भ्रमर। स्त्री०=भँवर।
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भंभा  : पुं० [सं० भंभ] १. बिल। विवर। २. छेद। सुराख। स्त्री० [सं०] डुग्गी
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भंभाका  : पुं० [हिं० भंभा] १. बहुत बड़ा छेद। २. बहुत बड़ा बिल या विवर। वि० मोटा और स्थूल-काय।
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भँभाना  : अ० [सं० भंभाख] गौं-भैसों आदि पशुओं का चिल्लाना। रँभाना।
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भंभीरा  : पुं० [अ०] एक प्रकार का बरसाती फतिंगा।
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भँभीरी  : स्त्री० [अनु०] १. पीले रंग का उँगली भर लंबा तथा झिल्ली के समान पारदर्शक परोंवाला एक प्रसिद्ध फतिंगा। २. लकड़ी आदि का एक प्रकार का छोटा खिलौना जो हाथ से घुमाने पर लट्टू की तरह घूमता है। फिरकी।
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भभीरी  : स्त्री० [अनु०] १. फिरकी नाम का खिलौना। (पश्चिम) २. झींगुर।
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भभू  : स्त्री० [हिं० भाई+बहू०] छोटे भाई की स्त्री। छोटी भौजाई। (बिहार)।
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भभूका  : पुं० [हिं० भभक०] आग की लपट। ज्वाला। वि० १. खूब तपा हुआ लाल। २. आवेश,क्रोध आदि के कारण जिसका वर्ण लालहो गया हो। ३. उज्जवल। स्वच्छ। उदाहरण—वह हँसता सा मुखड़ा भभूका सा रंग।—कोई कवि। ४. चमकीला।
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भभूत  : स्त्री० [सं० विभूति०] १. शिवलिंग के समक्ष जलनेवाली आग की भस्म जिसे सैव भुजाओं,मस्तक आदि पर पोतते हैं। क्रि० प्र०—मलना।—रमाना।—लगाना। २. दे० ‘विभूति’।
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भभूदर  : स्त्री०=भूभल।
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भँभूरा  : पुं० [हिं० बगुला का रूप] १. चक्रवात। बगूला। उदाहरण—धरनि गिरतु बिचही फिरतु पस्यौ भभूरे पात।—वृन्द। २. गरम राख या रेत।
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भँभेरि  : स्त्री०=भय।
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भंभो  : स्त्री० [अनु०] १. स्थूल काय स्त्री। मोटी औरत।
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भँभोड़ना  : पुं० [?] नोच-खसोट कर क्षत-विक्षत करना। जैसे—शेर का हिरन को भँभोड़ना।
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भभ्भड़  : पुं० =भब्भड़।
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भमना  : अ०=भ्रमना।
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भय  : पुं० [सं०√भी (भय)+अच्] १. वह मानसिक स्थिति जो किसी अनिष्ट या संकट सूचक संभावना से उत्पन्न होती है और जिससे प्राणी चिन्तित और विकल होने लगता है। मुहावरा— (किसी से) भय खाना=डरना। २. बालकों का वह रोग जो उनके डर जाने के कारण होता है। ३. निऋति के एक पुत्र का नाम। ४. अभिमति नामक स्त्री के गर्भ से उत्पन्न द्रोण का एक पुत्र।
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भय-कर  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० भयंकारी] भय उत्पन्न करने या डरानेवाला। भयभीत करनेवाला।
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भय-दर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० भय√दृश् (देखना)+णिनि] भयंकर। भयानक।
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भय-दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी प्रकार के भय से दान करना। २. वह दान जो भयभीत होकर दिया गया हो।
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भय-दोष  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसा दोष जो अपनी इच्छा के विरुद्ध परन्तु जातीय प्रथा के अनुसार कोई काम करने पर माना जाता है। (जैन)
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भय-नाशक  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० भयनाशिनी] भय को दूर करनेवाला। पुं० विष्णु।
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भय-प्रद  : वि० [सं० भय+प्र√दा (देना)+क] भय उत्पन्न करनेवाला।
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भय-भीत  : भू० कृ० [सं० ष० त०] भय से आतंकित। डरा हुआ।
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भय-भ्रष्ट  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० भयभ्रष्टता] डरकर भागा हुआ।
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भय-मोचन  : वि० [सं० ष० त०] भय दूर करने या हटानेवाला।
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भय-वर्जिता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] प्राचीन भारत में व्यवहार में दो गाँवों के बीच की वह सीमा जिसे वादी और प्रतिवादी आपस में मिलकर स्थिर कर लें।
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भय-व्यूह  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्राचीन भरत में संकट की स्थिति में सैनिकों की होनेवाली एक प्रकार की व्यूहरचना।
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भय-हरण  : वि० [सं० ष० त०] भय दूर करनेवाला।
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भय-हारी (रिन्)  : वि० [सं० भय√हृ (हरण)+णिनि] भय दूर करनेवाला।
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भय-हेतु  : पुं० [सं० ष० त०] भय का विषय। वह जिसके कारण भय उत्पन्न होता हो।
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भयंकर  : वि० [सं० भय√कृ (करना)+खच्, मुम्] [भाव० भयंकरता] १. जिसे देखकर लोग भयभीत होते हों। भयभीत करनेवाला। २. आकार-प्रकार की दृष्टि से उग्र तथा डरावना। ३. बहुत अधिक तीव्र या प्रबल। अत्यधिक भीषण। जैसे—भयंकर गरमी पड़ना।
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भयंकरता  : स्त्री० [सं० भयंकर+तल्+टाप्] भयंकर होने की अवस्था या भाव।
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भयचक  : वि० =भौचक।
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भयडिंडम  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का बाजा जो युद्ध के समय बजाया जाता था।
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भयत  : पुं० [?] चंद्रमा। (डिंगल)।
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भयद  : वि० [सं० भय√दृश् (देखना)+णिनि] भय उत्पन्न करनेवाला। भयप्रद।
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भँयना  : अ०=भँवना (घूमना)।
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भयवाद  : पुं० [हिं० भाई+आद (प्रत्यय)] १. एक ही गोत्र या वंश के लोग। भाई-बंद। २. आपसदारी के लोग। आत्मीय जन।
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भया  : स्त्री० [सं० भय+अच्+टाप्] १. एक राक्षसी जो काल की बहन तथा विद्युत्केश की माता थी। २. प्राचीन भारत में ६2 हाथ लंबी, 5६ हाथ चोंड़ी तथा ३३ हाथ लंबी एक प्रकार की नाव। पुं० [हिं० भइया] भाई के लिए संबोधन। भइया। जैसे—सँभार हे भइया तू वार आपन।
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भयाकुल  : वि० [सं० भय-आकुल, तृ० त०] जो भय से ब्याकुल या विकल हो रहा हो। भय से घबराया हुआ।
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भयादोहन  : पुं० [सं० भय-आदोहन] किसी को भय दिखलाकर या डरा-धमकाकर उससे कुछ प्राप्त करने या लाभ उठाने की क्रिया या भाव। (ब्लैकमेल)
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भयान  : वि० =भयानक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भयानक  : वि० [सं०√भी (डरना)+आनक्] जिसकी अवधारणा शारीरिक विकृति या उग्रतापूर्ण आचरण से भय लगता हो। पुं० १. बाघ। २. राहु। ३. साहित्य में नौ रसों में एक रस जिसका स्थायी भाव भय हैं। हिंसक पशु, अपराधी, व्यक्ति वीभत्स आचरण आदि इसके आलंबन है आलम्बन की चेष्टाएँ और अपनी असहाय अवस्था इसके उद्दीपन हैं। अश्रु, कंप आदि अनुभाव है और त्रास, मोह, चिंता आदेश आदि व्यभिचारी हैं।
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भयाना  : अ० [सं० भय+हिं० आना (प्रत्यय)] भयभीत होना। डरना। भयभीत करना। डराना।
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भयापह  : वि० [सं० भय+अप√हन् (मारना)+ड] भय दूर करनेवाला।
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भयारा  : वि० =भयानक।
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भयार्त  : भू० कृ० [सं० भय+आर्त, तृ० त०] भय से आर्त या भय से त्रस्त।
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भयावन  : वि० =भयावना।
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भयावना  : अ० स०=भयाना। वि० [सं० भय+हिं० आवना (प्रत्यय)] [स्त्री० भयावनी] भयानक।
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भयावह  : वि० [सं० भय+आ√वह् (पहुँचाना)+अच्] जिसे देखने से डर लगे। भयजनक। भयंकर। डरावना।
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भय्या  : पुं० =भैया। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भर  : अव्य० [हिं० भरना] १. अवकाश, परिमाण, वय आदि की संपूर्णता (या समस्तता) किसी इकाई के रूप में सूचित करते हुए जैसे—कटोरा भर,गज भर, उमर भर, आदि। २. तक। पर्यत। ३. अच्छा तरहसे। पूरी तरहसे। जैसे—लड़के को एक बार आँख भर देखने की उसकी कामना थी। अव्य० [सं० भार] १. क्रे द्वारा या सहायता से। उदाहरण—सिर भर जाउँ उचित अस मोरा।—तुलसी। पुं० भरे हुए होने की अवस्था या भाव। पूर्णता। यथेष्ठता। उदाहरण—भर लाग्यो परन उरोजनि मैं रघुनाथ राजी रोम राजी भाँति कल अलि सैनी की।—रघुनाथ। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। वि० कुल। पूरा। समस्त। मुहावरा—भर पाना=(क) कुल प्राप्य या धन या सामग्री प्राप्त करना। (ख) पूरा बदला चुक जाना। जैसे—जैसा तुमने किया वैसा भर पाया। पुं० [सं० भरत या भरद्वाज] हिंदुओं में एक जाति जो किसी समय अस्पृष्य मानी जाती थी। पुं० =भट (वीर)। पुं० [सं०] भार। बोझ। उदाहरण—भर खंचै भँजियौ भिड़।—प्रिथीराज। वि० [सं०√भृ (भरण करना)+अप्] (वह) जो भरण-पोषण करता हो। पुं० युद्ध। लड़ाई। पुं० [?] उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में रहनेवाली एक निम्न जाति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भर-पाई  : स्त्री० [हिं० भरना+पाना] १. वह स्थिति जिसमें से किसी से कुल प्राप्य धन वसूल हो जाय। २. उक्त का सूचक लेख जो इस बात का सूचक होता है कि अब हमें अमुक व्यक्ति से कुछ लेना शेष नहीं रह गया है। क्रि० वि० पूर्ण रूप से पूरी तरह से। उदाहरण—माला दुखित भई भर-पाई।—सूर।
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भर-भराहट  : स्त्री० [अनु०] भरभराने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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भर-मार  : स्त्री० [हिं० भरना+मार=अधिकता] अनावश्यक या व्यर्त चीजों की अधिकता।
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भर-सक  : अव्य० [हिं० भर+सकना] जितनी समर्थता या शक्ति हो सकती है उतनी का उपयोग करते हुए। यथासाध्य।
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भरई  : पुं० =भरदूल या भरत। (पक्षी)।
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भरक  : पुं० [देश] पंजाब और बंगाल की दलदलों में रहनेवाला एक प्रकार का पक्षी जो प्रायः अकेला रहता है, मांस के लिए इसका शिकार किया जाता है। स्त्री०=भड़क।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरकट  : पुं० [सं० भरट+कन्] संन्यासियों का एक वर्ग या संप्रदाय।
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भरकना  : अ०=भड़कना।
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भरका  : पुं० [देश] १. वह जमीन जिसकी मिट्टी काली और चिकनी हो, परन्तु सूख जाने पर सफेद और भुरभुरी हो जाय। यह प्रायः जोती नहीं जाती। २. जंगलों, पहाड़ों आदि का वह गड्ढा जिसमें चोर छिपते हैं। ३. छोटा नाला। नाली। ४. जमीन का छोटा टुकड़ा। उदाहरण—बड़ा रकबा काटकर छोटे-छोटे भरकों में पलट दिया गया था।—वृन्दावन लाल। पुं० =भरक (पक्षी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरकाना  : स०=भड़काना।
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भरकी  : स्त्री०=भरका।
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भरकूट  : पुं० [हिं०] मस्तक। माथा।
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भरट  : पुं० [सं०√भृ (भरण करना)+अटच्] १. कुम्हार। २. सेवक नौकर।
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भरण  : पुं० [सं०√भृ (भरण करना)+ल्युट-अन] १. भरना। २. खिलपिला कर जीवित रखना। पालन-पोषण आदि के लिए दी जानेवाली वृत्ति या वेतन। ३. किसी चीज के न रहने या नष्ट होने पर की जानेवाली उसकी पूर्ति। भरती। ४. भरणी नक्षत्र। वि० [स्त्री० भरणी०] भरण अर्थात् पानल-पोषण करनेवाला। (यौ० के अन्त में) उदाहरण—तोहीं कर्णि हरणी तो हीं विश्व भरणी।—विश्राम सागर।
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भरण-पोषण  : पु० [सं० द्व० स०] किसी का इस प्रकार पालन करना कि वह जीविका निर्वाह की चिंता से दूर रहे। (मेन्टेनेन्स)
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भरणी  : स्त्री० [सं० भरण+ङीष्] १. घोषक लता। कड़वी तरोई। २. सत्ताइस नक्षत्रों में दूसरा नक्षत्र जिसमें त्रिकोण के रूप में तीन तारे हैं। ३. भूमि खोदने की एक शुभ लग्न। (ज्यो०)
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भरणी-भू  : पुं० [सं० ब० स०] राहु।
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भरणीय  : वि० [सं०√भृ+अनीयर] जिसका भरण किया जाने को हो या करना उचित हो। पाले-पोसे जाने के योग्य।
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भरण्य  : पुं० [सं० भरण+यत्] १. मूल्य। दाम २. वेतन। तनखाह। ३. नौकर। सेवक। ४. मजदूर।
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भरण्या  : पुं० [सं० भरण्य+टाप्] १. वेतन। मजदूरी। २. पत्नी। जोरू।
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भरण्यु  : पुं० [सं० भरण्य+उन्] १. ईश्वर। २. चन्द्रमा। ३. सूर्य। ४. अग्नि। ५. मित्र।
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भरंत  : स्त्री० [सं० भ्रांति] १. धोखा। भय। २. संदेह। शक। स्त्री० [हिं० भरना] भरने की क्रिया, या भाव। विशेष दे० ‘भरत’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भरत  : पुं० [सं०√भृ+अतच्] १. दुष्यंत् का शकुंतला के गर्भ से उत्पन्न पुत्र जिसके नाम के आधार पर इस देश का नाम भारत पड़ा था। २. राम के सौतेले भाई जो कैकेयी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ३. नाट्यशास्त्र के एक प्रधान आचार्य। ४. अभिनेता। ५. दे० ‘जड़ भरत’। ६. जैनों के अनुसार प्रथम तीर्थकर ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र का नाम। पुं० [सं० भरद्वाज] १. भरने की क्रिया या भाव। २. वह चीज जो किसी दूसरी चीज में भरी जाय। ३. किसी आधान के अन्दर का वह अवकाश जिसमें चीजें भरी जाती है। ४. कसीदे आदि के कामों में वह रचना जो बीच का खाली स्थान भरने के लिए की जाती है। ५. मालगुजारी या लगान। (पश्चिम)। पुं० [देश०] १. काँस नामक धातु। कसकुट। २. उक्त धातु के बरतन बनानेवाला। ठठेरा। ३. भरी हुई चीज। भराव।
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भरत-खंड  : पुं० [सं० ष० त०] राजा भरत के किए हुए पृथ्वी के नौ खंडों में से एक खंड। भारतवर्ष। हिन्दुस्तान। भारतवर्ष के दक्षिण का कुमारिका खंड।
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भरत-पुत्रक  : पुं० [सं० ष० त०] अभिनेता। नट।
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भरत-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] भारतवर्ष।
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भरत-वाक्य  : पुं० [सं० ष० त०] संस्कृत नाटकों के अंत में वह पद्य जिसमें नाट्यशास्त्र के जन्मदाता भरतमुनि की स्तुति की जाती है।
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भरत-शास्त्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] नाट्यशास्त्र।
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भरतज्ञ  : वि० [सं० भरत√ज्ञा (जानना)+क] नाट्यशास्त्र का ज्ञाता।
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भरतरी  : स्त्री० [सं० भर्त्तृ] पृथ्वी (डिं०)। पुं० =भर्त्तृहरि।
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भरतवर्ष  : पुं० =भारतवर्ष।
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भरता  : पुं० [देश०] १. कुछ विशिष्ट तरकारियों को आग पर भूनकर तदुपरान्त उनके गूदे को छौंक कर बनाया जानेवाला सालन। चोखा। जैसे—बैंगन का भरता,आलू का भरता। २. लाक्षणिक अर्थ में,किसी चीज का मसला हुआ रूप। पुं० =भर्त्ता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरतार  : पुं० [सं० भर्त्ता] १. स्त्री का पति। खसम। २. मालिक। स्वामी।
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भरतिया  : वि० [हं० भरत (काँसा)+इया (प्रत्यय)] भरत अर्थात् काँसे का बना हुआ। पुं० भरत के बरतन आदि बनानेवाला कसेरा। ठठेरा। भरत।
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भरती  : स्त्री० [हिं० भरना] १. किसी चीज में कोई दूसरी चीज भरने की क्रिया,या भाव। भराई। पद—भरती का=जो अनावश्यक रूप से यों ही स्थान-पूर्ति मात्र के विचार से रखा या सम्मिलित किया गया हो। जैसे—इस पुस्तकालय में बहुत सी पुस्तकें तो यों ही भरती की जान पड़ती है। २. नक्काशी, चित्रकारी, कसीदे आदि के बीच का स्थान इस प्रकार भरना जिसमें उसका सौन्दर्य बढ़ जाय। जैसे—कसीदे के बूटों में की भरती, नैचे में की भरती। ३. किसी दल वर्ग समाज आदि में कार्यकर्ता सदस्य आदि के रूप में प्रविष्ट या सम्मिलित किये जाने की क्रिया या भाव। जैसे—विद्यालय में विद्यार्थी की या सेना में रंगरूट की होनेवाली भरती। ४. वह जहाज या नाव जिसमें माल लादा जाता हो। (लश०) ५. जहाज या नाव में उक्त प्रकार से भरा हुआ माल (लश०) ६. जहाज या नाव पर माल लादने की क्रिया। (लश०) ७. समुद्र में पानी का चड़ाव। ज्वार। (लश०) ८. नदी की बाढ़। (लश०) स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की घास जो पशुओं के चारे के काम में आती है। २. साँवाँ नामक कदन।
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भरतोद्वता  : स्त्री० [सं० त० त०] केशव के अनुसार एक प्रकार का छंद।
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भरत्थ  : पुं० =भरत।
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भरथ  : पुं० =भरत।
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भरथरी  : पुं० दे० ‘भर्त्तृहरि’।
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भरदूल  : पुं० दे० ‘भरत’ (पक्षी)।
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भरद्वाज  : पुं० [सं०√भृ+अप=द्वि√जन्+ड, पृषो०=द्वाज, भरद्वाज, कर्म० स०] १. अंगरिस गोत्र के उतथ्य ऋषि की स्त्री ममता के गर्भ से और उत्थ्य के भाई बृहस्पति के वीर्य से उत्पन्न एक वैदिक ऋषि जो गोत्र प्रवर्तक और मंत्रकार थे। बनवास काल में रामचन्द्र इनके आश्रम में भी गए थे। २. उक्त ऋषि के गोत्र का व्यक्ति। ३. बौद्धों के अनुसार एक अर्हत् का नाम। ४. एक अग्नि का नाम। ५. एक प्राचीन जनपद। ६. भरत पक्षी।
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भरन  : स्त्री० [हिं० भरना] १. भरने या भरे जाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. ऐसी भरपूर वर्षा जिसके खेत आदि अच्छी तरह भर जायँ। उदाहरण—(क) आने से उसके दिल का मेरे खिल गया, चमन् ऐशो तरब के अब्र की पड़ने लगी भरन।—नजीर। (ख) सावन की झड़ी भादों की भरन। (कहा०)
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भरना  : स० [सं० भरण] [भाव० भराई, भराव] १. किसी आधार या पात्र के अन्दर की खाली जगह में कोई चीज उँडेलना, गिराना, डालना या रखना। बीच के अवकाश में इस प्रकार कोई चीज रखना कि वह खाली न रह जाय। जैसे—गाड़ी में माल, घड़े में पानी या गुब्बेरे में हवा भरना। पद—भरापूरा। २. बीच के अवकाश में कोई उपेक्षित, आवश्यक या उपयुक्त चीज रखना या लगाना। स्थापित करना। जैसे—गड्ढे में मिट्टी भरना, चित्र में रंग भरना, तोप में गोला भरना, मुँह में पान भरना, लिफाफों में चिट्ठियाँ भरना आदि। ३. खाली आसन, पद आदि पर किसी को बैठाना या नियुक्त करके स्थान की पूर्ति करना। जैसे—उन्होंने मंत्री होते ही सारा विभाग भाई-बन्धुओं से भर दिया। ४. पशुओं, यानों आदि पर बोझ लादना। ५. भावी लाभ के विचार से अधिक मात्रा में कोई चीज या माल खरीद कर इकट्ठा करना और रख छोड़ना। जैसे—फसल के दिनों में गेहूँ भरना, मंदी के समय कपड़ा या सोना भरना। ६. सिंचाई के लिए खेत में पानी पहुँचाना। सींचना। ७. छेद, मुँह, विवर, सन्धि आदि बंद करने के लिए उनमें कोई चीज जड़ना, ठूँसना, बैठाना या लगाना। जैसे—खिड़की या झरोखे में ईंटें, छड़ या जाली भरना। ८. लेख आदि के द्वारा आवश्यक अपेक्षाओं की पूर्ति करना या सूचनाएँ अंकित करना। जैसे—आवेदन-पत्र, पंजी या प्रपत्र (फार्म) भरना। ९. किसी के मन में तुष्टि, पूर्णता, यथेष्टता आदि की धारणा या भावना उत्पन्न करना। किसी का मनस्तोष करना। जैसे—बातचीत या व्यवहार से किसी का मन भरना। १॰. अपेक्षित समर्थन, सहमति, स्वीकृति आदि की सूचक पूर्ति करना। जैसे—किसी के कथन की सही या साखी भरना; किसी बात की हामी भरना। ११. किसी को किसी का विद्रोही या विरोधी बनाने अथवा अपने अनुकूल करने के लिए उसके मन में कोई बात अच्छी तरह जमाना या बैठाना। जैसे—आपने तो उन्हें पहले ही भर रखा था, फिर वे मेरी बात क्यों सुनते ? १२. जीव-जंतुओं का किसी को काटना या डसना। उदा०—जहाँ सो नागिन भर गई, कला करै सो अंग।—जायसी। १३. आर्थिक देने, क्षति-पूर्ति, भार आदि के परिशोध के रूप में घन देना। चुकाना। जैसे—ऋण या दंड भरना। १४. यंत्रों आदि में कुंजी घुमाकर या और किसी प्रकार ऐसी क्रिया करना जिसमें वे अपना काम करने लगें। जैसे—घड़ी भरना, ताला भरना। १५. जैसे-तैसे या कुछ कष्ट सहकर दिन काटना या समय बिताना। जैसे—नैहर जनमु भरब बरु जाई।—तुलसी। १६. (कष्ट या विपत्ति) भोगना। सहना। जैसे—करे कोई, भरे कोई। उदा०—राम वन वपु धरि विपति भरे।—सूर। विशेष—भिन्न भिन्न संज्ञाओं के साथ इस क्रिया के योग से बहुत से मुहावरे भी बनते हैं। जैसे—किसी की गोद भरना देवी या देवता की चौकी भरना, महावर आदि से किसी के पैर भरना, (किसी बात या व्यक्ति का) दम भरना, रिश्वत देकर किसी का घर भरना, मनो-विनोद के लिए किसी का स्वांग भरना आदि। ऐसे मुहावरों के लिए संबद्ध संज्ञाएँ देखें। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—रखना। अ० १. खाली जगह या आधार का किसी बाहरी या नये पदार्थ के योग से पूर्ण या युक्त होना। जैसे—बरसाती पानी से तालाब भरना, दवा से घाव भरना, पाल से हवा भरना, कीचड़ से पैर भरना, फलों या फूलों से पेड़ भरना, माता (चेचक) के दागों से शरीर भरना, आदमियों से बाजार, मेला या सभा भरना आदि। विशेष—ऊपर स० ‘भरना’ में जो अर्थ आये हैं, उनमें से अधिकतर अर्थों के प्रसंग में इसका अ० प्रयोग भी होता है। जैसे—(क) खेत, देने या रंग भर गया। (ख) भोजन से पेट भर गया। २. दुर्बल या रुग्ण शरीर का यौवन, स्वस्थता आदि के योग से धीरे-धीरे हृष्ट-पुष्ट होना। जैसे—पहले तो वह बहुत दुबला-पतला था, पर अब धीरे-धीरे भरने लगा है। ३. पशुओं पर बोझ लदना अथवा सवारियों पर यात्रियों का बैठना है। ४. मन का असंतोष, क्रोध, संताप आदि से मुक्त होना। जैसे—जब देखो, तब तुम भरे बैठे रहते हो। उदा०—वह भरी ही थी, उमड़ बहने लगी यों।—मैथिलीशरण गुप्त। ५. आवेश करुणा, स्नेह आदि से अभिभूत होने के कारण कुछ कहने के योग्य न रह जाना। किसी भाव की प्रबलता के कारण कुछ कहने में असमर्थ होना। उदा०—गया भरा-सा भमरा कनिष्ठ।—मैथिलीशरण। विशेष—(क) ऐसे अवसरों पर इसके साथ प्रायः संयो० क्रि० ‘आना’ का प्रयोग होता है। जैसे—उसे रोते देख कर मेरा जी भर आया; अर्थात् उसमें करुणा का आविर्भाव हुआ। कुछ अवसरों पर इसका प्रयोग बिना पूरक संज्ञा के भी होता है। जैसे—उसे देखते ही मेरी आँखें भर आईं; अर्थात् आँखों में आँसू भर गये। (ख) कुछ अवस्थाओं में अ० ‘भरना’ और ‘भर जाना’ के अर्थों में बहुत अधिक अन्तर भी होता है। जैसे—(क) तुम्हारी तरफ से हमारा मन भरा है; अर्थात् हम पूर्ण रूप से संतुष्ट हैं और (ख) यहाँ रहते रहते हमारा जी भर गया है; अर्थात् हम ऊब गये हैं अथवा विरक्त हो गये हैं। ६. किसी चीज या बात से ओत-प्रोत या पूर्ण रूप से युक्त होना। जैसे—(क) इसी तरह की फालतू बातों से सारी पुस्तक भरी है। (ख) कीचड़ भरे पैर तो पहले धो लो। ७. ऋण, देन आदि का चुकाया जाना। परिशोधन होना। ८. अपेक्षा, आवश्यक, आशा आदि की किसी रूप में पूर्ति होना। जैसे—खाने-पीने की चीजों से पेट भरना, किसी के आचरण या व्यवहार से मन भरना। ९. अवकाश, छिद्र, विवर आदि का बंद होना। १॰. (अंक, गोद आदि के पूर्ण या किसी से युक्त होने के विचार से) आलिंगन होना। गले लगना। भेंटना। बसना। उदा०—हरी चंद सो करे जगदाता सो घर नीच भरै।—सूर। १३. किसी अंग से अधिक और कुछ समय तक निरंतर कोई काम लेते रहने पर उस अंग का कुछ पीड़ा-युक्त और भारी होना तथा काम करने में कष्ट बोध करना। जैसे—चलते-चलते पाँव भरना, लिखते-लिखते हाथ भरना (या भर जाना)। १४. गौ, घोड़ी, भैंद आदि मादा पशुओं का गर्भवती होना। संयो० क्रि०—आना। पुं० १. भरने या भरे जाने की क्रिया या भाव। २. भरने के लिए दी जानेवाली कोई चीज या किया जानेवाला परिश्रम, व्यय आदि। जैसे—इसी तरह बैठकर जनम भर दूसरों का भरना भरते रहो। ३. घूस, रिश्वत। (क्व०) स० [हिं० भार] भार उठाना या ढोना। उदा०—भरि भरि भार कहारन आना।—तुलसी।
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भरनि  : स्त्री० [सं० भरण] १. कपड़े लत्ते। पोशाक। २. दे० ‘भरनी’।
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भरनी  : स्त्री० [हिं० भरना] १. भरने या भरे जाने की क्रिया या भाव। २. वह चीज जो भरी जाय। ३. किसी काम या बात के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली दशा या स्थिति। जैसे—जैसी करनी वैसी भरनी। ४. खेतों में बीज आदि बोने की क्रिया। ५. खेतों की सिंचाई। ६. करगे में की डरकी। नार। ७. बुनाई में बाने का सूत। स्त्री० [?] १. छछूँदर। २. मोरनी। ३. गारुड़ी मंत्र। ४. एक प्रकार की जड़ी या बूटी। स्त्री०=भरणी (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरपूर  : वि० [हिं० भरना+पूरा] १. जो पूरी तरह से भरा हुआ हो। परिपूर्ण। २. जिसमें किसी प्रकार की कमी या त्रुटि न हो। क्रि० वि० १. बहुत अधिक मात्रा या परिमाण मे। जितना चाहिए, उतना या उससे भी कुछ अधिक। २. पूर्ण रूप से। ३. अच्छी तरह। भली भाँति। पुं० =ज्वार (समुद्र का)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरभराना  : अ० [अनु०] [भाव० भरभराहट] १. रोएँ खड़ा होना। २. (आँखों में) जल भर आना। २. (हृदय का) आवेगपूर्ण या विह्रल होना। ३. विफल होना। घबराना। ४. (ज्वर आदि में शरीर में) हलकी सूजन या दानों का उभार होना।
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भरभूँजा  : पुं० =भड़भूँजा।
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भरभेंटा  : पुं० [हिं० भर+भेंटना] १. अच्छी तरह गले मिलने की क्रिया। या भाव। २. मुकाबला। मुठभेंड़।
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भरम  : पुं० [सं० भ्रम] १. भ्रांति। संशय। संदेह। २. भेद। रहस्य। ३. अपने महत्त्व, साख आदि का रहस्य या विश्वसनीयता। क्रि० प्र०—खोना।—गँवाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भरमना  : अ० [सं० भ्रमण] १. चलना-फिरना। घूमना या टहलना। २. इधर-उधर मारे-मारे फिरना। ३. धोखे में पड़कर इधर-उधर होना। भटकना। स्त्री० [सं० भ्रम] १. भूल। गलती। २. धोखा। भ्रांति। ३. मन में होनेवाला अनिश्चय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भरमाना  : स० [हिं० भरमना का स० रूप०] १. ऐसा काम करना अथवा ऐसी स्थिति उत्पन्न करना जिससे किसी को भ्रम हो जाय। भ्रम में डालना। २. व्यर्थ इधर-उधर घूमना। भटकना। ३. आसक्त या मोहित करना। बिलमाना। अ० अचंभे में आना। चकित होना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरमौहाँ  : वि० [हिं० भरम+औहाँ (प्रत्यय)] भ्रम उत्पन्न करनेवाला। भरमानेवाला। वि० [हिं० भरमना (घूमना)+औहाँ (प्रत्यय)] १. घूमने या घुमानेवाला। २. चक्कर खाने या खिलानेवाला।
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भरराना  : अ० [अनु०] १. भरर शब्द करते हुए गिरना। अरराना। २. किसी पर टूट या पिल पड़ना। स० १. भरर शब्द के साथ गिराना। २. किसी को किसी पर टूट या पिल पड़ने में प्रवृत्त करना।
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भरराना  : स० [हिं० भरना का प्रे० रूप०] भरने का काम दूसरो से कराना। किसी को कुछ भरने में प्रवृत्त करना।
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भरल  : स्त्री० [देश०] नीले रंग की एक प्रकार की जंगली भेड़ जो बहुत कुछ बकरी की तरह होती और हिमालय में भूटान से लद्दाख तक होती है।
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भरवाई  : स्त्री० [हिं, भरवाना] १. भरवाने की क्रिया,भाव या पारिश्रमिक। २. वह टोकरी जिसमें झबो रखकर ढोया जाता है।
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भरसन  : स्त्री०=भर्त्सना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरसाईं  : स्त्री०=भड़साईं (भाड़)।
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भरहरना  : अ० [देश] अस्त-व्यस्त या तितर-बितर करना। अ०=भरभराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरहराना  : अ०=भहराना।
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भरा  : वि० [हिं० भरना] [स्त्री० भरी] १. जिसमें कोई चीज पूरी तरह से डाली गई हो या पड़ी हो। जैसे—भरा घड़ा, भरा बोरा। २. जिसमें अपेक्षित आवश्यक, उपयुक्त या संगत तत्त्व अतवा पदार्थ यथेष्ट मात्रा में हो। जैसे—भरी गोद, भरा घर, भरी बंदूक, भरा बाजार, भरी सभा ३.जो यथेष्ट उत्कर्ष, उन्नति अर्थात् पूर्णता तक पहुँच चुका हो। जैसे—भरी जवानी, भरी बरसात भरा शरीर। ४. जो किसी विशिष्ट तत्त्व या बात से इस प्रकार बहुत कुछ मुक्त हो कि जरा या संकेत या सहारा पाकर उबल या फूट पड़े। जैसे—वह तो पहले ही (क्रोध या दुःख से) बरा बैठा था, तुम्हे देखते ही बिगड़ खड़ा हुआ। पद—भरी सभा में=सब के सामने।
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भरा-महीना  : पुं० [हिं० पद] बरसात के दिन जिसमें खेतों में बीज बोये जाते हैं।
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भराई  : स्त्री० [हिं० भरना] १. भरने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। २. मध्य युग में एक प्रकार का स्थानीय कर।
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भरांचिटी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।
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भराँति  : स्त्री०=भ्रांति।
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भरापूरा  : वि० [हिं०] १. जिसमें किसी बात की कमी या न्यूनता न हो। सब प्रकार से या सभी अपेक्षित बातों से युक्त। २. हर तरह से संपन्न और सुखी। जैसे—भरा-पूरा घर या परिवार।
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भराव  : पुं० [हिं० भरना+आव (प्रत्य)] १. भरे हुए होने की अवस्था या भाव। २. भरने की क्रिया या भाव। ३. वह पदार्थ या रचना जिससे कोई अवकाश या खाली जगह भरी गई हो या भरी जाती हो। जैसे—कसीदे की बूटियों में तागों का भराव।
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भरित  : भू०क-०[सं० भर+इतच्] १. जो भरा गया हो। भरा हुआ। १. जिसका भरण-पोषण किया गया हो।
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भरिया  : वि० [हिं,भरना] १. भरनेवाला। २. ऋण भरने या चुकानेवाला। पुं० वह जो बरतन आदि ढालने का काम करता हो। ढलाई करनेवाला। ढालिया। पुं० [हिं० भार] १. भार ढोनेवाला मजदूर। २. कहार।
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भरी  : स्त्री० [हिं० भर] दस माशे की तौल जिससे सोना,चाँदी आदि धातुएँ तौली जाती थी। स्त्री० [?] एक प्रकार की घास जिससे छप्पर छाय़े जाते हैं।
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भरी गोद  : स्त्री० [हिं०] (स्त्री की) ऐसी गोद जिसमें संतान न हो। मुहावरा—भरी गोद खाली होना=पुत्र या संतान का मर जाना।
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भरी जवानी  : स्त्री० [हिं०] पूर्णता तक पहुँची हुई ऐसी युवावस्था जिसका उतार अभी दूर हो। पूर्ण यौवन प्राप्त स्थिति। पद—भरी जावनी माँझा ढीला=यौवनावस्था में भी फुरती और शक्ति न होना।
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भरी थाली  : स्त्री० [हिं०] ऐसी स्थिति जिसमे जीविका का निर्वाह या इच्छाओं की पूर्ति सहज में होती हो जैसे—तुमने तो उसके आगे से भरी थाली खींच (या छीन) ली। मुहावरा—भरी थाली पर लात मारना=मिलती रोजी या लगी नौकरी जान-बूझकर छोड़ देना।
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भरु  : पुं० [सं०√भृ (भरण करना)+उन्] १. विष्णु। २. शिव। ३. समुद्र। ४ सोना। स्वर्ण। ५. मालिक। स्वामी। पुं० १. =भर। २. =भार। उदाहरण—भावक उभरौहों भयो कछू परयौ भरु आय।—बिहारी।
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भरुआ  : पुं० [देश०] टसर। पुं० =भड़ुआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरुआना  : अ० [हिं० भारी+आना (प्रत्यय)] भारी होना। स० भारी करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरुका  : पुं० [हिं० भरना] पुरवे के आकार का मिट्टी का बना हुआ कोई छोटा पात्र। चुक्कड़।
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भरुज  : पुं० [सं० भ√रुज् (भंग करना)+क] [स्त्री० भरुजा] १. श्रृंगाल। २. भूना हुआ जौ।
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भरुटक  : पुं० [सं० भृ (भरण करना)+उट+कन्] भूना हुआ मांस।
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भरुहाना  : अ० [हिं,भारी या भारी+आना या होना (प्रत्यय)] अभिमान या घमंड करना। स० [हिं० भ्रम] १. भ्रम में डालना। २. बहकाना। ३. उत्तेजित करना। उकसाना। भड़काना।
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भरुही  : स्त्री० [देश०] कलम बनाने की एक प्रकार की कच्ची किलक। स्त्री०=बरत (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरेठ  : पुं० [हिं० भार+काठ] दरवाजे के ऊपर लगी हुई वह लकड़ी जिसके ऊपर दीवार उठाई जाती है। इसे ‘पटाव’ भी कहते हैं।
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भरेड  : पुं० =रेंड।
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भरैया  : वि० [हिं० भरना+ऐया (प्रत्यय] भरनेवाला। वि० [सं० भरण] भरण-पोषण करनेवाला। पालक। पोषक।
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भरोट  : पुं० [देश०] एक प्रकार की जंगली घास।
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भरोटा  : पुं० [हिं० भार+ओटा (प्रत्यय)] घास या लकड़ी आदि का गट्ठा। बोझ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरोस  : पुं० =भरोसा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भरोसा  : पुं० [?] १. मन की ऐसी स्थिति जिसमें यह आशा या विश्वास हो कि अमुक व्यक्ति समय पड़ने पर हमारी सहायता करेगा। आश्रय या सहारे के सम्बन्ध में मन में होनेवाली प्रतीति। अवलंब। आसरा। जैसे—हमें तो आप (या ईश्वर) का ही भरोसा है। २. ऐसी आशा जिसकी पूर्ति की बहुत कम संभावना हो। जैसे—मन में भरोसा रखो, वे तुम्हें निराश नही करेगें। पद—भरोसे का= जिस पर बहुत कुछ भरोसा किया जा सकता हो। विश्वसनीय।
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भरोसी  : वि० [हिं० भरोसा+ई (प्रत्यय)] १. भरोसा या आसरा रखनेवाला। जो किसी (काम बात या व्यक्ति) का भऱोसा रखता हो। २. जिसका भरोसा रखा जा सके। विश्वसनीय। ३. जो किसी के भरोसे रहता है। आश्रित।
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भरौती  : स्त्री० [हिं० भरना+औती (प्रत्यय)] १. भरने या भराने की क्रिया या भाव। २. वह रसीद जिसमें भरपाई लिखी गयी हो। भरपाई का कागज। ३. दे० ‘भरती’।
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भरौना  : वि० [हिं० भार+औना (प्रत्यय)] बोझिल। भारी। वजनी।
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भर्ग  : पुं० [सं०√भृज् (भूनना)+घञ्] १. शिव। महादेव। २. सूर्य का तेज। ३. चमक। दीप्ति। ४. एक प्राचीन जनपद।
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भर्जन  : पुं० [सं०√भृज्+ल्युट-अन] भाड़ में भूना हुआ अन्न।
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भर्तव्य  : वि० [सं० भृ+तव्य०] १. (भार) जो वहन किया जा सके। २. (व्यक्ति) जिसका भरण-पोषण किया जा सके या किया जाने को हो। पालनीय।
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भर्ता (र्त्तृ)  : वि० [सं०√भू+तृच्] भरण-पोषण करनेवाला। पुं० १. विष्णु। २. स्त्री का पति। ३. मालिक। स्वामी। पुं० =भरता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भर्ती  : स्त्री०=भरती।
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भर्तृमती  : स्त्री० [सं० भर्तृ+मतुप्, ङीष्०] सधवा स्त्री।
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भर्तृस्थान  : पुं० [सं०] ग्रहों के स्वामी सूर्य का मूलस्थान,अर्थात् मुल्तान नगर।
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भर्तृहरि  : पुं० [सं०] १. उज्जैन के राजा इन्द्रदेव के पोते जो अपनी स्त्री समादेई (सिंघल की राजकुमारी) की दुश्चरित्रता के कारण दुःखी होकर संसार से विरक्त हो गये थे। संस्कृत में इनके बताये हुए श्रृंगार, शतक, नीति शतक, वैराग्य शतक, वाक्य पदीय आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध है। २. संगीत में एक प्रकार का संकर राग जो ललित और पुरज के मेल से बनता है।
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भर्त्तार  : पुं० [सं० भर्त्तृ] स्त्री का पति। स्वामी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भर्त्सन  : पुं० [सं०√भत्स्+ल्युट-अन] किसी के अनुचित तथा दूषित आचरण या व्यवहार से क्रुद्ध और दुःखी होकर उसे कटु शब्दों में कुछ कहना और फलतः उसे लज्जित करना।
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भर्त्सना  : स्त्री० [सं०√भर्त्स+णिच्+युच्-अन,+टाप्०] १. =भर्त्सन। २. भर्त्सित होने की अवस्था या भाव।
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भर्त्सित  : भू० कृ० [सं०√भर्त्स+णिच्+क्त] जिसका भर्त्सना हुई या की गई हो।
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भर्म  : पुं० [सं०√भू (भऱण करना)+मिनन्] १. सोना। स्वर्ण। २. नाभि। पुं० =भ्रम।
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भर्मन  : पु०=भ्रमण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भर्मना  : अ०=भरमना।
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भर्माना  : स०=भरमाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भर्य  : पुं० [सं०√भृ (भरण करना)+यत्] किसी को भरण पोषण के निमित्त दिये जाने या मिलनेवाला धन। खरचा। गुजारा।
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भर्रा  : पुं० [भर शब्द से अनु] १. झाँसा। दमबुत्ता। क्रि० प्र०—देना। २. पक्षियों की उड़ान। ३. एक प्रकार की चिड़िया।
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भर्राटा  : पुं० [अनु०] १. भरभर शब्द होने की अवस्था या भाव। २. कुछ समय तक बराबर होनेवाला भरभर शब्द। क्रि० वि० १. भरभर शब्द करते हुए। २. बहुत जल्दी या तेजी से।
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भर्राना  : अ० [भर्र से अनु०] भर्र भर्र शब्द होना। जैसे—आवाज भर्राना। स० भर्र भर्र शब्द उत्पन्न करना। अ०=भरमाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भर्सन  : पुं० =भर्त्सन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भर्सना  : स्त्री०=भर्त्सना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भल  : पुं० [सं०√भल् (मारना)+अच्] १. मार डालने की क्रिया। वध। हत्या। २. दान। ३. निरुपण। क्रि० वि० [हिं० भाव] भली भाँति। वि० =भला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भल-मनसाहट  : स्त्री०=भलमनसत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भलका  : पुं० [देश०] १. नथ में शोभा के लिए जड़ा जानेवाला सोने या चाँदी का टुकड़ा। २. एक प्रकार का बाँस।
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भलटी  : स्त्री० [?] हँसिया।
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भलपति  : पुं० [हिं० भला+सं० पति] भाला दारण करनेवाला। भालाबरदार।
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भलभल  : स्त्री० [अनु०] पानी या किसी तरल पदार्थ के बहने का शब्द। स्त्री० [अनु०] नदी-नाले के जल के बहने का शब्द।
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भलभलाहट  : स्त्री० [अनु० भलभल+हिं० आहट (प्रत्यय)] भलभल शब्द होने की अवस्था या भाव।
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भलमनसत  : स्त्री० [हिं० भला+सं० मनुष्य] १. भले मानस होने की अवस्था या भाव। २. भले आदमियों का सा भद्रतापूर्ण व्यवहार। ३. वह स्थिति जिसमें कोई किसी के प्रति भद्रतापूर्ण व्यवहार करता है।
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भलमनसी  : स्त्री०=भलमनसत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भला  : वि० [सं० भद्र, प्रा० भल्ल०] [स्त्री० भली] १. (व्यक्ति) जो सदाचारी हो और दूसरों की भलाई या हित करना या चाहता हो। शुद्ध हृदय और सात्विक प्रवृत्तियोंवाला। २. (आचरण या व्यवहार) जिसमें कोई नैतिक दोष न हो और जिससे भलाई या हित होता अथवा हो सकता हो। ३. (वस्तु या विषय) जो (क) मन को भाता हो, (ख) संतोषजनक और लाभप्रद हो। पद—भलाचंगा= (क) हर तरह से ठीक औरसंतोषजनक। जैसे—भला चंगा मकान छोड़कर वे कहीं और चले गये। (ख) शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ। ४. मंगलकारी। शुभ। पुं० भलाई। मंगल। हित। मुहावरा—(किसी का) भला मनान=किसी के कुशल-मंगल की कामना करना। (किसी का भला मानना=उपकार मानकर अनुगृहीत करना। उदाहरण—राजा का भला मानहु भाई।—तुलसी। २. नफा। लाभ। पद—भला बरा=(क) लाभ और हानि। जैसे—पहले अपना ला बुरा सोच लो। (ख) ऐसी बात जिनमें कुछ डाँट-फटकार भी हो। जैसे—वह दिन बर मुझे भला-बुरा कहते रहते हैं। अव्य० १. मंगल जनक या अच्छा! शुभ है कि ! जैसे—भपा आप आये तो ! २. जोर देने के लिए प्रयुक्त होनेवाला अव्यय। जैसे—भला ऐसा भी कही होता है।
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भलाई  : स्त्री० [हिं० भला+ई (प्रत्य)] १. भले होने की अवस्था या भाव। भलापन। अच्छापन। २. किसी के साथ किया जानेवाला उपकार। नेकी० ३. किसी प्रकारका लाभ या हित।
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भलापन  : पुं० =भलाई।
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भलामानस  : पुं० [हिं०] भला व्यक्ति। नेक आदमी।
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भले  : अव्य० [हिं० भला] १. भली-भाँति। अच्छी तरह। पूर्ण रूप से। उदाहरण—एहि बिधि भलेहि सो रोग नसाही।—तुलसी। पदभले को=उद्दिष्ट लाभ या हित के विचार से अच्छा ही हुआ। जैसे—भले को मैं कुछ बोला ही नहीं, नहीं तो झगड़ा हो जाता। भले ही=ऐसा हुआ करे० इसकी चिंता नही। इससे कोई हानि नहीं। जैसे—भले ही वह वहीं रहें। अव्य० खूब। वाह। ‘काकु’ से नहीं का सूचक। जैसे—तुम कल शाम को आनेवाले थे, भले आये।
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भलेरा  : वि० पुं० =भला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भल्ल  : पुं० [सं०√भल्ल (वध करना)+अच्] १. वध। हत्या। २. दान। ३. भाला। ४. एक प्रकार का बाण। ५. शिव का एक नाम। ६. एक प्राचीन जनपद और तीर्थ। ७. प्राचीन काल काएक प्रकार का शस्त्र जिससे शरीर में धँसा हुआ तीर निकाला जाता था। (वैद्यक) ८. भालू।
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भल्ल-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] जांबवान्।
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भल्ल-पति  : पुं० [सं० ष० त०] जांबवान्।
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भल्ल-पुच्छी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्०] गोरखमुंडी।
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भल्लक  : पुं० [सं० भल्ल+कन्] १. भालू। २. भिलाँवा। ३. इंगुदी का पेड़। ४. एकप्रकार की चिड़िया। ५. सन्निपात का ‘भल्लु’ नामक भेद। ६. एक प्राचीन जनपद।
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भल्लाक्ष  : वि० [सं० भल्ल-अक्षि, ब० स,+षच्] जिसे कम दिखाई देता हो। मंददृष्टि।
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भल्लाट  : पुं० [सं० भल्ल√अट् (जाना)+अच्] १. भालू। २. एक पर्वत का प्राचीन नाम।
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भल्लात, भल्लातक  : पुं० [सं० भल्ल√+अत् (गमन)+अच्-भल्लात+कन्] भिलावाँ।
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भल्लातकी  : स्त्री० [सं० भल्लातक+ङीष्] भिलावाँ।
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भल्लु  : पुं० [सं०√भल्ल+उ] एक तरह का सन्निपात ज्वर।
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भल्लुक  : पुं० [सं० भल्लूक, पृषो० ह्रस्व] भालू।
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भल्लुक  : पुं० [सं०√भल्ल+ऊक्] १. भालू। २. एक प्रकार का श्योनाक। ३. कुत्ता।
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भवँ  : स्त्री०=भौंह।
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भव  : पुं० [सं०√भू (होना)+अप्] १. होने की अवस्था,क्रिया या भाव। सत्ता। २. उत्पत्ति। ३. जन्म। ४. जगत्। संसार। ५. संसार में बार-बार जन्म लेने और मरने का कष्ट। ६. प्राप्ति। ७. कारण। हेतु। ८. शिव। ९. कामदेव। १॰. मांस। ११. बादल। मेघ। वि० १. समस्त पदों के अन्त में किसी के उत्पन्न। जन्मा हुआ। उत्पन्न। २. कुशल। होशियार। ३. मंगलकारक। शुभ। पुं० =भय (डर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भव-कूप  : पुं० [सं० कर्म० स०] संसार रूपी कूआँ जिसमे लोग अँधेरे में रहकर कष्ट भोगते हैं।
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भव-केतु  : पुं० [सं० ष० त०] बृहत्संहिता के अनुसार पूर्व में कभी कभी दिखाई देनेवाला एक पुच्छल तारा जिसकी पूँछ शेर की पूँछ की भाँति दक्षिणावर्त होती है। कहते है कि जितने मुहूर्त तर यह दिखाई देता है,उतने महीने तक भीषण अकाल या महामारी होती है।
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भव-चाप  : पुं० [सं० ष० त०] शिव जी का धनुष। पिनाक।
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भव-जाल  : पुं० [सं०] सांसारिक प्रपंच।
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भव-दारु  : पुं० [सं० मध्य० स०] देवदारु।
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भव-नाशिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरयू नदी।
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भव-प्रत्यय  : पुं० [सं० ष० त०] योग में समाधि की एक अवस्था।
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भव-बंधन  : पुं० [सं० ष० त०] १. जन्म-मरण का चक्र। २. सांसारिक कष्ट और दुःख।
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भव-भंग  : पुं० [सं० ष० त०] आवागमन से होनेवाली छुट्टी।
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भव-भंजन  : पुं० [सं० ष० त०] १. परमेश्वर। 2. संसार का नाश करनेवाला, काल।
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भव-भय  : पुं० [सं० ष० त०] बार बार संसार में जन्म लेने और मरने का भय।
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भव-भामिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] शिव की पत्नी-पार्वती।
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भव-भाव  : पुं० [सं० ष० त०] भौतिक बातों के प्रति होनेवाला प्रेम।
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भव-भीत  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० भव-भीति] जिसे यह भय हो कि मुझे बार बार संसार में जन्म लेना और मरना पड़ेगा।
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भव-भूति  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐश्वर्य। पुं० ‘उत्तर रामचरित’ नाटक के रचयिता संस्कृत के एक प्रसिद्ध महाकवि।
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भव-भूषण  : वि० [ष०त०] जो जगत् के भूषण के रूप में हो। पुं० शिव का भूषण, राख आदि।
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भव-भोग  : पुं० [सं० ष० त०] सांसारिक सुखों का किया जानेवाला भोग।
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भव-मोचन  : वि० [सं० ष० त०] भव-बंधन काटनेवाला। पुं० श्रीकृष्ण।
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भव-रस  : पुं० [सं० ष० त०] सांसारिक बातों के प्रति होनेवाला अनुराग और उनसे मिलनेवाला सुख।
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भव-वामा  : स्त्री० [ष०त०] शिव की पत्नी, पार्वती।
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भव-विलास  : पुं० [सं० ष० त०] १. माया। २. सांसारिक सुखों के भोग के निमित्त की जानेवाली क्रीड़ाएँ।
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भव-शूल  : पुं० [सं० ष० त०] लोक में जन्मने, जीवित रहने और मरने पर होनेवाला कष्ट।
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भव-शेखर  : पुं० [सं० ष० त०] चंद्रमा।
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भव-सागर  : पुं० [सं० कर्म० स०] संसार रूपी समुद्र।
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भव-सिंधु  : पुं० [सं० कर्म० स०] संसार रूपी समुद्र।
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भवक  : वि० [सं०√भू+वुन्-अक] १. उत्पन्न। जीता हुआ।
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भवंग, भवंगा  : पुं० [सं० भुजंग] साँप। सर्प। उदाहरण—विरह भवंग मेरो डंस्यो है कलेजो।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भवचक्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. धनुष। २. बौद्धों में वह कल्पित चक्र जिससे यह जाना जाता है कि कौन-कौन कर्म करने से जीवात्मा को किन-किन योनियों में जन्म लेना पड़ता है।
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भवतव्यता  : स्त्री०=भवितव्यता।
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भवती  : स्त्री० [सं० भवत्+ङीष्] एक प्रकार का जहरीला बाण।
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भवत्  : पुं० [सं०√भा (प्रकाश) +डवतु] १. भूमि। जमीन। २. विष्णु। वि० पूज्य। मान्य।
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भवदीय  : सर्व० [सं०√भू (होना)+ल्युट-अन] [स्त्री० भवदीया] आपका। (प्रायः पत्रों के अन्त में, लेखक के नाम से पहले आत्मीयता और नम्रता सूचित करने के लिए प्रयुक्त)।
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भँवन  : स्त्री० [सं० भ्रमण] १. घूमने या चक्कर लगाने की क्रिया ढंग या भाव। २. भ्रमण।
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भवन  : पुं० [सं०√भू (होना)+ल्युट-अन] १. अस्तित्व में आना। उत्पत्ति या जन्म। २. कोई वास्तु-रचना विशेषतः वास-स्थान। ३. प्रासाद। महल। ४. जगत्। संसार। ५. आधार या आश्रय का स्थान। जैसे—करुणाभवन। ६. छप्पय का एक भेद। पुं० [सं० भ्रमण] १. चारों ओर घूमने या चक्कर लगाने की क्रिया या भाव। भ्रमण। २. कोल्हू के चारों ओर का वह चक्कर जिसमें बैल घूमते हैं।
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भवन-कक्ष्या  : स्त्री० [सं०] महल या राजप्रासाद का आंगन या चौक।
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भवन-दीर्घिका  : स्त्री० दे० ‘गृह-दीर्घिका’।
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भवन-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. घर का मालिक। गृहपति। २. राशि चक्र में किसी ग्रह का स्वामी। ३. जैनियों के दस देवताओं का एक वर्ग जिनके नाम ये हैं—असुरकुमार, नागकुमार, तडित्कुमार, सुवर्णकुमार, बहिकुमार, अनिलकुमार, स्तनित्कुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार, और दिक्कुमार।
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भवनवासी (सिन्)  : पुं० [सं० भवन√वस् (निवास करना)+णिनि] जैनों के अनुसार आत्माओं के चार भेदों में से एक।
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भँवना  : अ० [सं० भ्रमण] १. चक्कर लगाना। २. घूमना-फिरना।
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भवना  : अ० [सं० भ्रमण] घूमना। फिरना। चक्कर खाना।
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भवनी  : स्त्री० [सं० भवन] =गृहिणी।
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भवनीय  : वि० [सं०√भू (होना)+अनीयर] १. भविष्य में होनेवाला। २. आसन्न। सन्निकट।
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भवन्नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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भवपाली  : स्त्री० [सं० ष० त०+ङीष्] तांलिकों के अनुसार भुवनेश्वरी देवी जो संसार की रक्षा करने वाली मानी गई है।
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भँवर  : पुं० [सं० भ्रमर] १. भ्रमर (भौंरा)। २. नदी के मोड़ या तट पर तथा पानी का बहाव रुकने पर लहरों के चक्कर काटते हुए आगे बढ़ने की स्थिति। ३. गड्ढा। गर्त। ४. भौरें की तरह का या काले रंग का घोड़ा। भौंरा। मुस्की। उदाहरण—हांसुल भँवर कि आह बखानै। वि० काला।
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भवँर  : स्त्री०=भँवर। पुं० =भौंरा।
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भँवर-गीत  : पुं० =भ्रमर-गीत।
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भँवर-जाल  : पुं० [हिं० भँवर+जाल] संसार और उसके झगड़ेबखेड़े। भ्रमजाल।
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भँवर-भीख  : स्त्री०= [हिं० भँवर+भीख] चारों ओर घूम-घूमकर प्राप्त की हुई भिक्षा।
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भँवरकली  : स्त्री० [हिं० भँवर+काली] लोहे या पीतल की वह कड़ी जो कील मे इस प्रकार ढीली जाती जड़ी रहती है कि चारों ओर सहज में घुमाई जा सकती है।
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भवरय  : स्त्री०=भाँवरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भँवरा  : पुं० =भौंरा।
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भँवरी  : स्त्री० १. =भौंरी। २. =भाँवर। स्त्री०=भँवर (नदी का)। स्त्री० [हिं० भँवना] घूम-घूमकर सौदा बेचना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भँवरी  : स्त्री०=भौंरी।
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भवाँ  : स्त्री० [हिं० बवना] चक्कर। पेरी। उदाहरण—राते कँवल करहिं अलि भवाँ घमहिं मानि चहहि अपसवाँ।—जायसी।
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भवा  : स्त्री० [सं० भाव+टाप्०] १. भवानी। पार्वती। २. दुर्गा।
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भवाचल  : पुं० [सं० ष० त०] कैलास पर्वत।
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भवांतर  : पुं० [सं० मयू० स०] पहले का अथवा आगे चलकर होनेवाला जन्म।
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भँवाना  : स० [हिं० भँवना] १. घुमाना। २. चक्कर देना। ३. धोखे या भ्रम में डालना।
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भवाँना  : स० [सं० भ्रमण] घुमाना। फिराना। चक्कर देना।
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भवाना  : स०=भवाँना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भवानी  : स्त्री० [सं० भव+ङीष्, आनुक्] १. भव की भार्या। दुर्गा। २. छत्रपति शिवाजी की तलवार की संज्ञा। ३. संगीत में बिलावन ठाठ की एक रागिनी।
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भवानी-कांत  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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भवानी-गुरु  : पुं० [सं० ष० त०] हिमवान्।
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भवानी-नंदन  : पुं० [सं० ष० त०] १. गणेश। २. कार्तिकेय।
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भवानी-पति  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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भवांबुधि  : पुं० [सं० भव-अंबुधि, कर्म० स०] संसार रूपी सागर।
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भवायना  : स्त्री० [सं० भव-आयन, ब० स०,+टाप्] गंगा जो शिव की जटा से निकली है। भवायनी।
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भँवारा  : वि० [हिं० भँवना+आरा (प्रत्यय)] जो प्रायः घूमता-फिरता रहता हो। जिसे भ्रमण करने की लत पड़ी हो।
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भवार्णव  : पुं० [सं० भव-अर्णव, कर्म० स०] भव सागर।
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भवि  : वि० =भव्य। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भविक  : वि० [सं० भव+ठन्-इक] १. मंगलकारी। २. धार्मिक। २. उपयोगी। उपयुक्त। ४. प्रसन्न। ५. समृद्ध। पुं० कल्याण। मंगल।
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भवित  : भू० कृ० [सं०] १. अस्तित्व में आया हुआ। २. गत। भूत।
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भवितव्य  : वि० [सं०√भू+तव्यम्] [भाव० भवितव्यता] १. जो भविष्य में विशेषतः आसन्न भविष्य मे निश्चित रूप से होने को हो। २. जो भाग्य में बदा हो।
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भवितव्यता  : स्त्री० [सं० भवितव्य+तल्+टाप्] १. ऐसा काम या बात जो भविष्य में ईश्वरीय विधान के अनुसार आश्वय होने को हो। २. भाग्य।
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भविता (तृ)  : वि० [सं०√भू+तृच्] [स्त्री० भवित्री] १. आगे चलकर आने या होनेवाला। २. जो आगे चलकर अच्छा या उत्तम होने को हो। होनहार।
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भविषय  : पुं० =भविष्य। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भविष्य  : पुं० [सं०√भू (होना)+लुट्-शतृ, स्य, पृषो० ल-लोप] १. आनेवाला समय। वर्तमान के बाद आनेवाला काल। २. व्याकरण में भविष्यत् काल। (दे०)
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भविष्य सुरति गोपना  : स्त्री०=भविष्य गुप्ता (नायिका)।
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भविष्य-गुप्ता  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] वह गुप्ता नायिका जो रति में प्रवृत्त होनेवाली हो और पहले से उसे छिपाने का प्रयत्न करे० भविष्य सुरति। गुप्ता।
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भविष्य-ज्ञान  : पं० [सं० कर्म स०] होनेवाली बातों की जानकारी।
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भविष्य-निधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. भविष्य में होनेवाली आवश्यकताओं या स्थितियों के निमित्त संचिक किया जानेवाला कोश या धनराशि। २. आजकल नियोक्ता द्वारा कर्मचारी के लिए संचित किया जानेवाला धन जो कर्मचारी की सेवा छोड़ने के समय दिया जाता है। निर्वाह निधि। (प्राविंडेंट फंड) ३. वह धन जो उक्त निधि में समय समय पर कर्मचारी या नियोक्ता जमा करते हैं।
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भविष्य-पुराण  : पुं० [सं० कर्म० स०] अठारह पुराणों में से एक।
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भविष्यत्  : पुं० [सं०√भू (होना)+लृट्-शतृ, स्य] वर्तमान काल के उपरांत आनेवाला काल। आने वाला समय आगामी काल। भविष्य।
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भविष्यत्-काल  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में क्रियापद का वह रूप जो भविष्य में क्रिया के घटित होने की सूचना देता है। क्रियापद के इस रूप में गा गी गे आदि जुड़े होते हैं।
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भविष्यदाक्षेप  : पुं० [सं० भविष्यत्-आक्षेप, कर्म० स०] साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार।
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भविष्यद्वक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० भविष्यत्-वक्तृ, ष० त०] १. भविष्य में होनेवाली घटनाओं का कथन करनेवाला। २. ज्योतिषी।
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भविष्यद्वाणी  : स्त्री० [सं० भविष्यत्-वाणी, ष० त०] ऐसा कथन या वक्तव्य जो भविष्य में होनेवाली किसी घटना की अग्रिम सूचना देता हो। आने या होनेवाली घटना का पहले से कथन।
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भवीला  : वि० [हिं० भाव+ईला (प्रत्यय)] १. भावपूर्ण। २. बाँका। तिरछा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भवेश  : पुं० [सं० भव-ईश, ष० त०] १. संसार का स्वामी परमेश्वर। २. शिव।
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भँवैया  : वि० [हिं० भंवना] १. घुमाने या चक्कर दिलानेवाला। २. तरह-तरह के नाच नचाने या खेल खिलानेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भव्च्छेद  : पुं० [सं० ष० त०] संसार में होनेवाला आवागमन से मुक्ति।
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भव्य  : वि० [सं०√भू (होना)+यत्] [भाव० भव्यता] १. जो देखने में बड़ा और सुन्दर जान पड़े। शानदार। २. मंगलदायक। शुभ। ३. सच्चा। सत्य। ४. योग्य। लायक। ५. भविष्य में आने या होनेवाला। ६. जिसे जन्म धारण करना पड़ता हो। पुं० १. भलता नामक वृक्ष। २. कमरख। ३. नीम। ४. करेला। ५. मनु चाक्षुप के अन्तर्गत देवताओं का एक वर्ग। ६. ध्रुव का एक पुत्र। ७. वह जिसे लिंगपद की प्राप्ति हो। भवसिद्धक। (जैन)
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भव्यता  : स्त्री० [सं० भव्य+तल्+टाप्] भव्य होने की अवस्था या भाव।
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भव्या  : स्त्री० [सं० भव्य+टाप्] १. उमा। पार्वती। २. गजपीपल।
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भंशी (शिन्)  : वि० [भ्रंश+इनि] १. भ्रष्ट होनेवाला। २. नष्ट होनेवाला। ३. छीजनेवाला।
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भष  : पुं० [सं०√भष् (भूँकना)+अच्] कुत्ता। पुं० =भक्ष्य (आहार या भोजन) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भषण  : पुं० [सं०√भष्+ल्युट-अन] १. भूँकना। २. कुत्ता। पुं० =भक्षण (खाना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भषना  : स० [सं० भक्षण] भोजन करना। खाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भसकाना  : स०=भकोसना। उदाहरण—आफू षाय बाँगि भसकावै।—गोरखनाथ।
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भसंधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] ज्योतिष में अश्लेषा, ज्येष्ठा, और रेवती नक्षत्रों के चौथे चरण के बाद के नक्षत्रों से संधि।
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भसन  : पुं० [सं०√भस् (प्रकाश करना)+ल्युन-अन] भ्रमर। भौंरा।
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भसना  : पुं० [बँ०] १. पानी के ऊपर तैरना। २. पानी में डाला या डुबाया हुआ।
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भसम  : वि० पुं० =भस्म।
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भसम-पत्ती  : स्त्री० [सं० भस्म] गाँजा। (गँजेड़ी)
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भसमंत  : वि० [सं० भस्म] जो भस्म हो चुका हो। जला हुआ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भसमा  : पुं० [सं० भस्म] पीसा हुआ आटा। (साधुंओं की परिभाषा) पुं० [अ० वस्मः] १. नील की पत्तियों का चूरा या बुकनी जिसके घोल से सफेद बाल काले किये जाते हैं। २. किसी प्रकार का खिजाब।
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भँसरा  : पुं० =भँजनी (करघे की)।
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भंसा  : पुं० [सं० भांड-शाला] १. रसोई घर। चौका। २. दे० ‘भंसार’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भसाकू  : पुं० [हिं० तमाकू का अनु०] घटिया तमाकू जिसका धुआँ पीने पर कड़ुवा लगता हो।
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भसान  : पुं० [बँ० भसाना] १. जल में भसाने या डुबाने की क्रिया या भाव। २. पूजा के उपरांत देवी-देवता आदि की मूर्ति को किसी नदी में प्रवाहित करना। जैसे—काली भसान, सरस्वती भसान।
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भसाना  : स० [बं०] १. किसी चीज को पानी में तैरने के लिए छोड़ना। जैसे—जहाज भसाना। (लश०) मूर्ति भसाना। २. पानी में डालना या डुबाना।
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भंसार  : पुं० १. =भाड़। २. =भट्ठा। २. =भंसा।
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भसिंड, भसीड़  : स्त्री० [देश] कमल की नाल जिसकी तरकारी बनती है। मुरार। कमलनाल।
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भसुंड  : पुं० [सं० भुशुण्ड] हाथी गज। वि० बहुत मोटा-ताजा या भारी-भरकम परन्तु बेडौल या भद्दा।
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भसुर  : पुं० [हिं० ससुर का अनु०] विवाहिता स्त्री के विचार से उसके पति का बड़ा भाई। जेठ।
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भसूँड़  : पुं० [सं० भुशुंड] हाथी की सूँड़। (महावत)
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भस्त्रा  : स्त्री० [सं०√भस् (प्रकाश करना)+त्रम्+टाप्] आग सुलागने की भाथी।
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भस्म  : वि० [सं० भस+मनिन्, न—लोप] जो पूरी तरह से जलकर राख हो गया हो। पुं० १. कोयले, लकड़ी आदि के जल जाने पर बची हुई राख। २. चिता की राख जो पुराणानुसार शिव जी अपने शरीर में लगाते हैं। क्रि० प्र०—रमाना। लगाना। ३. विशेष प्रकार से तैयार की हुई अथवा अग्निहोत्र में की राख जो पवित्र मानी जाती है और जिसे शिव के भक्त मस्तक तथा अंगों में लगाते अथवा साधु लोग सारे शरीर में लगाते हैं। ४. वैद्यक में किसी धातु को फूँककर तैयार की हुई राख जो चिकित्सा के काम आती है। जैसे—लौह, भस्म, स्वर्ण भस्म। ५. एक प्रकार का पथरी रोग।
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भस्म-गंधा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] रेणुका (गंधद्रव्य)।
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भस्म-गर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] तिनिश वृक्ष।
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भस्म-गर्भा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] १. रेणुका नामक गंध-द्रव्य। २. शीशम।
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भस्म-जावाल  : पुं० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
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भस्म-तूल  : पुं० [सं० भस्मन्√तूल+क] तुषार। पाला।
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भस्म-प्रिय  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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भस्म-वेधक  : पुं० [उप० मि० स०] कपूर।
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भस्म-शयन  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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भस्म-स्नान  : पुं० [सं० तृ० त०] सारे शरीर में राख मलना (साधु)।
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भस्मक  : पुं० [सं० भस्मन्+कन् वा भस्मन्√कृ+ड] १. भावप्रकाश के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें सब कुछ खाया हुआ तुरन्त पच जाता है और फिर खाने की इच्छा होती है। इसे भस्मकीट भी कहते हैं। २. आधुनिक रसायन में वह भस्म या राख जो किसी धातु के पूरी तरह से जल जाने पर बच जाती है। ३. सोना। स्वर्ण। ४. बिंडब। वि० भस्म करनेवाला।
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भस्मकारी (रिन्)  : वि० [सं० भस्मन्√कृ (करना)+णिनि] जलाकर भस्म करनेवाला।
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भस्मता  : स्त्री० [सं० भस्मन्+तल्+टाप्] भस्म होने की अवस्था या भाव।
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भस्मशायी (यिन्)  : पुं० [सं० भस्मन्√शी (शयन करना)+णिनि] शिव।
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भस्मसात्  : वि० [सं० भस्मन्+साति] जो चलकर भस्म या राख हो गया हो। भस्मीभूत।
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भस्माग्नि  : स्त्री० [सं० भस्मन्-अग्नि, मध्य० स०] भस्मक रोग।
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भस्मावशेष  : पुं० [सं० भस्म-अवेशष, कर्म० स० या ब० स०] किसी चीज के पूरी तरह से जल जाने पर बचने वाली उसकी राख या और किसी प्रकार का पूर्ण विनष्ट अंश।
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भस्मासुर  : पुं० [सं० भस्मन्-असुर, मध्य० स०] एक प्रसिद्ध राक्षस जिसने शिव जी से यह वर प्राप्त किया था कि जिसके सिर पर मैं हाथ रखूँ वह भस्म हो जाय, पर जब वह शिव को ही भस्म करने चला, तब कृष्ण ने उसे मार डाला था।
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भस्मित  : भू० कृ० [सं० भस्मन्+इतच्] १. भस्म किया या जलाया हुआ। २. जो जलकर भस्म हो चुका हो।
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भस्मीभूत  : भू० कृ० [सं० भस्मन्+च्वि, इत्व, दीर्घ, भस्मी√भू+क्त] जो पूरी तरह से जलकर राख हो गया हो।
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भस्सड़  : वि० [अनु० भस्म] बहुत मोटा और भद्दा। (विशेषतः आदमी)।
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भस्सी  : स्त्री० [?] कोयले, चूने आदि का महीन चूर्ण।
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भहराना  : अ० [अनु०] १. झोंके से गिर या फिसल जाना। एकाएक गिर पड़ना। २. किसी पर अचानक वेगपूर्वक टूट पड़ना। ३. किसी काम में सारी शक्ति लगाकर और जोरों से लगना। (व्यंग्य))
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भहूँ  : स्त्री०=भौंह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भा  : स्त्री० [सं०√भा (प्रकाश करना)+अड+टाप्] १. दीप्ति। चमके। २. प्रकाश। रोशनी। ३. छटा। छवि। शोभा। ४. किरण। रश्मि। ५. बिजली। विद्युत। अव्य० [हिं० माना] यदि इच्छा हो।
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भा-कोश  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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भा-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्रकाशमान् पिंडों के चारों ओर कुछ दूरी तक दिखाई पड़नेवाला प्रकाश जो मंडलाकार होता है। २. तेजस्वी पुरुषों, देवताओं आदि के चित्रों में उनके मुख-मंडल के चारों ओर दिखाया जानेवाला प्रकाशमान घेरा। परिवेश। प्रभा-मंडल। (हैलो)
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भा-रूप  : पुं० [सं० ब० स०] १. आत्मा। २. ब्रह्मा।
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भाइ  : पुं० [सं० भाव] १. प्रेम। प्रीति। मुहब्बत। २. प्रकृति। स्वभाव। ३. मन मं उठनेवाला भाव या विचार। स्त्री० [हिं० भाँति] १. भाँति। प्रकार। तरह। २. चाल-ढाल। रंग-ढंग। स्त्री०=भट्ठी (राज०)। पुं० [सं० भाव] १. भाव। विचार। २. प्रीति। प्रेम। ३. स्वभाव। स्त्री०आभा। चमक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाइप  : पुं० [हिं० भाई+प (पन) (प्रत्यय)] १. भाईचारा। २. गहरी दोस्ती। घनिष्ठ मित्रता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँई  : पुं० [हिं० भाना=घुमाना] खरादनेवाला। खरादी। कूनी।
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भाई  : पुं० [सं० भ्रातृ] १. किसी प्राणी के संबंध के विचार से वह नर प्राणी जो उसी के माता-पिता अथवा माता या पिता से उत्पन्न हुआ हो। भ्राता। सहोदर। २. एक ही वंश या परिवार की किसी एक पीढ़ी के व्यक्ति की दृष्टि से उसी पीढ़ी का कोई दूसरा पुरुष। जैसे—चाचा का लड़का=चचेरा भाई, फूफी का लड़का=फुफेरा भाई, मौसी का लड़का=मौसेरा भाई, मामा का लड़का=ममेरा भाई। ३. अपनी जाति या समाज का कोई ऐसा व्यक्ति जिसके साथ समानता का व्यवहार होता है। जैसे—जाति, भाई, मुँह बोला भाई। अव्य०=भई (सम्बोधन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाई-दूज  : स्त्री० [हिं० भाई+दूज] कार्तिक शुक्ल द्वितीया। भयादूज। (इस दिन बहन अपने भाई की टीका लगाती, भोजन कराती, तथा फल, मिठाई आदि देती हैं)।
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भाई-बंद  : पुं० [हिं० भाई+बंधु] १. भाई और मित्र बंधु आदि। २. अपनी जात बिरादरी या नाते के ऐसे लोग जिनके साथ भाइयों का सा व्यवहार होता हो।
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भाई-बंधु  : पुं० =भाई-बंद।
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भाई-बिरादरी  : स्त्री० [हिं० भाई+बिरादरी] एक ही जाति या समाज के वे लोग जिनके संबंध साथ आत्मीयता का और भाइयों का-सा व्यवहार होता हो।
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भाईचारा  : पुं० [हिं० भाई+सं० आचार] दो व्यक्तियों या पक्षों में होनेवाला ऐसा आत्मीयतापूर्ण संबंध जिसमें सामाजिक अवसरों पर भाइयों की तरह आपस में लेन-देन होता है।
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भाईपन  : पुं० [हिं० भाई+पन (प्रत्यय)] १. भाई होने की अवस्था या भाव। भ्रातृत्व। २. घनिष्ठ आत्मीयता या बंधुता। भाई-चारा।
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भाउ  : पुं० [सं० भाव] १. मन में उत्पन्न होनेवाला भाव या विचार। २. प्रीति। प्रेम। ३. दे० ‘भाव’। पुं० [सं० भाव] १. उत्पत्ति। २. जन्म। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँउर  : स्त्री०=भाँवर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँऊँ  : पुं० [सं० भाव] अभिप्राय। आशय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाऊ  : पुं० [सं० भाव] १. मन में उठनेवाला भाव, भावना या विचार। २. प्रीति। प्रेम। स्नेह। ३. प्रकृति। स्वभाव। ४. अवस्था। दशा। हालत। ५. महत्त्व। महिमा। ६. आकृति। रूप। ७. प्रभाव। ८. मनोवृत्ति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाएँ  : क्रि० वि० [सं० भाव] समझ में। बुद्धि के अनुसार। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँकड़ी  : पुं० [देश] एक प्रकार का जंगली झाड जो गोखरू से मिलता जुलता होता है।
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भाकर  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार नैऋत्य कोण में का एक देश। २. भास्कर। सूर्य। वि० १. भा अर्थात् प्रकाश करनेवाला। २. दमकानेवाला।
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भाकसी  : स्त्री० [सं० भस्मी] १. भट्ठी। २. भाड़। भड़साई।
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भाकुर  : स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की मछली जिसका सिर बहुत बड़ा होता है। २. दे० ‘भकाऊँ’। वि० बहुत बड़ा और विकराल।
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भाकूर  : स्त्री० [सं०] एक तरह की मछली।
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भाक्त  : वि० [सं० भक्ति या भक्त+अण्] १. जिसका पालन-पोषण दूसरे लोग करते हों। दूसरों की कृपा से जीवित रहनेवाला। पराश्रित। जो खाये जाने के योग्य हों। खाद्य। ३. कम महत्त्व का या घट कर। गौण। जैसे—कुछ साहित्यकार ध्वनि को भाक्त (गौण और लक्षण-गम्य) मानते हैं। पुं० चावल।
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भाख  : पुं० =भाषण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाखना  : स० [सं० भाषण] कहना। बोलना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाखर  : पुं० [?] पर्वत। पहाड़। (डिं०)
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भाखा  : स्त्री० [सं० भाषा] १. मुँह से कही हुई बात। कथन। २. मध्ययुग में हिन्दी भाषा के लिए प्रयुक्त होनेवाली उपेक्षासूचक संज्ञा। ३. बोली। भाषा।
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भाँग  : स्त्री० [सं० भृँग या भृँगी] एक प्रसिद्ध क्षुप जिसकी पत्तियाँ मादक होती है, और नशे के लिए पीसकर पी जाती है। मुहावरा—भाँग छानना=भाँग की पत्तियों को पीसकर और छानकर नशे के लिए पीना। भाँग खा जाना या पी जाना=नशे की सी बातें करना। नासमझी की या पागलपन की बातें करना। घर में भूँजी भाँग न होना=बहुत ही कंगाल या दरिद्र होना। पुं० [?] वैश्यों की जाति।
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भाग  : पुं० [सं०√भज् (विभाग करना)+घञ्] १. किसी चीज के कई खंडों, टुकडों या विभागों में से हर एक। हिस्सा। (पार्ट)। जैसे—पुस्तक का पहला और दूसरा भाग छप गया है, तीसरा और चौथा अभी छपना बाकी हैं। २. किसी चीज की किसी ओर या दिशा का अंश या पार्श्व। जैसे—(क) मकान का अगला भाग। ३. किसी समूची और पूरी चीज का कोई अंश। (पोर्शन)। जैसे—पेट के बीच का भाग। ४. किसी चीज का एक चौथाई अंश। ५. वृत्त की परिधि का ३६॰ वाँ अंश। ६. गणित की वह क्रिया जिससे कोई संख्या कई बराबर टुकड़ों में बाँटी जाती है। तकसीम (डीविजन)। जैसे—१॰॰ को ४ से भाग करो। ७. ज्योतिष में राशि चक्र की किसी राशि का ३9 वाँ अंश। ८. जगह। स्थान। ९. तकदीर। भाग्य। नसीब। १॰. ऐश्वर्य या वैभवसे युक्त होने की अवस्था। सौभाग्य। ११. भाल या ललाट जहाँ भाग्य का अवस्थान माना जाता है। १२. उषःकाल। तड़का। भोर। १३. पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र। १४. एक प्राचीन देश।
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भाग-कल्पना  : स्त्री० [सं० ष० त०] बँटवारा।
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भाग-दौड़  : स्त्री० [हिं० भागना+दौड़ना] १. किसी काम या बात के लिए होनेवाली दौड़-धूप। २. दे० ‘भागड़’।
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भाग-धान  : पुं० [सं० ष० त०] कोश। खजाना।
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भाग-फल  : पुं० [सं० ष० त०] गणित में वह संख्या जो भाज्य को भाजक से भाग देने पर प्राप्त हो। लब्धि। जैसे—यदि १॰॰ को २॰ से भाग दें तो भाग-फल ५ होगा।
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भाग-भरा  : वि० [हिं० भाग्य-भरना] [स्त्री० भाग-भरी] १. भाग्यवान् (व्यक्ति)। २. भाग्यवान् बनानेवाला या सौभाग्यपूर्ण (पदार्थ)।
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भाग-भरी  : स्त्री० [हिं० भाग-भरा] १. सौभाग्यशालिनी स्त्री। २. जोरू या पत्नी के लिए संबोधन। ३. सूर्य की संक्रांति (स्त्रियाँ)
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भाग-भुक (ज्)  : पुं० [सं० भाग√भुज् (खाना)+क्विप्] राजा।
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भागक  : पुं० [सं० भागसे] लिखाई, छापे आदि में एक प्रकार चिन्ह जो दो राशियों या संख्याओं के बीच में रहकर इस बात का सूचक होता है कि पहलेवाली राशि या संख्या को बादवाली राशि या संख्या से भाग देना चाहिए। इस प्रकार लिखा जाता है, ÷।
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भागड़  : स्त्री० [हिं० भागना+ड़ (प्रत्यय)] १. वैसी ही उतावली या जल्दी जैसी कहीं से भागने के समय होती है। जैसे—तुम्हें तो हर काम की भागड़ पड़ी रहती है। २. दे० ‘भगदड़’। क्रि० प्र०—पड़ना।—मचना।
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भाँगड़ा  : पुं० =भँगड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भागण  : वि० [स्त्री० भागणी] भाग्यावान्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भागदुह  : पु० [सं० भाग√दुह् (दुहना)+क] प्राचीन काल में राजकर उगाहनेवाला एक अधिकारी।
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भागधेय  : पुं० [सं० भाग-धेय] १. भाग्य। तक़दीर। क़िस्मत। २. राज को दिया जानेवाला उसका अंश या भाग जो कर के रूप में होता है। ३. सगोत्र या सपिंड लोग। दयाद।
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भागना  : अ० [सं० भाज्] १. आपत्ति, भय आदि उपस्थित होने अथवा दिखाई देने पर उससे बचने के लिए कहीं से जल्दी जल्दी चल या दौड़ कर दूर निकल जाना। पलायन करना। जैसे—सिपाही को देखते ही चोर भाग गया। संयो० क्रि०—जाना।—निकलना।—पड़ना। मुहा०—सिर पर पैर रखकर भागना=बहुत तेजी से भागना। जल्दी चलकर दूर हो जाना। २. किसी काम या बात से पीछा छुड़ाने या बचने के लिए आगा-पीछा करना। कहीं से टलने या हटने का विचार करना। जैसे—जहाँ कोई कठिन काम आता है, वहीं तुम भागना चाहते हो। संयो० क्रि०—जाना ३. किसी काम, बात या व्यक्ति को बुरा समझकर उससे बिलकुल अलग या दूर रहना। जैसे—मैं तो सदा ऐसे कामों से दूर भागता हूँ। विशेष—प्रायः लोग भ्रम से ‘दौड़ना’ के अर्थ में भी इसका प्रयोग करते हैं। जो ठीक नहीं है।
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भागनेय  : पुं० [सं० भागिनेय] बहन का बेटा। भानजा।
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भागम भाग  : क्रि० वि० [हिं० भागना] १. भागते या दौड़ते हुए। २. बहुत अधिक जल्दी में। स्त्री०=भागा-भाग।
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भाँगर  : स्त्री० [हिं० भाँगना=तोड़ना] धातु आदि की गर्द या छोटे-छोटे कण।
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भागरा  : पुं० [देश०] संगीत में एक संकर राग जिसे कुछ संज्ञीतज्ञ श्रीराम का पुत्र मानते हैं।
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भागवंत  : वि० [सं० भाग्यवंत] जिसका भाग्य बहुत अच्छा हो। भाग्यवान्।
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भागवत  : वि० [सं० भाग्यवत् या भगवती+अण्] १. भगवत् अर्थात् विष्णु सम्बन्धी। भगवत् या विष्णु का। २. भगवत् अर्थात् विष्णु की उपासना और सेवा करनेवाला। पुं० १. ईश्वर या भगवान् का भक्त। हरि भक्त। २. एक पुराण जिसमें १२ स्कंध, ३१२ अध्याय और १८॰॰॰ श्लोक हैं। ३. दे० ‘देवी भागवत’। ४. वैष्णव। ४. भगवान् बुद्ध के अनुयायी या भक्त। ५. एक प्रकार का छन्द जिसके प्रत्येक चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
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भागवत-धर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्राचीन धर्म या भक्ति-प्रधान संप्रदाय जो कि वि० पू० तृतीय शताब्दी में चला था।
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भागवती  : स्त्री० [सं० भाग्यवत+ङीष्] एक तरह की कंठी जो वैष्णव भक्त पहनते हैं।
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भागहर  : वि० [सं० भाग√हृ+अच्] भाग या अंश पाने या लेनेवाला हिस्सेदार।
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भागहारी (रिन्)  : वि० [सं० भाग√हृ (हरण करना)+णिनि] हिस्सेदार। पुं० उत्तराधिकारी।
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भागाभाग  : स्त्री० [हिं० भागना] वह स्थिति जिसमें सब लोगों को भागने की पड़ी होती है। भाग-दौड़। भागड़। क्रि० वि० १. जल्दी जल्दी दौड़ते हुए। २. बहुत जल्दी में या तेजी से।
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भागार्थ (र्थन्)  : वि० [सं० भाग√अर्थ्+णिनि] जो अपना भाग या हिस्सा प्राप्त करना या लेना चाहता हो।
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भागार्ह  : वि० [सं० भाग-अर्ह, ष० त०] १. जिसके भाग हो सकें। विभक्त होने के योग्य। २. जिसे अपना भाग या हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार हो। पुं० उत्तराधिकारी।
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भागिक  : वि० [सं० भाग+ठन्—इक] १. भाग या हिस्से से संबंध रखनेवाला। २. भाग या हिस्से के रूप में होनेवाला। ३. (मूलधन) जिस पर सूद मिलता हो।
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भागिता  : स्त्री० [सं० भागिन्+तल+टाप्] १. भागी अर्थात् हिस्सेदार होने की अवस्था या भाव। २. वह स्थिति जिसमें दो या अधिक लोग हिस्सेदार बनकर कोई उद्योग या व्यापार चलाते हैं। (पार्टनरशिप)
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भागिनेय  : पुं० [सं० भगिनी+ढक्—एय] [स्त्री० भगिनेयी] बहन का लड़का। भानजा।
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भागी (गिन्)  : पुं० [सं०√भज्+घिनुण] १. वह जो किसी प्रकार का भाग पाने का अधिकारी हो। हिस्सेदार। २. वह जिसने किसी के कार्य में सहायता दी हो और फलतः अपने उतने कार्य के फल का पात्र या भाजन हो। जैसे—पाप का भागी। पुं० शिव।
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भागीरथ  : पुं०=भगीरथ। वि० [सं० भगीरथ+अण्] भगीरथ-संबंधी।
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भागीरथी  : स्त्री० [सं० भागीरथ+ङीष्] १. गंगा नदी। जाह्नवी। ३. बंगाल की एक नदी जो गंगा में मिलती है। ३. हिमालय की एक चोटी जो गढ़वाल के पास है।
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भागुरि  : पुं० [सं०] सांख्य के भाष्यकर्ता एक ऋषि का नाम।
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भागू  : वि० [हिं० भागना+ऊ (प्रत्य०)] भागनेवाला। पुं० भगोड़ा।
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भाग्य  : वि० [सं०√भज्+ण्यत्, कुत्व] जिसके भाग अर्थात् हिस्से हो सकते हों या होने को हों। भागार्ह। पुं० १. वह ईश्वरीय या दैवी विधान जिसके संबंध में यह माना जाता है कि प्राणियों, विशेषतः मनुष्यों के जीवन में जो घटनाएँ घटती हैं, वे पूर्व-निश्चित और अवश्यंभावी होती हैं और उन्हीं के फलस्वरूप मनुष्यों को सब प्रकार के सुख-दुःख प्राप्त होते हैं और उनके जीवन का क्रम चलता है। किस्मत। तक़दीर। नसीब। विशेष—साधारणतः लोक में इसका निवास मनुष्य के ललाट में माना जाता है। क्रि० प्र०—खुलना।—चमकना।—फूटना। पद—भाग्य का साँढ़=बहुत बड़ा भाग्यवान्। (परिहास और व्यंग्य) मुहा० के लिए देखें ‘किस्मत’ के मुहा०। २. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का एक नाम।
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भाग्य-पत्रक  : पुं० [सं० मध्य० स०] आकस्मिक रूप से उठाई या चुनी हुई दो या अधिक परचियों में सो कोई एक जिस पर कुछ लिखा रहता और जिसके अनुसार धन-संपत्ति आदि का बँटवारा, कोई नियुक्ति या निश्चय किया जाता है। (लाट)
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भाग्य-भाव  : पुं० [ष० त०] जन्म-कुंडली में जन्म-लग्न से नवाँ स्थान जहाँ से मनुष्य के भाग्य के शुभाशुभ का विचार किया जाता है। (फलित-ज्योतिष)
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भाग्य-योग  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसा अवसर या समय जिसमें किसी का भाग्य खुलता या चमकता हो।
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भाग्य-लिपि  : स्त्री० [सं० ष० त०] भाग्य में लिखी हुई बातें।
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भाग्य-वश  : अव्य० [सं० ष० त०] भाग्य या किस्मत से ही (बुद्धि बल या प्रयत्न से नहीं।)।
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भाग्य-वशात्  : अव्य० [सं० ष० त०]=भाग्य-वश।
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भाग्य-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] यह विचार-धारा या सिद्धान्त कि भाग्य में जो कुछ बदा या लिखा है वह अवश्य होगा और जितना बदा या लिखा है उतना नियत समय पर अवश्य प्राप्त होगा।
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भाग्य-विधाता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] किसी के भाग्य का विधान अर्थात् भला-बुरा निश्चित करनेवाला।
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भाग्य-विप्लव  : पुं० [सं० ष० त०] अच्छे भाग्य का बिगड़कर बुरा होना। दुर्भाग्य।
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भाग्य-संपद्  : स्त्री० [ष० त०] अच्छा भाग्य। सौभाग्य।
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भाग्य-हीन  : वि० [सं० तृ० त०] अभागा। बद-किस्मत।
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भाग्यदा  : स्त्री० [सं० भाग्य√दा (देना)+क+टाप्] चिट्ठी निकालकर टिकट खरीदनेवालों में इनाम बाँटने की पद्धति जिसमें केवल भाग्य से ही लोगों को धन मिलता है। (लॉटरी)
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भाग्यवादी (दिन्)  : वि० [सं० भाग्यवाद+इनि] भाग्यवाद-संबंधी। पुं० वह जो भाग्य पर भरोसा रखता हो।
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भाग्यवान् (वत्)  : वि० [सं०=भाग्य+मतुप्] जो भाग्य का धनी हो। अच्छे भाग्यवाला। भाग्यशाली।
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भाग्यशाली (लिन्)  : वि० [सं० भाग्य√शाल्+णिनि] भाग्यवान्। (दे०)
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भाग्योदय  : पुं० [सं० भाग्य-उदय, ष० त०] भाग्य का खुलना। सौभाग्य का समय आना।
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भाँज  : स्त्री० [हिं० भाँजना] १. भाँजने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज के भाँजे जाने के कारण पड़नेवाला चिन्ह या रेखा। ३. वह धन जो रुपया नोट आदि भाँजने अर्थात् भुनाने के बदले में दिया जाय। भुनाई। ४. ताने या सूत (जुलाहे)। स्त्री० [सं० भंज] बारी।
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भाजक  : वि० [सं०√भज्+ण्वुल्—अक] १. विभाग करनेवाला। २. बाँटनेवाला। पुं० गणित में वह राशि या संख्या जिससे भाज्य को भाग दिया जाता है। (डिवाइज़र)
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भाजकांश  : पुं० [भाजक-अंश, कर्म० स०] गणित में, वह संख्या जिससे किसी राशि को भाग देने पर शेष कुछ भी न बचे। गुणनीयक।
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भाजन  : पुं० [सं०√भाज् (पृथक् करना)+ल्युट्—अन] १. बरतन। २. आधार। ३. किसी काम या बात का अधिकारी या पात्र। जैसे—कृपा-भाजन, कोप-भाजन, विश्वास-भाजन आदि। ४. आढ़क नामक लौल। ५. भाग करना। (गणित)
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भाजनता  : स्त्री० [सं० भाजन+तल्+टाप्] १. भाजन होने की अवस्था या भाव। २. पात्रता। योग्यता।
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भाँजना  : स० [हिं० भाँजना] १. किसी लम्बी चौड़ी चीज की परत या परतें लगाना। तह करना। मोड़ना। जैसे—कपड़ा या कागज भाँजना। २. तलवार, पटा, मुगदर लाठी आदि के सम्बन्ध में हाथ में लेकर अभ्यास, प्रदर्शन, वार व्यवहार आदि के लिए इधर-उधर घुमाना। ३. दो या कई लड़ों को एक में मिलाकर बटना या मरोड़ना।
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भाजना  : अ० भागना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँजा  : पुं० =भानजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाजित  : भू० कृ० [सं०√भाज्+क्त, इत्व] १. बाँटकर अलग किया हुआ। विभक्त। २. (संख्या) जिसको दूसरी संख्या से भाग दिया जाय।
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भाँजी  : स्त्री० [हिं० भाँजना=तोड़ना] ऐसी बात जो जान-बूझकर किसी काकाम बिगाड़ने के लिए किसी दूसरे से कही जाय। मुहावरा—भाँजी मारना=किसी से किसी के विरुद्ध उक्त प्रकार की बात कहना।
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भाजी  : स्त्री० [सं०√भाज्+घञ्+ङीष्] १. माँड। पीच। २. तरकारी, साग आदि चीजें। ३. मेथी। ४. मांगलिक अवसरों पर सम्बन्धियों आदि के यहाँ भेजे जानेवाले फल और मिठाइयाँ। क्रि० प्र०—देना।—बाँटना। ५. भाग। हिस्सा।
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भाज्य  : पुं० [सं०√भाज्+ण्यत्] जिसका विभाजन हो सके। जिसके हिस्से किये जा सके। पुं० गणित में वह संख्या जिसका भाजक से भाग किया जाता है।
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भाँट  : पुं० =भाट पुं० =भंटा (बैगंन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँट  : पुं० =भाट (बैंगन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाट  : पुं० [सं० भट्ट] [स्त्री० भाटिन] १. राजाओं के यश का वर्णन करनेवाला कवि। चरण। बंदी। ३. एक जाति जिसके लोग राजाओं का यश-गान करते थे; और अब कुलों, परिवारों आदि की वंशावलियाँ याद रखते और उनकी कीर्ति का वर्णन करते हैं। ३. राजदूत। ४. खुशामद करनेवाला पुरुष। खुशामदी पुरुष। खुशामदी। ५. दे० ‘भाटक’। पुं०=भाठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाटक  : पुं० [सं०√भट् (पालन करना)+ण्वुल्—अक] १. भाड़ा। किराया। २. लगान।
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भाटक-अधिकारी  : पुं० [सं० ष० त०] १. भाड़े की उगाही करनेवाला अधिकारी। २. वह शासनिक अधिकारी जो मकान मालिक और किरायेदारों से संपर्क स्थापित करता और उनके विवादों को निर्णीत करता है। (रेन्ट आफिसर)
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भाटा  : पुं० [हिं० भाट] १. समुद्र के जल की वह अवस्था जब वह ज्वार या चढ़ाव के बाद वेगपूर्ण पीछे हटने या उतरने लगता है। (एबटाइड) २. उक्त के फलस्वरूप आस-पास की नदियों में होनेवाला पानी का उतार। पुं०=भंटा (बैंगन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाटिया  : पुं० [सं० भट्ट] क्षत्रियों, खत्रियों आदि का एक वर्ग या जाति।
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भाटी  : स्त्री० [हिं० भाटा] नदियों आदि में पानी के बहाव की दिशा। (मल्लाह)। स्त्री०=भट्ठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाट्यौ  : पुं० [हिं० भाट] भाट का काम। भटई। भाट-पन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाठ  : पुं० [हिं० भाठना या भरना] १. वह मिट्टी जो नदी अपने साथ चढ़ाव में बहाकर लाती है और उतार के समय कछार में ले जाती है। २. नदी के दो किनारों के बीच की भूमि। ३. नदी का किनारा। तट। ४. नदी के बहाव का रुख। उतार। ‘चढ़ाव’ का विपर्याय। ५. दे० ‘भाट’।
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भाठन  : सं० [?] नष्ट या बरबाद करना। उदा०—जलमय थल करि देहु जलधि सब थल भरि भाठौ।—रत्नाकर।
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भाठा  : पुं० [हिं० भाठ] १. गड्ढा। २. दे० ‘भाटा’।
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भाठी  : स्त्री० [हिं० भाठा] नदी या समुद्र के पानी का उतार। स्त्री०=भट्ठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँड़  : पुं० [सं० भाँड़, प्रा० भाँड़ा] १. बरतन। भाँड़ा। २. घी, तेल, आदि रखने का कुप्पा। ३. कोई उपकरण या औजार। ४. वाद्ययंत्र। बाजा। ५. खरीदा या बेंचा जानेवाला माल। ६. नदी का पेट। ७. गर्दभांड़ वृक्ष। पुं० [सं० भंड] १. एक जाति जिसके पुरूषों का पेशा नाटक आदि खेलना, गाना-बजाना, हास्यपूर्ण स्वाँग भरना, नकलें उतारना आदि है। २. वह व्यक्ति जो बहुत अधिक तथा प्रायः निम्न कोटि के परिहास से लोगों को हँसाता रहता हो। मसखरा। विदूषक। ३. बोल-चाल में ऐसा व्यक्ति जिसके पेट में बात न पचती हो और जो कोई बात सुन लेने पर सब जगह कहता फिरता हो। ४. भाँड़ों का सा गुल गपाडा या हो-हल्ला।
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भांड  : पुं० [सं०√भण् (शब्द)+ड+अण्] १. पात्र। बरतन। २. मूलधन। पूँजी। ३. भूषण। ४. गर्दभांड वृक्ष।
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भाड़  : पुं० [सं० भ्राष्ट्र=पा० भट्टो] १. अन्न के दाने भूनने की भड़-भूँजों की भट्ठी। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा स्थान जहाँ सब कुछ नष्ट हो जाता हो। पद—भाड़ में पड़े या जाय=हमें कुछ चिन्ता या परवाह नहीं है। (उपेक्षासूचक) मुहा०—भाड़ झोंकना=बहुत ही तुच्छ और व्यर्थ का काम करना। भाड़ में झोंकना या डालना=(क) नष्ट या बरबाद करना। (ख) बहुत ही उपेक्षापूर्वक परित्याग करना। पुं० [सं० भाटक] १. वेश्या की आमदनी या कमाई। २. दे० ‘भाड़ा’।
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भांड-कला  : स्त्री० [सं०] मिट्टी के बरतन आदि बनाने की कला।
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भांड-गोपक  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो प्राचीन काल में बौद्ध बिहारों में बरतन आदि सुरक्षापूर्वक रखने का काम करता था।
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भांड-पति  : पुं० [सं० ष० त०] व्यापारी।
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भांड-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] भंडार।
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भाँड़ना  : अ० [सं० भंड] १. व्यर्थ इधर-उधर घूमना। मारे-मारे पिरना। २. किसी पर अनुरक्त होना। ३. किसी ओर प्रवृत्त होना। ४. किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव करना। उदाहरण—सो बोलै जा को जिउ भाँड़ै।—जायसी। स० १. किसी के अपराधों, कुकृत्यों, दोषों आदि की जगह-जगह चर्चा करके उसे बदनाम करना। २. किसी का भंडा फोड़ना या उसे नष्ट करना। बिगाड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँड़पन  : पुं० [हिं० भाँड़+पन (प्रत्यय)] १. भाँड़ होने की अवस्था या भाव। २. भाँड़ों का सा आचरण।
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भाँडयो  : पुं० =भाँड़पन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँड़ा  : पुं० [सं० भाँण्ड] खाने-पीने की चीजें आदि रखने का बरतन। बासन। पात्र। (पश्चिम)। मुहावरा—भाँड़े भरना=पश्चाताप करना। पछताना। उदाहरण—रिसनि आगे कहि जो आवनि अब लै भाँड़े भरति।—सूर। पुं० =भाँड़पन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाड़ा  : पुं० [सं० भाट] १. वह धन जो किसी की चीज का कुछ समय तक उपयोग करने के बदले में दिया जाता है। किराया। जैसे—दूकान या मकान का भाड़ा। २. वह धन जो कोई चीज या किसी व्यक्ति को यान आदि पर ले जाकर कहीं पहुँचाने के बदले में दिया या लिया जाता है। किराया। जैसे—गाड़ी, नाव या रेल का भाड़ा। पद—भाड़े का टट्टू=(क) थोड़े दिन तक रहनेवाला। जो स्थायी न हो। क्षणिक। (ख) वह जो केवल धन के लोभ से (मन लगाकर नहीं) दूसरों का कोई काम करता हो। (ग) ऐसा पदार्थ जो किसी आधार पर हो काम करता हो, स्वतः काम देने में बहुत कुछ असमर्थ हो। जैसे—अब तो यह शरीर भाड़े का टट्टू हो गया है। पुं० [सं० भरण] वह दिशा जिधर वायु बहती हो। मुहा०—भाड़े पड़ना=जिधर वायु जाती हो, उधर नाव को चलाना। नाव को वायु के सहारे ले जाना। भाड़े फेरना=जिधर हवा का रुख हो, उधर नाव का मुँह फेरना। पुं० एक प्रकार की घास जो प्रायः हाथ भर ऊँची होती और चारे के काम आती है।
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भांड़ागर  : पुं० [सं० भांड-आगार] १. वह आगार या कोठरी जिसमे वस्तुएँ घरेलू उपयोग की वस्तुएँ रखी जाती है। २. भंडार।
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भांडागारिक  : पुं० [सं० भांडागार+ठन्-इक] भांडागार या भंडार का प्रधान अधिकारी।
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भांडार  : पुं० [सं० भांड√ऋ (गति)+अण्] १. वह कमरा या कोठरी जिसमें घरेलू उपयोग में आनेवाली तरह-तरह की बहुत-सी चीजें रखी जाती है। २. वह स्थान जहाँ बेची जानेवाली बहुत सी वस्तुएं जमा की तथा सुरक्षित रखी जाती है। (स्टाक) ३. आधार स्थान। ४. कोश। खजाना।
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भांडार-पंजी  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह पंजी या बही जिसमें भाँडार में रखी जानेवाली चीजों की संख्या और विवरण लिखा रहता है। (स्टाक-बुक)
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भांडार-पाल  : पुं० [सं० भांडार√पाल्+णिच्+अच्] १. भांडार का मुख्य अधिकारी। २. वह जिसका भांडार हो। भांडार का स्वामी। (स्टाकिस्ट)
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भांडारी (रिन्)  : पुं० [सं० भांडार+इनि] भांडारपाल। (दे०)
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भाड़ु  : पुं० [हिं० भाँड़] मूर्ख। बेवकूफ। पुं०=भड़ुआ।
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भाँण  : पुं० =भानु (सूर्य)। उदाहरण—जाँणे उदयाचल उगइ छइ भाँण। नरपति नाल्ह। पुं० =भाण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाण  : पुं० [सं०√भण् (कहना)+घञ्] १. एक अंक का एक प्रकार का हास्य-रस-प्रधान नाटक जिसमें एक ही पात्र होता है जो किसी कल्पित व्यक्ति से वार्तालाप करता है। २. ब्याज। मिस। ३. ज्ञान बोध।
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भाणिका  : स्त्री० [सं० भाण+कन्+टाप्, इत्व] एक अंक का एक तरह का छोटा नाटक जिसका नायक मन्दगति और नायिका प्रगल्भा होती है।
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भाँत  : स्त्री० [सं० भक्ति] १. तरह। प्रकार। २. किसी चीज की बनावट या रचना का विशिष्ट ढंग या प्रकार। तर्ज। परिरूप। (डिजाइन) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भात  : पुं० [सं० भक्त०, पा० भत] १. खाने के लिए उबाले हुए चावल। २. विवाह की एक रस्म जो विवाह के दूसरे या तीसरे दिन होती है। इसमें दोनों समधी साथ बैठकर भात खाते हैं। पुं० [सं०√भा (दीप्ति)+क्त] १. प्रभात। तड़का। २. चमक। दीप्ति।
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भाँत-भतीला  : वि० [हिं० भाँत+अनु० भतीला] [स्त्री० भाँत-भतीली] (वस्त्र) जिस पर अनेक प्रकार की आकृतियाँ बेल-बूटे आदि बने हों। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाता  : पुं० [सं० भक्त=भत्त] उपज का वह भाग जो हलवाहे को खलिहान की राशि में से मिलता है।
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भाँति  : स्त्री० [सं० भाँति] १. तरह। प्रकार। जैसे—वहाँ भाँति-भाँति की चीजें रखी हुई थी। २. चाल-ढंग। रंग-ढंग। ३. आचार-व्यवहार आदि की मर्यादा। ४. प्रथा। रीति। रंग-ढंग।
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भाति  : स्त्री० [सं०√भा+क्तिन्] १. शोभा। कांति। २. चमक। दीप्ति। स्त्री०=भाँति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भातिज  : पुं०=भतीजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भातु  : पुं० [सं०√भा+तु] सूर्य।
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भाथा  : पुं० [सं० भस्त्रा, पा० भत्था] १. तरकस। २. बड़ी भाथी।
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भाथी  : स्त्री० [सं० भस्त्रा=पा० भत्थी] लोहारों की धौंकनी जिससे वे आग सुलगाते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भादों  : पुं० [सं० भाद्र; पा० भद्दो] भाद्रपद मास।
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भाद्र  : पुं० [सं० भद्रा। अण्+ङीष्, भाद्री+अण्] भाद्रपद या भादों नाम का महीना।
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भाद्र-पद  : पुं० [सं० भद्र+अण्, भाद्र-पद, ब० स०+टाप्; भाद्रपदा+अण्+ङीष्; भाद्रपदी+अण्] १. भादों नाम का महीना। २. बृहस्पति के उस वर्ष का नाम जब वह पूर्व भाद्रपदा या उत्तर भाद्रपदा में उदय होता है।
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भाद्र-पदा  : स्त्री० [सं० दे० भाद्रपद] पूर्वाभाद्रपदा और उत्तरा भाद्रपदा दो नक्षत्र।
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भाद्र-मातुर  : वि० [सं० भद्रमातृ+अण्, उकारादेश] जिसकी माता सती हो। सती का पुत्र।
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भान  : पुं० [सं०√भा (प्रकाश करना)+ल्युट्—अन] १. प्रकाश। रोशनी। २. चमक। दीप्ति। ३. ज्ञान। बोध। ४. किसी चीज या बात के लक्षणों से होनेवाला ज्ञान। आभास। उदा०—हो गया भस्म वह प्रथम भान।—निराला। पुं०=भानु (सूर्य)। पुं० दे० ‘तुंग’ (वृक्ष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भान-मुखी  : पुं० [सं० ब० स०+ङीष्] सूर्यमुखी। (पौधा और फूल)
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भानजा  : पुं० [हिं० बहन+जा] [स्त्री० भानजी] बहिन का लड़का। भागनेय।
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भानना  : स० [सं० भजन; मि० पं० भन्नना] १. भग्न करना। काटना या तोड़ना। २. नष्ट या बरबाद करना। ३. दूर करना। हटाना। स० [हिं० भान] १. आभास देखकर भान या ज्ञान प्राप्त करना। २. अनुमान से समझना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भानमती  : स्त्री० [सं० भानुमती] जादू के खेल दिखलानेवाली स्त्री। जादूगरनी। पद—भानमती का कुनबा—जहाँ-जहाँ के लिए हुए बेमेल उपादानों से बनी वस्तु। भानमती का पिटारा=वह आधान जिसमें तरह-तरह की चीजें मौजूद हों। (व्यंग्य)
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भाना  : अ० [सं० भान=ज्ञान] १. भान या आभास होना। जान पड़ना। मालूम होना। २. रुचिकर प्रतीत होना। अच्छा लगना। पसन्द आना। ३. शोभित जान पड़ना। फबना। सोहना। स० [सं० भा] १. उज्जवल करना। चमकाना। २. दीप्त या प्रकाशमान करना। ३. चारों ओर चक्कर देना। घुमाना। उदा०—चले पिता का चक्र नियम से, बैठ शिला पर तू शम-दम से, उठे एक आकृति क्रम क्रम से, भली भाँति मैं भाऊँ।—मैथिलीशरण गुप्त। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भानु  : पुं० [सं० भा+नु] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. प्रकाश। ४. किरण। ५. विष्णु। ६. कृष्ण के एक पुत्र का नाम। ७. उत्तम मन्वंतर के एक देवता। ८. राजा। ९. वर्तमान अवसर्पिणी के पंद्रहवें अर्हत् के पिता का नाम। (जैन) स्त्री० [सं०] १. सुन्दर स्त्री। सुन्दरी। २. दक्ष की एक कन्या।
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भानु-कंप  : पुं० [सं० ष० त०] भारतीय ज्योतिष में, कुछ अवसरों पर सूर्य-ग्रहण के समय सूर्य के बिंब में होनेवाला कंपन जो अमंगल-सूचक माना गया है।
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भानु-किरणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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भानु-केशर  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य।
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भानु-तनया  : स्त्री० [सं० ष० त०] यमुना (नदी)।
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भानु-दिन  : पुं० [सं० ष० त०] रविवार।
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भानु-दीपक  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भानु-देय  : पुं० [सं० कर्म० स०] सूर्य्य।
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भानु-पाक  : पुं० [सं० तृ० त०] १. सूर्य के ताप में कोई चीज पकाने की क्रिया। २. वह चीज विशेषतः ओषधि जो धूप में रखकर पकाई गई हो।
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भानु-प्रताप  : पुं० [सं० ब० स०] १. रामचरित मानस में वर्णित एक राजा जो कैकय देश के राजा सत्यकेतु का पुत्र था तथा जो दूसरे जन्म में रावण के रूप में जन्मा था। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भानु-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] केला।
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भानु-मंजरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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भानु-मत्  : वि० [सं० भानु+मतुप्] १. प्रकाशमान्। चमकीला। २. सुन्दर। पुं० १. सूर्य। २. श्री कृष्ण का एक पुत्र।
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भानु-वार  : पुं० [सं० ष० त०] रविवार।
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भानु-सुत  : पुं० [सं० ष० त०] १. यम। २. मनु। ३. शनैश्चर। ४. कर्ण।
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भानु-सुता  : स्त्री० [सं० ष० त०] यमुना (नदी)।
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भानुज  : वि० [सं० भानु√जन् (उत्पन्न करना)+ड] [स्त्री० भानुजा] भानु से उत्पन्न। पुं० १. यम। २. शनैश्चर। ३. कर्ण।
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भानुजा  : स्त्री० [सं० भानुज+टाप्] १. यमुना (नदी)। २. राधिका।
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भानुमती  : स्त्री० [सं० भानुमत्+ङीष्] १. विक्रमादित्य की रानी जो राजा भोज की कन्या थी। २. अंगिरस की एक कन्या। ३. दुर्योधन की स्त्री। ४. राजा सगर की एक स्त्री। ५. गंगा। ६. जादूगरनी। ७. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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भाप  : स्त्री० [सं० वाष्प; पा वष्प] १. किसी तरल पदार्थ विशेषतः जल का वह अदृश्य वाष्पीय रूप जो उसे खौलाने पर प्राप्त होता है तथा जिसका आज-कल शक्ति के प्रमुख साधन के रूप में उपयोग होता है। (स्टीम) क्रि० प्र०—उठना।—निकलना। २. मुँह से निकलनेवाली हवा। मुहा०—भाप भरना=पक्षियों का अपने छोटे बच्चों के मुँह में मुँह मिला कर उनमें अपने साँस की हवा फूँकना जिससे वे सशक्त होते हैं। भाप लेना=भाप के द्वारा शरीर अथवा उसके किसी अंग को सेंकना। ३. भौतिक शास्त्र में, धन या द्रव पदार्थ की वह अवस्था जो उनके बहुत तपकर वायु में विलीन होते समय अथवा कुछ विशिष्ट रासायनिक प्रक्रियाओं के द्वारा होता है। (वेपर)
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भाँपना  : स० [?] १. क्रियाओं, चेष्टाओं, परिस्थितियों लक्षणों आदि से यह अनुमान करना कि वस्तु-स्थिति क्या है, किसी के मन मे क्या है अथवा कोई छिपकर क्या करना चाहता है अथवा क्या कर रहा है। २. देखना। (बाजारू)
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भापना  : स० [हिं० भाप] भाप भरना (भाप के अन्तर्गत मुहा०)। अ०=भाँपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँपू  : वि० [हिं० भाँपना] भाँपनेवाला।
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भाफ  : स्त्री०=भाप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाबर  : पुं० [सं० वप्र] १. तलहटी और तराई के मध्य के जंगलों की संज्ञा। २. एक तरह की घास जिसे बटकर रस्सी का रूप दिया जाता है। बनकस। बवरी। बबई।
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भाभर  : पुं०=भाबर।
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भाभरा  : वि० [हिं० भा+भरना] १. प्रकाशयुक्त। २. लाल। रक्ताभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भाभरी  : स्त्री० [अनु०] १. गरम राख। भूभल। २. रास्ते की धूल। (पालकी ढोनेवाले कहार)
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भाँभी  : पुं० [?] मोची (डिं०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाभी  : स्त्री० [दरदी पीपी=बूआ] संबंध के विचार से भाई की विशेषतः बड़े भाई की स्त्री। भौजाई।
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भाभी रंग  : पुं० दे० ‘बायबिडंग’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाम  : पुं० [सं०√भाम् (क्रोध करना)+घञ्] १. क्रोध। २. दीप्ति। चमक। ३. प्रकाश। रोशनी। ४. सूर्य। ५. बहनोई। ६. एक प्रकार का वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में भगण, मगण और अन्त में तीन सगण होते हैं। स्त्री०=भामा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भामक  : पुं० [सं० भाम+कन्] बहनोई।
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भामता  : वि० [स्त्री० भामती] भावता (प्रियतम)।
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भामतीय  : पुं० [हिं० भ्रमना] एक जाति जो दक्षिण भारत में घूमा करती है और चोरी तथा ठगी से जीविका निर्वाह करती है।
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भामनी  : वि० [सं० भामनी (ढोना)+क्विप्] प्रकाश करनेवाला। पुं० १. ईश्वर। २. मालिक। स्वामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भामा  : स्त्री० [सं० भाम+अच्+टाप्] १. स्त्री० २. क्रुद्ध स्त्री०। ३. दे० ‘सत्यभामा’।
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भामिणि  : स्त्री०=भामिनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भामिन  : स्त्री०=भामिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भामिनि  : स्त्री०=भामिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भामिनी  : स्त्री० [सं०√भाम्+णिनि,+ङीष्] १. युवती तथा सुन्दर स्त्री। कामिनी। २. सदा क्रुद्ध रहनेवाली अथवा बहुत जल्दी क्रुद्ध हो जानेवाली स्त्री। ३. मोदक नामक छन्द का दूसरा नाम।
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भामी (मिन्)  : वि० [सं०√भाम्+णिनि] [स्त्री० भामिनी] क्रुद्ध। नाराज। स्त्री० क्रोधी स्वभाव की स्त्री।
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भाय  : पुं० १.=भाव। २.=भाई। पुं०=भाँति (प्रकार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँयँ-भाँयँ  : पुं० [अनु०] १. नितांत एकांत स्थान या सन्नाटे में हवा के चलने से होनेवाला शब्द। २. ऐसी परिस्थिति या वातावरम जिसमें बहुत अधिक उदासीनता या सूनापन जान पड़े। मुहावरा— (किसी स्थान का) भाँयँ भाँयँ करना=बहुत ही उदास, डरावना और सूना जान पड़ना।
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भायप  : पुं० [हिं० भाई+प=पन (प्रत्य०)] १. भाईपन। भ्रातृभाव। २. भाईचारा।
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भाया  : वि०=भावता। पुं०=भाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भार  : पुं० [सं०√भ़ृ+(भरण करना)+घञ्, वृद्धि] [वि० भारित] १. काँटे, तुला आदि की सहायता से जाना जानेवाला किसी चीज के परिणाम का गुरुत्व। वजन। (वेट) २. ऐसा बोझ जो किसी अंग, यान, वाहन आदि पर रखकर ढोया या कहीं ले जाया जाता है। बोझ। (लोड) क्रि० प्र०—उठाना।—ढोना।—रखना।—लादना। ३. वह बोझ जो बँहगी के दोनों पल्लों पर रखकर ले जाया जाता है। उदा०—भरि भरि भार कहारन आना।—तुलसी। क्रि० प्र०—उठाना।—काँधना।—ढोना।—भरना। ४. ऐसा अप्रिय, अरुचिकर या कठिन काम या उत्तरदायित्व जो कहीं से बलात् आकर पड़ा हो, अथवा जिसका वाहन विवशता तथा कष्टपूर्वक किया जा रहा हो। (बर्डन, उक्त दोनों अर्थों में) जैसे—आज-कल मुझ पर कई कामों का भार आ पड़ा है। क्रि० प्र०—उठाना।—उतरना।—उतारना। ५. किसी प्रकार का कार्य चलाने, कोई देन चुकाने या किसी प्रकार की देखरेख, रक्षा, सँभाल आदि करने का उत्तरदायित्व। कार्य-भार (चार्ज) जैसे—अब उन पर भाई के बाल-बच्चों का भी भार आ पड़ा है। ६. बंधक या रेहन पड़े रहने अथवा ऋण-ग्रस्त होने की अवस्था या भाव। (एकम्बेरेन्स) क्रि० प्र०—उठाना।—उतरना।—उतारना।—देना।—देखना। ७. आश्रय। सहारा। उदा०—दुहँ के भार सृष्टि सुम रही।—जायसी। ८. दो हजार पल या बीस पसेरी की एक पुरानी तौल। ९. विष्णु का एक नाम। अव्य० ओर। बल। जैसे—मुँह के भार गिरना। पुं० [सं० भट] वीर। शूर। पुं० १.=भाड़। २.=भाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भार-कद्र  : पुं० [सं० ष० त०] गुरुत्व का केन्द्र।
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भार-तुला  : स्त्री० [सं०] वास्तुविद्या के अनुसार स्तंभ के नौ भागों में से पाँचवाँ भाग जो बीच में होता है।
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भार-धारक  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो भार विशेषतः कार्यभार धारण कर रहा हो। (चार्ज-होल्डर)
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भार-प्रमाणक  : पुं० [सं० भारण-प्रमाणक] वह प्रमाणक (प्रमाण-पत्र) जो इस बात का सूचक हो कि अमुक व्यक्ति ने दूसरे के अमुक कार्य, पद, कर्तव्य आदि का भार सौंप दिया है। (चार्ज सर्टिफिकेट)
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भार-यष्टि  : स्त्री० [सं० ष० त०] बहँगी।
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भार-वाहन  : पुं० [सं० ष० त०] बोझ ढोने की क्रिया या भाव।
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भार-वाही (हिन्)  : वि०, पुं० [सं० भार√वह्+णिनि]=भारवाह।
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भार-हानि  : स्त्री० [सं० ष० त०] भार या वजन में होनेवाली कमी।
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भारक  : पुं० [सं० भार+कन्] १. भार। २. एक तौल।
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भारंगी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा उसकी पत्तियाँ महुए की पत्तियों से मिलती हुई, गुदार और नरम होती हैं और जिनका साग बनाकर खाते हैं। बम्हनेटी। भृंगजा। असबरग।
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भारजीवी (विन्)  : पुं० [सं० भार√जीव् (जीना)+णिनि] भार ढोकर जीविका उपार्जन करनेवाला मजदूर। भारवाहक।
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भारत  : पुं० [सं० भरत+अण्, वृद्धि] १. वह जो भरत के गोत्र में उत्पन्न हुआ हो। २. (भारत+अण्] हमारा यह भारतवर्ष नामक देश। दे० ‘भारतवर्ष’। ३. भारतवर्ष का निवासी। ४. महाभारत नामक काव्य का वह पूर्व रूप जब वह २४॰॰॰ श्लोकों का था। दे० ‘महाभारत’। ५. उक्त ग्रंथ के आधार पर घमासान या घोर युद्ध। ६. उक्त ग्रंथ के आधार पर कोई बहुत लंबा-चौड़ा विवरण या व्याख्या। ७. अग्नि। आग। ८. अभिनेता। नट।
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भारत-यूरोपीय  : पुं० [हिं०] आधुनिक भाषा-विज्ञान के अनुसार उन भाषाओं का वर्ग या समूह जो भारत, ईरान और यूरोप, अमेरिका, के अनेक देशों में बोली जाती है।
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भारत-रत्न  : पुं० [सं० ष० त०] स्वतंत्र भारत में एक सर्वोच्च उपाधि जो उच्चकोटि के विद्वानों तथा राष्ट्रसेवियों को प्रदान की जाती है।
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भारत-वर्ष  : पुं० [सं० मध्य० स०] हमारा यह महादेश जिसके उत्तर में हिमालय, दक्षिण में भारतीय महासागर, पश्चिम में पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्व में पूर्वी पाकिस्तान तथा बरमा या ब्रह्मदेश है। हिन्द। हिन्दुस्तान। विशेष—पुराणानुसार यह जंबू द्वीप के अन्तर्गत नौ वर्षों या खंडों में से एक है और हिमालय के दक्षिण तथा गंगोत्तरी से लेकर कन्याकुमारी तक और सिन्धु नदी से ब्राह्मपुत्र तक विस्तृत है। आर्यावर्त। हिन्दुस्तान।
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भारत-विद्या  : स्त्री० [सं०] पुरातत्त्व की वह शाखा जिसमें भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास, दर्शन, धर्म, भाषातत्त्व, साहित्य आदि का अनुसंधानात्मक अध्ययन और विवेचन होता है। (इण्डोलॉजी)
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भारतखंड  : पुं०=भारतवर्ष।
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भारतनंद  : पुं० [सं०] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक। (संगीत)
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भारतवर्षीय  : वि० [सं० भारतवर्ष+छ—ईय] भारतवर्ष-संबंधी। भारतवर्ष का।
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भारतवासी (सिन्)  : पुं० [सं० भारत√वस् (निवास करना)+णिनि] भारतवर्ष का निवासी। हिन्दुस्तान का रहनेवाला।
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भारति  : स्त्री०=भारती।
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भारती  : स्त्री० [सं०√भृ (भरण करना)+अतच्+अण्+ङीष्] १. वचन। वाणी। २. सरस्वती। ३. साहित्य में एक प्रकार की वृत्ति (पुरुषार्थसाधक व्यापार) जिसका प्रयोग मुख्यतः रौद्र तथा वीभत्स रस में होता था परन्तु आज-कल इसका संबंध पाठ्य अभिनय और रसाभिनय से जोड़ा गया है। ४. एक प्राचीन नदी का नाम। ५. एक प्राचीन तीर्थ। ६. दश-नामी संन्यासियों का एक भेद या वर्ग। जैसे—स्वामी परमानन्द भारती। ७. ब्राह्मी नाम की बूटी। ८. एक प्रकार का पक्षी।
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भारतीय  : वि० [सं० भारत+छ—ईय] १. भारत देश में उत्पन्न होनेवाला अथवा उससे संबंध रखनेवाला। जैसे—भारतीय पूँजी, भारतीय विचारधारा, भारतीय व्यापार। २. (व्यक्ति) जो भारत में बसी हुई अथवा रहनेवाली किसी जाति का हो। जैसे—भारतीय मुसलमान या भारतीय मसीही।
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भारतीय वृत्त  : पुं० [सं० कर्म० स०]=भारत-विद्या।
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भारतीयकरण  : पुं० [सं०] किसी विदेशी ज्ञान, पदार्थ, विद्या आदि को ग्रहण करके उसे आत्मसात् करते हुए भारतीय रूप देने की क्रिया या भाव। (इन्डियनाइज़ेशन)
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भारतेन्दु।  :
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भारथ  : पुं० [हिं० भारत] १. भारतवर्ष। २. महाभारत। ३. युद्ध। लड़ाई। पुं० [सं०] भारद्वाज नामक पक्षी। भरदूल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भारथी  : पुं० [सं० भारत] योद्धा। सैनिक। स्त्री०=भारती।
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भारथ्य  : पुं० [सं० भारत] घमासान या घोर युद्ध।
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भारदंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. एक प्रकार का साम। २. बँहगी। पुं० [हिं० भार+दंड] एक प्रकार का दंड जिसमें दंड करनेवाला साधारण दंड करते समय अपनी पीठ पर एक दूसरे आदमी को बैठा लेता है। (कसरत)
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भारद्वाज  : पुं० [सं० भरद्वाज+अञ्] १. भरद्वाज के कुल में उत्पन्न व्यक्ति। २. एक ऋषि जिनका रचा हुआ जैतसूर और गृह्यसूत्र है। ३. द्रोणाचार्य। ४. बृहस्पति का एक पुत्र। ५. मंगल ग्रह। ६. एक प्राचीन देश। ७. अस्थि। हड्डी। ८. भरदूल पक्षी।
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भारद्वाजी  : स्त्री० [सं०] जंगली कपास का पौधा और उसकी रूई।
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भारना  : स० [हिं० भार] १. भार या बोझ लादना। २. किसी पर अपने शरीर का भार या बोझ देना या रखना। ३. दबाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भारभृत  : वि० [सं० भार√भृ+क्विप्, तुक-आगम] बोझ ढोनेवाला।
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भारमापी (पिन्)  : पुं० [सं० भार√मा+णिच्, पुक्+णिनि] एक प्रकार का मंत्र जिससे पदार्थों का विशिष्ट गुरुत्व या तुलनात्मक भार जाना जाता है। (ग्रैवीमीटर)
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भारमिति  : स्त्री० [सं० ष० त०] [वि० भारमितीय] तरल और घन पदार्थों का विशिष्ट गुरुत्व या भार जानने की कला या विद्या।
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भारय  : पुं० [सं० भा√रय् (गति)+अच्] एक तरह का पक्षी। भरदूल।
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भारव  : पुं० [सं० भार√वा (प्राप्त होना)+क] धनुष की रस्सी। ज्या।
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भारवाह  : वि० [सं० भार√वह् (ढोना)+अण्] १. भार ढोनेवाला। २. कार्य-भार का वहन करनेवाला। पुं० बहँगी ढोनेवाला व्यक्ति।
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भारवाह-अधिकारी  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह अधिकारी जिस पर किसी पद और उससे संबंध रखनेवाले कार्यों का भार हो। अवधायक अधिकारी। (आफिसर इनचार्ज)
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भारवाहक  : वि०, पुं० [सं० ष० त०]=भारवाह।
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भारवि  : पुं० [सं०] ‘किरातार्जुनीय’ नामक महाकाव्य के रचयिता संस्कृत भाषा के एक प्रसिद्ध कवि।
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भारहारी (रिन्)  : पुं० [सं० भार√हृ+णिनि] पृथ्वी का भार उतारनेवाले, विष्णु।
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भारा  : वि०=भारी। पुं० [हिं० भार] १. बोझ। २. भार या बँहगी जिस पर बोझ ढोते हैं। उदा०—लिअ फल मूल भेंटि भरि भारा।—तुलसी। पुं० भाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाराक्रांत  : वि० [सं० भार-आक्रांत, तृ० त०] [भाव० भाराक्रांति] १. जिसके ऊपर किसी प्रकार का बड़ा भार हो। २. भार से पीड़ित तथा व्यथित। ३. (संपत्ति) जिस पर देन आदि का भार उसे रेहन रखकर डाला गया हो। (हाइपाथेकेटेड)
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भाराक्रांता  : स्त्री [सं० भार-क्रांत+टाप्] एक प्रकार का वार्णिक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में न भ न र स और एक लघु और एक गुरु होते हैं और चौथे, छठे तथा सातवें वर्ण पर यति होती है।
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भाराक्रांति  : स्त्री० [सं० भार-आक्रांति, तृ० त०] १. भाराक्रांत होने की अवस्था या भाव। २. रेहन रखकर संपति पर देन का भार रखना। (हाइपॉथेकेशन)
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भारि  : पुं० [सं० ष० त०, पृषो० इ—लोप] सिंह।
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भारिक  : वि० [सं० भार+ठन्—इक] १. बोझ ढोनेवाला। २. जिसमें भार हो या जिसके कारण भार पड़े। दे० ‘निर्णायक’। जैसे—भारिक मत।
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भारिक मत  : पुं० [सं० कर्म० स०] दे० ‘निर्णायक मत’।
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भारित  : भू० कृ० [सं० भार+इतच्] १. जिस पर कोई भार या बोझ हो। २. जिस पर किसी प्रकार का ऋण या देन हो। (इन्कम्बर्ड)
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भाँरी  : स्त्री०=भाँवर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भारी  : वि० [हिं० भार] १. अधिक भारवाला। जो आसानी से न उठाया या वहन किया जा सके अथवा जिसे उठाने या वहन करने में अधिक सामर्थ्य या शक्ति व्यय होती हो। जैसे—भारी पत्थर। २. अपेक्षित या सामान्य मात्रा आदि से बहुत अधिक। जैसे—भारी वर्षा, भारी भूकंप, भारी फसल तथा भारी बहुमत। ३. (शरीर अथवा उसका अंग) जिसमें कुछ विकार या दर्द हो और फलतः इसीलिए जो सुस्त और निकम्मा-सा हो गया हो। जैसे—उनका शरीर या सिर आज कुछ भारी है। मुहा०—आवाज भारी होना=गले से ठीक तरह से आवाज या स्वर न निकलना। पेट भारी होना=खाये हुए पदार्थों का ठीक से न पचने के कारण पेट में अपच जान पड़ना। सिर भारी होना=सिर में थकावट जान पड़ना और हलकी पीड़ा होना। कान भारी होना=अच्छी तरह सुनाई न पड़ना। (स्त्री का) पैर भारी होना=गर्भवती होना। पेट में बच्चा होना। ३. व्यक्ति के संबंध में, जिसके मन में अभिमान, रोष या इसी प्रकार का और कोई विकार हो; और इसीलिए जो ठीक तरह से बातचीत न करता या सरल तथा स्वाभाविक व्यवहार न करता हो। जैसे—(क) आज-कल वे हमसे कुछ भारी रहते हैं। (ख) आज उनका मुँह कुछ भारी जान पड़ता है। मुहा०—(किसी अवसर पर) भारी रहना=(क) कुछ न बोलना। चुप रहना। (दलाल) जैसे—अभी तुम भारी रहो, पहले देख लो कि वे क्या कहते हैं। (ख) धीमी या मन्द गति से चलना। (कहार) ४. कार्यों, प्रयत्नों आदि के संबंध में, जिसमें कोई कठिनता या विकटता हो। जैसे—तुम्हें तो हर काम भारी मालूम होता है। ५. समय के संबंध में, जिसमें अधिक कष्ट होता हो या जिसे बिताना सहज न हो। जैसे—(क) गरमी के दिनों में यहाँ की दोपहर भारी होती है। (ख) आज की रात इस रोगी के लिए भारी है। क्रि० प्र०—पड़ना।—लगना। ६. वस्तुओं, व्यक्तियों आदि के सम्बन्ध में, जिसका किसी पर कोई अनिष्ट परिणाम या प्रभाव पड़ता हो या पड़ सकता हो। जैसे—यह लड़का अपने पिता (या भाई) पर भारी है; अर्थात् हो सकता है कि इसके ग्रहों के फलस्वरूप इसके पिता (या भाई) का कोई बहुत बड़ा अनिष्ट हो। क्रि० प्र०—पड़ना। ७. बहुत बड़े या विशाल आकार-प्रकार या रूप-रंग वाला। बहुत बड़ा। बृहत्। जैसे—(क) उनके यहाँ भारी भारी पुस्तकें देखने में आईं। (ख) उनका भाषण भारी भारी शब्दों से भरा था। (ग) सावन में यहाँ भारी मेला लगता है। ८. जो औरों की तुलना में बहुत अधिक बड़ा, महत्त्वपूर्ण या मान्य हो। बहुत बड़ा। जैसे—वे दर्शनशास्त्र के भारी विद्वान् हैं। पद—भारी भरकम या भड़कम=बहुत बड़ा और भारी। जैसे—भारी भरकम गठरी। बहुत भारी=बहुत बड़ा। ९. बहुत अधिक। अत्यन्त। जैसे—यह तुम्हारी भारी मूर्खता है। १॰. जो किसी प्रकार से असह्य या दुर्वह हो। जैसे—(क) क्या मेरा ही दम तुम्हें भारी है ? (ख) मुझे अपना सिर भारी नहीं पड़ा है, जो मैं उनसे लड़ने जाऊँ। क्रि० प्र०—पड़ना।—लगना। ११. किसी की तुलना में अधिक प्रबल या बलवान। जैसे—वह अकेला दो आदमियों पर भारी है। क्रि० वि० बहुत अधिक। उदा०—गो व्यंग्य तुम पै डरपौं भारी।—कबीर।
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भारी पानी  : पुं० [हिं०] १. जलाशयों, नदियों आदि का ऐसा पानी जिसमें खनिज पदार्थों की मात्रा अपेक्षया अधिक हो। २. आधुनिक रसायनशास्त्र में पानी की तरह का एक मिश्र पदार्थ जो आक्सीजन और भारी हाइड्रोजन के योग से बनता है और जिसका उपयोग परमाणुओं के विस्फोट में होता है। (हेवी वाटर)
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भारीपन  : पुं० [हिं० भारी+पन (प्रत्य०)] भारी होने की अवस्था या भाव। गुरुत्व।
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भारु  : पुं० [हिं० भारी] धीरे चलने के लिए एक संकेत जिसका व्यवहार कहार करते हैं। वि० [हिं० भार] १. भारी। २. जो बोझ या भार के रूर में हो या जान पड़े। प्रायः असह्य। जैसे—लड़की हमें भारू नहीं पड़ी है।
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भारुंड  : पुं० [सं०] १. रामायण के अनुसार एक वन जो पंजाब में सरस्वती नदी के पूर्व में था। २. एक ऋषि। ३. एक पक्षी।
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भारोद्वह  : वि० [सं० भार+उद्√वह् (ढोना)+अच्] भार ले जानेवाला। भारवाहक। पुं० मजदूर।
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भारोपीय  : पुं०=भारत-युरोपीय।
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भार्गव  : वि० [सं० भृगु+अण्] १. भृगु के वंश में उत्पन्न। २. भृगु सम्बन्धी। भृगु का। जैसे—भार्गव अस्त्र। पुं० १. भृगु के वंश में उत्पन्न व्यक्ति। २. परशुराम। ३. शुक्राचार्य। ४. मार्कण्डेय। ५. जमदग्नि। ६. च्यवन ऋषि। ७. एक उप-पुराण का नाम। ८. पुराणानुसार भारतवर्ष के अन्तर्गत एक पूर्वीय देश। ९. हीरा। १॰. हाथी। ११. श्योनाक। १२. नीला भँगरा। १३. कुम्हार। १४. उत्तर प्रदेश के उत्तरी भागों में बसी हुई एक हिन्दू जाति।
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भार्गव-क्षेत्र  : पुं० [सं०] दक्षिण भारत के आधुनिक मलयालम प्रदेश का पुराना नाम। विशेष—प्रवाद है कि परशुराम के परशु फेंकने से यह प्रदेश बना था, इसी से इसका यह नाम पड़ा।
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भार्गवी  : स्त्री० [सं० भार्गव+ङीष्] १. पार्वती। २. लक्ष्मी। ३. दूब। ४. उड़ीसा की एक नदी।
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भार्गवीय  : वि० [सं० भर्गव+छ—ईय] भृगु-संबंधी। भार्गव।
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भार्गवेश  : पुं० [सं० भार्गव-ईश, ष० त०] परशुराम।
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भार्गायन  : पुं० [भर्ग+फञ्-वृद्धि-आयन] भर्ग के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
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भार्गी  : स्त्री० [सं० भर्ग+अण्+ङीष्] भारंगी।
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भार्य  : वि० सं० [√भृ (भरण करना)+ण्यत्, वृद्धि] जिसका भरण किया जाने का हो या किया जाय। पुं० १. नौकर। सेवक। २. आश्रित व्यक्ति। ३. आयुधजीवी। योद्धा।
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भार्या-वृक्ष  : पुं० [सं० मध्य० स०] पतंग नामक वृक्ष।
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भार्याजित  : वि० [सं० तृ० त०] भार्या या जोरू के वश में रहनेवाला। पुं० एक तरह का हिरन।
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भार्याटिक  : वि० [सं० भार्याट+ठन्—इक] जोरू का गुलाम। स्त्रैण। पं० १. एक प्राचीन मुनि। २. एक प्रकार का हिरन।
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भार्यात्व  : पुं० [सं० भार्या+त्व] भार्या होने का भाव। पत्नीत्व।
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भार्यारू  : पुं० [सं० भार्या√ऋ (जाना)+उण्] १. एक प्रकार का हिरन। २. एक प्राचीन पर्वत। २. वह व्यक्ति जिसके वीर्य से परस्त्री को पुत्र हुआ हो।
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भार्य्या  : स्त्री० [सं०] जोरू। पत्नी।
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भार्वाट  : पुं० [सं० भार्या√अट् (जाना)+अण्, उप० स०] वह जो किसी दूसरे पुरुष को भोग के लिए अपनी भार्या या पत्नी दे। अपनी स्त्री का दूसरे पुरुष के साथ सम्बन्ध करानेवाला व्यक्ति।
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भाल  : पृं० [सं०√भा (प्रकाश करना)+लच्] १. भौहों के ऊपर का भाग जो भाग्य का स्थान माना गया है। कपाल। ललाट। मस्तक। माथा। २. तेज। पुं० १. भाला। २. भालू (रीछ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाल-क्षेत्र, भाल-लोचन  : पुं० [सं० ब० स०] शिव, जिनके मस्तक में एक नेत्र है।
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भाल-चंद्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. महादेव। २. गणेश।
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भाल-चंद्री  : स्त्री० [सं० ब० स०,+ङीष्] दुर्गा।
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भाल-दर्शन  : पुं० [सं० ब० स०] सिंदूर। सेंदुर।
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भालना  : स० [सं० निभालन] १. ध्यानपूर्वक देखना। अच्छी तरह देखना। जैसे—देखना-भालना। २. तलाश करना। ढूँढ़ना।
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भालबी  : पुं० [सं० भल्लुक] रीछ। भालू। (डिं०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाला  : पुं० [सं० भल्ल] एक प्रसिद्ध अस्त्र जिसमें बड़े और मोटे डंडे के सिरे पर नुकीला बड़ा फल लगा रहता है। बरछा। नेजा।
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भालांक  : पुं० [सं० भाल-अंक, ब० स०] १. करपत्र नामक अस्त्र। २. एक प्रकार का साग। ३. रोहू मछली। ४. कछुआ। ५. महादेव। ६. ऐसा मनुष्य जिसके शरीर में बहुत अच्छे लक्षण हों। (सामुद्रिक)
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भालाबरदार  : पुं० [हिं० भाला+फा० बरदार] भाला या बरछा उठाने अर्थात् धारण करनेवाला। योद्धा। बरछैत।
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भालि  : स्त्री० [हिं० भाला का स्त्री० अल्पा०] १. बरछी। साँग। २. काँटा। शूल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भालिम  : पुं० [हिं० भला] भलापन। भलाई। उदा०—भालिम दिन दिन चढ़ि भरण।—प्रिथीराज।
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भालिया  : पुं० [देश०] वह अन्न जो हलवाहे को वेतन में दिया जाता है। भाता। पुं०=भाला-बरदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाली  : स्त्री० [हिं० भाला] १. छोटा भाला। २. भाले की गाँसी या नोक। ३. काँटा। शूल।
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भालुक  : पुं० [सं०√भल् (हिंसा)+उक्, अण्] भालू। रीछ।
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भालुनाथ  : पुं० [हिं० भालू+सं० नाथ] भालुओं का राजा। जांबवान्। जामवंत।
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भालुसुंडा  : पुं० [हिं० भालू+सूँड] भूरे रंग का एक तरह का रोएँदार छोटा कीड़ा जो खरीफ की फसल को हानि पहुँचाता है।
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भालू  : पुं० [सं० भल्लुक] मोटे तथा लंबे काले (या भूरे) बालोंवाला एक हिंसक जंगली तथा स्तनपायी चौपाया जिसे पकड़कर मदारी लोग नचाते भी हैं।
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भालूक  : पुं० [सं०√भल्+ऊक+अण्] भालू।
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भालूसूअर  : पुं० दे० ‘बालू-सूअर’।
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भाव  : पुं० [सं०√भू (होना)+णिच्+अच्] [वि० भाविक, भावुक] १. किसी वस्तु के अस्तित्व में आने, रहने या होने की अवस्था। प्रस्तुत या वर्तमान होने का तत्त्व या दशा। अस्तित्व। सत्ता। ‘अभाव’ इसी का विपर्याय है। (एग्ज़िस्टेन्स)। २. प्रत्येक ऐसा पदार्थ जो अस्तित्व में आता या जन्म लेता, बढ़ता या विकसित होता तथा अंत में नष्ट हो जाता है। ३. मन में उत्पन्न होनेवाले विचार का वह अपरिपक्व आरंभिक और मूल रूप जिसमें उसका आशय या उद्देश्य भी निहित होता है। मानस उद्बावना का वह रूप जो परिवर्धित तथा विकसित होकर विचार में परिणत होता है। जैसे—उस समय मेरे मन में अनेक प्रकार के भाव उत्पन्न हो रहे थे। ४. मन में उत्पन्न होनेवाली कोई भावना। खयाल। विचार। ५. कथन, लेख्य आदि का वह उद्दिष्ट और मुख्य अभिप्राय या आशय जो कुछ अस्पष्ट तथा गूढ़ होता है, और जो सहसा दूसरों की समझ में नहीं आता। आशय। तात्पर्य। मतलब। (सेन्स) जैसे—यहाँ कवि का भाव कुछ और ही है। ६. मन में उत्पन्न होनेवाली भावनाओं, विचारों आदि का वह आभास या छाया जो कुछ अवसरों पर आकृति आदि पर पड़ती और उन भावनाओं, विचारों आदि की सांकेतिक रूप में सूचक होती है। जैसे—उसके चेहरे पर एक भाव आता और एक जाता था। मुहा०—भाव देना=मन का कोई भाव शारीरिक चेष्टा या अंग-संचालन से प्रकट करना। उदा०—श्याम को भाव दै गई राधा।—सूर। ७. किसी चीज के प्रति होनेवाली हार्दिक भक्ति, विश्वास या श्रद्धा। उदा०—का भाखा, का संस्कृत, भाव चाहियतु साँच।—तुलसी। ८. किसी काम, चीज या बात का वह गुणात्मक अथवा धर्मात्मक तत्त्व जो उसकी मूल प्रकृति या विशेषता का आधार या सूचक होता है; और जिसकी सत्ता से पृथक् तथा स्वतंत्र मानी जाती है। (सब्स्टेन्स) जैसे—शीतल होने का भाव ही शीतलता है; इसीलिए ‘शीतलता’ भाव-वाचक संज्ञा है। ९. सांख्य में, बुद्धि-तत्त्व का कार्य, धर्म या विकार जो वेदांत के अनुसार ‘कर्म’ है। १॰. वैशेषिक में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छः पदार्थ जिनका अस्तित्व निश्चित तथा वास्तविक माना गया है। ११. व्याकरण में, धातु का अर्थ। १२. साहित्य में आश्रय की मानसिक स्थितियों का व्यंजक प्रदर्शन जिससे रस की उत्पत्ति होती है, और अनेक प्रकार के शारीरिक व्यापारों से व्यक्त होती है। साहित्यकारों ने इसके स्थायी, व्यभिचारी और सात्त्विक ये तीन प्रकार या भेद कहे हैं। (देखें उक्त शब्द) १३. संगीत के सात अंगों में से पाँचवाँ अंग जिसमें गाये जानेवाले गीत में वर्णित मनोभाव, शारीरिक अंग-संचालनों और चेष्टाओं के द्वारा मूर्त रूप में प्रदर्शित किये जाते हैं। मुहा०—भाव बताना=संगीत में गेय पद में वर्णित मनोभाव आंगिक चेष्टाओं के द्वारा प्रदर्शित करना। १४. चोचला। नखरा। मुहा०—भाव बताना=कोई काम करने का समय आने पर केवल हाथ-पैर हिला कर या बातें बना कर उसे टालने का प्रयत्न करना। (बाजारू) १५. फलित ज्योतिष में, ग्रहों की शयन, उपवेशन, प्रकाशन, गमन आदि बारह चेष्टाओं में से प्रत्येक चेष्टा या स्थिति जिसका ध्यान जन्म-कुंडली का विचार करने के समय रखा जाता है। और जिसके आधार पर फलाफल कहे जाते हैं। १६. ज्योतिष में साठ संवत्सरों में से आठवें संवत्सर की संज्ञा। १७. ज्योतिष में जन्म-समय का नक्षत्र। १८. चीज़ों आदि की वह दर या मूल्य जो प्रायः बाजारों में चलता और समय समय पर घटा-बढ़ता रहता है। निर्ख। जैसे—पहले भाव पूछ कर तब चीज खरीदनी चाहिए। पद—भाव-ताव। (देखें) क्रि० प्र०—उतरना।—गिरना।—घटना।—चढ़ना।—बढ़ना। १९. आत्मा। २॰. जगत्। संसार। २१. जन्म। पैदाइश। २२. चित्त। मन। २३. कार्य, कृत्य या क्रिया। २४. कल्पना। २५. उपदेश। २६. विभूति। २७. पंडित। विद्वान। २८. पशु। जानवर। २९. भग। योनि। ३॰. रति-क्रीड़ा। संभोग। ३१. अच्छी तरह देखना। पर्यालोचन। ३२. प्रेम। मुहब्बत। स्नेह। ३३. ढंग। तरीका। ३४. तरह। प्रकार। भाँति। ३५. उपदेश। ३६. उद्देश्य। हेतु। ३७. प्रकृति। स्वभाव। ३८. कामना। वासना। ३९. अवस्था। दशा। हालत। ४॰. विश्वास। ४१. आदर-सम्मान। ४२. दे० ‘भाव अलंकार’।
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भाव-अलंकार  : पुं० [सं० कर्म० स०] नाट्य शास्त्र में अंगज अलंकारों का एक भेद जिसमें नायिका के वे आंगिक विकार या क्रिया-व्यवहार आते हैं जो उसके निर्विकार चित्तावस्था में यौवनोद्गम के साथ साथ काम-विकार का वपन करते हैं।
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भाव-गति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. इरादा। इच्छा। २. विचार। ३. मराठी साहित्य में वह गीत जिसमें मुख्यतः मनोभावों की प्रधानता हो।
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भाव-ग्रंथि  : स्त्री० [सं०] दे० ‘मनोग्रंथि’।
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भाव-ग्राह्य  : वि० [सं० तृ० त०] जिसे ग्रहण करने से पूर्व मन में सद्बाव लाने की आवश्यकता हो।
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भाव-चित्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह चित्र जो विशेषतः कोई मानसिक भाव प्रकट करने के उद्देश्य से बनाया गया हो।
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भाव-ताव  : पुं० [सं० भाव+हिं० ताव] १. किसी चीज का भाव अर्थात् दर, मूल्य आदि। निर्ख। २. किसी चीज या बात का रंग-ढंग। क्रि० प्र०—जाँचना।—देखना।
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भाव-दत्त  : पुं० [सं० तृ० त०] चोरी न कर के मन में केवल चोरी की भावना करना जो जैनियों के अनुसार एक प्रकार का पाप है।
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भाव-दया  : वि० [सं० मध्य० स०] किसी जीव की दुर्गति देखकर उसकी रक्षा के लिए अंतःकरण में दया लाना। (जैन)
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भाव-नाट्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह भाव-प्रधान नाटक जिसमें कुछ संगीत भी हो।
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भाव-निक्षेप  : पुं० [सं० ष० त०] जैनों के अनुसार, किसी पदार्थ का वह नाम जो उसका केवल प्रस्तुत स्वरूप देखकर रखा गया हो।
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भाव-पक्ष  : [सं० ष० त०] साहित्यिक रचना का वह पक्ष जिसमें उसकी निष्पत्ति रस का सांगोपांग वर्णन या विवेचन होता है। जिसमें विशेष रूप से काव्यगत भावनाओं, कल्पनाओं तथा विचारों की प्रधानता होती है।
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भाव-परिग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] वह स्थिति जिसमें मनुष्य धन का संग्रह करता तो नहीं है अथवा नहीं कर पाता परन्तु उसमें धन-संग्रह की भावना प्रबल होती है।
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भाव-प्रधान  : पुं०=भाववाच्य। वि० [सं०] जिसमें भाव या भावों की तीव्रता या प्रधानता हो।
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भाव-बंध  : पुं० [सं० तृ० त०] जैनों के अनुसार भावनाएँ या विचार जिनके द्वारा कर्म-तत्त्व से आत्मा बंधन में पड़ती है।
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भाव-भक्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. भक्ति-भाव। २. आदर-सत्कार। सम्मान।
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भाव-भंगी  : स्त्री० [सं० ष० त०] मन का भाव प्रकट करनेवाला अंग-विक्षेप। वह शारीरिक क्रिया जो मन का भाव प्रकट करनेवाली हो।
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भाव-मृषावाद  : पुं० [सं० तृ० त०] १. वह स्थिति जिसमें मनुष्य झूठ नहीं बोलता पर उसके मन में झूठ बोलने की प्रवृत्ति जागरुक होती है। २. शास्त्र के वास्तविक अर्थ को दबाकर अपना हेतु सिद्ध करने के लिए झूठ-मूठ नया अर्थ करना। (जैन)
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भाव-मैथुन  : पुं० [सं० तृ० त०] वह स्थिति जिसमें मनुष्य प्रत्यक्ष रूप से तो मैथुन नहीं करता या नहीं करना चाहता परन्तु उसका मन विशेषतः सुप्त मन मैथुनिक विचारों में रत रहता है।
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भाव-लय  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थिति जिसमें शुद्ध भावात्मक धरातल पर लय की प्रतीति होती है।
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भाव-वाचक  : स्त्री० [सं० ष० त०] व्याकरण में वह संज्ञा जिससे किसी पदार्थ का भाव, धर्म, या गुण आदि सूचित हो। जैसे—कुरूपता, सुशीलता, कट्टरपन, बुरापन आदि।
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भाव-वाच्य  : पुं० [सं० तृ० त०] व्याकरण में वह तत्त्व जो अकर्मक क्रिया पद की उस स्थिति का सूचक होता है जब वह कर्ता का व्यापार सूचित न कर के क्रिया के व्यापार का ही बोध कराता है। उक्त अवस्था में क्रिया पद के साथ कर्ता प्रथमा विभक्ति से युक्त न हो कर तृतीया विभक्ति से युक्त होता है। जैसे—अब हाथ से कलम उठने लगी है।
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भाव-विकार  : पुं० [सं० ष० त०] जन्म, अस्तित्व, परिणाम, वर्धन, क्षय और नाश ये छः विकार। (यास्क)
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भाव-व्यंजक  : वि० [सं० ष० त०] अच्छी तरह या स्पष्ट रूप से भाव प्रकट या व्यक्त करनेवाला।
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भाव-व्यंजन  : पुं० [सं० ष० त०] मन का भाव प्रकट करने की क्रिया या दशा।
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भाव-शबलता  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थिति जिसमें एक एक करके अनेक भाव श्रृंखलाबद्ध रूप में प्रकट होते हैं अथवा अनेक भावों का मिश्रण दिखाई पड़ता हो।
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भाव-शांति  : स्त्री० [सं० ष० त०] साहित्य में वह अवस्था जब मन में किसी नये विरोधी भाव के उत्पन्न होने पर पहले का कोई भाव शान्त या समाप्त हो जाता है।
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भाव-सत्य  : पुं० [सं० तृ० त०] ऐसा सत्य जो ध्रुव न होने पर भी भाव की दृष्टि से सत्य हो।
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भाव-संधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थिति या स्थल जहाँ दो अविरोधी भावों की संधि होती है।
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भाव-सर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] तन्मात्राओं की उत्पत्ति। (सांख्य)
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भाव-संवर  : पुं० [सं० ष० त०] जैनों के अनुसार वह क्रिया या शक्ति जिससे मन में नये भावों का ग्रहण रुक जाता है।
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भाव-हरण  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी की कविता, लेख आदि के भाव चुरा कर उन्हें अपनी मौलिक कृति के रूप में लोगों के सामने उपस्थित करना। २. साहित्यिक चोरी। (प्लेजिअरिज़्म)
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भाव-हारी (रिन्)  : पुं० [सं० भाव√हृ+णिनि, उप० स०] दूसरों की कविताओं, लेखों आदि के भाव चुरा कर उन्हें अपनी मौलिक कृति बतलानेवाला व्यक्ति। (प्लेजिअरिस्ट)
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भाव-हिंसा  : स्त्री० [सं० स० त०] केवल मन में किसी के प्रति हिंसापूर्ण भाव होना। ऐसी स्थिति में मनुष्य हिंसा की भावना कार्य रूप में परिणति नहीं करता।
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भावइ  : अव्य० [हिं० भावना या भाना=अच्छा लगना, मि० पं० भाँवें] अगर इच्छा हो तो। अगर मन चाहे तो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भावक  : वि० [सं०√भू+णिच्+ण्वुल—अक] १. भावना करनेवाला। २. भाव से युक्त। भाव-पूर्ण। ३. उत्पन्न करनेवाला। उत्पादक। ४. किसी का अनुयायी, प्रेमी या भक्त। पुं० १. भाव। २. साहित्य-शास्त्र में, काव्य का अधिकारी पाठक। अव्य० [सं० भाव+क (प्रत्य०)] थोड़ा सा। ज़रा सा। किंचित्।
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भावगम्य  : वि० [सं० तृ० त०] सद्भाव से जाने के योग्य। जो अच्छे भाव की सहायता से जाना जा सके।
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भावग्राही (हिन्)  : वि० [सं० भाव√ग्रह् (ग्रहण करना)+णिनि] भाव या आशय समझनेवाला।
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भावज  : वि० [सं० भाव√जन् (उत्पत्ति)+ड] भाव से उत्पन्न। स्त्री० [सं० भ्रातृजाया, हिं भौजाई] भाई, विशेषतः बड़े भाई की पत्नी। भाभी।
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भावज्ञ  : वि० [सं० भाव√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० भावज्ञता] मन की प्रवृत्ति या भाव जाननेवाला।
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भावतः  : अव्य [सं० भाव+तस्] भाव की दृष्टि से। भाव के विचार से।
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भाँवता  : पुं० =भावता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भावंता  : वि०=भावता।
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भावता  : वि० [हिं० भावना=अच्छा लगना+ता (प्रत्य०)] [स्त्री० भावती] जो भला लगे। मोहक। लुभावना। पुं० प्रियतम।
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भावन  : पुं० [सं०√भू (होना)+णिच्+ल्युट्—अन] १. भावना। २. ध्यान। ३. विष्णु। वि० [हिं० भाना=भला लगना] भाने या भला लगनेवाला। प्रियदर्शी।
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भावना  : स० [सं० भ्रमण] १. किसी चीज़ को खराद आदि पर रख कर घुमाना। २. खरादना। कुनना। ३. अच्छी तरह गढ़कर सुन्दर और सुडौल बनाना। ४. दही या मट्ठा मथना। उदाहरण—मट्ठा भाँवने के समय हँसुली नाचती होगी।—वृन्दावनलाल वर्मा। अ० १. चक्कर या फेरा लगाना। २. व्यर्थ इर-उधर घूमना।
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भावना  : स्त्री० [सं०√भू+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. मन में किसी बात का होनेवाला चिंतन। ध्यान। २. मन में उत्पन्न होनेवाली कोई कल्पना, भाव या विचार। खयाल। विशेष—दार्शनिक दृष्टि से यह चित्त का एक संसार है जो अनुभव, स्मृति आदि के योग से उत्पन्न होता है। ३. कामना। चाह। वासना। ४. वैद्यक में, औषध आदि को किसी प्रकार के रस या तरल पदार्थ में बार बार मिला कर घोटना और सुखाना जिसमें उस औषध में रस या तरल पदार्थ के कुछ गुण आ जायँ। पुट। ५. चिन्ता। फिक्र। क्रि० प्र०—देना। अ०=भाना (अच्छा लगना)। वि०=भावता या भावन (अच्छा लगनेवाला)।
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भावना-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर आदि का आध्यात्मिक तथा भक्तिपूर्ण मार्ग या साधन।
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भावनामय-शरीर  : पुं० [सं० भावना+मयट्, भावनामय-शरीर, कर्म० स०] सांख्य के अनुसार एक प्रकार का शरीर जो मनुष्य मृत्यु से कुछ ही पहले धारण करता है और जो उसके जन्म भर के किए हुए सभी कर्मों के अनुरूप होता है। कहते हैं कि जब आत्मा इस शरीर में पहुँच जाती है, तभी मृत्यु होती है।
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भावनि  : स्त्री० [हिं० भाना या भावना=अच्छा लगना] मन में सोचा हुआ काम या बात। वह जो जी में आया हो। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भावनीय  : वि० [सं० भानु+छ—ईय, गुण] भानु-संबंधी। भानु का। पुं० दाहिनी आँख।
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भावनीय  : वि० [सं०√भू+णिच्+अनीयर्] चित्त या विचार में लाये जाने के योग्य। जिसकी भावना की जा सके या हो सके।
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भावय  : पुं० [देश०] वह व्यक्ति जो धातु की चद्दर पीटने के समय पासे को सँड़से से पकड़े रहता और उलटता रहता है।
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भाँवर  : स्त्री० [सं० भ्रमण] १. चारों ओर घूमना या चक्कर काटना। घुमरी लेना। २. परिक्रमा। फेरी। मुहावरा—भाँवर भरना=परिक्रमा करना।३. विवाह हो चुकने पर वर और वधू के द्वारा की जानेवाली अग्नि की परिक्रमा। क्रि० प्र०—पड़ना।—पारना।—फिरना।—भरना।—लेना। ४. हल जोतने केसमय एक बार खेत के चारों ओर घूम आना। पुं० =भौंरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भावर (रि)  : स्त्री० [हिं० माना] १. भाने की अवस्था या भाव। २. अभिरुचि। उदा०—भावरि अनभावरि भरे करौ कोरि बकवाद।—बिहारी। स्त्री०=भाँवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाँवरी  : स्त्री०=भाँवर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भावलिपि  : स्त्री० [सं० ष० त०] लिपि का वह आरंभिक और मूल प्रकार जिसमें मन के भाव या विचार अक्षरों या वर्णों के द्वारा नहीं, बल्कि उन भावों या विचारों के प्रतीकों के द्वारा अंकित और सूचित किये जाते थे। (आइडियोग्राफी) उत्तरी अमेरिका और मिस्र के आदिम निवासियों की लिपियों की गणना भाव-लिपि में होती है।
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भावली  : स्त्री० [देश०] जमींदार और असामी के बीच उपज की होनेवाली बँटाई।
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भावांकन  : पुं० [सं० भाव-अंकन, ष० त०] भावों को चित्रों या विशेष प्रकार के चिह्नों में अंकित करने की क्रिया या भाव। (आइडियोग्राफी) विशेष दे० ‘चित्रलिपि’।
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भावांतर  : पुं० [सं० भाव-अंतर, ष० त०] १. मन की अवस्था का बदल कर कुछ और हो जाना। २. अर्थान्तर।
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भावात्मक  : वि० [सं० भाव-आत्मन्, ब० स०,+कप्] १. जिसमें किसी प्रकार का मानसिक भाव भी मिला हो। २. भावों से परिपूर्ण या युक्त (रचना) ३. जो भाव से युक्त अर्थात् जिसमें अभाव न हो। वि० दे० ‘सहिक’।
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भावानुग  : वि० [सं० भाव० अनुग, ष० त०] [स्त्री० भावानुगा] भाव का अनुसरण करनेवाला।
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भावानुगा  : स्त्री० [सं० भावानुग+टाप्] छाया।
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भावापहरण  : पुं० =भावहरण।
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भावाभाव  : पुं० [सं० भाव० अभाव, द्व० स०] १. भाव और अभाव। होना या न होना। २. उत्पत्ति और नाश या लय। ३. जैनों के अनुसार भाव का अभाव में अथवा वर्तमान का भूत मे होनेवाला परिवर्तन।
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भावाभास  : पुं० [सं० भाव०+आभास, ष० त०] साहित्य में काव्य दोषों के अन्तर्गत वह स्थिति जिसमें कोई व्यभिचारी भाव किसी रस का पोषक न होकर स्वतंत्र रूप से भाव-व्यवस्था को प्राप्त होता हुआ सा दिखाई देता है।
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भावार्थ  : पुं० [सं० भाव-अर्थ] १. ऐसा विवरण या विवेचन जिसमें मूल का केवल भाव या आशय आ जाय, अक्षरशः अनुवाद न हो। (शब्दार्थ) से भिन्न) २. अभिप्राय। आशय। तात्पर्य। मतलब।
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भावालंकार  : पुं० दे० ‘भाव० अलंकार’।
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भावालीना  : स्त्री० [सं० भाव-आलीना, स० त०] छाया।
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भावाश्रित  : वि० [सं० भाव-आश्रित, ष० त०] (काव्य, गीत, नृत्य आदि) जो मानसिक भावों के आधार पर स्थित हो। पुं० संगीत में हस्तक का एक भेद। गेय पद का भाव के अनुसार हाथ उठाना, घुमाना और चलाना।
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भाविक  : वि० [सं० भाव+ठक्-इक] १. भाव-संबंधी। भाव का। २. भाव या आशय जाननेवाला। ३. मर्मज्ञ। ४. नैसर्गिक। प्राकृतिक। ५. असली। वास्तविक। ६. भविष्य में होनेवाला। भावी। पुं० १. ऐसा अनुमान जो अभी हुई न हो पर आगे चल कर होनेवाला हो। भावी अनुमान। २. साहित्य में एक प्रकार का अंलकार जिसमें भूत और भविष्यत् भावों या पदार्थों का एक साथ तथा प्रत्यक्षवत् दर्शन किया जाता है।
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भावित  : भू० कृ० [सं०√भू (होना)+णिच्+क्त] १. जिसकी भावना की गई हो। सोचा या विचारा हुआ। २. मिलाया हुआ। मिश्रित। ३. शुद्ध किया हुआ। शोधित। ४. जिसमें किसी रस आदि की भावना की गई हो। जिसमें पुट दिया गया हो। ५. किसी गंध से युक्त किया हुआ। बासा या बसाया हुआ। ६. अधिकार में आया हुआ। प्राप्त। ७. भेंट किया हुआ। अर्पित। ८. उत्पन्न जात।
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भाविता  : स्त्री० [सं० भाविन्+तल्+टाप्] भावी का भाव। होनेहार। होनी।
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भावितात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० भावित-आत्मन्० ब० स०] जिसने ईश्वर का मनन तथा चिंतन करके अपनी आत्मा शुद्ध कर ली हो।
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भावित्र  : पुं० [सं०√भू (होना)+णित्रिन्, वृद्धि] स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन तीनों का समाहार। त्रैलोक्य।
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भावी (विन्)  : वि० [सं०√भू+इनि, णित्व] १. भविष्य में होने या घटित होनेवाला। २. जो भाग्य के विधान के अनुसार अवश्य होने को हो। किस्मत में बदा हुआ। स्त्री० १. भविष्यत् काल। भविष्य मे अनिवार्य तथा निश्चित रूप से घटित होनेवाली बात या व्यापार। अवश्य होनेवाली बात। भवितव्यता।
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भावुक  : वि० [सं०√भू (होना)+उकञ्, वृद्धि] १. भावना करने या सोचने-समझनेवाला। २. जिसके मन में भावों का उद्वेग या संचार बहुत जल्दी होता हो। ३. (व्यक्ति) जो मन मे उठे हुए भाव के वशीभूत हो जाय और कर्त्तव्य अकर्त्तव्य भूल जाय। ४. उत्तम भावना करनेवाला। अच्छी बातें सोचनेवाला। पुं० १. भला आदमी। सज्जन। २. कल्याण। मंगल। ३. बहनोई।
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भावे  : अव्य=भावै। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भावे प्रयोग  : पुं० [सं० व्यस्त पद] व्याकरण में क्रिया का ऐसे रूप में होनावाला प्रयोग जिसमें कर्ता या कर्म के पुरुष लिंग और वचन के अनुसार उसके रूप नहीं बदलते, और क्रिया सदा अन्य पुरुष, पुल्लिंग और एक वचन में रहती है। (इम्पर्सनल यूज) जैसे—उन्हें यहाँ बुलाया जायगा (विशेष दे० ‘प्रयोग के अन्तर्गत’)।
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भावै  : अव्य० [हिं० भाना=अच्छा लगना] १. चाहे जो हो। २. जो चाहे तो। अच्छा लगे तो। ३. अथवा। चाहे। या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भावोत्सर्ग  : पुं० [सं० भाव०-उत्सर्ग, ष० त०] क्रोध आदि बुरे भावों का त्याग। (जैन)
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भावोदय  : पुं० [सं० भाव०-उत्सर्ग, ष० त०] साहित्य में एक अंलकार जिसमें किसी नवीन भाव के उदय होने का उल्लेख या वर्णन होता है।
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भावोन्मेष  : पुं० [सं० भाव+उन्मेष, ष० त०] मन में होनेवाला किसी भाव का उदय।
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भाव्य  : वि० [सं०√भू (होना)+ण्यत्] १. जिसका होना बिलकुल निश्चित हो। अवश्य होनेवाला। अवश्यम्भावी। २. जिसकी भावना की जा सके। ३. जो प्रमाणित या सिद्ध किया जाने को हो।
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भाषक  : वि० [सं०√भाष् (बोलना)+ण्वुल्-अक] १. भाषण करनेवाला। कहनेवाला। 2. किसी रूप में कुछ बोलनेवाला। जैसे—उच्च भाषक।
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भाषण  : वि० [सं०√भाष्+ल्युट्—अन] १. मुँह से कह या बोलकर कोई बात कहना। २. कही हुई बात। कथन। ३. आपस में होनेवाली बातचीत या वार्तालाप। ४. सभा, संख्या आदि में किसी उपस्थित या प्रासंगिक विषय पर धाराप्रवाह रूप में किसी के द्वारा व्यक्त किये जानेवाले विचार या प्रस्तुत किया जानेवाला विवरण। वक्तृता (स्पीच)।
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भाषण-स्वातंत्र्य  : पुं० [सं० ष० त०] अपने मन में विचार विशेषतः धार्मिक राजनैतिक या सामाजिक विषयों पर मन के विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता, जो शासन की ओर से प्राप्त होनेवाले अधिकारों के अन्तर्गत है।
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भाषना  : अ० [सं० भाषण] १. कहना। बोलना। २. बात-चीत करना। स० [सं० भक्षण] भोजन करना। खाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भाषा  : स्त्री० [सं०√भाष्+अ+टाप्] १. किसी विशिष्ट जनसमूह द्वारा अपने भाव, विचार आदि प्रकट करने के लिए प्रयोग में लाए जानेवाले शब्द तथा उनके संयोजन का एक व्यवस्थित क्रम। जबान बोली। २. दे० ‘बोली’। विशेष—साहित्कारों के अनुसार भाषा का क्षेत्र बोली की तुलना में बड़ा और विस्तृत होता है, और एक भाषा के अन्तर्गत अनेक बोलियाँ होती है। ३. वह अव्यक्त नाद जिससे पशु-पक्षी आदि अपने मनोविकार या भाव प्रकट करते हैं। जैसे—बंदरों की भाषा। ४. वह बोली जो वर्तमान समय में किसी देश में प्रचलित हो। ५. आधुनिक हिन्दी का पुराना नाम। ६. संगीत में एक प्रकार की रागिनी। ७. संगीत में एक प्रकार का ताल। ८. वाग्देवी। सरस्वती। ९. अभियोग पत्र। अरजी दावा।
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भाषा-तत्त्व  : पुं० [सं० ष० त०] भाषा विज्ञान।
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भाषा-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह पत्र जिसमें अपने कष्टों का निवेदन किया गया हो। २. अभियोग पत्र। अरजी दावा।
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भाषा-वाद  : पुं० [ष० त०] भाषा-पत्र।
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भाषा-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] एक आधुनिक विज्ञान जिसमें भाषा की उत्पत्ति, विकास उसके शब्दों तथा उन शब्दों के अर्थों, ध्वनियों आदि का वैज्ञानिक ढंग से प्रतिपादन तथा विवेचन किया जाता है। (फिलोलोजी)
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भाषा-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण।
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भाषा-सम  : पुं० [सं० स० त०] एक प्रकार का शब्दालंकार जिसमें शब्दों की योजना की जाती है जो कई भाषाओं के समान रूप से प्रयुक्त होते हैं।
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भाषा-समिति  : स्त्री० [सं० ष० त०] जैनियों के अनुसार एक प्रकार का आचार जिसके अन्तर्गत ऐसी बातचीत आती है जिससे सब लोग प्रसन्न और संतुष्ट हों।
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भाषाई  : वि० [हिं० भाषा+ई (प्रत्यय)] भाषा-सम्बन्धी। भाषा का। भाषिक जैसे—भाषाई आंदोलन।
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भाषांतर  : पुं० [सं० भाषा-अंतर, मयू० स०] १. एक भाषा में लिखे हुए लेख का दूसरी भाषा में अनुवाद करना। २. इस प्रकार किया हुआ अनुवाद।
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भाषांतर-सम  : पुं० [सं० तृ० त०] एक प्रकार का शब्दालंकार (शब्दों की ऐसी योजना जिससे वाक्य कई भाषाओं का माना जा सके)।
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भाषांतरकार  : पुं० [सं० भाषांतर√कृ (करना)+अण्] भाषांतर अर्थात् अनुवाद या उलथा करनेवाला। अनुवादक।
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भाषाबद्ध  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. (भाव या विचार) जो शब्दों में (बोल या लिखकर व्यक्त किया गया हो। २. देश भाषा में लिखा हुआ।
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भाषाविद्  : पुं० [सं० भाषा√विद् (जानना)+क्विप्] १. वह जो अपनी भाषा का ज्ञाता हो। २. वह जो अनेक भाषाओं का ज्ञाता हो।
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भाषिक  : वि० [सं० भाषा+ठक्-इक] १. भाषा-संबंधी। २. भाषा के गुणों के फलस्वरूप होनेवाला। जैसे—भाषिक वैभव।
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भाषिका  : स्त्री० [सं० भाषा+कन्+टाप्,इत्व] १. भाषा। २. वाणी
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भाषिणी  : स्त्री० [सं० भाषिन्+ङीष्] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। वि० स्त्री० सं० ‘भाषी’ का स्त्री जैसे—मधुर भाषिणी।
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भाषित  : भू० कृ० [सं०√भाष् (कहना)+क्त] कहा हुआ। कथित। पुं० १. उक्ति। कथन। २. बात-चीत। वार्तालाप।
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भाषी (षिन्)  : वि० [सं०√भाष्+णिनि] बोलनेवाला। (समस्त पदों के अंत मे) जैसे—मिष्ठ भाषी, संस्कृत-भाषी।
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भाष्य  : पुं० [सं०√भाष् (कहना)+ण्यत्] १. उक्ति। कथन। २. सूत्र ग्रंथों का विस्तृत विवरण या व्याख्या। ३. वह ग्रंथ जिसमें किसी के सूत्रों की व्याख्या तथा स्पष्टीकरण किया गया हो। ४. बोलचाल में किसी गूढ़ बात या वाक्य की विस्तृत व्याख्या। जैसे—आपके इस लेख पर तो एक भाष्य की आवश्यकता है।
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भाष्यकार  : पुं० [सं० भाष्य√कृ (करना)+अण्] सूत्रों की व्याख्या करनेवाला लेखक।
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भाँस  : स्त्री० [?] आवाज। शब्द।
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भास  : पुं० [सं०√भास्+घञ्] १. चमक। दीप्ति। २. प्रकाश। रोशनी। ३. किरण मयूख। ४. इच्छा। कामना। ५. मिथ्या। ज्ञान। ६. गोशाला। ७. कुक्कुट। मुरगा। ८. गिद्ध। ९. शकुंत पक्षी। १॰. स्वाद। लज्जत। ११. एक प्राचीन पर्वत।
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भासक  : पुं० [सं०√भास्+ण्वुल्-अक] चमकानेवाला। प्रकाशक।
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भासंत  : वि० [सं०√भास् (चमकना)+झच्-अन्त] प्रकाशमान्। सुंदर। पुं० १. सूर्य। २. चंन्द्रमा। ३. नक्षत्र। ४. शकुन्त पक्षी।
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भासंती  : स्त्री० [सं० भासंत+ङीष्] तारा।
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भासना  : अ० [सं० भास] १. प्रकाशित होना। चमकना। २. लक्षणों से कुछ कुछ जान पड़ना। आभास होना। ३. दिखाई देना। [हिं० भासन=डूबना] १. पानी में डूबना। २. लिप्त या लीन होना। ३. फँसना। स०=भाषना। (कहना)।
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भासमंत  : वि० [सं० भासमान] १. ज्योति या प्रकाश से युक्त। २. चमकदार। चमकीला।
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भासमान  : वि० [सं० भास+शानच्, मुम्] जान पड़ता या दिखाई देते हुआ। भासता हुआ। पुं० =सूर्य।
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भासिक  : वि० [सं० भास्+ठक्-इक] १. दिखाई पड़नेवाला। दृश्य। २. लक्षणों से जान पड़ने या मालूम होनेवाला।
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भासित  : वि० [सं०√भास्+क्त] १. तेजोमय। प्रकाशमान। २. चमकदार। चमकीला।
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भासु  : पुं० [सं०√भास्+उण्] सूर्य्य।
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भासुर  : पुं० [सं०√भास्+घुरच्] १. कुष्ट रोग की ओषधि। कौढ़ की दवा। २. बिल्लौर। स्फटिक। ३. बहादुर। वीर। वि० चमकदार। चमकीला।
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भास्कर  : पुं० [सं०√भास्कर+कृ (करना)] १. सूर्य। २. सोना। स्वर्ण। ३. बहादुर। वीर। ४. अग्नि। आग। ५. आक। मदार। ६. शिव। ७. पत्थरों आदि पर नक्काशी करने की कला या विद्या।
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भास्करि  : पुं० [सं० भास्कर+इघ्] शनि ग्रह।
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भास्मन  : वि० [सं० भस्मन्+अण्] १. भस्म से बना हुआ। २. भस्म संबंधी।
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भास्वत  : पु० [सं० भास+मतुप्—व] १. सूर्य्य। २. आक। मदार। ३. चमक। दीप्ति। ४. बहादुर। वीर। वि० चमकदार। चमकीला।
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भास्वती  : स्त्री० [सं० भास्वत्+ङीष्] एक प्राचीन नदी। (महाभारत)
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भास्वर  : पुं० [सं०√भास्+वरच्] १. सूर्य। २. सूर्य का एक अनुचर। ३. दिन। ४. कुष्ठ रोग की औषधि। कोढ़ की दवा। वि० चमकदार। चमकीला।
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भिआ  : पुं० [हिं० भैया] भाई। भइया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिक्षण  : पुं० [सं०√भिक्ष् (माँगना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० भिक्षित] १. भिक्षा माँगने की क्रिया या भाव। भीख माँगना। २. भिक्षा पर निर्वाह करना।
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भिक्षा  : स्त्री० [सं० भिक्ष्+अ+टाप्] १. असहाय या निरुपाय अवस्था में उदरपूर्ति के लिए लोगों से दीनतापूर्वक अपने निर्वाह के लिए हाथ फैलाकर अन्न, कपड़ा, पैसा आदि माँगने का काम या वृत्ति। २. इस प्रकार माँगने पर प्राप्त होनेवाला अन्न, कपड़ें पैसे आदि। भीख। ३. विशेष अनुग्रह की प्राप्ति के लिए किसी से दीनतापूर्वक की जानेवाली याचना। ४. नौकरी।
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भिक्षा-चर्या  : स्त्री० [ष०त०] भिक्षा माँगने के लिए इधर-उधर घूमना।
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भिक्षा-पात्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह पात्र जिसमें भिखमंगे भीख माँगते है। वि० (व्यक्ति) जिसे भिक्षा देना उचित हो। भिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी।
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भिक्षाक  : पुं० =भिक्षुक।
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भिक्षाचर  : पुं० [सं० भिक्षा√चर् (प्राप्ति)+ट] भिक्षुक।
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भिक्षाटन  : पुं० [सं० भिक्षा+अटन, मध्य० स०] भिखमगों या साधु संन्यासियों का भिक्षा प्राप्ति के लिए लोगों के द्वार पर जाना।
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भिक्षान्न  : पुं० [सं० भिक्षा+अन्न, मध्य० स०] भिक्षा में मिला हुआ अन्न।
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भिक्षार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० भिक्षार्थ+इनि] भीख चाहने या माँगनेवाला। पुं० भिखारी।
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भिक्षार्ह  : वि० [सं० भिक्षा√अर्ह् (योग्य होना)+अच्] जिसे भिक्षा दी जा सकती हो।
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भिक्षासी (शिन्)  : वि० [सं० भिक्षा√अश् (खाना)+णिनि] भिक्षाजीवी।
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भिक्षित  : भू० कृ० [सं०√भिक्ष् (भिक्षा माँगना)+क्त] जो शिक्षा के रूप में माँगा गया हो।
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भिक्षु  : पुं० [सं०√भिक्ष्+उ, (स्त्री० भिक्षुणी)] १. वह जो मिली हुई भिक्षा पर निर्वाह करता हो। भिखमंगा या साधु। २. संन्यासी। विशेषतः बौद्ध संन्यासी। ४. गोरख मुड़ी।
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भिक्षु-चर्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] भिक्षा-वृत्ति।
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भिक्षु-रूप  : पुं० [सं० ब० स०] महादेव।
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भिक्षु-संघ  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्ध संन्यासियों का संघ।
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भिक्षुक  : पुं० [सं०√भिक्ष्+उक्, अ० वा भिक्षु+कन्] [स्त्री० भिक्षुकी] भिक्षु। वि० भीख माँगनेवाला।
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भिखमंगा  : पुं० [हिं० भीख+माँगना] १. वह जो भीख माँगता हो। जिसका पेशा भीख माँगना हो। २. बोलचाल में ऐसा व्यक्ति जिसके पास सदा किसी न किसी चीज का अभाव रहता हो और अपने इस अभाव की पूर्ति दूसरों से चीजें माँगकर करता हो।
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भिखमंगी  : स्त्री० [हिं० भिखमंगा] १. भीख माँगने की क्रिया या भाव। २. ऐसी स्थिति या समय जिसमें (गाँव, नगर आदि में) बहुत अधिक भिखमंगे भीख माँगते फिरते हो।
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भिखार  : पुं० =भिखारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिखारिणी  : स्त्री०=भिखारिन्।
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भिखारिन्  : स्त्री० हिं० ‘भिखारी’ की स्त्री०।
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भिखारी  : पुं० [हिं० भीख+आरी (प्रत्यय)] [स्त्री० भिखारिन, भिखारिणी] १. भीख माँग कर निर्वाह करनेवाला व्यक्ति। भिखंमंगा।
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भिखिया  : स्त्री०=भीख (भिक्षा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिखियारी  : पुं० =भिखारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिंग  : पुं० [सं० भूँग] १. भूँगी नाम की कीड़ा जिसे बिलनी भी कहते हैं। २. भौंरा। पुं० =भंग। (टूटना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिंगराज  : पुं० =भृंगराज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिंगाना  : स०=भिगोना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिगाना  : स०=भिगोना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिंगारा  : पुं० [सं० भृंगार] १. भँगरा नाम का पौधा। २. मृंगराज पक्षी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिगोना  : स० [सं० अभ्यंज] १. कोई चीज पानी में डालकर या किसी चीज पर पानी डालकर उसे आर्द्र, गीला या तर करना। जैसे—कपड़ा भिगोना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। २. अन्न कणों को इसलिए पानी में डालना कि वे नरम पड़कर फूल जायँ। जैसे—चने या चावल भिगोना।
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भिगोरा  : स०=भिगोना।
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भिंगोरी  : स्त्री० [सं० भृंगार] भृंगराज नामक पक्षी।
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भिच्छा  : स्त्री०=भिक्षा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिच्छु  : पुं० =भिक्षु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिच्छुक  : पुं० =भिक्षुक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भिजवाना  : स० [हिं० भींजना] भिगोने का काम किसी से कराना। स०=भेजवाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिजवावर  : स्त्री०=भजियाउर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिंजाना  : स० =भिगोना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिजाना  : स०=भिगोना। स०=भेजवाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिंजो (ब) ना  : स०=भिगोना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिजोना, भिजोवना  : स०=भिगोना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भिज्ञ  : वि० [सं० अभि√ज्ञा (जानना)+पृषो०, अ, लोप] जानकर। वि० =अभिज्ञ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिटक  : स्त्री० [हिं० भिटकना] १. भिटकने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. वह बहुत हलकी घृणा जो किसी अप्रिय वस्तु या व्यक्ति का सामना होने पर उत्पन्न होती और दूर हट जाने के लिए प्रवृत्त करती है।
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भिटकना  : अ० [सं० भिद् (=हटाना)] कोई अप्रिय तथा घृणित वस्तु या व्यक्ति सामने आने पर मन का उससे दूर हट जाने में प्रवृत्त होना।
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भिटका  : पुं० [हिं० भीटा] दीमकों की बाँबी। बमीठा।
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भिटना  : पुं० [देश] छोटा गोल फळ। जैसे—कपास का भिटना। [हिं० भेंट] १. भेंट या मुलाकात होना। २. संपर्क या संबंध होना। ३. अपवित्र वस्तु या व्यक्ति से छू जाने पर अपवित्र होना। (पश्चिम)।
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भिटनी  : स्त्री०= [हिं० भिटना] स्तन के आगे का भाग। चूँची। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिटाना  : स०=भेंटाना। [हिं० भिटना] किसी वस्तु या व्यक्ति का किसी अपवित्र वस्तु या व्यक्ति से छू जाना और फलतः अपवित्र या अशुद्द हो जाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिट्ठा  : पुं० =भीटा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिंड  : पुं० =भींटा।
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भिड़  : स्त्री० [सं० वरटा] बर्रे। ततैया। मुहावरा—भिड़ के छत्ते में हाथ डालना=जान-बूझकर बहुत बड़ा संकट अपने पीछे लगाना।
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भिडज्जाँ  : पुं० [हिं० भिड़ना] घोड़ा। (डिं०)।
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भिंडत  : स्त्री० [हिं० भिड़ना] १. भिड़ने की क्रिया या भाव। २. मुठभेड़।
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भिड़ना  : अ० [सं० भिद्] १. परस्पर विरुद्ध दिशा में चलनेवाली चीजों का एक दूसरे से टकराना। जैसे—गाड़ियों, मोटरों या साइकिलों का भिड़ना। २. प्राणियों के संबंध में एक दूसरे से पूरी शक्ति से भिड़ना। ३. व्यक्ति या किसी से लड़ने या विवाद करने के लिए दृढ़तापूर्वक उससे जूझना या सवाल-जवाब करना। ४. मैथुन या संभोग करना (बाजारू)। [हिं० भीड़ना] १. संलग्न होना। सटना। २. दरवाजे के सम्बन्ध में दोनों पल्लों का इस प्रकार एक दूसरे से सटना कि मार्ग बन्द हो जाय। भीड़ा जाना।
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भिंड़ा  : स्त्री० [सं०√भण (शब्द)+ड, पृषो० सिद्धि+टाप्] भिंडी। पुं० [?] हुक्के की लम्बी सटक। पुं०=भीटा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिड़ाना  : स० [हिं० भिड़ना का स०] १. किसी को भिड़ने में प्रवृत्त करना। २. एक को दूसरे के साथ लगाना या सटाना। ३. एक को दूसरे से लड़ाना। आपस में लड़ाई-झगड़ा करना। ४. किसी का किसी के साथ रति या संभोग करने में प्रवृत्त करना (बाजारू)। ५. कोई चीज या कुछ चीजें कहीं से एक स्थान पर लगाना। एकत्र करना।
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भिड़ाव  : पुं० [हिं० भिड़ना] १. भिड़ने की क्रिया या भाव। २. आपस में होनेवाला सामना। ३. दे० ‘भिड़त’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिंडि  : पुं० [भिंदि] गोफना। ढेलवाँस।
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भिंड़ी  : स्त्री० [सं० भिंड, भिण्ड+ङीष्] एक प्रकार का पौधा और उसकी फली जिसकी तरकारी बनती है। राम तरोई।
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भिंडीतक  : पुं० [सं० भिंडी√तक् (हसना)+अच्] भिंडी का क्षुप।
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भितरिया  : पुं० वि० =भीतरिया।
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भितल्ला  : पुं० [हिं० भीतर+तल] दोहरे कपड़े में में भीतरी ओर का पल्ला। दोहरे कपड़े के भीतर का परत। अस्तर। क्रि० प्र०—लगाना। वि० [स्त्री० भितल्ली] अन्दर या भीतर का।
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भितल्ली  : स्त्री० [हिं० भीतर+तल] चक्की के नीचे का पाट।
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भिताना  : स० [हिं० भीति] भयभीत होना। डरना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भित्ति  : स्त्री० [सं०√भिद् (फाड़ना)+क्तिन्] १. दीवार। २. वह पदार्थ या स्तर जिस पर चित्र बनाया जाय। ३. भीति। डर। ५. खंड। टुकड़ा। (डिं०)
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भित्ति-चित्र  : पुं० [मध्य० स०] १. दीवार पर बना हुआ चित्र। २. विशेषतः ऐसा चित्र जो दीवार बनाने के समय गीले पस्तर से बनाया गया हो। (फ्रेस्को, म्यूरल)
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भित्ति-चौर  : पुं० [सुप्सुपा स०] दीवार में सेंध लगानेवाला चोर।
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भित्तिका  : स्त्री० [सं०√भिद्+डिकन्+टाप्] १. दीवार। २. छिपकली।
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भिदक  : पुं० [सं० भिद्+क्वुन्+अक] १. तलवार। २. वज्र। ३. हीरा।
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भिदना  : अ,० [सं० भिद्] २. भेदा या छेदा जाना। २. किसी के अन्दर घुसना, धँसना या पैवस्त होना। ३. घायल होना।
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भिदा  : पुं० =भेद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिदिर  : पुं० [सं०√भिद्+किरच्] वज्र।
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भिदुर  : पुं० [सं०√भिद्+कुरच्] वज्र।
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भिद्  : वि० [सं०√भिद् (विदारण करना)+क्विप्] तोड़ने-फोड़ने या नष्ट करनेवाला। (समस्त पदों के अन्त में) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिन  : वि० =भिन्न।
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भिनकना  : अ० [अनु०] १. (मक्खियों का) भिन्न-भिन्न शब्द करना। मुहावरा—किसी पर मक्खियां भिकना= (क) किसी का इतना अशक्त हो जाना कि उस पर मक्खियाँ भिनभिनाया करें और वह उन्हें उड़ा न सके। नितांत असमर्थ हो जाना। (ख) किसी चीज का इतना गन्दा या मलिन होना कि उस पर मक्खियाँ आ-आकर बैठा करें। २. गन्दगी आदि के कारण मन में घृणा उत्पन्न होना।
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भिनना  : अ०=भीनना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिनभिनाना  : स्त्री० [अनु०] भिन भिन शब्द होना।
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भिनभिनाहट  : स्त्री० [अनु० भिनभिनाना+आहट (प्रत्यय)] १. भिनभिनाने की क्रिया या भाव। २. भिन भिन शब्द।
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भिनसार  : पुं० [सं० विनिशा] प्रातःकाल। सबेरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिनहीं  : अव्य० [सं० विनिशा] प्रातःकाल। सबेरे। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिन्न  : वि० [सं०√भिद् (विदारण करना)+क्त, नत्व] १. काट या तोड़कर अलग किया हुआ। जैसे—छिन्न-भिन्न। २. जिसके विभाग किये गये हों। विभक्त। विभाजित। ३. अलग। जुदा। पृथक्। (अन्दर)। ४. जो प्रस्तुत है, उससे अलग या किसी दूसरे प्रकार का। अलग तरह का। (डिफरेंट) ५. अपने मेल या वर्ग के औरों से कुछ अलग और विशेष प्रकार का (जिस्टिक्ट) ६. कोई और। अन्य। अपर। दूसरा। पुं० १. किसी चीज का खंड या टुकड़ा। २. गणित में किसी पूरी इकाई का छोटा अंश, खंड या टुकड़ा जो या तो बटे वाले रूप में व्यक्त किया जाता है (जैसे—½,१/३) या दशमल प्रणाली से) जैसे—३०७ अर्थात् ३/7) (फ्रैक्शन)। ३. वैद्यक में शरीर का वह अंग या अवयव जो किसी तेज धारवाले शस्त्र से कटकर अलग हो गया हो। ४. क्षत। घाव। नीलम का एक दोष जिसके कारण पहननेवाले को पति,पिता,पुत्रादि का शोक प्राप्त होना माना जाता है। ६. फूल की कली।
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भिन्न-क्रम  : वि० [ब० स०] क्रम-भंग दोष से युक्त।
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भिन्न-भिन्न  : स्त्री० [अनु०] वह शब्द जो मक्खियाँ हवा में उड़ते समय करती है।
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भिन्न-मनुष्या  : वि० स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] (भूमि) जिसमें भिन्न-भिन्न जातियों स्वभावों और पेशों के लोग बसते हों।
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भिन्न-मर्याद  : वि० [ब०स०] मर्यादा, नियंत्रण आदि से रहित।
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भिन्न-वृत्त  : वि० [ब० स०] १. कर्त्तव्य पथ से भ्रष्ट। २. (छन्द) जिसमें छन्दोंभंग दोष हो।
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भिन्न-वृत्ति  : वि० [ब० स०] १. दूसरे पेशे का। २. बुरा जीवन व्यतीत करनेवाला। ३. भिन्न भाव या रुचिवाला।
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भिन्न-हृदय  : वि० [ब० स०] जिसका हृदय बहुत ही दुःखी हो गया हो।
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भिन्नक  : पुं० [सं० भिन्न+कन्] बौद्ध।
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भिन्नता  : स्त्री० [सं० भिन्न+तल्+टाप्] १. भिन्न होने की अवस्था या भाव। अलगाव। पार्थक्य। २. अंतर। भेद।
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भिन्नत्व  : पुं० [सं० भिन्न+त्व] भिन्न होने का भाव। जुदाई।
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भिन्नदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० भिन्न√दृश् (देखना)+णिनि] पक्षपाती।
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भिन्नमतालंबी (बिन्)  : पुं० [सं० भिन्न-मत, कर्म० स० भिन्नमत-अव√लम्ब्+णिनि, उप० स०] किसी दूसरे मत या मजहब का माननेवाला।
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भिन्नाना  : अ० [अनु०] १. दुर्गंध आदि से सिर चकराना। २. डर कर अलग या दूर रहना। अ० भिनभिनाना। अ०=भुनभुनाना।
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भिन्नार्थ  : वि० [सं० भिन्न-अर्थ, ब० स०] १. भिन्न उद्देश्यवाला। २. स्पष्ट अर्थवाला।
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भिन्नार्थक  : वि० [सं० ब० स०+कप्] किसी (शब्द) से भिन्न अर्थवाला (शब्द)।
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भिन्नोदर  : पुं० [सं० भिन्न-उदर, ब० स०] सौतेला भाई।
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भियना  : अ० [सं० भीत] भयभीत होना। डरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिरना  : अ०=भिड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिरमना  : अ०=भरमना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिरमाना  : सं०=भरमाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिराव  : पुं० =भिड़ाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिरिंग  : पुं० =भृंग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिलनी  : स्त्री० [हिं० भील] भील जाति की स्त्री। स्त्री० [देश] एक प्रकार का धारीदार कपड़ा। स्त्री०=बिलनी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिलावाँ  : पुं० [सं० भल्लातक] १. एक प्रकार का जंगली पेड़ जिसमें जामुन के आकार के लाल रंग के फल लगते हैं। २. उक्त वृक्ष का फल जो औषध के काम आता है।
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भिल्ल  : पुं० [सं०√भिल्+लक्,बा०] दे० ‘भील’।
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भिल्ल-तरू  : पुं० [मध्य० स०] लोध।
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भिल्ल-भूषण  : पुं० [सं० भिल्ल√भूष् (अलंकृत करना)+ल्यु-अन] घुँघची।
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भिशक्-प्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] गुड़च।
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भिश्त  : पुं० [फा० बिहिश्त] स्वर्ग। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भिश्ती  : वि० [फा० बिहिश्ती] स्वर्गीय। पुं० [?] मशक द्वारा पानी ढोनेवाला व्यक्ति। सक्का।
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भिषक् (ज्)  : पुं० [सं०√भी (भय)+अच्, षुक्, ह्रस्व] वैद्य।
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भिषग्भद्रा  : स्त्री० [सं० स० त०] भद्रदंतिका।
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भिषग्माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] वासक। अडूसा।
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भिषग्वर  : पुं० [सं० स० त०] अश्विनीकुमार।
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भिषग्विद्  : पुं० [सं० भिषज्√विद् (जानना)+क्विप्] चिकित्सक। वैद्य।
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भिष्ट  : वि० १. =अभीष्ट। २. =भ्रष्ट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिष्टा  : स्त्री०=विष्टा (मल)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिस  : स्त्री० [सं० विश] कमल की नाल। भँसीड़।
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भिसज  : पुं० [सं० भिषज्] वैद्य। (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिसटा  : स्त्री०=विष्टा (मल)।
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भिसत  : पुं० [फा० बिहिश्त] स्वर्ग। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भिसर  : पुं० [सं० भूसुर] ब्राह्मण। (डिं०)
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भिंसार  : पुं० [सं० भानु-सरण] सबेरा। प्रातःकाल।
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भिसिणी  : वि० =व्यसनी। (डिं०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिस्त  : पुं० =बहिश्त (स्वर्ग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भिस्ती  : पुं० दे० ‘भिश्ती’।
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भी  : अव्य० [सं० अपि या हि] एक अव्यय जिसका प्रयोग नीचे लिखे अर्थ या आशय व्यक्त करने के लिए होता है। (क) निश्चित रूप से किसी अथवा औरों के अतिरिक्त, साथ या सिवा। जैसे—दोनों भाइयों के साथ एक नौकर भी गया है। (ख) अधिक। ज्यादा। जैसे—यह और भी अच्छा है। (ग) तक या पर्यंत। लौं। जैसे—उसने केल जोर देने के लिए विशेषतः किसी प्रकार की अनुपयुक्तता दिखायी देने पर। जैसे—आप भी कैसे बातें करते हैं। (अर्थात् समझदार होकर भी विलक्षण बातें करते हैं)। स्त्री० [सं०√भी (भय होना)+क्विप्] भय। डर।
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भीउँ  : वि० पुं० =भीम। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भीक  : स्त्री०=भीख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीख  : स्त्री० [सं० भिक्षा] १. किसी दरिद्र का दीनता दिखाते हुए उदरपूर्ति के लिए कुछ माँगना। भिक्षा। २. उक्त प्रकार से माँगने पर मिलनेवाली चीज। पद—भिखमंगा, भिखारी। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—माँगना।—मिलना।
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भीखन  : वि० =भीषण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भीखम  : वि० पुं० =भीष्म। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भीखमक  : पुं० =भीष्मक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भींगना  : अ०=भीगना।
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भीगना  : अ० [सं० अभ्यंज] १. पानी या और किसी तरल पदार्थ के संयोग के कारण तर होना। आर्द्र होना २. तरल पदार्थ के संयोग से अन्नकणों का नरम पड़ना तथा फूलना। ३. आर्द्र होना। पद—भीगी बिल्ली=बहुत ही दीन-हीन बना हुआ तथा हत-प्रभ व्यक्ति।
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भींगी  : स्त्री०=भृंगी (मादा भौंरा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भींच  : स्त्री० [हिं० भींचना] भींचने की क्रिया या भाव।
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भींचना  : स० [हिं० खींचना] १. कसकर खींचना या दबाना। जैसे—किसी को बाँहों में भींचना। २. (आँख या मुँह) इस प्रकार जोर से दबाना कि वह बहुत कुछ बन्द हो जाय।
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भीचना  : अ० १. =भींचना २. =भीगना।
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भीचर  : पुं० [?] सुभट। वीर। (डिं०)
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भींजना  : अ० [हिं० भींगना] १. आर्द्र, गीला या तर होना। भीगना। २. किसी कोमल मनोभाव से अच्छी तरह युक्त होना। गदगद या पुलकित होना। ३. स्नान करना। नहाना। ४. किसी के साथ बहुत अधिक हिल-मिल जाना। ५. किसी के अन्दर घुसना या समाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भीजना  : अ० [हिं० भीगना] १. किसी के साथ परचना तथा हिलना-मिलना। २. दे० ‘भींगना’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भींट  : पुं० =भीट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीट  : पुं० [देश] १. उभरी हुई या ऊँची जमीन। २. दे० ‘भीटा’। ३. मन भर के बराबर एक पुरानी तौल।
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भीटन  : पुं० =भीटा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीटा  : पुं० [देश] १. मिट्टी, कंकड़ों आदि का कोई प्राकृतिक ऊँचा ढेर जो प्रायः कहीं कहीं समतल भूमि पर दिखाई देता है। २. पान की खेती के लिए बनाया या तैयार किया हुआ अधिक ऊँचा और चारों ओर ढालुआँ खेत जो ऊपर तथा चारों ओर से छाजन तथा लताओं से घिरा रहता है।
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भीड़  : स्त्री० [हिं० भिड़ना] १. किसी स्थान पर एक साथ तथा बिना किसी क्रम से जुटे लोगों की संज्ञा। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। मुहावरा—भीड़ छँटना=भीड़ में आये हुए लोगों का धीरे-धीरे इधर-उधर होना जिससे भीड़ कम हो। २. किसी चीज या बात की अधिकता। जैसे—काम की भीड़। आपत्ति। मुसीबत। संकट। उदाहरण—(क) जुग जुग भीर (भीड़) हरी संतन की।—मीराँ। (ख) तुम हरो जन की भीर (भीड़)।—मीराँ। क्रि० प्र०—कटना।—काटना।—पड़ना। ३. आगा-पीछा। असमंजस। उदाहरण—पर घर घालक लाज न भीरा।—तुलसी।
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भीड़-भड़क्का  : पुं० =भीड़-भाड़।
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भीड़-भाड़  : स्त्री० [हिं० भीड़+भाड़ अनु०] एक स्थान पर होनेवाला बहुत से मनुष्यों का जमाव। जन-समूह। भीड़।
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भीड़न  : स्त्री० [हिं० भीड़ना] १. भीड़ने की क्रिया या भाव। २. मलने, लगाने या भरने की क्रिया।
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भीड़ना  : स० [हिं० भिड़ाना] १. मिलाना। २. लगाना। ३. मलना। ४. (दरवाजा) बन्द करना। ५. दे० ‘भिड़ाना’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भीड़ा  : वि० [हिं० भिड़ना] [स्त्री० भीड़ी] सँकरा। तंग जैसे—भीड़ी गली। स्त्री०=भीड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीड़ी  : स्त्री०=भिड़ी। स्त्री०=भीड़। वि० भीड़ा की स्त्री रूप।
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भीत  : भू० कृ० [सं०√भी+क्त] [स्त्री० भीता] १. डरा हुआ। जिसे भय लगा हो। २. विषद या संकट में पड़ा हुआ। स्त्री०=भीति (डर)। स्त्री० [सं० भित्ति] दीवार। मुहावरा—(किसी को) भीत में चुनना=प्राण-दंड देने के लिए किसी को कही खड़ा करके उसके चारों ओर दीवार खड़ी करना। भीत में दौड़ना=अपने सामर्थ्य से बाहर कार्य करना। भीत के बिना चित्र बनाना=बिना किसी आधार के कोई काम करना या बात कहना। २. विभाग करनेवाला परदा। ३. चटाई। ४. कमरे का फरश। गज। ५. खंड। टुकड़ा। ६. जगह। स्थान। ७. दरार। ८. कसर। त्रुटि। ९. अवसर। मौका।
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भींतड़ा  : पुं० [हिं० भीत] घर। मकान। उदाहरण—भागीजै तज भीतड़ा ओडे जिम तिम अंत।—कविराजा सूर्यमल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीतमना (नम्)  : वि० [सं० ब० स०] मन में डरा हुआ।
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भीतर  : अव्य० [सं० अभ्यंतर] १. घेरे,भवन आदि की सीमाओं के अन्तर्गत। जैसे—घर के भीतर जो चाहे सो करो। २. मन में। पुं० १. अन्दरवाला भाग। २. मन। ३. अंतःपुर। पद—भीतर का कुआँ=वह उपयोगी पदार्थ जिससे कोई लाभ न उठा सके। अच्छी पर किसी के काम न आ सकने योग्य चीज।
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भीतरचारी (रिन्)  : वि० [सं० भीत√चर् (प्राप्त होना+णिनि, उप० स०] डर-डर कर काम करनेवाला।
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भीतरा  : वि० [हिं० भीतर] भीतर या जनानेखाने में जानेवाला। स्त्रियों में आने-जानेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीतरि  : अव्य०=भीतर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भीतरिया  : पुं० [हिं० भीतर] १. वल्लभ सम्प्रदाय के मंदिरों मे वह पुजारी जो गर्भ-गृह अर्थात् मंदिर के भीतरी भाग में रहकर देवता की सेवा-पूजा करता हो। २. वह जो किसी का भीतरी भेद या रहस्य जानता हो। वि०=भीतरी।
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भीतरी  : वि० [हिं० भीतर+ई (प्रत्यय)] १. भीतरवाला। अंदर का। जैसे—भीतरी कमरा, भीतरी दरवाजा। २. छिपा हुआ। गुप्त। जैसे—भीतरी बात या भेद। ३. घनिष्ठ। जैसे—भीतरी दोस्त।
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भीतरी-टाँग  : स्त्री० [हिं० भीतरी+टाँग] कुश्ती का एक पेंच। जब विपक्षी पीठ पर रहता है, तब मौका पाकर खिलाड़ी भीतर ही से टाँग, मार कर विपक्षी को गिराता है। इसी को भीतरी टाँग कहते हैं।
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भीति  : स्त्री० [सं०√भी+क्तिन्] १. डर। भय। २. किसी काम, चीज या बात या स्थिति को भीषण या विकट समझने की दशा में मन में उत्पन्न होनेवाला वह तीव्र जो प्रायः अयुक्त होने पर भी निरंतर बना रहता और उस काम, चीज या बात से मनुष्य को बहुत दूर रखता है (फोबिया) जैसे—जलभीति, पाप-भीति, भोजन-भीति, रोग-भीति, स्त्री० भीति आदि। स्त्री०=भीत (दीवार)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीतिकर  : वि० [सं० भीति√कृ (करना)+अच्] भयंकर। भयावना।
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भीतिकारी  : वि० =भीतिकर।
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भीती  : स्त्री,० [सं०] कार्तिकेय की एक अनुचरी या मातृका का नाम। स्त्री० १. =भीति (दीवार)। २. =भीति (डर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीन  : पुं० [हिं० बिहान] सबेरा। प्रातःकाल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भीनना  : अ० [हिं० भींगना] १. किसी चीज के छोटे-छोटे अंशों या कणों का किसी दूसरी चीज के सभी भीतरी भागों में पहुँचकर अच्छी तरह एक-रस और सम्मिलित होना। जैसे—कपड़े में रंग भींनगा। २. लाक्षणिक रूप में किसी तत्त्व का किसी के अन्दर पहुँचकर अच्छी तरह व्याप्त तथा सम्मिलित होना। जैसे—मन में किसी का अनुराग या हवा में कोई सुगंध भीनना। ३. चारों ओर से अच्छादित होना। ४. अटकना। फँसना। उदाहरण—मीन ज्यों बंसी भीने।—सूर।
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भीना  : वि० [हिं० भीनना या भींजना] [स्त्री० भीनी] बहुत ही मंद, सूक्ष्म या हल्का। जैसे—भीनी भीनी गन्ध।
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भीभल  : वि० =विह्वल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीम  : वि० [सं०√भी (भय करना)+मक्] १. भयंकर। भीषण। २. बहुत बड़ा। ३. बहुत बडा उत्साही या बहादुर। पुं० १. साहित्य में भयानक रस। २. शिव। ३. विष्णु। ४. अम्लबेल। ५. कुंती के एक पुत्र जो युधिष्ठिर से छोटे तथा अन्य पांडवों से बड़े थे और जो गदा धारण करते थे। भीमसेन। वृकोदर। पद—भीम का हाथी=भीमसेन का फेंका हुआ हाथी। (कहा जाता है कि एक बार भीमसेन ने सात हाथी आकाश में फेंक दिय थे जो आज तक वायुमंडल में घूम रहे हैं, लौटकर पृथ्वी पर नहीं आय। इसका प्रयोग ऐसे पदार्थ या व्यक्ति के होता है। जो एक बार जाकर फिर न लौटे।) ६. विदर्भ के एक राजा जिन्हें दमन नामक ऋषि के वरसे दम, दांत और दमन नामक तीन पुत्र और दमयंती नाम की कन्या हुई थी। ७. महर्षि विश्वामित्र के पूर्व-पुरुष जो पुरूरवा के पौत्र थे। ८. संगीत में काफी ठाठ का एक राग।
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भीम-तिथि  : स्त्री० [मध्य० स०]=भीमसेनी एकादशी।
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भीम-दर्शन  : वि० [ब० स०] [स्त्री० भीम-दर्शना] जो देखने में भयानक हो। डरावनी आकृतिवाला।
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भीम-द्वादशी  : स्त्री० [मध्य० स०] माघ शुक्ला द्वादशी।
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भीम-नाद  : वि० [ब० स०] डरावनी आवाज करनेवाला। पुं० शेर। सिंह।
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भीम-पलाशी  : स्त्री० [सं०] संपूर्ण जाति की एक रागिनी।
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भीम-बल  : पुं० [ब० स०] १. एक प्रकार की अग्नि। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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भीम-मुख  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का बाण (रामायण)।
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भीम-रथ  : पुं० [ब० स०] १. पुराणानुसार एक असुर जिसे विष्णु ने अपने कूर्म अवतार में मारा था। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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भीमक  : पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रकार का गम जो पार्वती के क्रोध से उत्पन्न हुए थे।
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भीमकर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०] बहुत बड़ा पराक्रमी।
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भीमता  : स्त्री० [सं० भीम+तल्+टाप्] भीम या भयानक होने की अवस्था या भाव। भयंकरता। डरावनापन।
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भीमरथी  : स्त्री० [सं०] १. सह्य पर्वत से निकली हुई एक नदी (पुराण)। स्त्री० ७७वें वर्ष के सातवें मांस की सातवी रात की समाप्ति पर होनेवाली मनुष्य की शारीरिक अवस्था जो असह्र तथा बहुत कठिन होती है। (वैद्यक)। वि० ऐसा बुड्ढा जो ७०-८० वर्षों का हो चुका हो। बहुत बुड्ढा (व्यक्ति)।
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भीमरा  : स्त्री०=भीमा (नदी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीमराज  : पुं० [सं० भृगंराज] काले रंग की एक प्रकार की चिड़िया जिसकी टाँगें छोटी और पंजे बड़े होते हैं और इसकी दम में केवल १० पर होते हैं। यह अनेक पशुओं तथा मनुष्यों की बोली अच्छी तरह बोल सकती है।
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भीमरिका  : स्त्री० [सं०] सत्यभामा के गर्भ के उत्पन्न की कृष्ण की एक कन्या।
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भीमसेन  : पुं० [सं०] युधिष्ठिर के छोटे भाई। वृकोदर। (दे०) (‘भीम’)।
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भीमसेनी  : वि० [हिं० भीमसेन] भीमसेन-संबंधी। भीमसेन का। जैसे—भीमसेनी एकादशी। पुं० कपूर का बरास नामक प्रकार या भेद।
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भीमसेनी एकादशी  : स्त्री० [हिं० भीमसेनी+एकादशी] १. ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी। निर्जला एकादशी। २. कार्तिक शुक्ला एकादशी। ३. माघ शुक्ला एकादशी।
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भीमसेनी कपूर  : पुं० [हिं०] एक विशेष प्रकार का कपूर जो बोर्नियों, सुमात्रा आदि द्वीपों में होनेवाले एक प्रकार के वृक्षों के निर्यास से तैयार किया जाता है। बरास।
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भीमा  : स्त्री० [सं० भीम+टाप्] १. रोचन नाम का गंध-द्रव्य। २. कोड़ा या चाबुक। ३. दुर्गा। ४. दक्षिणी भारत की एक नदी जो पश्चिमी घाट से निकलकर कृष्णा नदी में मिलती है। ५. ४॰ हाथ लंबी, २॰ हाथ चौड़ी और २९ हाथ ऊँची नाव। (युक्तिकल्पतरु) वि० सं० ‘भीम’ का स्त्री०।
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भीमान् (मत्)  : वि० [सं० भी+मतुप्] भयावह। भयंकर।
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भीमोदरी  : स्त्री० [सं० भीम-उदर, ब० स०, ङीष्] दुर्गा।
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भीर  : स्त्री०=भीड़। वि०=भीरु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीरना  : अ० [सं० भी या हिं० भीरु] भयभीत होना। डरना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भीरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो मध्य-भारत तथा दक्षिण-भारत में होता है। इसकी लकड़ियों से शहतीर बनते हैं और इसमें से गोंद, रंग और तेल निकलता है। वि०=भीरु (कायर)। स्त्री०=भीड़। वि०=भीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीरी  : स्त्री० [देश०] अरहर का टाल या राशि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीरु  : वि० [सं० भी+क्रु] १. जिसे भय हुआ हो। डरा हुआ। २. कायर। डरपोक। पुं० [सं०] १. श्रृंगाल। गीदड़। २. बाघ। ३. एक प्रकार की ईख। स्त्री० [सं०] १. शतावरी। २. कंटकारी। भटकटैया। ३. बकरी। ४. छाया।
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भीरु  : स्त्री० [सं० भीरु] स्त्री० (डिं०) वि० =भीरु।
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भीरु-पत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] शतमूली।
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भीरु-हृदय  : पुं० [सं० ब० स०] हिरन।
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भीरुक  : पुं० [सं० भीरु+कन्] १. वन। जंगल। २. चाँदी। ३. एक प्रकार की ईख। ४. उल्लू। वि० भीरु। कायर। डरपोक।
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भीरुता  : स्त्री० [सं० भीरु+तल्+टाप्] १. भीरु होने की अवस्था या भाव। कायरता। बुजदिली। २. डर। भर।
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भीरुताई  : स्त्री०=भीरुता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भीरे  : अव्य० [हिं० भिड़ना] पास। समीप।
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भील  : पुं० [सं० भिल्ल] [स्त्री० भीलनी] १. विंध्य की पहाड़ियों तथा खानदेश, मेवाड़, मालवा और दक्षिण के जंगलों में रहनेवाली एक वन्य जाति। २. उक्त जाति का पुरुष। स्त्री० [?] वह मिट्टी जो ताल के सूखने पर निकलती है तथा जिस पर पपड़ी जमी होती है।
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भील-भूषण  : स्त्री० [सं० भिल्लभूषण] गुंजा या घुंघची जिसकी मालाएँ भील लोग पहनते हैं।
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भीली  : वि० [हिं० भील] १. भील-संबंधी। २. भीलों में होनेवाला। स्त्री० भीलों की बोली।
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भीलुक  : वि० [सं० भी+क्लुकन्] भीरु। डरपोक।
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भीव  : पुं० भीमसेन। वि०=भीम।
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भींव सेन  : पुं०=भीमसेन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीवै  : वि०=भीम। पुं०=भीम (पांडव)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीष  : स्त्री०=भीख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीषक  : वि० [सं०√भी (भय करना)+णिच्, षुक्+ण्वुल्—अक] भीषण।
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भीषज  : पुं०=भेषज।
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भीषण  : वि० [सं०√भी+णिच्, षक्,+ल्य—अन] [भाव० भीषणता] १. जो देखने में बहुत भयानक हो। डरावना। २. बहुत ही उग्र तथा दुष्ट स्वभाववाला। ३. दुष्परिणाम के रूप में होनेवाला। विकट। बहुत ही बुरा। जैसे—भीषण कांड। पुं० १. साहित्य का भयानक रस। २. कुंदरू। ३. कबूतर। ४. एक प्रकार का ताल या ताड़। ५. शल्लकी। सलई। ६. ब्रह्मा। शिव।
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भीषणता  : स्त्री० [सं० भीषण्+तल्+टाप्] भीषण होने की अवस्था या भाव।
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भीषन  : वि०=भीषण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीषम  : पुं०=भीष्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भीषा  : स्त्री० [सं०√भी+णिच्, षुक्,+अड़्+टाप्] १. भयभीत स्त्री। २. डर। भय।
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भीषिका  : स्त्री० [सं० विभीषिका] १. ऐसी स्थिति जिसमें बहुत से लोग भयभीत हों। २. बहुत बड़े अनिष्ट की आशंका जिसके फलस्वरूप लोग विचलित होते तथा इधर-उधर भागने लगते हैं। आतंक। (पैनिक)
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भीष्म  : वि० [सं०√भी+मक्, षुक्-आगम] डरावना। भयंकर। भीषण। पुं० १. शिव। २. गंगा के गर्भ से उत्पन्न राजा शान्तनु का आठवाँ और सबसे छोटा पुत्र जो ‘गांगेय’ और ‘देवव्रत’ भी कहा जाता है। ३. साहित्य का भयानक रस। ४. राक्षस। ५. दे० ‘भीष्मक’।
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भीष्म-पंचक  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कार्तिक शुक्ला एकादशी से पूर्णिमा तक के पाँच दिन।
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भीष्म-पितामह  : पुं० [सं० कर्म० स०] राजा शान्तनु के पुत्र। भीष्म।
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भीष्म-मणि  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक तरह का सफेद पत्थर।
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भीष्म-रत्न  : पुं०=भीष्म मणि।
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भीष्म-सू  : स्त्री० [सं० ष० त०] भीष्म की माता, गंगा।
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भीष्मक  : पुं० [सं० भीष्म+कन्] विदर्भ देश के एक राजा जो रुक्मिणी के पिता थे।
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भीष्माष्टमी  : स्त्री० [सं० भीष्म-अष्टमी, मध्य० स०] माघ शुक्ला अष्टमी। इस तिथि को भीष्म ने प्राण त्यागे थे।
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भीसम  : वि०, पुं०=भीष्म।
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भुअ  : वि०, पुं०=भुव। स्त्री०=भूमि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुअंग  : पुं० [सं० भुअंग] [स्त्री० भुजंग] [स्त्री० भुअंगिन] साँप। सर्प। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुअंगम  : पुं०=भुअंग (साँप)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुअन  : पुं०=भुवन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुअना  : अ०=भूलना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुआ  : पुं०=घूआ। स्त्री०=बूआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुआर  : पुं०=भुआल (भूपाल)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुआल  : पुं०=भूपाल (राजा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुँइ  : स्त्री० [सं० भूमि प्रथ्वी]। भूमि। मुहा०—भुँइ लाना=झुकाना। उदा०—कुंडल गहै सीस भुइ लावा।—जायसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुँइ आँवला  : पुं० [सं० भूम्यामलक] एक प्रकार की घास जो बरसात में ठंढ़े स्थानों में होती और ओषधि के काम में आती है। भद्रआँवला।
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भुँइ-तरवर  : पुं० [हिं० भुँइ+सं० तरुवर] सनाय की जाति का एक पेड़।
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भुँइकाँड़ा  : पुं० [हिं० भुँइ+कद] समुद्र या जलाश्य के तट पर होनेवाली एक तरह की घास।
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भुँइचाल  : पुं०=भूचाल। (भूकंप)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुँइडोल  : पुं० [सं० भुँइ+डोलना] भूकंप। भूचाल।
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भुँइदग्धा  : पुं० [सं० भुँइ+दग्ध] १. वह कर जो भूमि पर चिता जलाने के बदले में मृतक के संबंधियों से लिया जाता है। मसान कर। २. वह कर जो भूमि का मालिक किसी व्यवसायी से व्यवसाय करने के बदले में लेता है।
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भुँइधर  : पुं०=भूमिहार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुँइधरा  : पुं० [हिं० भुँइ+धरना] १. आँवाँ लगाने की वह रीति या ढंग जिसमें बिना गड्ढा खोदे ही भूमि पर बरतन आदि रखकर आग सुलगा देते हैं। २. दे० ‘भुँइहरा’।
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भुँइनास  : पुं० [सं० भून्यास] 1. किसी वस्तु के एक छोर को भूमि में इस प्रकार दबाकर जमाना कि उसका कुछ अंश पृथ्वी के भीतर गड़ जाय। २. किसी चीज का वह अंश जो इस प्रकार से जमीन में गाड़ या धँस जाय। ३. किवाड़ों की वह सिटकनी जो नीचे की ओर पत्थर के गड्ढे में बैठती है। ४. प्रायः खेतों में होनेवाली एक प्रकार की वनस्पति जिसकी जड़ें नहीं होतीं। ५. अनार। ६. दे० ‘भुन्नास’।
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भुँइनासी  : पुं०=भुन्नासी।
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भुँइफोड़  : पुं० [हिं० भुँइ+फोड़ना] बरसात के दिनों में प्रायः दीमकों की बाँबी के पास निकालने वाला एक तरह का कुकुरमुत्ता। गरजुआ।
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भुइयाँ  : अव्य० [हिं० भुइँ=भूमि] जमीन या भूमि पर।
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भुँइहरा  : पुं० [हिं० भुँइ+घर] १. वह स्थान जो भूमि के नीचे खोदकर बनाया गया हो। २. मकान की कुर्सी के नीचे बना हुआ कमरा। तहखाना। ३. दे० ‘भुँइधरा’।
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भुँइहार  : पुं० [सं० भूमि+हार] १. मिरजापुर जिले के दक्षिण भाग में रहनेवाली एक अनार्य जाति। २. दे० ‘भूमिहार’।
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भुई  : स्त्री०=भूमि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुई  : स्त्री०=भूमि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुई  : स्त्री०=घूआ। उदा०—हुँ पुनि मरब होब जरि भुई।—जायसी। स्त्री० [हिं० भूआ] एक प्रकार का कीड़ा जिसके शरीर पर लंबे-लंबे बाल होते हैं, तथा जिसका स्पर्श खुजली उत्पन्न करता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुँई  : स्त्री० [सं० भूमि] भूमि। पृथ्वी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुक  : पुं० [सं० भुज्] १. भोजन। आहार। २. अग्नि। आग। स्त्री०=भूख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुकड़ी  : स्त्री० [?] बरसात के दिनों में प्रायः सड़ी हुई चीजों पर जमनेवाली एक प्रकार की सफेद रंग की काई। फफूँदी। क्रि० प्र०—लगना।
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भुकराँद  : स्त्री०=भुकरायँध।
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भुकरायँध  : स्त्री० [हिं० भुँकड़ी+गंध] किसी चीज पर भुकड़ी जमने से निकलनेवाली गंध।
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भुँकान  : स्त्री० [हिं० भूँकना] भूँकने या भौंकने की अवस्था, भाव या शब्द।
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भुँकाना  : स० [हिं० भूँकना] किसी को भूँकने में प्रवृत्त करना।
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भुक्खड़  : वि० [हिं० भूख+अड़ (प्रत्य०)] १. जिसे विशेष तेज भूख लगी हो। २. जिसकी भूख मिटती न हो। जो प्रायः कुछ न कुछ खाता रहता या खाना चाहता हो। ३. लालची। लोलुप। ४. कंगाल। दरिद्र।
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भुक्त  : भू० कृ० [सं०√भुज् (खाना)+क्त, कुत्व] १. जो खाया गया हो। भक्षित। २. जिसका भोग किया गया हो। ३. (अधिकार-पत्र) जिसे भुना लिया गया हो। (कैश्ड)
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भुक्त-भोग  : वि० [ब० स०] जिसने भोग किया हो।
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भुक्त-भोगी  : वि० [सं० भुक्त+भोग] जिसे किसी बुरे काम या बात का दूषित परिणाम या फल भोगना पड़ा हो।
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भुक्त-मान  : पुं० [सं० कर्म० स०] कर्म का वह फल या भोग जो बोगा जाता हो या भोगा जाने को हो।
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भुक्त-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] खाये हुए पदार्थों का पेट में फूलना।
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भुक्त-शेष  : वि० [ष० त०] खाने से बचा हुआ। उच्छिष्ट। जूठा।
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भुक्ति  : स्त्री० [सं०√भुज् (खाना)+क्तिन्, कुत्व] १. भोजन। आहार। २. किसी पदार्थ का किया जानेवाला भोग। ३. लौकिक सुख। ४. ज्योतिष में ग्रहों का किसी राशि में अवस्थित होना। ५. वह स्थिति जिसमें कोई किसी पदार्थ पर अपना अधिकार रखकर उसका भोग करता है। कब्जा। दखल। (पज़ेशन)
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भुक्ति-पात्र  : पुं० [ष० त०] ऐसे बरतन जिनमें रखकर चीजें खाई जाती हैं।
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भुक्ति-प्रद  : वि० [सं० भुक्ति+प्र√दा (देना)+क] [स्त्री० भुक्तिप्रदा] भोग देनेवाला। भोगदाता। पुं० मूँग।
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भुक्तोच्छिष्ट  : वि० [भुक्त-उच्छिष्ट, कर्म० स०] किसी के खाने-पीने के बाद बचा हुआ। जूठन के रूप में होनेवाला। पुं० उच्छिष्ट। जूठन।
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भुक्तोज्झित  : वि०, पुं० [भुक्त-उज्झित, कर्म० स०]=भुक्तोच्छिष्ट।
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भुखमरा  : वि० [हिं० भूख+मरना] १. जो भूखों मरता हो। २. दो खाने पीने के लिए मरा जाता हो।
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भुखमरी  : स्त्री० [हिं० भूख+मरना] भूखों विशेषतः अन्नभाव के कारण भूखों मरने की अवस्था या भाव। (स्टारवेशन)
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भुखमुआ  : वि०=भुखमरा।
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भुखाना  : अ० [हिं० भूख+आना (प्रत्य०)] भूखा होना। क्षुधित होना। स० किसी को कुछ समय तक भूखा रखना।
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भुखालू  : वि० [हिं० भूख+आलू (प्रत्य०)] जिसे भूख लगी हो। भूखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुगत  : स्त्री० [हिं० भुगतना] १. भुगतने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘भुक्ति’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुगतना  : स० [सं० भुक्ति] १. भोग करना। भोगना। जैसे—दंड़ भुगतना, सजा भुगतना। २. कार्य, व्यय आदि का भार अपने ऊपर लेना। जैसे—ब्याह का खरच हम भुगतेंगे। अ० १. समाप्त होना। पूरा होना। संयो० क्रि०—लेना। २. व्यतीत होना। ३. ऋण, देन आदि का पटना।
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भुगतान  : पुं० [हिं० भुगतना] १. भुगतने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. भुगताने की अवस्था, क्रिया या भाव। ३. देन, मूल्य आदि चुकाने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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भुगतान-तुला  : स्त्री० [हिं०+सं०] व्यापारिक वस्तुएँ, पूँजी, सूद, बीमा-शुल्क, जहाज का किराया जिनके संबंध में एक देश को दूसरे देशों से कुछ परवाना हो या दूसरे देशों को देना हो। (बैलेन्स आफ पेमेंट)
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भुगताना  : स० [हिं० भुगतना का स०] १. कोई काम पूरा या संपादन करना। २. किसी को सुख-दुःख आदि का भोग करने में प्रवृत्त करना। ३. देन आदि चुकाना। भुगतान करना। ३. समय बिताना या लगाना। व्यतीत करना। जैसे—दरा-से काम में तुमने सारा दिन भुगता दिया।
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भुगति  : स्त्री०=भुक्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुगाना  : स० [हिं० भोगना का प्रे० रूप] भोग कराना। भोगवाना।
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भुँगाल  : पुं० [अनु०] तुरुही या भोंपा जिसके द्वारा नौ-सेना का अध्यक्ष घोषणा करता है। (लश०)
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भुगुति  : स्त्री० [सं० भुक्ति] १. भोजन। उदा०—भुगुति न मिटै जौ लहिं न लै सका, रावन सिय, एक साथ।—जायसी। ३. दे० ‘भुक्ति’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुग्गा  : पुं० [?] कूटकर और खाँड या चीनी मिलकर तैयार किया हुआ चूर्ण। वि० बेवकूफ। मूर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुग्न  : वि० [सं०√भुज् (टेढ़ा होना)+क्त, कुत्व, नत्व] [स्त्री० भुग्ना] १. टेढ़ा। वक्र। २. बीमार। रोगी।
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भुग्ननेत्र  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का सन्निपात जिसमें आँखें टेढ़ी हो जाती हैं।
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भुच्च  : वि० [हिं० भूत+चढ़ना] बहुत बड़ा गँवार और मूर्ख। भुच्चड़। स्त्री० गँवार और मूर्ख होने की अवस्था या भाव। उदा०—लाख जाट पिंगल पढ़ै, एक भुच्च लागी रहे। (कहा०)
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भुच्चड़  : वि० [हिं० भूत+चढ़ना] बहुत बड़ा बेवकूफ। निरा मूर्ख।
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भुज  : पुं० [सं०√भुज् (खाना)+क] १. बाहु। बाँह। भुजा। मुहा०—भुज पर बेंटना या मिलना=आलिंगन करना। गले लगाना। २. हाथ ३. दोनों हाथों के कारण, दो कि संख्या का सूचक शब्द। ४. हाथी का सूँड़। ५. वृक्ष की डाली। शाखा। ६. किनारा। सिरा। ७. फेरा। लपेट। ८. ज्यामिति या रेखागणित में किसी क्षेत्र का कोई किनारा या सिरा अथवा उस पर खिंची हुई रेखा। (साइड) जैसे—चतुर्भुज, त्रिभुज् आदि। ९. त्रिभुज का नीचेवाला किनारा या सिरा। आधार। १॰. छाया का मूल आधार। 1१. रेखा गणित में, समकोणों का पूरक कोण। 1२. ज्योतिष में तीन राशियों के अन्तर्गत ग्रहों की स्थितियाँ खगोल का वह अंश जो तीन राशि से कम हो।
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भुज-कोटर  : पुं० [सं० ष० त०] बगल। काँख।
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भुज-ज्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] त्रिकोणमिति में भुज की ज्या।
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भुज-दंड  : पुं० [सं० मध्य० स०] बाहुदंड।
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भुज-पाश  : पुं० [सं० मध्य० स०] किसी के गले में हाथ डालना। गलबाँही।
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भुज-प्रतिभुज  : पुं० [सं० द्व० स०] रेखा-गणित में, सरल क्षेत्र की समानांतर या आमने-सामने की भुजाएँ।
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भुज-बंद  : पुं०=भुजबंध।
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भुज-बल  : पुं० [ष० त०] १. बाँहों अर्थात् शरीर में होनेवाला बल। शारीरिक शक्ति। २. शालिहोत्र के अनुसार एक प्रकार की भौंरी जो घोड़े के अगले पैर में ऊपर की ओर होती है।
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भुज-मूल  : पुं० [सं० ष० त०] १. कन्धा, जहाँ से भुजा का आरंभ होता है। २. काँख।
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भुज-शिखर  : पुं० [सं० ष० त०] कंधा।
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भुजइल  : पुं० [सं० भुजंग] भुजंगा नामक पक्षी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुजंग  : पुं० [सं० भुज√गम् (जाना)+खच्, मुम्] १. साँप। २. हठ-योग में, कुंडलिनी रूपी नागिन का पति या स्वामी। ३. स्त्री का उपपति। यार। ४. प्राचीन भारत में राजा का एक प्रकार का अनुचर। ५. सीसा नामक धातु। वि० लंपट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुजग  : पुं० [सं० भुज√गम्+ड] १. साँप। २. अश्लेषा नक्षत्र। ३. सीमा नामक धातु।
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भुजंग-घातिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] काकोली।
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भुजंग-दमनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] नाकुली कंद।
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भुजग-पति  : पुं० [सं० ष० त०] वासुकि।
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भुजंग-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०,+ङीष्] नागदमन।
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भुजंग-प्रयात  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में चार-चार यगण होते हैं।
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भुजंग-भोजी (जिन्)  : पुं० [सं० भुजंग√भुज् (खाना)+णिनि, उप० स०] [स्त्री० भुजंग-भोजिनी] २. गरुड़। २. मयूर। मोर। वि० साँप को खा जानेवाला।
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भुजंग-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] पान की बेल।
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भुजंग-शत्रु  : पुं० [ष० त०] गरुड़।
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भुजंगभुज्  : पुं० [सं० भुजंग√भुज् (खाना)+क्विप्] १. गरुड़। २. मयूर। मोर।
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भुजंगम  : पुं० [सं० भुजंग√भुज् (खाना)+खच्, मुम्] १. साँप। २. सीसा नामक धातु।
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भुजंगा  : पुं० [सं० भुजंग] १. कीड़े-मकोड़े खानेवाला काले रंग का एक प्रकार का पक्षी। भुजैटा। कोतवाल। २. दे० ‘भुजंग’।
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भुजंगाख्य  : पुं० [सं० भुजंग-आख्या, ब० स०] नागकेसर।
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भुजगांतक  : पुं० [सं० भुजग-अंतक, ष० त०] १. गरुड़। २. मोर। ३. नेवला।
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भुजगाशन  : पुं० [सं० भुजग√अश् (भोजन करना)+ल्युट्-अन] भुजगांतक। (दे०)
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भुजंगी  : स्त्री० [सं० भुजंग+ङीष्] १. साँपिन। नागिन। २. एक प्रकार का वर्णिक वृत्ति का नाम जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः तीन यगण एक लघु और एक गुरु होता है।
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भुजंगेंद्र  : पुं० [सं० भुजंग-इंद्र, ष० त०] शेषनाग।
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भुजगेंद्र  : पुं० [सं० भुजग-इंद्र, ष० त०] शेषनाग। वासुकि।
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भुजंगेश  : पुं० [सं० भुजंग-ईश, ष० त०] १. वासुकि। २. शेषनाग। ३. पिंगल मुनि का एक नाम। ४. पतंजलि ऋषि का एक नाम।
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भुजगेश, भुजगेश्वर  : पुं० [सं० भुजग-ईश, भुजग-ईश्वर, ष० त०] भुजगेन्द्र। वासुकि।
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भुंजन  : पुं० [सं०] भोजन करने की क्रिया। खाना।
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भुंजना  : अ०=भुनना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुजपात  : पुं० दे० ‘भूर्जपत्र’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुजबंध  : पुं० [सं० तृ० स०] १. भुजाओं से किसी को बाँधने की क्रिया या भाव। २. अंगद या बाजूबंद नाम का। (बाँह पर पहनने का) गहना।
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भुजबाथ  : पुं० [हिं० भुज+बाँधना] गले में हाथ डालकर किया जानेवाला आलिंगन। गलबाँहीं। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुजमान  : पुं० [सं० ष० त०] रेखा-गणित में उन दो रेखाओं में से प्रत्येक रेखा, जो किसी क्षेत्र पर कोई बिन्दु निश्चित करने के लिए खींची जाती है। (आर्डिनेन्ट)
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भुजरी  : स्त्री० [?] १. गेहूँ की वे बालें जो स्त्रियाँ धार्मिक अवसरों (जैसे—नागपंचमी, हरतालिका तीज) पर टोकरियों में रखकर उगाती और नियत समय पर किसी जलाशय या नदीं में प्रवाहित करती हैं। जरई। २. उक्त दो प्रवाह के लिए ले जाने के समय गाये जानेवाले विशिष्ट प्रकार के गीत।
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भुंजवा  : पुं० [हिं० भुंजना] दे० ‘भड़भूँजा’। वि०=भुजिया।
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भुजवा  : पुं० [हिं० भूनना] भड़भूँजा। वि० भूँजा हुआ।
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भुजवाई  : स्त्री० [हिं० भुजवाना] भुनवाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। भुनाई।
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भुजा  : स्त्री० [सं० भुज+टाप्] बाँह। बाहु। मुहा०—भुजा उठा या टेककर (कहना)=प्रण अथवा प्रतिज्ञा करते हुए (कहना)।
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भुजा-कंट  : पुं० [ष० त०] हाथ की उँगली का नाखून।
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भुजा-दल  : पुं० [ष० त०] कर रूपी पल्लव।
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भुजा-मध्य  : पुं० [ष० त०] कोहनी।
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भुजा-मूल  : पुं० [ष० त०] कंधे का वह अगला भाग जहाँ से हाथ आरंभ होता है। बाहु-मूल।
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भुजाग्र  : पुं० [सं० भुजा-अग्र, ष० त०] हाथ।
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भुंजांतर  : पुं० [सं० भुज-अंतर, ष० त०] १. दोनों बाँहों के बीच का स्थान; अर्थात् क्रोड़। गोद। २. छाती। वक्ष। ३. दो भुजाओं के बीच का अन्तर या दूरी।
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भुजाना  : स०=भुनाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुजायन  : पुं० [सं०] १. भुजाओं के रूप में अपने कुछ अंग शरीर के बाहर निकालना। २. दे० ‘विकिरण’।
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भुजाली  : स्त्री० [हिं० भुज+आली (प्रत्य०)] १. एक प्रकार की बड़ी टेढ़ी छुरी। २. छोटी बरछी।
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भुजिया  : वि० [हिं० भूँजना=भूनना] जो भूनकर तैयार किया या बनाया गया हो। जैसे—भुजिया चावल, भुजिया तरकारी। पुं० १. वह चावल जो धान को उबालकर तैयार किया गया हो। २. वह तरकारी जो सूखी ही भूनकर बनाई जाती है और जिसमें रसा या शोरबा नहीं होता। सूखी तरकारी।
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भुजिष्य  : पुं० [सं०√भुज् (भोगना)+किष्यन्] [स्त्री० भुजिष्या] दास। सेवक।
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भुजिष्या  : स्त्री० [सं० भुजिष्य+टाप्] १. दासी। २. गणिका। रंडी। वेश्या।
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भुजेना  : पुं० [हिं० भूजना] भूना हुआ दाना। चबैना।
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भुजैल  : पुं० [सं० भूजना] भुजंगा (पक्षी)।
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भुँजौना  : पुं० [हिं० भूँजना+औना (प्रत्य०)] १. भूँजा या भूँजा हुआ अन्न। २. वह अन्न या पारिश्रामिक जो भूँजा अन्न भूँजने के बदले में लेता है। स०=भूनना। पुं०=भुनाई (दे०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुजौना  : पुं० [हिं० भूजना] १. भूना हुआ अन्न। भूना। भूजा। २. वह अन्न या पारिश्रमिक जो भूँजा अन्न भूनने के बदले में लेता है। ३. बड़े सिक्के भुनाने के लिए बदले में दिया जानेवाला धन। भुनाई। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुंटा  : पुं०=भुट्टा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुटिया  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की धारी जो डोरिये और चारखाने के बुनने में चाली जाती है। (जुलाहे) पुं०=मोट या भोटिया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुट्टा  : पुं० [सं० भृष्ट, प्रा० भुट्टो] १. मक्के की हरी बाल जिसे भूनकर खाते हैं। 2, ज्वार-बाजरे आदि की हरी बाल। मुहा०—भुट्टा सा उड़ना या उड़ जाना=एक साधारण झटके से ही कटकर अलग हो जाना या कटकर दूर जा पड़ना। जैसे—तलवार के एक ही वार से उसका सिर मुट्टा-सा उड़ गया। ३. गुच्छा।
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भुठार  : पुं० [हिं० भूड़+ठौर] वह छोटा या ऐसा ही और कोई पशु जो ऐसे प्रदेश में उत्पन्न हुआ हो जहाँ की भूमि बलुई या रेतीली हो।
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भुठौर  : पुं० [हिं० भूड़+ठौर] घोड़ों की एक जाति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुंडली  : स्त्री० [हिं० भूरा या भुंडा] एक प्रकार का कीड़ा जिसके शरीर पर कँटीले और जहरीले बाल होते हैं। पिल्ला। भुंडा
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भुडली  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का फूल और उसका पौधा।
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भुड़िला  : पुं० दे० ‘सुंडा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुंडी  : स्त्री० [हिं० भुंडा] एक प्रकार की छोटी मछली जिसे मूँछ नहीं होती। देहातियों की धारणा है कि इसके खाने से खानेवालों को मूँछें नहीं निकलतीं।
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भुतलाना  : अ० [हिं० भुलाना=भूलना] १. रास्ता भूलकर इधर-उधर हो जाना। २. कोई चीज भूलने के कारण गुम हो जाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुन  : पुं० [अनु०] मक्खी आदि के बोलने का शब्द। अव्यक्त गुंजार का शब्द। मुहा०—भुनभुन करना=कुढ़कर अस्पष्ट स्वर में कई तरह की बातें कहना।
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भुनगा  : पुं० [अनु०] [स्त्री० भुनगी] १. एक प्रकार का छोटा उड़नेवाला कीड़ा जो प्रायः फूलों में रहता है और शिशिर ऋतु में प्रायः उड़ता रहता है। २. पतंगा। फतिंगा। ३. बहुत ही तुच्छ पदार्थ या व्यक्ति।
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भुनगी  : स्त्री० [हिं० भुनगा] एक प्रकार छोटा कीड़ा जो ईख के पौधों को हानि पहुँचाता है।
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भुनचट्टी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुनना  : अ० [हिं० भुनाना का अ०] १. आग की गरमी से भूना जाना। २. तोप, बन्दूक आदि की मार से मारा जाना। ३. नोट, रुपए आदि का छोटे छोटे सिक्कों में परिवर्तित होना।
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भुनभुनाना  : अ० [अनु०] १. भुनभुन शब्द होना। स० १. भुनभुन शब्द करना। २. कुढ़कर बहुत धीरे-धीरे या अस्पष्ट रूप में कई तरह की बातें कहना।
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भुनवाई  : स्त्री० [हिं० भुनवाना] १. भुनवाने की क्रिया या भाव। २. भुनाने के बदले में दी जानेवाली रकम। भाँज।
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भुनाई  : स्त्री०=भुनवाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुनाना  : स० [हिं० भूनना का प्रे०] १. भूनने का काम किसी दूसरे से कराना। २. किसी को कुछ भूनने में प्रवृत्त करना। ३. नोट रुपए आदि को छोटे सिक्कों में बदलवाना। अ०=भूनना (भूना जाना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुनुगा  : पुं०=भुनगा।
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भुन्नास  : पुं०- [हिं० भुँइनास] १. दे० ‘भुँइनास’। २. पुरुष की इंद्रिय। लिंग। (बाजारू)
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भुन्नासी  : पुं० [हिं० भुँइनास] एक प्रकार का बड़ा देशी ताला जो प्रायः दूकानों आदि में बन्द किया जाता है। इसमें लोहे का एक छोटा छड़ होता है जो ताला बन्द करने पर जमीन में किये छेद में बैठ जाता है।
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भुबि  : स्त्री०=भूमि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुमिया  : पुं०=भूमिया (१. जमींदार; २. देवता)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुयंग  : पुं०=भुजंग (साँप)।
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भुरकन  : पुं० [सं० भुरण; हिं० भुरकना] १. चूर्ण। चूरा। २. दे० ‘भुरकस’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुरकना  : अ० [सं० भुरण] १. सूखकर भुरमुरा हो जाना। विस्मृत होना। भूलना। स०=बुरकना (छिड़कना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुरकस  : पुं० [हिं० भुरकना] १. किसी चीज का बहुत बुरी तरह कुचला या मसला हुआ रूप। मुहा०—( किसी का) भुरकस निकलना=(क) चूर-चूर होकर विनष्ट होना। (ख) परिश्रम, भार आदि के कारण बहुत अधिक दुर्दशाग्रस्त होना। २. बुकनी। वि० चूर्ण या टुकड़े किया हुआ।
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भुरका  : पुं० [हिं० भुरकना] १. भुरकने की अवस्था क्रिया, या भाव। २. चूर्ण। बुकनी। ३. अभ्रक का चूर्ण। अबीर। ४. मिट्टी का कसोरा या प्याला। ५. कुल्हड़। कूजा। ६. मिट्टी की दवात।
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भुरकाना  : स० [हिं० भुरकना] १. किसी चीज को इतना सुखाना कि वह भुरभुरी हो जाय। २. छिड़कना। भुरभुराना। ३. भुलावा देना। बहकाना। भुलाना।
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भुरकुटा  : पुं० [अनु० भुर] छोटा कीड़ा-मकोड़ा।
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भुरकुस  : वि०, पुं०=भुरकस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुरजाल  : पुं० [?] गढ़। उदा०—भला चीत भुरजालरा, आम लगावा सींग।—बाँकीदास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुरजी  : पुं०=भूँजा। स्त्री०=बुर्जी। (छोटा बुर्ज)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुरत  : पुं० [देश०] एक प्रकार की बरसाती घास।
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भुरता  : पुं० [हिं० भुरकाना या भुरभुरा] १. वह पदार्थ जो कुचले जाने पर दबकर ऐसा बिगड़ गया हो कि उसके अवयवों और आकृति की पहचान न हो सके। २. चोखा या भरता नाम का सालन।
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भुरभुर  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो ऊपर या रेतीली भूमि में होती है। भुरभुरोई। भुलनी।
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भुरभुरा  : वि० [हिं० अनु०[ [स्त्री० भुरभुरी] साधारण स्पर्श या हलके दबाव से जिसके कण या रवे अलग-अलग हो जायँ। जैसे—भुरभुरी मिट्टी। पुं० [देश०] एक बरसाती घास।
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भुरभुराना  : स० [हिं० भुरभुरा] १. इस प्रकार किसी चीज को स्पर्श करना कि उसके कण या रवे अलग अलग हो जायँ। २. चुटकी या उँगली में कोई चूर्ण रखकर किसी चीज पर छिड़कना। बुरकना।
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भुरभुराहट  : स्त्री० [हिं० भुरभुरा+आहट (प्रत्य०)] भुरभुरे होने की अवस्था, गुण या भाव। भुरभुरापन।
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भुरली  : स्त्री० [हिं० भुडली] १. कमला या सूँडी नाम का कीड़ा। भुडली। २. फसल को हानि पहुँचानेवाला एक प्रकार का कीड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुरवना  : स० [सं० भ्रमण, हिं० भरमना का प्रे०] १. किसी को भ्रम में डालना। भुलावा देना। २. प्रलोभन देना। फुसलाना। उदा०—बातनि भुरइ राधिका भोरी।—सूर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुरहरा  : पुं०=भोर (तड़का या सवेरा) वि०= भुरभुरा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुरहरे  : अव्य०=भोरहरे।
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भुराई  : स्त्री० [हिं० भोला+आई (प्रत्य०)] भोलापन। सीधापन। स्त्री० [हिं० भूरा+आई (प्रत्य०)] भूरापन। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुराना  : अ० [हिं० भुलाना या भूलना] १. किसी के भुलावे या धोखे में आना। २. विस्मृत होना। भूलना। स० भुलावे या धोखे में डालना। बहकाना। भुरवना।
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भुरावना  : अ०, स०=भुराना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुरुकी  : स्त्री०=भुरका।
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भुर्रा  : वि० [हिं० भूरा या भौंरा] अत्यधिक काला या कुरूप।पुं० एक तरह की चीनी।
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भुलक्कड़  : वि० [हिं० भूलना+अक्कड़ (प्रत्य०)] [भाव० भुलक्कड़ीपन] (व्यक्ति) जो प्रायः कुछ न कुछ भूल जाता हो। फलतः क्षीण स्मरण शक्तिवाला।
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भुलना  : वि० [हिं० भूलना] अक्सर भूलता रहनेवाला। विस्मरणशील-भुलक्कड़। जैसे—भुलना स्वभाव। अ०=भूलना। पुं० एक प्रकार की घास जिसके विषय में लोगों में लोगों में यह प्रवाद है कि इसके खाने से लोग सब बातें भूल जाते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुलभुला  : पुं० [अनु०] गरम राख। भूभल।
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भुलवाना  : स० [हिं० भूलना का प्रे०] १. किसी को कुछ भूलने में प्रवृत्त करना। २. ऐसा काम करना जिससे कोई भूलकर भ्रम में पड़े। धोखे में डालना।
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भुलसना  : अ०, स०=झुलसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुलाना  : स० [हिं० भूलना] १. स्मरण की हुई या रटी हुई बात स्मृति पथ से उतरना। २. ऐसा प्रयत्न करना कि पुरानी विशेषतः दुःखद घटनाएँ या बातें स्मरण-शक्ति में न आवें। ३. भ्रम में डालना। धोखा देना। अ० १. विस्मृत होना। भूलना। २. धोखे या भ्रम में पड़ना। भुलावे में आना। ३. इधर-उधर भटकना।
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भुलावा  : पुं० [हिं० भूलना] ऐसी बात जो किसी को धोखे या भ्रम में डालने के लिए कहीं जाय। छलपूर्ण बात। क्रि० प्र०—देना।
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भुलेखा  : पुं० [हिं० भूल+धोखा] भूल से होनेवाला धोखा या भ्रम।
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भुव  : पुं० [हिं० भू+क] अग्नि। आग। स्त्री० १.=भू (पृथ्वी)। २. भौंह (भ्रू)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुव (वस्)  : पुं० [सं० भू+असन्] १. वह आकाश या अवकाश जो भूमि और सूर्य के बीच में है। अंतरिक्ष। विशेष—यह सात लोकों के अंतर्गत दूसरा लोक कहा गया है। २. सात महाव्याहृतियों के अंतर्गत दूसरी महाव्याहृति। विशेष—मनुस्मृति के अनुसार यह महाव्याहृति ओंकार की उकार मात्रा के संग यजुर्वेद से निकाली गई है।
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भुवंग  : पुं०=भुजंग (साँप)।
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भुवंगम  : पुं०=भुजंगम (साँप) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुवण  : पुं०=भवन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुवन  : पुं० [सं०√भू (होना)+क्युन्-अन] १. जगत। संसार। २. पुराणानुसार चौदह लोकों में से प्रत्येक लोक की संज्ञा। सातों स्वर्गों और सातों पातालों में से प्रत्येक। (दे० ‘लोक’) ३. उक्त के आधार पर चौदह की संख्या का सूचक शब्द। ४. जल। पानी। ५. आकाश। ६. जन। लोग। ७. एक प्राचीन मुनि।
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भुवन-त्रय  : पुं० [स० ष० त०] स्वर्ग, मर्त्य औक पाताल ये तीनों लोक।
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भुवन-पावनी  : स्त्री० [ष० त०] गंगा।
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भुवन-भावन  : पुं० [ष० त०] सब लोकों की सृष्टि करनेवाला; परमहेश्वर।
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भुवन-माता (तृ)  : स्त्री० [ष० त०] दुर्गा।
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भुवन-मोहिनी  : स्त्री० [ष० त०] देवी का एक रूप।
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भुवनकोश  : पुं० [ष० त०] १. भूमंडल। पृथिवी। २. चौदहों भुवनों की समष्टि। ३. समस्त ब्रह्माण्ड।
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भुवनपति  : पुं० [सं ष० त०] एक देवता जो महीधर के अनुसार अग्नि का भाई है।
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भुवनाधीश  : पुं० [भुवन-अधीश, ष० त०] एक रुद्र का नाम।
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भुवनेश  : पुं० [भुवन-ईश, ष० त०] शिव की एक मूर्ति। २. ईश्वर।
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भुवनेश्वर  : पुं० [भुवन-ईश्वर, ष० त०]
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भुवनेश्वरी  : स्त्री० [भुवन-ईश्वरी, ष० त०] दस महाविद्याओं में से एक। (तंत्र)
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भुवन्यु  : पुं० [भू+कन्युच्] १. सूर्य। २. अग्नि। आग। ३. चन्द्रमा। ४. प्रभु। स्वामी।
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भुवपाल  : पुं०=भूपाल (राजा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुवर्लोक  : पुं० [सं० कर्म० स०] सात लोकों में से दूसरा लोक। पृथ्वी। और सूर्य का मध्वर्ती भाग। अंतरिक्ष।
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भुवा  : पुं० [हिं० घूआ] घूआ। रूई।
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भुवार  : पुं०=भुवाल (भूपाल)।
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भुवाल  : पुं० [सं० भूपाल, प्रा० भुआल] राजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुशुंडी  : पुं० [सं०] १. काक भुशुंडी। २. महाभारत काल का चमड़े का एक प्रकार का अस्त्र। इसके बीच में एक गोल चंदोआ होता था जिसके साथ डोरी या तस्मे से दो कड़े बंधे रहते थे; जिनसे आघात या वार होता था।
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भुस  : पुं०=भूसा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भुसी  : स्त्री०=भूसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुसुंड  : पुं० [सं० भुशुंड] सूँड़। वि० बहुत मोटा और भद्दा। जैसे—काला भुसुड़।
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भुसुंडी  : पुं०=भुशुंडी।
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भुसौला  : पुं० [हिं० भूसा+औला (प्रत्य०)] [स्त्री० भुसौली] वह कोठरी जिसमें भूसा भरा रहता है।
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भुहरा  : पु०=भुइँहरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भुहराना  : स०=भुरभुराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भू  : स्त्री० [सं०√भू+क्विप्] १. पृथ्वी। २. जमीन। भूमि। ३. जगह। स्थान। ४. अस्तित्व। सत्ता। ५. प्राप्ति। ६. यज्ञ का अग्नि। ७. रसातल। ८. सीता की एक सखी। स्त्री०=भू (भौंह)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भू-आगम  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] १. भूमि से होनेवाली आय। २. सरकार को लगान के रूप में होनेवाली आय। (लैंड रेवेन्यू)
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भू-आँवला  : पुं० [सं० भूम्यामलक] एक तरह की घास।
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भू-कदंब  : पुं० [स० त०] एक तरह का कदंब।
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भू-कंप  : पुं० [ष० त०] कुछ क्षणों के लिए धरातल पर होनेवाला वह प्राकृतिक कंपन जिस के फलस्वरूप पमकान आदि हिलने लगते या गिर पड़ते जमीन फट या दब जाती और कुछ अवस्थाओं में थल के स्थान पर जल या जल के स्थान पर थल हो जाता है। भूचाल। (अर्थक्वेक)
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भू-कर्ण  : पुं० [ष० त०] पृथ्वी का व्यास।
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भू-कश्यप  : पुं० [स० त०] कृष्ण के पिता वसुदेव का एक नाम।
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भू-काक  : पुं० [सं० स० त०] १. एक तरह का बाज पक्षी। २. क्रौंच पक्षी। ३. नीला कबूतर।
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भू-कुष्मांडी  : स्त्री० [सं० स० त०] भुँइकुम्हड़ा। बिदारी।
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भू-गंधा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] मुरा नामक गन्ध द्रव्य।
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भू-गर्भ  : पुं० [सं० ष० त०] १. पृथ्वी का नीचेवाला या भीतरी भाग। २. विष्णु। ३. संस्कृत के भवभूति कवि का एक नाम।
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भू-गर्भग्रह  : पुं० [सं० मध्य० स०] तल-घर। तहखाना।
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भू-गर्भविद्या  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘भूशास्त्र’।
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भू-गर्भशास्त्र  : पुं० [ष० त०] भू-शास्त्र। (दे०)
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भू-चित्रावली  : स्त्री० [सं० ष० त०] दे० ‘मान-चित्रावली’।
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भू-छाया  : स्त्री० दे० ‘प्रच्छाया’।
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भू-तत्त्व-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] भूशास्त्र।
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भू-तत्त्व-विद्या  : स्त्री० [ष० त०]=भू-शास्त्र।
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भू-दान  : पुं० [सं० ष० त०] दान रूप में भूमि देना।
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भू-दारक  : पुं० [सं० ष० त०] शूर। वीर।
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भू-दृश्य  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी स्थान से दिखाई पड़नेवाला कोई भूखंड। २. पृथ्वी का कोई दर्शनीय खंड या भाग। ३. उक्त का अंकित चित्र। (लैंड स्केप; उक्त सभी अर्थों में)
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भू-देव  : पुं० [सं० ष० त०] ब्राह्मण।
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भू-धृति  : स्त्री० [ष० त०] १. लोक-व्यवहार में वह स्थिति जिसमें कोई व्यक्ति कुछ धन देकर किसी दूसरे की भूमि कुछ समय के लिए अपने अधिकार में कर लेता और उसका उपभोग करके लाभ उठाता है। (लैंड टेन्योर)
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भू-नेता (तृ)  : पुं० [स० ष० त०] राजा।
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भू-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. राजा। २. शिव। ३. इन्द्र। ४. वटुक भैरव। ५. संगीत में एक प्रकार का राग जो मेघ राग का पुत्र कहा गया है।
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भू-पतित  : भू० कृ० [सं० स० त०] (घायल होकर या टूट-फूट कर पृथ्वी पर गिरा या पड़ा हुआ।
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भू-पद  : पुं० [सं० ब० स०] वृक्ष। पेड़।
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भू-परिमाप  : स्त्री० [ष० त०] भूमि अथवा उसके किसी खण्ड आदि की होनेवाली नाप-जोख। (लैंड सर्वे)
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भू-पृष्ठ  : वि० [सं० ब० स०] जिसका नीचेवाला भाग या पीठ समतल भूमि पर हो। ‘मेरु पृष्ठ’ का विपर्याय। जैसे—भू-पृष्ठ यंत्र। (तात्रिकों का)
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भू-प्रकंप  : पुं० [सं० ष० त०] भूकंप।
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भू-बदरी  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का छोटा बेर।
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भू-भर्ता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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भू-भाग  : पुं० [सं० स० त०] केंचुआ।
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भू-भार  : पुं० [सं० स० त०] धरती पर होनेवाले पाप का भार।
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भू-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] धरती। पृथ्वी।
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भू-मध्य  : पुं० [सं० ष० त०] चारों ओर से पृथ्वी से घिरा हुआ।
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भू-मध्यरेखा  : स्त्री० [सं०] भूगोल में, वह कल्पित रेखा जो दोनों ध्रुवों से बराबर दूरी पर है और पृथ्वी को दो भागों में विभाजित करती है। (ईक्वेटर)
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भू-मापन  : पुं० [सं० ष० त०] किसी देश, राजा, प्रदेश, खेत आदि की नाप-जोख करना। (सर्वे)
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भू-मिति  : स्त्री० [सं०] १. जमीन नापने की क्रिया। २. किसी देश, प्रदेश या भूखंड के रूप, सीमा, स्थिति आदि का चित्र या लेख तैयार करने के लिए ज्यामिति के सिद्धांतों के अनुसार कोणों, रेखाओं आदि का विचार करते हुए नाप-जोख करना। (सर्वे) जैसे—भारत सरकार का भू-मिति विभाग।
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भू-युक्ता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] भूमि। खर्जुरी। भुई खजूर।
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भू-राजस्व  : पुं० [ष० त०] राज्य या शासन को भूमि में से होनेवाली आय। (लैंड रेविन्यू)
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भू-लग्ना  : स्त्री० [सं० स० त०] शंखपुष्पी।
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भू-लोक  : पुं० [सं० मध्य० स०] मर्त्य-लोक। भूतल। संसार। जगत।
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भू-लोटन  : वि० [हिं० भू+लोटना] पृथ्वी पर लेटनेवाला।
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भू-वल्लभ  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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भू-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] वह विज्ञान जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि पृथ्वी की मिट्टी और पत्थर की तहें किस प्रकार और कब कब बनती रही हैं; और आरंभ से कब तक किस प्रकार विकसित हुई हैं; तथा किस प्रकार की मिट्टी तथा चट्टानों के नीचे किस प्रकार के खनिज पदार्थ दबे रहते हैं। भूगर्भ-शास्त्र। भौमिकी। (जियालोजी)
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भू-विद्या  : स्त्री०=भू-विज्ञान।
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भू-शय्या  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. जमीन पर सोना। २. शयन करने की भूमि।
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भू-शर्करा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कंद।
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भू-शास्त्र  : पुं०=भू-विज्ञान।
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भू-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] लीप-पोत या धोकर की जानेवाली भूमि की शुद्धि या सफाई।
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भू-शुल्क  : पुं० [सं०] भू-संपत्ति पर लगनेवाला कर। (एस्टेट) ड्यूटी)
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भू-संपत्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] जमीन के रूप में होनेवाली संपत्ति (खेत, जमींदारी आदि)।
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भू-संस्कार  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञ करने से पहले भूमि को परिष्कृत करने, नापने, रेखाएँ खींचने आदि के कार्य।
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भू-सुत  : वि० [सं० ष० त०] जो पृथ्वी से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. मंगल ग्रह। २. पेड़-पौधे, वृक्ष और वनस्पतियाँ। ३. नरकासुर का एक नाम।
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भू-सुता  : स्त्री० [सं० ष० त०] सीता।
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भू-सुर  : पुं० [सं० स० त०] पृथ्वी के देवता ब्राह्मण।
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भू-स्खलन  : पुं० [सं०] चट्टानों, पहाड़ों आदि के ढालुएँ पार्श्व पर से मिट्टी और पत्थर के बड़े-बड़े ढेरों का खिसककर नीचे आना या गिरना। (लैंडस्लिप)
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भू-स्फोट  : पुं० [ष० त०] कुकुरमुत्ता।
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भू-स्वर्ग  : पुं० [सं० स० त०] सुमेरु पर्वत।
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भू-स्वामी (मिन्)  : पुं० [ष० त०] जमीन का मालिक। जमींदार।
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भूआ  : पुं० [हिं० घूआ] [स्त्री० अल्पा० भूई] रूई के समान हलकी और मुलायम वस्तु का बहुत छोटा। घूआ। जैसे—सेमर का भूआ। स्त्री०=बूआ (पिता की बहन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूई  : स्त्री० [हिं० भूआ का स्त्री० अल्पा०] पूनी।
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भूक  : स्त्री०=भूख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूकंद  : पुं० [ष० त०] जमीकंद। सूरन।
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भूँकना  : अ० [अनु०] १. कुत्तों का भूँ-भूँ या भौं-भौं शब्द करना। २. झूठ-मूठ या व्यर्थ में (किसी के पीछे पड़कर उसके संबंध में) बुरा-भला बकते फिरना।
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भूकना  : अ० दे० ‘भूँकना’।
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भूकंप-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें भूकंपों के कारणों तथा गतिविधि, वेग, स्वरूप आदि का विवेचन होता है। (सीस्मोलाजी)
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भूकंपमापी  : पुं०=भूकंप लेखी।
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भूकंपलेख  : पुं० [सं०] वह अंकन या लेख जो भूकंप लेखी यंत्र से भूकंपों की गतिविधि, वेग, व्यापकता आदि के संबंध में प्रस्तुत होता है। (सीस्मोग्राम)
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भूकंपलेखी  : पुं० [सं० भूकंप-लेखिन्] एक प्रकार का यंत्र जो जमीन के नीचे रहता है, और जिससे यह जाना जाता है कि भूकंप कहाँ और किस ओर से आया और कितने समय तक रहा और उसकी तीव्रता या वेग कितना है। (सीस्मोग्राफ)
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भूका  : वि०=भूखा।
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भूकाना  : स०=भुंकाना।
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भूकेश  : पुं० [ष० त०] १. बरगद का पेड़। वट। वृक्ष। २. सेवार।
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भूकेशा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+ङीष्] राक्षसी।
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भूँख  : स्त्री०=भूख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूख  : स्त्री० [सं० बुभुक्षा] पेट खाली होने पर अन्न आगि भक्षण करने की तीव्र इच्छा। मुहा०—भूख मरना=(क) ऐसी शारीरिक स्थिति उत्पन्न होना जिसमें पूरी भूख न लगती हो और फलतः उचित मात्रा में भोजन किया जा सकता हो। (ख) इच्छा न रहना। भूख लगना=भोजन करने की आवश्यकता प्रतीत होना। कुछ खाने की जी चाहना। भूखों मरना=(क) भोजन के अभाव में भूख से व्याकुल होकर मरना। (ख) भोजन के लिए मारे मारे फिरना। २. कोई चीज पाने या लेने की आवश्यकता और इच्छा। (व्यापारी) जैसे—जितनी भूख होगी, उतना माल खरीद लेंगे। ३. अवकाश। गुंजाइश। समाई। ४. कोई चीज प्राप्त करने की उत्कट इच्छा। उदा०—मेरे मन में स्त्री की भूख जाग उठती थी।—अमृतलाल नागर।
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भूखंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. भूमि का कोई टुकड़ा। २. पृथ्वी का कोई खंड या विभाग। (ट्रैक्ट)
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भूखण, भूखन  : पुं०=भूषण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूखना  : स० [सं० भूषण] भूषित करना। सुसज्जित करना। सजाना। अ० भूषित होना। सजना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भूखर  : स्त्री० [हिं० भूख] १. भूख। क्षुधा। २. इच्छा। कामना।
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भूखरी  : स्त्री० [मध्य० स०] छोटी खजूर।
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भूँखा  : वि०=भूखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूखा  : वि० [हिं० भूख] १. जिसे भूख लगी हो। २. उत्कट इच्छुक या याचक। जैसे—प्यार का भूखा। ३. दरिद्र।
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भूखा-नंगा  : वि० [हिं०] अन्न-वस्त्र के कष्ट से पीड़ित और दरिद्र।
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भूखा-प्यासा  : वि० [हिं०] जिसे भूख तथा प्यास लगी हो। क्षुधित-तृषित।
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भूँगड़ा  : पुं० [ङिं० भूनना] भूना हुआ चना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूगोल  : पुं० [सं० ष० त०] १. पृथ्वी। २. वह शास्त्र जिसमें पृथ्वी तल के ऊपरी स्वरूप, प्राकृतिक या विभागों जंगलों, नदियों, पहाड़ों आदि कृत्रिम या मानवी राजनीतिक विभागों (देश, नगर, गाँव आदि) वातावरणिक विभागों (उष्ण कटिबंध, शीत कटिबंध) तथा उद्योग-धंधों, ऋतुओं, निवासियों तथा इसी प्रकार की और बातों का विचार होता है। (जियॉग्रैफ़ी)
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भूगोलक  : पुं० [सं० भूगोल+कन्] भूमंडल।
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भूचक्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. पृथ्वी की परिधि। २. क्रान्ति वृत्त। ३. विषुवत् रेखा।
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भूचर  : वि० [सं० भू√चर् (जाना)+ट] स्थलचर। पुं० १. स्थलचर प्राणी। शिव। ३. दीमक। ४. वह सिद्धि जिससे मनुष्य के लिए सब कुछ गम्य, प्रत्यक्ष तथा प्राप्य होता है। (तंत्र)
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भूचरी  : स्त्री० [सं० भूचर+ङीष्] योग साधन में समाधि की एक मुद्रा जिसके द्वारा प्राण और अपान वायु दोनों एकत्र हो जाती हैं।
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भूँचाल  : पुं०=भूकंप। (पश्चिम)
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भूचाल  : पुं० [सं० भू+हिं० चाल=चलना] भूकंप। (देखें)।
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भूँज  : पुं०=भड़भूँजा। उदा०—करम बिहून ए दूनौ, कोड रे धोबि भूकोक भूँजा—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूजंतु  : पुं० [सं० ष० त०] १. हाथी। २. एक तरह का घोंघा। ३. सीसा नामक धातु।
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भूँजना  : स० १.=भूनना। २.=भोगना।
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भूजंबु  : पुं० [सं० ष० त०] १. गेहूँ। २. बन जामुन।
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भूँजा  : पुं०=भड़-भूँजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूँजा  : पुं० [हिं० भूनना] १. भूना हुआ अन्न। चबेना। २. अन्न भूँजनेवाला व्यक्ति। भड़भूँजा। ३. अन्न भूँजनेवालों की जाति।
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भूजा  : स्त्री० [सं० भू√जन् (उत्पत्ति)+ड+टाप्] सीता। उदा० आर्द्र नयन भूजा के तत्त्क्षण आर्तों का दुख किया निवारण।—पंत। पुं०=भूँजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूजात  : पुं० [सं० पं० त०] वृक्ष। पेड़।
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भूजी  : स्त्री०=भुजिया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूटान  : पुं० [सं० भोटँग] नेपाल के पूर्व तथा आसाम के उत्तर में स्थित एक स्वतंत्र देश।
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भूटानी  : वि० [हिं० भूटान+ई (प्रत्य०)] भूटान देश का। भूटान-संबधी। पुं० १. भूटान देश का निवासी। २. भूटान देश का घोड़ा। स्त्री० भूटान देश की बोली।
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भूटिया बादाम  : पुं० [हिं० भूटान+फा० बादाम] एक प्रकार का मँझोला पहाड़ी वृक्ष जिसे कपासी भी कहते हैं। इसका फल खाया जाता है।
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भूँड़  : स्त्री०=भूड़ (बलुई भूमि या मिट्टी)।
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भूड़  : स्त्री० [देश०] १. वह भूमि जिसमें बालू मिला हुआ हो। बलुई भूमि। २. कुएँ का भीतरी स्रोत। झिर। सोत।
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भूँडरी  : स्त्री० [सं० भू] मध्य युग में, नाउ, बारी आदि को जोतने-बोने के लिए जमींदारी से मिलनेवाली ऐसी भूमि जिसपर उन्हें लगान नहीं देना पड़ता था।
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भूँड़ा  : वि०=भोंडा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूड़िया  : पुं० [हिं० भूँड़री=माफी जमीन] ऐसा कृषक जो दूसरों से हल-बैल माँगकर खेती करता हो।
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भूँडोल  : पुं०=भूकंप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूडोल  : पुं० [सं० भू+हिं० डोलना] भूकंप। (देखें)
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भूण  : पुं० [सं० भ्रमण] १. नदी, समुद्र आदि की यात्रा। जल-यात्रा। २. जल-विहार। (डिं०)
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भूत  : वि० [सं०√भू (होना)+क्त] १. अस्तित्व में आ चुका या बन चुका हो। बना हुआ। २. जो घटना आदि के रूप में घटित हो चुका हो। ३. जो किसी विशिष्ट रूप को प्राप्त हो चुका हो। जैसे—अन्तर्गत, भस्मीभूत। ४. जो समय के विचार से बीत चुका हो। पहले का। पुराना। जैसे—भूत-काल, भूत-पूर्व मंत्री। ५. जो किसी के सदृश या समान हो चुका हो। जैसे—ब्रह्मीभूत। पुं० [सं० भूत] १. शिव का एक रूप। २. चंद्रमास का कृष्णपक्ष। ३. चंद्रमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी। ४. देवताओं के एक पुरोहित। ५. पुत्र। बेट। पुं० [सं० भूत] १. वह जिसकी कोई सत्ता हो। कोई चेतन या जड़ पदार्थ। २. जीव। प्राणी। ३. दार्शनिक क्षेत्र में वे विशिष्ट मूल तत्त्व जिनसे सारी सृष्टि की रचना हुई है। द्रव्य। महाभूत। (इनकी संख्या पाँच कहीं गई है; यथा—पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) ४. बीता हुआ काल या समय। गुजरा हुआ जमाना। ५. व्याकरण में, क्रिया के तीन कालों में से एक जो किसी घटना के पूर्व समय में समाप्त या सम्पन्न हो चुकने का सूचक होता है। जैसे—वह चला गया। यहाँ ‘चला गया’ क्रिया भूतकाल की सूचक है। ६. पुराणानुसार एक प्रकार के पिशाच या देव जो रुद्र के अनुचर हैं और जिनका मुँह नीचे की ओर लटका हुआ या ऊपर की ओर उठा हुआ माना जता है। ७. लोक-व्यवहार में किसी मृत प्राणी की आत्मा जिसके संबंध में यह माना जाता है कि छाया के रूप में और बहुत ही सूक्ष्म शरीर वाली होती है। जिन। शैतान। विशेष—इनके विषय में यह भी माना जाता है, कि इनका यह रूप तब तक बना रहता है, जब तक इनकी मुक्ति या मोक्ष नहीं हो जाता; अथवा इन्हें दूसरा जन्म नहीं प्राप्त होता है। यह भी समझा जाता है कि ये कभी कभी लोगों की दिखाई भी पड़ती हैं और अनेक प्रकार के उपद्रव भी करती हैं। यह भी कहा जाता है कि कभी-कभी ये किसी व्यक्ति के शरीर और मस्तिष्क पर अधिकार करके उसके होश-हवास बिगाड़ देती हैं, जिससे वह बकने-झकने और पागलों के से काम करने लगाता है। इसी दृष्टि से इस शब्द के साथ आना, उतरना, चढ़ना, लगना आदि क्रियाओं का भी प्रयोग होता है। पद—भूतों का पकवान या मिठाई=(क) ऐसी पदार्थ जो भ्रम-वश दिखाई तो दे पर वास्तव में जिसका काई अस्तित्व न हो। (कहते हैं कि भूत आकर ऐसी मिठाई रख जाते हैं, जो खाने या छूने पर मिठाई नहीं रह जाती, राख, मिट्टी, विष्ठा आदि हो जाती है। (ख) बिना किसी परिश्रण के या बहुत सहज में मिला हुआ धन जो शीघ्र ही नष्ट हो जाय। मुहा०—(किसी पर) भूत चढ़ना या सवार होना=(क) किसी पर भूत का आवेश होना। (ख) किसी का बहुत अधिक क्रुद्ध होकर पागलों का-सा आचरण या व्यवहार करने लगना। (किसी बात का) भूत चढ़ना या सवार होना=(किसी बात के लिए) बहुत अधिक आग्रह, तन्मयता या हठ होना। जैसे—तुम्हें तो हर बात का भूत चढ़ जाता है। (किसी काम या बात के लिए) भूत बनना=बहुत ही तन्मयता या दृढ़तापूर्वक और पागलों की तरह किसी काम के पीछे पड़ना या उसमें बुरी तरह से लगना। (किसी को) भूत लगाना=किसी पर भूत चढ़ना या सवार होना। (दे० ऊपर) ८. वह औषध, जिसके सेवन से प्रेतों और पिशाचों का उपद्रव शांत होता हो। ९. मृत शरीर। शव। लाश। १॰. सत्य। ११. कार्तिकेय। १२. योगी। १३. वृत्त। १४. लोध्र। लोध।
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भूत-कृत  : पुं० [सं० भूत√कृ (करना)+क्विप्, तक्-आगम] १. देवता। २. विष्णु।
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भूत-केश  : पुं० [ष० त०] १. सफेद दूब। २. इंद्र-वारुणी। ३. सफेद तुलसी। ४. जटामाशी।
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भूत-चतुर्दशी  : स्त्री० [मध्य० स०] कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी। नरक चौदस।
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भूत-चारी (रिन्)  : पुं० [सं० भूत्√चर् (गति)+णिनि] महादेव। शिव।
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भूत-चिंता  : स्त्री० [ष० त०] भूत नामक तत्त्वों की छानबीन।
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भूत-जटा  : स्त्री० [ष० त०] जटामासी।
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भूत-दया  : स्त्री० [ष० त०] चेतन और जड़ सभी के प्रति मन में रखा जानेवाला दया-भाव।
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भूत-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] श्लेष्मांतक वृक्ष।
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भूत-धात्री  : स्त्री० [ष० त०] पृथ्वी।
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भूत-धाम (न्)  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार इन्द्र का एक पुत्र।
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भूत-धारिणी  : स्त्री० [सं० भूत√धृ (धारण करना)+णिनि,+ङीष्, उप० स०] धरती। पृथ्वी।
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भूत-नाथ  : पुं० [ष० त०] शिव। महादेव।
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भूत-नायिका  : स्त्री० [ष० त०] दुर्गा।
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भूत-नाशन  : पुं० [ष० त०] १. रुद्राक्ष। २. सरसों। ३. भिलावाँ। ४. हींग।
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भूत-निचय  : पुं० [ष० त०] देह। शरीर।
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भूत-पक्ष  : पुं० [मध्य० स०] कृष्ण पक्ष। अँधेरा पाख।
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भूत-पति  : पुं० [ष० त०] १. शिव। २. अग्नि। ३. काली तुलसी।
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भूत-पत्री  : स्त्री० [ब० स०,+ङीप्] काली तुलसी।
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भूत-पाल  : पुं० [सं० भूत्√पाल् (पालना)+णिच्+अच्] विष्णु।
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भूत-पूर्णिमा  : स्त्री० [ष० त०] आश्विन की पूर्णिमा। शरद् पूर्णिमा।
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भूत-पूर्व  : वि० [सुप्सुपा स०] १. पहलेवाला। प्राचीन। २. गत। ३. (पदाधिकारी के संबंध में) जो किसी पद पर पहले कभी रह चुका हो। जैसे—भूतपूर्व सभापति।
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भूत-प्रकृति  : स्त्री० [ष० त०] १. भूतों अर्थात् जीवों की उत्पत्ति। २. दे० ‘मूल-प्रकृति’।
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भूत-प्रेत  : पुं० [द्व० स०] भूत, पिशाच, प्रेत आदि की योनियाँ, अथवा इन योनियों से प्राप्त होनेवाली सूक्ष्म शरीरों का वर्ग।
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भूत-बलि  : स्त्री० [च० त० या मध्य० स०] भूतयज्ञ। (दे०)
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भूत-भर्ता (र्तृ)  : पुं० [ष० त०] १. भूतों का भरण-पोषण करनेवाले; शिव। २. भैरव का एक रूप।
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भूत-भावन  : पुं० [सं० भूत√भू (होना+णिच्+ल्यु-अन] १. ब्रह्मा। २. शिव। विष्णु।
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भूत-भाषा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. भूत-प्रेतों की भाषा। २. पैशाची भाषा।
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भूत-भैरव  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. भैरव का एक नाम। २. उक्त रूप की पूर्ति। ३. हरताल, गंधक आदि के योग बनाया जानेवाला रस जो ज्वर तथा वात नाशक होता है। (वैद्यक)
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भूत-माता (तृ)  : स्त्री० [ष० त०] गौरी।
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भूत-मात्रा  : स्त्री० [ष० त०] (पाँचों में से हर एक) भूत का मूल सूक्ष्म रूप। तन्मात्रा।
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भूत-यज्ञ  : पुं० [मध्य स०] गृहस्थ के लिए विहित पाँच यज्ञों में से एक जिसमें वह समस्त जीवों को आहुति देता है। भूतबलि।
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भूत-योनि  : स्त्री० [ष० त०] प्रेतयोनि। पुं० परमेश्वर।
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भूत-राज  : पुं० [ष० त०] शिव।
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भूत-लक्षी  : वि०=पूर्व-व्यापित।
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भूत-वाद  : पुं० [ष० त०] १. प्राचीन भारत में, एक नास्तिक दार्शनिक संप्रदाय जो पंच-भूतों को ही सृष्टि का कर्ता मानता था, ईश्वर या ब्रह्मा को नहीं। २. दे० ‘भौतिकवाद’। (मेटीरियलिज़्म)
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भूत-वादी (दिन्)  : वि० [सं० भूतवाद+इनि] भूत-वाद सम्बन्धी। पुं० भूत-वाद का अनुयायी।
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भूत-वास  : पुं० [ब० स०] १. महादेव। शिव। २. विष्णु। ३. बहेड़े का पेड़।
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भूत-वाहन  : वि० [ब० स०] भूतों पर सवारी करनेवाला। पुं० महादेव। शिव।
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भूत-विक्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. भूत-प्रेतों के कारण होनेवाली बाधा। प्रेत-बाधा। २. [ब० स०] अपस्मार रोग।
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भूत-विद्या  : स्त्री० [मध्य० स०] आयुर्वेद का वह अंग जिसमें देवता, असुर, गंधर्व, यक्ष, पिशाच, नाग, ग्रह, उपग्रह आदि के प्रभाव से उत्पन्न होनेवाले मानसिक रोगों का निदान और विवेचन होता है। इन्हें दूर करने के लिए बहुधा ग्रह-शांति, पूजा, जप, होम, दान, रत्न पहनने और औषध आदि के सेवन का विधान होता है।
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भूत-विनायक  : पुं० [ष० त०] भूतों अर्थात् जीवों के नायक; शिव।
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भूत-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] पूजन आदि से पहले मंत्रों द्वारा की जानेवाली शरीर की शुद्धि। (तांत्रिक)
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भूत-संचार  : पुं० [ष० त०] भूतोन्माद नामक रोग।
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भूत-संचारी (रिन्)  : पुं० [सं० भूत√चर् (चलना)+णिनि] दावानल।
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भूत-संप्लव  : पुं० [ष० त०] प्रलय।
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भूत-सिद्ध  : पुं० [ब० स०] वह जिसने किसी भूत-प्रेत को सिद्ध किया हो। (तंत्र)
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भूत-हत्या  : स्त्री० [ष० त०] जीवों या प्राणियों का बध या हत्या।
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भूत-हंत्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. नीली दूब। २. बाँझ ककोड़ी।
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भूत-हन  : पुं० [सं० भूत√हन् (मारना)+क्विप्] भोजपत्र का वृक्ष।
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भूत-हर  : पुं० [ष० त०] गुग्गल।
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भूतक  : पुं० [सं० भूत+कन्] पुराणानुसार सुमेरु पर के २१ लोकों में से एक लोक।
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भूतकर्ता (तृ)  : पुं० [ष० त०] ब्रह्मा। स्रष्टा।
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भूतकला  : स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार की शक्ति जो पंच भूतों को उत्पन्न करनेवाली मानी गई है।
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भूतकाल  : पुं० [कर्म० स०] बीता हुआ समय।
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भूतकालिक  : वि० [सं० भूतकाल+ठन्-इक] भूतकाल-संबंधी। जो बीते हए समय में हुआ हो या उनसे संबंध रखता हो। जैसे—भूतकालिक कृदंत।
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भूतकालिक कृदन्त  : पुं० [कर्म० स०] क्रिया से बना हुआ भूत काल का सूचक विशेषण रूप। जैसे—कृत, गत, परिष्कृत आदि।
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भूतकृदंत  : पुं० [सं०] व्याकरण में क्रिया का वह रूप जिससे यह सूचित होता है कि क्रिया भूत काल में पूरी या समाप्त हो चुकी थी। जैसे—चलन’ क्रिया का भूतकृदंत ‘चला’ और ‘बैठना’ क्रिया का भूतकृदंत ‘बैठी’ है।
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भूतक्रांति  : स्त्री० [ष० त०] किसी व्यक्ति पर होनेवाला भूतों का आवेश।
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भूतखाना  : पुं० [हिं० भूत+फा० खाना=घर] बहुत मैला कुचैला या ऐसा अँधेरा जो भूतों के रहने का स्थान जान पड़े।
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भूतगण  : पुं० [ष० त०] शिव के अनुचरों का वर्ग।
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भूतगंधा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] मुरा नामक गंध द्रव्य।
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भूतग्राम  : पुं० [ष० त०] देह। शरीर।
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भूतघ्न  : पुं० [सं० भूत√हन् (मारना)+टक्, कुत्व] १. लहसुन। २. भोजपत्र। ३. ऊँट। वि० भूतों का नाश करनेवाला।
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भूतघ्नी  : स्त्री० [सं० भूतघ्न+ङीप्] तुलसी।
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भूतनी  : स्त्री० [हिं० भूत+नी] भूत योनि की स्त्री। २. डाकिनी। ३. लाक्षणिक अर्थ में काले रंग और प्रायः क्रोधी तथा लड़ाके स्वभाववाली स्त्री।
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भूतल  : पुं० [ष० त०] १. पृथ्वी का ऊपरी तल। धरातल। भू-पृष्ठ। २. जगत। संसार। ३. पाताल।
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भूतहा  : पुं० [सं० भूत√हन् (मारना)+क्विप्] भोजपत्र का वृक्ष।
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भूतहारी (रिन्)  : पुं० [सं० भूत√ह (हरण करना)+णिनि] १. लाल कनेर। २. देवदारु।
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भूता  : स्त्री० [सं० भूत+टाप्] कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी।
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भूतांकुश  : पुं० [भूत-अंकुश, ष० त०] १. कश्यप ऋषि। २. गावजुबाँ नामक वनस्पति। २. वैद्यक एक प्रकार का रसौषध जो भूतोन्माद के लिए उपयोगी कहा गया है।
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भूतागति  : स्त्री० [हिं० भूत+गति] भूत-प्रेत की लीला की तरह का कोई अद्भुत व्यापार। विलक्षण कार्य या बात।
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भूतांतक  : पुं० [भूत-अंतक, ष० त०] १. यम। २. रुद्र।
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भूतात्मा (त्मन्)  : पुं० [भूत-आत्मन्, ष० त०] १. शरीर। २. परमेश्वर। ३. शिव। ४. विष्णु। ५. जीवात्मा।
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भूतादि  : पुं० [भूत-आदि, ष० त०] १. परमेश्वर। २. सांख्य में, अहंकार, तत्त्व, जिससे पंचभूतों की उत्पत्ति मानी गई है।
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भूताधिपति  : पुं० [भूत-अधिपति, ष० त०] शिव।
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भूतायन  : पुं० [भूत-अयन, ष० त०] नारायण। परमेश्वर।
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भूतारि  : पुं० [भूत-अरि, ष० त०] हींग।
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भूतार्त  : वि० [भूत-आर्त, तृ० त०] भूतों या प्रेतों की बाधा से पीड़ित।
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भूतार्थ  : वि० [भूत-अर्थ, ब० स०] जो वस्तुतः घटित हुआ हो। यथार्थ में होनेवाला।
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भूतावास  : पुं० [भूत-आवास, ष० त०] १. पंचभूतों से बना हुआ शरीर। २. जीवों का वासस्थान। जगत। दुनिया। संसार। ३. विष्णु। ४. बहेड़ा।
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भूताविष्ट  : वि० [तृ० त०] भूत-प्रेत से ग्रस्त।
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भूतावेश  : पुं० [भूत-आवेश, ष० त०] किसी को भूत लगना। प्रेतबाधा।
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भूति  : स्त्री० [सं०√भू (होना+कतिन् या क्तिच्] १. अस्तित्व में आने या घटित होने की क्रिया, दशा या भाव। प्रस्तुत या वर्तमान होना। २. उत्पत्ति। जन्म। ३. कल्याण या वैभव से युक्त वैभव और सुख। ४. सौभाग्य। ५. धन-सम्पत्ति। गौरव। महिमा। ७. अधिकता। बहुलता। ८. बढ़ती। वृद्धि। ९. अणिमा, महिमा आदि आठ प्रकार की सिद्धियाँ। १॰. रंगों आदि से हाथी के मस्तक पर बनाये जानेवाले बेल-बूटे। ११. लक्ष्मी। १२. मुक्ति। मोक्ष। १३. वृद्धि नाम की ओषधि। १४. भूतृण। १५. सत्ता। १६. पकाया हुआ मांस। १७. रूसा नामक घास। पुं० १. शिव का एक रूप। २. विष्णु। ३. बृहस्पति। ४. पितरों का एक गण या वर्ग। राजा का मंत्री। वि० मांगलिक और शुभ।
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भूति-भूषण  : पुं० [ब० स०] शिव।
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भूतिकाम  : पुं० [सं० भूति√कम् (इच्छा)+अण्] १. राजा का मंत्री। २. बृहस्पति।
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भूतिकृत  : पुं० [सं० भूति√कृ (करना)+क्विप्, तुक्] शिव।
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भूतिद  : पुं० [सं० भूति√दा (देना)+क] शिव।
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भूतिदा  : स्त्री० [सं० भूतिद+टाप्] गंगा।
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भूतिनि  : स्त्री०=भूतनी।
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भूतिनिधान  : पुं० [ष० त०] धनिष्ठा नक्षत्र।
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भूतिनी  : स्त्री०=भूतनी।
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भूती  : पुं० [हिं० भूत+ई (प्रत्य०)] भूत-प्रेतों को पूजनेवाला अथवा उन्हें सिद्ध करनेवाला व्यक्ति।
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भूतीवानी  : स्त्री० [सं० विभूति] भस्म। राख। (डिं०)
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भूतृण  : पुं० [ष० त०] १. रूसा नाम की घास। रोहिष। २. कपूर।
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भूतेज्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] भूती (दे०)
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भूतेज्या  : स्त्री० [सं० भूत-इज्या, ष० त०] भूत-प्रेतों की पूजा।
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भूतेल  : पुं० [सं०] पृथ्वी के कुछ विशिष्ट भू-भागों की चट्टानों के नीचे से निकलनेवाला एक प्रकार का प्राकृतिक तैलीय और ज्वलनशील द्रव पदार्थ जो हरे रंग या काले रंग का होता है और जिसे साफ करने पर मिट्टी का तेल और कई प्रकार की चीजें निकलती हैं। (पेट्रोलियम)
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भूतेश  : पुं० [सं० भूत+ईश, ष० त०] १. परमेश्वर। २. शिव। ३. कार्तिकेय।
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भूतेश्वर  : पुं० [सं० भूत-ईश्वर, ष० त०] १. महादेव। २. एक प्राचीन तीर्थ।
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भूतोन्माद  : पुं० [सं० भूत-उन्माद, मध्य० स०] भूत, बाधा के परिणाम स्वरूप होनेवाला उन्माद।
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भूत्तम  : पुं० [सं० भू-उत्तम, स० त०] सोना।
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भूदान-यज्ञ  : पुं० [सं० ष० त०] महात्मा गांधी के सर्वोदय आन्दोलन के आधार पर आचार्य विनोबा भावे का चलाया हुआ एक प्रसिद्ध आन्दोलन जिसमें भू-स्वामियों के दान रूप में भूमि प्राप्त करके ऐसे लोगों को बिना मूल्य दी जाती है जिनके पास न तो जोतने-बोने के लिए जमीन होती है और न जिनकी जीविका का कोई निश्चित तथा विशिष्ट साधन होता है।
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भूदार  : पुं० [सं० भू√दृ (फाड़ना)+अण्,] सूअर।
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भूधन  : पुं० [ब० स०] राजा।
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भूधर  : पुं० [सं० ष० त०] १. पर्वत। पहाड़। २. पृथ्वी को धारण करनेवाले शेषनाग। ३. विष्णु। ४. राजा। ५. वाराह अवतार। ६. रस आदि बनाने का एक उपकरण। (वैद्यक)
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भूधरेश्वर  : पुं० [सं० भूधर-ईश्वर, ष० त०] पर्वतों का राजा, हिमालय।
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भूधात्री  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] भुईं आँवला।
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भूध्र  : पुं० [सं० भू√धृ (धरण करना)+क] पर्वत। पहाड़।
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भून  : पुं०=भ्रूण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूनना  : स० [सं० भर्जन] १. किसी खाद्य पदार्थ को जलते हुए अंगारों पर सेंककर पकाना। जैसे—पापड़ भूनना, भुट्टा भूनना। २. गरम बालू में (या से) अन्न-कणों को पकाना। जैसे—दाने भूनना। ३. घी, तेल आदि में कोई तरकारी अच्छी तरह लाल करना। जैसे—भुरता या प्याज भुनना। ४. लाक्षणिक अर्थ में, बहुत अधिक सताना। क्रि० प्र०—डालना।—देना। ५. रासायनिक क्षेत्र में, कोई चीज इस प्रकार तपाना कि उसमें के अवांछित तत्त्व या जल-कण निकल जायँ। (रोस्टिंग)
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भूप  : पुं० [सं० भू√पा (रक्षा करना)+क] १. राजा। रात के पहले पहल में गाया जानेवाला आड़ेव जाति का एक राग।
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भूपग  : पुं० [सं० भूप√गम् (जाना)+ड] राजा। (डिं०)
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भूपत  : स्त्री०=भूपता। पुं०=भूपति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूपता  : स्त्री० [सं० भूप+तल्,+टाप्] १. राजा होने की अवस्था या भाव। २. राजा का पद।
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भूपदी  : स्त्री० [सं० भूपद+ङीष्] एक तरह की चमेली।
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भूपरा  : पुं० [सं० भूप से] सूर्य्य। (डिं०)
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भूपाल  : पुं० [सं० भू√पाल् (रक्षा करना)+अण्] राजा। स्त्री० झड़बेरी।
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भूपाली  : स्त्री० [सं० भूपाल+ङीष्] वर्षा ऋतु में रात के पहले पहर में गाई जानेवाली एक रागिनी जिसे कुछ लोग हिंडोल राग की रागिनी और कुछ मालकोश की पुत्रवधू मानते हैं।
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भूपुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर नामक राक्षस।
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भूपुत्री  : स्त्री० [सं० भूपुत्र+ङीष्] जानकी। सीता।
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भूपेंद्र  : पुं० [सं० भूप-इंद्र, ष० त०] राजाओं में श्रेष्ठ, सम्राट्।
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भूबंधी  : स्त्री० [हिं० भू+बंधना] युद्ध का वह ढंग या प्रकार जिसमें दोनों पक्ष खुले मैदान में आमने-सामने होकर लड़ते हैं। उदा०—घाटियाँ और नदियाँ बारगी और भूबंधी दोनों प्रकार की लड़ाइयों के लिए बहुत उपयोगी हैं।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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भूबल  : स्त्री०=भूभल।
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भूभत  : पुं० [सं० भू√भृ (धारण-पोषण)+क्विप्, तुक्] १. राजा। २. पर्वत। पहाड़।
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भूभरि  : स्त्री०=भूभल।
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भूभल  : स्त्री० [सं० भू-भुर्ज या अनु० ?] १. ऐसी राख जो कुछ गरम हो तथा जिसमें अभी कुछ चिनगारियाँ भी दबी हों। २. गरम रेत।
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भूभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] चंद्र ग्रहण के समय चंद्रमा पर पड़नेवाली पृथ्वी की छाया।
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भूभाग  : पुं० [सं० ष० त०] १. भूखंड। प्रदेश। २. विशेषतः ऐसा प्रदेश जो किसी नगर या राज्य के किसी ओर हो और उसके अधिक्षेत्र में हो। (टेरिटरी)
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भूभागीसमुद्र  : पुं० [सं०] प्रादेशिक-समुद्र।
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भूभुज  : पुं० [सं० भू√भुज् (उपभोग करना)+क्विप्] राजा।
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भूभुर्व  : पुं० [सं ब्रह्मा] के एक मानस-पुत्र का नाम।
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भूभौतिकी  : स्त्री० [सं०] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि आँधी, वर्षा के जल, नदियों और समुद्रों की लहरों आदि का पृथ्वी के भू-तल पर कैसा और क्या प्रभाव पड़ता है। (जिओफिजिक्स)
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भूम  : पुं० [सं०√भू+भन्] पृथ्वी। स्त्री०=भूमि।
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भूमध्य-सागर  : पुं० [मध्य० स०] यूरोप और एशिया के बीच अवस्थित समुद्र।
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भूमय  : स्त्री० [सं० भू+मयट्] सूर्य की पत्नी; छाया।
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भूमा (मन्)  : स्त्री० [सं० बहु+इमनिच्, भू-आदेश] १. आधिक्य। बहुलता। २. जमीन। भूमि। ३. पृथ्वी। ४. निसर्ग। प्रकृति। ५. ऐश्वर्य। ६. पर-ब्रह्म की वह उत्तरोत्तर बढ़ती हुई अनुभूति जो मन का द्वैत भाव मिटाती है। उदा०—यही भूमा का मधुमय दान।—प्रसाद। पुं० सर्व-व्यापी पर-ब्रह्मा। विराट् पुरुष। वि० बहुत अधिक। प्रचुर।
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भूमानंद  : पुं०=परमानंद।
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भूमि  : स्त्री० [सं०√भू+मि] १. यह सारी पृथ्वी जो सौर जगत् के एक ग्रह के रूप में है। (दे० ‘पृथ्वी’) २. पृथ्वी-तल के ऊपर का वह ठोस भाग जिस पर देश, नदियाँ, पर्वत आदि हैं और जिस पर हम सब लोग रहते और वनस्पतियाँ उगती हैं। जमीन। (लैंड) मुहा०—भूमि होना=पृथ्वी पर गिर पड़ना। ३. उक्त का काई ऐसा छोटा टुकड़ा जिस पर किसी का अधिकार हो और जिसमें कुछ उपज आदि होती हो। (एस्टेट) पद—भूमिधर। (दे०) ४. जगह। स्थान। जैसे—जन्म-भूमि, मातृ-भूमि। ५. ऐसी जमीन जिस पर खेतीबारी होती है। जैसे—भूमिधर। ६. कोई बड़ा देश या प्रान्त। जैसे—आर्यभूमि। ७. कोई ऐसा आधार जिसपर कोई दूसरी चीज बनी अथवा आश्रित या स्थित हो। क्षेत्र। जैसे—पृष्ठभूमि। ८. धन सम्पत्ति या वैभव। ९. मकान के ऐसे खंड जो ऊपर-नीचे के विचार से अलग-अलग होते हैं। मंजिल। १॰. कोई विशिष्ट प्रकार का ऐसा विषय जो किसी स्थिति के रूप में हो। जैसे—विश्वास भूमि, स्नेह-भूमि। ११. किसी प्रकार का विस्तार या उसकी सीमा। १२. योगाशास्त्र के अनुसार वे अवस्थाएँ जो क्रम-क्रम से योगी को प्राप्त होती हैं और जिनको पास करके वह पूर्ण योगी होता है। १३. जिह्वा। जीभ। १४. दे० ‘भूमिका’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भूमि कंदक  : पुं० [मध्य० स०] कुकुरमुत्ता।
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भूमि-कंप  : पुं० [सं० ष० त०] भूकंप। भूडोल।
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भूमि-कुष्मांड  : पुं० [सं० मध्य० स०] गरमी के दिनों में होनेवाला कुम्हड़ा जो जमीन पर होता है। भँई-कुम्हड़ा।
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भूमि-खर्जूरी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार की छोटी खजूर।
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भूमि-गत  : वि० [द्वि० त०] १. जमीन पर गिरा या पड़ा हुआ। २. जो भूमि की सतह के नीचे हो। ३. जो जन-साधारण के सामने से हटकर कहीं छिपा हो। (अंडर-ग्राउंड)
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भूमि-गृह  : पुं० [सं० मध्य० स०] तहखाना।
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भूमि-चंपक  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. एक प्रकार का पौधा जिसकी छाल, पत्ते तथा जड़ें औषधि के रूप में प्रयुक्त होती हैं। भुइँचंपा। २. उक्त पौधे का फूल।
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भूमि-चल  : पुं० [सं० ष० त०] भूकंप।
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भूमि-जल  : पुं० [मध्य० स०] जमीन के नीचे रहने या होनेवाला पानी।
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भूमि-जात  : वि० [सं० पं० त०] जो भूमि से उत्पन्न हुआ हो। भूमिज। पुं० पेड़। वृक्ष।
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भूमि-जीवी (विन्)  : पुं० [सं० भूमि√जीव् (जीना+णिनि, उप० स०] १. वह जिसकी जीविका का आधार भूमि हो। कृषक। २. वैश्य।
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भूमि-तल  : पुं० [ष० त०] पृथ्वी का ऊपरी भाग या सतह।
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भूमि-धर  : पुं० [सं० ष० त०] १. पर्वत। पहाड़। २. शेष-नाग। ३. आज-कल वह किसान जिसने उचित धन देकर जमीन पर खेती-बारी करने का स्थायी अधिकार प्राप्त कर लिया हो।
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भूमि-पति  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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भूमि-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर का एक नाम। ३. श्योनाक। सोना-पाढ़।
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भूमि-पुत्री  : स्त्री० [ष० त०] सीता।
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भूमि-पुरंदर  : पुं० [ष० त०] राजा दिलीप का एक नाम।
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भूमि-भुक् (ज्)  : पुं० [सं० भूमि√भुज् (उपभोग करना)+क्विप्] राजा।
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भूमि-भोग  : पुं० [ब० स०] वह राष्ट्र या राजा जिसके पास बहुत अधिक भूमि हो।
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भूमि-लग्ना  : स्त्री० [सं० त०] सफेद फूलोंवाली अपराजिता।
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भूमि-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] शंख पुष्पी।
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भूमि-लवण  : पुं० [ष० त०] शोरा।
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भूमि-लाभ  : पुं० [ब० स०] मृत्यु।
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भूमि-लेप  : पुं० [ष० त०] गोबर।
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भूमि-वर्द्धन  : पुं० [ष० त०] मृत शरीर। शव। लाश।
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भूमि-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] भुँईं आँवला।
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भूमि-संधि  : स्त्री० [मध्य० स०] १. वह संधि जो परस्पर मिलकर कोई भूमि प्राप्त करने के लिए की जाय। २. शत्रु को कुछ भूमि देंकर उससे की जानेवाली सन्धि।
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भूमि-संभवा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] जानकी। सीता।
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भूमि-सात्  : वि० [सं० भूमि+सात् (प्रत्य०)] जो गिर कर जमीन के साथ मिल गया हो। जैसे—भूकंप में मकानों का भूमिसात होना।
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भूमि-सुत  : पुं० [ष० त०] १. मंगल-ग्रह। २. नरकासुर। ३. केवाँच। कौंछ। ४. पेड़। वृक्ष।
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भूमि-सुता  : स्त्री० [ष० त०] जानकी जी।
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भूमि-सुर  : पुं० [ष० त०] ब्राह्मण। भूसुर।
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भूमि-स्खलन  : पुं०=भू-स्खलन।
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भूमि-स्पर्श  : पुं० [ब० स०] उपासना के लिए बौद्धों का एक प्रकार का आसन। वज्रासन।
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भूमि-हार  : पुं० [सं० भूमि+हिं० हार (प्रत्य०)] एक ब्राह्मण जाति को प्रायः उत्तर-प्रदेश और बिहार में बसती और प्रायः खेती-बारी से जीविका-निर्वाह करती है।
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भूमिका  : स्त्री० [सं० भूमि√कै+क,+टाप् अथवा भूमि+कन्,+टाप्] १. जमीन। भूमि। २. जगह। स्थान। ३. मकान के वे दंड जो एक दूसरे के ऊपर नीचे होते हैं। मंजिल। ४. योग में क्रम क्रम से प्राप्त होनेवाली उन्नत स्थितियों में से प्रत्येक। भूमि। ५. किसी प्रकार की रचना। ६. कोई ऐसा आधार जिस पर कोई चीज आश्रित या स्थित हो। पृष्ठभूमि। (बैक ग्राउंड) ७. आज-कल किसी ग्रंथ के आरंभ लेखक का वह वक्तव्य जिसमें उस ग्रंथ से सम्बन्ध रखनेवाली आवश्यक तथा ज्ञातव्य बातों का उल्लेख होता है। आमुख। मुखबंध। (प्रिफ़ेस) ८. कोई महत्त्वपूर्ण बात कहने से पहले कही जानेवाली वे बातें जिनके फल-स्वरूप उस महत्त्वपूर्ण बात का उपयुक्त परिणाम या फल होता या हो सकता हो। मुहा०—(किसी काम या बात की) भूमिका बाँधना=कुछ कहने से पहले उसे प्रभावशाली बनाने के लिए कुछ और बातें कहना। जैसे—जरा सी बात के लिए इतनी भूमिका मत बाँधा करो। ९. वेदान्त के अनुसार चित्त की पाँच अवस्थाएँ, जिनके नाम ये हैं- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और विरुद्ध। १॰. नाटकों आदि में से किसी पात्र का अभिनय तथा कार्य। (पार्ट) जैसे—शिवा जी की भूमिका में मोहनवल्लभ ने बहुत प्रशंसनीय काम किया था। ११. मूर्तियों आदि का किया जानेवाला श्रृंगार या सजावट।
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भूमिका-गत  : पुं० [सं० द्वि० त०, उप० स०] वह जिसने नाटक में अभिनय करने के लिए कोई विशिष्ट वेश-भूषा धारण की हो।
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भूमिज  : वि० [सं० भूमि√जन्+ड] भूमि से उत्पन्न। पुं० १. मंगल ग्रह। २. सोना। स्वर्ण। ३. सीमा। ४. नरकासुर राक्षस। ५. भू-कदंब।
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भूमिजंबु  : पुं० [सं० मध्य० स०] छोटा जामुन।
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भूमिजा  : स्त्री० [सं० भूमि√जन्+ड,+टाप्] जानकी। सीता।
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भूमित्व  : पुं० [सं० भूमि+त्व] ‘भूमि’ का धर्म या भाव।
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भूमिदेव  : पुं० [सं० ष० त०] १. ब्राह्मण। राजा।
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भूमिपाल  : पुं० [सं० भूमि√पाल् (पालन करना)+णिचि+अच्] राजा।
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भूमिपिशाच  : पुं० [सं० ष० त०] ताड़ का पेड़।
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भूमिभृत्  : पुं० [सं० भूमि√भृ (भरण करना)+क्विप्, तुक्] राजा।
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भूमिया  : पुं० [हिं० भूमि+इया (प्रत्य०)] १. भूमि का मूल अधिकारी और स्वामी। २. जमींदार। ३. किसी देश का प्राचीन और मूल निवासी। ४. ग्राम-देवता।
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भूमिरुह  : पुं० [सं० भूमि√रुह् (ऊपर चढ़ना)+क] वृक्ष।
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भूमिरुहा  : स्त्री० [सं० भूमि√रुह्+टाप्] दूब।
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भूमी  : स्त्री० [सं० भूमि+ङीष्] भूमि।
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भूमींद्र  : पुं० [भूमि-इंद्र, ष० त०] राजा।
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भूमीरुह  : पु० [सं० भूमी√रुह्+क] वृक्ष। पेड़।
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भूमीश्वर  : पुं० [सं० भूमि+ईश्वर, ष० त०] राजा।
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भूम्यामलकी  : स्त्री० [भूमि-आमलकी, मध्य० स०] भुँई आँवला।
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भूम्युच्च  : पुं० [सं० भूमि+उच्च] ज्योतिष में, किसी ग्रह की वह स्थिति जब वह अपनी कक्षा पर चलते समय पृथ्वी से अधिकतम दूरी पर होता है। (एपोजी)
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भूय (स्)  : अव्य० [सं० भू√यस् (प्रयत्न)+क्विप्] पुनः। फिर। स्त्री०=भू (पृथ्वी)।
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भूयण  : स्त्री० [हिं० भूय] पृथ्वी। (डिं०)
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भूयशः (शस्)  : अव्य० [सं० भूयस्+शस् (वीप्सार्थ) स-लोप] बहुत अधिक रूप में।
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भूयशी दक्षिणा  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] १. कोई धार्मिक या मंगल कृत्य संपन्न होने पर अन्त में ब्राह्मणों को बाँटी जानेवाली दक्षिणा। २. लाक्षणिक अर्थ में किसी बड़े खरच के बाद होनेवाला कोई छोटा खरच।
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भूयसी  : वि० [सं० भूयस्+ङीष्] बहुत अधिक। क्रि० वि० बार बार।
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भूयस्  : वि० [सं० बहु+ईयसुन्, ई-लोप, भू-आदेश] बहुत। अधिक।
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भूयिष्ठ  : वि० [सं० बहु+इष्ठन्, यिट्-आगम, भू-आदेश] बहुत अधिक। अत्यधिक।
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भूयोदयः  : अ० [सं० भूयस्, वीप्सा में द्वित्व] पुनः पुनः। बार बार।
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भूयोविद्य  : पुं० [सं० ब० स०] प्राचीन भारत में ऐसा विद्वान् जो छन्द, ब्राह्मण, कल्प, धर्म व्याकरण, काव्य आदि अनेक विद्याओं का अच्छा ज्ञाता या पारंगत होता था।
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भूर  : वि० [सं० भूरि] अधिक बहुत। पुं० [हिं० भुरभुरा] बालू। रेत। पुं० [?] गौओं की एक जाति।
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भूर-लोखरिया  : स्त्री० [हिं० भूर=बालू+लोखरी=लोमड़ी] वह बलुई मिट्टी जिसमें लोमड़ी माँद बनाती है।
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भूरकी  : स्त्री० [हिं० भुरका] १. अन्न रखने की छोटी कोठिला। धुनकी। २. पानी का छोटा गड्ढा। ३. छोटा भुरका या कुल्हड़। ५. छिद्र। छेद। (पूरब)
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भूरज (जस्)  : पुं० [सं० ष० त०] पृथ्वी की धूलि। गर्द। मिट्टी। पुं० [सं० भूर्य] भोजपत्र। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भूरजपत्र  : पुं०=भोज पत्र।
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भूरपुर  : वि०=भूर-पूर।√ अव्य०, वि०=भर-पूर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भूरला  : पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति।
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भूरसी दक्षिणा  : स्त्री०=भूयसी दक्षिणा।
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भूरा  : वि० [सं० वभ्रु] मिट्टी के रंग का। मटमैले रंग का। खाकी। पुं० १. मिट्टी का सा या मटमैला रंग। २. एक प्रकार का कबूतर जिसकी पीठ काली और पेट पर सफेद छीटें होती हैं। ३. कच्ची चीनी को पकाकर साफ़ करके बनाई हुई चीनी। बूरा। ४. कच्ची चीनी। खाँड़। ५. चीनी। ६. युरोप का निवासी। युरोपियन। (राज०)
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भूरा कुम्हड़ा  : पुं० [हि० भूरा+कुम्हड़ा] पेठा।
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भूरि  : वि० [सं०√भू (होना)+क्रिन्] बहुत अधिक। प्रचुर। जैसे—भूरि-भूरि प्रशंसा करना। पुं० १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। ४. इन्द्र। ५. सोना। स्वर्ण। अव्य० बहुत अच्छी तरह। उदा०—पैर छोड़ो और मुझको भूरि भेंटो।—मैथिलीशरण।
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भूरि गंधा  : स्त्री० [ब० स०] मुरा नामक गंध द्रव्य।
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भूरि-तेजस्  : पुं० [ब० स०] १. अग्नि। २. सोना। स्वर्ण।
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भूरि-दक्षिण  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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भूरि-धाम (न्)  : पुं० [सं० ब० स०] नवें मनु के एक पुत्र का नाम।
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भूरि-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०] शत पुष्पा।
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भूरि-प्रेमा (मन्)  : पुं० [ब० स०] चकवा।
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भूरि-फेना  : स्त्री० [ब० स०] सातला।
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भूरि-बल  : पुं० [सं० ब० स०] धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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भूरि-बला  : पुं० [सं० ब० स०,+टाप्] अतिबला। कँगही। ककही।
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भूरि-भाग्य  : वि० [ब० स०] भाग्यवान्।
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भूरि-मंजरी  : स्त्री० [ब० स०] सफेद तुलसी।
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भूरि-मल्ली  : स्त्री० [सं० भूरि√मल्ल्+अच्+ङीष्] ब्राह्मणी या पाढ़ा नाम की लता।
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भूरि-माय  : वि० [ब० स०] बहुत बड़ा मायावी। पुं० १. सियार। २. लोमड़ी।
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भूरि-मूलिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्+टाप्] ब्राह्मणी लता। पाढ़ा।
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भूरि-रस  : पुं० [ब० स०] ईख। ऊख।
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भूरि-लग्ना  : स्त्री० [ब० स०] सफेद अपराजिता।
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भूरि-विक्रम  : वि० [ब० स०] बहुत बड़ा शूरवीर।
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भूरि-श्रवा (वस्)  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रसिद्ध योद्धा जो महाभारत के युद्ध में कौरवों की तरफ से लड़ा था तथा जिसका वध सात्यिक ने किया था।
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भूरिगम  : पुं० [सं० भूरि√गम् (जाना)+अप्] गधा।
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भूरिता  : स्त्री० [सं० भूरि+तल्+टाप्] भूरि अथवा अधिक होने का भाव। अधिकता। बहुलता।
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भूरिदा  : वि० [सं० भूरि√दा (देना)+क+टाप्] यथेष्ट दान देनेवाला।
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भूरिषेण  : पुं० [सं० ब० स०] भागवत के अनुसार एक मनु का नाम।
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भूरिसेन  : पुं० [सं० ब० स०] राजा शर्याति के तीन पुत्रों मे से एक।
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भूरुह  : पुं० [सं० भू√रुह् (उगना)+क] १. वृक्ष। पेड़। २. अर्जुन। वृक्ष। ३. शाल वृक्ष।
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भूरुहा  : स्त्री० [सं० भूरुह+टाप्] दूब।
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भूँरो  : पुं० [सं० भ्रमर] भ्रमर। भौंरा। (डिं०)
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भूर्  : पुं० [सं०√भू (होना)+रुक्] अन्तरिक्षलोक से नीचे पैर रखने योग्य स्थान। लोक।
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भूर्ज  : पुं० [सं० भू√ऊर्ज्+अच] भोजपत्र का वृक्ष।
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भूर्ज-पत्र  : पुं० [सं० ष० त० वा ब० स०] भोजपत्र।
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भूर्णि  : स्त्री० [सं०√भू (भरण करना)+नि,] १. पृथ्वी। २. मरुभूमि। रेगिस्तान। (
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भूर्लोक  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. मर्त्य लोक। संसार। जगत। २. विषुवत् रेखा के दक्षिण का देश।
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भूल  : स्त्री० [हिं० भूलना] १. भूलने की क्रिया या भाव। २. अज्ञान, असावधानता, भ्रम आदि के कारण कुछ का कुछ समझाने और उसके फल-स्वरूप कोई अनुचित या गलत काम करने की अवस्था, या भाव। गलती। (एरर) जैसे—मैंने उन्हें झूठा समझ लिया, यह मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई। ३. अर्थ, तथ्य, प्रक्रिया आदि ठीक तरह से न जानने या समझने के कारण गलत तरह से कुछ कर डालने की अवस्था, क्रिया या भाव। अशुद्धि। गलती। (मिस्टेक) जैसे—उनके साथ साझा करके तुमने बहुत बड़ी भूल की। ४. कोई ऐसी चूक या त्रुटि जो जल्दी में रहने या पूरा ध्यान न देने के कारण हो जाय। (स्लिप) जैसे—इस हिसाब में कोई अपराध या दोष। कसूर। जैसे—(क) मैं अपनी इस भूल के लिये बहुत दुखी हूँ। (ख) भगवान् सबकी भूलें क्षमा करता है।
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भूल-चूक  : स्त्री० [हिं० भुलना+चूकना] लेख या हिसाब में ब्योरे आदि की ऐसी गलती जो दृष्टि-दोष आदि के कारण हो और बाद में जिसका सुधार हो सकता हो। (एरर्स एण्ड ओमिशन्स) पद—भूल-चूक, लेना देना=एक पद जिसका प्रयोग लेन-देन के पुरजों, प्राप्यकों आदि के अन्त में यह सूचित करने के लिए होता है कि कोई भूल रह गई हो तो उसका हिसाब या लेन-देन बाद में हो सकेगा।
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भूलक  : पुं० [हिं० भूल+क (प्रत्य०)] भूल करनेवाला। जिससे भूल होती हो।
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भूलना  : अ० [प्रा० भुल्ल] १. उचित अवधान या ध्यान न रहने के कारण किसी काम या बात का स्मृति-क्षेत्र में न रह जाना। याद न रहना। विस्तृत होना। जैसे—मैं तो बिल्कुल भूल ही गया था, अच्छा किया जो तुमने याद दिला दिया। २. दृष्टि-दोष, प्रमाद आदि के कारण किसी प्रकार की गलती, त्रुटि या भूल करना। जैसे—भूल गया था। पद—भूलकर भी=दृढ़ता-पूर्वक प्रतिज्ञा करते हुए। कदापि। कभी-कभी अथवा किसी भी दशा में। (केवल नहिक प्रसंगों में) जैसे—(क) अब कभी भूलकर भी उनका साथ न करना। (ख) वहाँ मैं भूलकर भी नहीं जाऊँगा। ३. किसी प्रकार के धोखे या भ्रम में पड़कर कर्तव्य न करना या उचित मार्ग से हटकर इधर-उधर हो जाना। जैसे—तुम तो दूसरों की बातों में भूलकर अपनी हानि कर बैठते हो। ४. उक्त प्रकार की बातों के फलस्वरूप किसी पर अनुरक्त होना। जैसे—तुम भी किसकी बातों में भूले हो, वह तुम्हें बहुत धोखा देगा। उदा०—मैं तो तोरी लाल पगिया पै भूली रे साजनाँ।—लोक-गीत। ५. किसी प्रकार के घमण्ड के वश में होकर इतराना। गर्व-पूर्वक प्रसन्न रहना। जैसे—(क) उन्हें एक मकान मिल गया है, इसी पर वह भूले हुए हैं। )(ख)सांसारिक वैभव पर भूलना नहीं चाहिए। ६. किसी चीज़ का खो जाना। गुम होना। जैसे—हमारी कलम यहाँ कहीं भूल गई है। स० १. कोई बात इस प्रकार मन से हटा देना कि फिर उसका ध्यान न आवे। याद न रखना। विस्तृत करना। जैसे—अब तो वह अपनी पुरानी हालत भूल गये हैं। २. असावधानता, उदासीनता, उपेक्षा, दृष्टि-दोष, प्रमाद आदि के कारण, परन्तु अनजान में वह न करना जो करना चाहिए। जैसे—उस पत्र में मैं एक बात लिखना भूल गया था। ३. अनजान में उस और ध्यान न देना जिधर ध्यान देना आवश्यक और उचित हो। जैसे—मुझे आपने जो वचन दिया था वह तो आप भूल ही गये। ४. गलती या चूक के कारण कर्त्तव्य, ठीक मार्ग आदि से विचलित होकर इधर-उधर हो जान। जैसे—वह रास्ता भूलकर कहीं का कहीं चला गया। ५. कोई चीज खो या गवाँ देना। जैसे—मैं अपनी घड़ी बाजार में भूल आया हूँ। वि०=भुलना।।
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भूलभुलैया  : स्त्री० [हिं० भूलना+ऐयाँ (प्रत्य०)] १. ऐसी इमारत अत्यधिक गलियाँ तथा दरवाजे होते हैं और जिसमें जाकर आदमी रास्ता भूल जाता है और जल्दी बाहर नहीं निकल पाता। २. खेल-तमाशे के लिए रेखाओं, दीवारों आदि से बनाई हुई उक्त प्रकार की रचना। चकाबू। (लैबिरिन्थ)। ३. बहुत घुमाव-फिराववाली बात। पेचीली बात।
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भूलिंग  : पुं० [सं० ?] अरावली के उत्तरी-पश्चिम में रहनेवाली एक प्राचीन जाति।
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भूवा  : वि०, पुं०=भूआ। स्त्री०=बुआ।
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भूवारि  : पुं० [डिं०] वह स्थान जहाँ हाथी पकड़कर रखे या बाँधे जाते हैं।
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भूशक्र  : पुं० [सं० स० त०] राजा।
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भूशय  : पुं० [सं० भू√शी (शयन करना)+अच्,] बिल बनाकर रहनेवाले जानवर। जैसे—गोह, चूहा, नेवला, लोमड़ी आदि।
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भूशायी (यिन्)  : वि० [सं० भू√शी (शयन करना)+णिनि,] १. पृथ्वी पर सोनेवाला। २. जो टूट-फूट कर जमीन पर गिर पड़ा हो। ३. मरा हुआ। मृत।
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भूषण  : पुं० [सं०√भूष् (भूषित करना)+ल्युट्-अन] अलंकार। गहना। जेवर। २. शोभा बढ़ानेवाली कोई वस्तु या गुण। ३. विष्णु।
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भूषणीय  : वि० [सं०√भूष्√भूष् (भूषित करना)+अनीयर] अलंकृत किये जाने के योग्य।
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भूषन  : पुं०=भूषण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भूषना  : सं० [स० भूषण] भूषित करना। अलंकृत करना। सजाना। अ० अलंकृत होना। सजना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भूषा  : स्त्री० [सं०√भूष्+णिच्+अ+टाप्] १. गहना+जेवर। २. अलंकृत करने की क्रिया या भाव। पद—वेष-भूषा।
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भूषाचार  : पुं० [भूषा-आचार, ष० त०] १. कपड़े आदि पहनने का विशिष्ट। ढंग। २. समाज के उच्च वर्गों में या आहट्टत ढंग या रीति। (फैशन)
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भूषित  : भू० कृ० [सं०√भूष्+णिच्+क्त] १. भूषणों से युक्त किया हुआ। अलंकृत। २. सजा हुआ।
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भूष्णु  : वि० [सं०√भू (होना)+ग्सनु] १. होनेवाला। २. ऐश्वर्य का इच्छुक।
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भूष्य  : वि० [सं०√भूष्+णिच्+यत्] भूषित किये जाने योग्य। सजाये जाने के योग्य।
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भूस  : पुं०=भूसा।
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भूसठ  : पुं० [सं० भू+शठ ?] कुत्ता। श्वान।
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भूसन  : पुं० [हिं० भूँकना] कुत्तों का बोलना। भूँकना। पुं०=भूषण।
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भूँसना  : अ०=भूकना।
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भूसना  : अ० [हिं० भूँकना] कुत्तों का शब्द करना। भूँकना।
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भूसा  : पुं० [सं० तुष] गेहूँ, जौ आदि के पौधों के डंठलों के सूखे छोटे महीन टुकड़े जो गाय-भैसों आदि को खिलाये जाते हैं।
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भूसी  : स्त्री० [हिं० भूसा] १. किसी चीज के पतले या महीन छिलकों के छोटे छोटे टुकड़े। जैसे—ईसबगोल की भूसी। २. भूसा। ३. चकोर।
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भूसीकर  : पुं० [हिं० भूसी+कर] अगहन में होनेवाला एक तरह का धान और उसका चावल।
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भूस्तृण  : पुं० [सं० ष० त०, सुट्-आगम] एक प्रकार की घास। घटिपारी।
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भूस्या  : पुं० [सं० भू√स्था (ठहरना)+क, आ-लोप] मनुष्य।
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भृकुटी  : स्त्री० [सं० भ्रूकुटी] भौंह।
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भृंग  : पुं० [सं०√भृ (भरण करना)+गन्, नुट्-आगम] १. भौंरा। २. एक प्रकार का कीड़ा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि ढक देता है और उस पर बैठकर और डंक मार-मार कर इतनी देर तक और इतनी जोर से ‘‘भिन्न भिन्न’’ करता है कि कीड़ा भी उसी की तरह हो जाता है। २. भृंगराज पक्षी।
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भृगं-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] माधवी लता।
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भृंग-बंधु  : पुं० [ष० त०] १. कुंद का पेड़। २. कदम का पेड़।
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भृंग-वल्लभ  : पुं० [ष० त०] भूमि कदंब।
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भृंग-सोदर  : पुं० [ष० त०] भँगरैया।
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भृंगक  : पुं० [सं० भृंग+कन्] भृंगराज पक्षी।
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भृंगज  : पुं० [सं० भृंग√जन् (उत्पन्न करना)+ड] अगरु।
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भृगंजा  : स्त्री० [स० भृंगज+टाप] भारंगी।
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भृगनंद  : पुं० [सं० भृगु√नंद् (प्रसन्न करना)+णिच्+अच्] परशुराम।
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भृगनाथ  : पुं० [ष० त०] परशुराम।
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भृंगमोही  : पुं० [सं० भृंग√मुह् (मुग्ध होना)+णिच्+णिनि] १. चंपा। २. कनक चंपा।
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भृंगरज  : पुं०=भृंगराज।
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भृंगराज  : पुं० [सं० भृंग√राज् (शोभित होना)+अच्] १. भँगरा नामक वनस्पति। भङ्गरैया। घमरा। २. दे० ‘भृंग’ कीड़ा।
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भृंगरीट  : पुं० [सं० भृंग√रट् (शब्द)+अच्, पृषो० सिद्धि] १. शिव के द्वारपाल। २. लोहा।
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भृंगाभीष्ट  : पुं० [भृंग-अभीष्ट, ष० त०] आम का वृक्ष।
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भृंगार  : पुं० [सं० भृंग√ऋ (गति)+अण्] १. लौंग २. सोना। स्वर्ण। ३. पानी पीने के लिए बना हुआ सोने का एक प्राचीन पात्र। ४. जल का अभिषेक करने की झारी।
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भृंगारि  : स्त्री० [सं० भृंग√ऋ (प्राप्त होना)+इनि] केवड़ा।
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भृंगारिका  : स्त्री० [सं० भृंगार+कन्+टाप्, इत्न] झिल्ली नामक कीड़ा।
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भृंगावली  : स्त्री० [सं० भृंग-आवली, ष० त०] भौरों की पाँत।
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भृंगी (गिन्)  : पुं० [सं० भृंग+इनि] १. शिव जी का एक परिषद् का गण। २. वट वृक्ष। बड़ का पेड़। ३. भौंरा। ४. तितली। ५. अतिविषा। अतीस। स्त्री० [भृंग+ङीष्] भृंग नामक कीट की मादा। बिलनी।
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भृंगी-फल  : पुं० [सं० ब० स०] अमड़ा।
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भृंगीश  : पुं० [सं० भृगिन्-ईश, ष० त०] शिव। महादेव।
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भृगु  : पुं० [सं०√भ्रस्ज्+क्, सम्प्रसारण, कुत्व] १. एक प्रसिद्ध मुनि जो शिव के पुत्र सप्तर्षियों में से एक माने जाते हैं। कहते हैं कि इन्होंने भगवान् विष्णु की छाती में लात मारी थी। २. परशुराम जो उक्त मुनि के वंशज थे। ३. शुक्राचार्य। ४. शुक्रवार। ५. शिव। ६. जमदग्नि। ७. पहाड़ का ऐसा किनारा जहाँ से गिरने पर मनुष्य बिलकुल नीचे आ जाय, बीच में कहीं रुक न सके।
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भृगु-तुंग  : पुं० [सं० भृगु√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. भृगु के वंशज। २. शुक्राचार्य।
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भृगु-तुंग  : पुं० [सं०] हिमालय की एक चोटी जो एक पवित्र तीर्थ के रूप में मानी जाती है।
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भृगु-नायक  : पुं० [ष० त०] परशुराम।
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भृगु-पति  : पुं० [ष० त०] परशुराम।
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भृगु-पात  : पुं० [पं० त०] पहाड़ की चोटी पर से गिरकर आत्म-हत्या करना।
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भृगु-पुत्र  : पुं० [ष० त०] शुक्र।
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भृगु-रेखा  : स्त्री० [मध्य० स०] भृगु-लता।
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भृगु-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] भृगु मुनि के चरण का चिन्ह जो विष्णु की छाती पर अंकित है।
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भृगु-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] १. तैत्तिरीय उपनिषद की तीसरी वल्ली जिसका अध्ययन भृगु मुनि ने किया था। २. भृगु लता।
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भृगुक  : पुं० [सं० भृगु+कन्] पुराणानुसार कूर्म्म चक्र के एक देश का नाम।
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भृगुकच्छ  : पुं० [सं०] आधुनिक भड़ौच नगर।
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भृगुसुत  : पुं० [ष० त०] १. शुक्राचार्य। २. शुक्र ग्रह।
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भृंगेष्टा  : स्त्री० [सं० भृंग-इष्टा, ष० त०] १. धीकुमार। २. भारंगी। ३. युवती स्त्री। जवान औरत।
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भृत  : पुं० [सं०√भू (भरण करना)+क्त] [स्त्री० भृता] १. भृत्य। दास। २. सेवक। नौकर। ३. बोझ ढोनेवाला दास जो मिताक्षरा में अधम कहा गया है। भू० कृ० १. भरा हुआ। पूरित। २. पाला-पोसा हुआ। ३. (वेतन, धन आदि) चुकाया हुआ। (पेड)
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भृतक  : पुं० [सं० भूत+कन्] वेतन पर काम करनेवाला नौकर।
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भृतक-बल  : पुं० [सं० कर्म० स०] वेतन पर रखी हुई सेना। (कौ०)
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भृतकाध्यापक  : पुं० [सं० भृतक-अध्यापक, कर्म० स०] वह जो वेतन पर अध्यापन-कार्य करता हो।
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भृति  : स्त्री० [सं०√भृ+क्तिन्] १. भरने की क्रिया या भाव। २. पालन-पोषण। ३. नौकरी। ४. तनख्वाह। वेतन। ५. मजदूरी। ६. दाम। मूल्य।
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भृति-भोगी (गिन्)  : वि० [सं० भृति√भुज्+णिनि, उप० स०] वेतन लेकर या भाड़े पर किसी का काम करनेवाला। वेतन-भोगी। (मर्सीनरी)
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भृति-रूप  : पुं० [सं० ब० स०] १. पारिश्रमिक। २. पुरस्कार। इनाम।
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भृतिभुक् (ज्)  : पुं० [सं० भृति√भुज् (उपभोग करना)+क्विप्, कुत्व] वेतन पर काम करनेवाला नौकर।
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भृत्य  : पुं० [सं०√भृ+क्यप्, तुक्] [स्त्री० भृत्या] सेवक। नौकर।
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भृत्य-भर्ता (तृ)  : पुं० [ष० त०] गृह-स्वामी।
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भृत्यता  : स्त्री० [सं० भृत्य+तल्+टाप्] भृत्य होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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भृत्या  : स्त्री० [सं० भृत्य+टाप्] १. दासी। २. तनख्वाह। वेतन।
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भृमि  : पुं० [सं०√भ्रम्+इन, कित्व, सम्प्रसारण] १. घूमनेवाली वायु। बवंडर। २. बहते हुए पानी का चक्कर। भँवर। ३. वैदिक काल की एक प्रकार की वीणा। वि० घूमने या चक्कर लगानेवाला।
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भृश  : क्रि० वि० [सं०√भृश् (नीचे गिरना)+क] अत्यधिक। बहुत अधिक।
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भृश-कोपन  : क्रि० वि० [सं० कर्म० स०] बहुत अधिक क्रोधी।
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भृश-कोपन  : वि० [सं० कर्म० स०] बहुत अधिक क्रोधी।
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भृष्ट  : वि० [सं०√भ्रस्ज् (पकाना)+क्त, सम्प्रसारण] भूना हुआ।
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भृष्टकार  : पुं० [सं० भृष्ट√कृ+अण्] भड़भूँजा।
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भृष्टान्न  : पुं० [सं० भृष्ट-अन्न, कर्म० स०] लाई।
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भृष्टि  : स्त्री० [सं० √भ्रस्ज्+क्तिन्] १. भूनने की क्रिया या भाव। २. सूनी वाटिका।
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भेउ  : पुं० [सं० भेद] मर्म। रहस्य। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भेंउती  : स्त्री०=भौंती।
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भेक  : पुं० [√भी (भय करना)+कन्, गुण] मेढ़क।
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भेकासन  : पुं० [सं० भेक-आसन, उपमि० स०] तंत्र-साधन का एक प्रकार का आसन।
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भेकी  : स्त्री० [सं० भेक+ङीष्] १. मेढ़की। २. मंडूकपर्णी।
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भेख  : पुं०=भेस (वेष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भेखज  : पुं०=भेषज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भेंगा  : वि० [देश०] (व्यक्ति) जिसकी आँखों की पुतलियाँ कुछ टेढ़ी-तिरछी चलती हों; अथवा एक पुतली कुछ ताकने में तिरछी होती हो।
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भेज  : स्त्री० [हिं० भेजना] १. वह जो कुछ भेजा जाय। भेजी हुई चीज़। २. भूमि-कर। लगान। ३. अनेक प्रकार के कर जो जमीन और उसकी उपज पर लगाये जाते हैं।
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भेजना  : स० [सं० ब्रजन्] १. आग्रह करके या आदेश देकर किसी व्यक्ति को कहीं जाने में प्रवृत्त करना। प्रस्थान करना। रवाना करना। जैसे—नौकर (या लड़के) को सामान लाने के लिए बाजार भेजना। २. किसी के द्वारा साधन से ऐसी क्रिया करना कि कोई चीज किसी दूसरी जगह चली और पहुँच जाय। जैसे—डाक से पत्र या रेल से माल भेजना।
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भेजवाना  : स० [हिं० भेजना का प्रे०] भेजने का काम दूसरे के द्वारा कराना। जैसे—नौकर के हाथ पत्र भेजवाना। संयो० क्रि०—देना।
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भेजा  : पुं० [सं० भज्जा ?] खोपड़ी के अन्दर का गूदा। मगद। मुहा०—भेजा खाना=दे० ‘मगज’ के अन्तर्गत ‘मगज खाना’। पुं० [हिं० भेजना] १. वह चीज जो भेजी जाय। किसी के यहाँ भेजा जानेवाला पदार्थ। २. चंदा।
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भेजाबरार  : पुं० [हिं० भेजा=चंदा+बाजार ?] १. किसी के सहायतार्थ विशेषतः किसी का देय धन चुकाने के उद्देश्य से चंदे के रूप में इकट्ठा किया हुआ धन। २. इस प्रकार धन इकट्ठा करने की एक मध्ययुगीन प्रथा।
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भेंट  : स्त्री० [हिं० भेंटना] १. परिचितों में प्रायः कुछ समय के उपरान्त होनेवाला मिलन। मुलाकात। जैसे—आज तो कऊ महीनों पर आपसे भेंट हुई है। २. पत्रों आदि में प्रकाशित करने के लिए किसी बड़े आदमी से मिलकर उसके विचार जानने का काम। ३. वह वस्तु जो बड़ों को आदर तथा नम्रतापूर्वक उपहार या सौगात के रूप में दी जाय। जैसे—सभी ने इन्हें बहुत सी पुस्तकें भेंट की थीं। विशेष—‘उपहार’ और ‘भेंट’ में अतर यह है कि उपहार तो प्रसन्नता, शुभाशंसा और सद्भाव सूचित करने के लिए दिया जाता है, पर ‘भेंट’ में दर और पूजनीयता का भाव प्रधान होता है। क्रि० प्र०—चढ़ना।—चढ़ाना। ६. चंडिका देवी की स्तुति के रूप में गाये जानेवाले एक प्रकार के भजन। (पंजाब)
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भेट  : स्त्री०=भेंट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भेंटना  : स० [सं० भिद्=आमने-सामने आकर भिड़ना] १. मुलाकात करना। मिलना। २. गले लगकर आलिंगन करते हुए मिलना। ३. किसी को कोई चीज भेट रूप में देना। (पश्चिम)
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भेटना  : पुं० [देश०] कपास के पौधे का फल। कपास का डोंड़ा। स०=भेंटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भेंटाना  : अ०=भेंटना।
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भेंड  : स्त्री०=भेड।
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भेड़  : स्त्री० [सं० मेष] [पुं० भेड़ा] १. बकरी के आकार-प्रकार का एक प्रसिद्ध पालतू चौपाया जिसका ऊन तथा खाल विविध कामों में आती है और मांस खाया जाता है। पद—भेड़िया धँसान। २. उक्त पशु की तरह सीधा-सादा और मूर्ख व्यक्ति। उदा०—भेड़ जाओगे, मारेगी जो दो मूग तुम्हें।—कोई शायर। स्त्री० [?] भेड़ने की क्रिया या भाव। २. थप्पड़ या धौल। ३. ताँबे की बनी हुई एक प्रकार की तुरही या भोंपा।
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भेड़ना  : स० [हिं० भिड़ना] १. कोई चीज किसी के साथ सटाकर लगाना। भिड़ाना। २. (दरवाजा) बन्द करना। ३. (घूस या रिश्वत) देना। (बाजारू)
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भेड़ा  : पुं० [हिं० भेड़] भेड़ जाति का नर। मेढ़ा। मेष।
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भेड़िया  : पुं० [हिं० भेड़ या सं० भेरुंड ?] कुत्ते से कुछ बड़ा एक जंगली हिसक पशु जो झुंड बनाकर रहता है और बस्तियों से मुर्गियाँ, बत्तखें, छोटी छोटी भेड़-बकरियाँ, नन्हें बच्चे आदि उठाकर ले जाता है। वि० [हिं० भेड़+इया (प्रत्य०)] भेड़ या भेड़ों का सा। जैसे—भेड़िया धँसान।
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भेड़ियाँ-धँसान  : स्त्री० [हिं० भेड़+धँसान] भेड़ों का सा अंध अनुकरण। विशेष—जब भेड़े झुंड में चलती हैं तब प्रायः ऐसा होता है कि एक भेड़ जिस ओर चलने लगती हैं। इसी आधार पर यह पद बना है।
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भेड़िहर  : पुं० [हिं० भेड़] गड़ेरिया। भेड़ें चरानेवाला।
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भेतव्य  : वि० [सं०√भी (भय करना)+तव्य] १. जिससे डर या भय लगता हो। २. जिससे डरना या भयभीत होना उचित हो।
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भेता (त्तृ)  : वि० [सं०√भिद् (विदारण)+तृच्] १. भेदन करने अर्थात् छेदनेवाला। २. विभेद या खंड करनेवाला। ३. हिस्से लगानेवाला। द रहस्य खोलनेवाला। ४. भेद रहस्य खोलनेवाला ५. दो पक्षों में मत-भेद उत्पन्न करनेवाला। ६. षड्यंत्र करनेवाला।
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भेंद  : पुं० [सं०√भिद्+घञ्] १. भेदने या छेदने की क्रिया या भाव। २. काटकर, तोड़कर या और किसी प्रकार अलग करने की क्रिया। ३. किसी तल के बीच में से होकर या एक पार्श्व तक जाना। जैसे—शकट भेद। ४. प्राचीन भारतीय राजनीति में शत्रु के लोगों को धन देकर या बहकाकर अपनी ओर मिला लिया जाता था अथवा उनमें परस्पर द्वष उत्पन्न कर दिया जाता था। ५. कोई ऐसी भीतरी छिपी हुई तथा रहस्यपूर्ण बात जो दूसरे लोग न जानते हों। रहस्य। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—बताना।—मिलाना।—लेना। ६. छिपा हुआ तात्पर्य। मर्म। उदा०—वैद-वधू हँसि भेद सो रही नाह मुख चाहि।—बिहारी। ७. वह गुण, तत्त्व या विशेषता जो प्रायः समान प्रतीत होनेवाली चीजों में से किसी एक में होती है और जिससे दोनों का अन्तर जाना जाता है। ८. अन्तर। फरक। ९. किस्म। तरह। प्रकार।
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भेद-कारक  : वि० [सं० ष० त०]=भेदक।
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भेद-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] द्वैतभाव का ज्ञान।
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भेद-नीति  : स्त्री० [ष० त०] दूसरों में आपस में फूट डालने या भेद-भाव उत्पन्न करने की नीति।
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भेद-बुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] १. यह समझना कि अमुक और अमुक में भेद है। २. फूट। बिलगाव।
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भेद-भाव  : पुं० [सं०] १. मन में होनेवाला यह ज्ञान या भाव कि अमुक और अमुक में भेद है। २. एकता या एकात्मा का भाव या विचार। ३. मतैक्य का अभाव। ४. अन्तर। फरक। ५. आज-कल सबके प्रति समान व्यवहार न करके किसी के प्रति पक्षतापूर्वक और दूसरे के प्रति अनुचित व्यवहार करना। (डिस्क्रिमिनेशन)
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भेद-मति  : स्त्री०=भेद-बुद्धि। (दे०)
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भेद-वाद  : पुं०=द्वैतवाद।
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भेद-वादी (दिन्)  : वि०=द्वैतवादी।
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भेद-विधि  : स्त्री० [ष० त०] दो वस्तुओं में अन्तर करने की प्रणाली या शक्ति।
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भेद-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [ष० त०] सारा भेद या रहस्य जानेनेवाला वह अभियुक्त जो शासन की ओर से साक्षी बन गया हो। इकबाली गवाह। (एप्रूवर)
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भेदक  : वि० [सं०√भिद्+ण्वुल्—अक] भेदन करनेवाला। भेदने या छेदने वाला। २. लोगों में भेदभाव या लड़ाई-झगड़ा करनेवाला। ३. आँतों को भेदकर उनमें का मल निकालनेवाला। दस्तावर। रेचक। ४. छपाई, लिखाई आदि में वह सांकेतिक चिन्ह जो किसी अक्षर या वर्ण का विशिष्ट उच्चारण बताने के लिए उसके ऊपर या नीचे लगाया जाता है। जैसे—अरबी के गैन वर्ण का उच्चारण बताने के लिए ग़ में की बिन्दी। पुं०=भदज्ञ।
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भेदकर  : वि०=भेदक।
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भेदकातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० भेदक-अतिशयोक्ति] साहित्य में अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें उपमेय और उसके किये हुए वर्णन में भेद दिखाई देने पर उसे ‘और ही कुछ’ कहकर अभेद सूचित किया जाता है।
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भेदज्ञ  : वि० [सं० भेद√ज्ञा (जानना)+क] भेद या रहस्य जाननेवाला।
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भेदड़ी  : स्त्री० [देश०] बसौंधी। रबड़ी।
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भेदता  : स्त्री० [सं० भेद] १. वह स्थिति जिसमें भेद दिखाई देता हो। उदा०—सीता घाम भेद खेद सहित लखाते सबै भूले भाव भेदत निषेधन विधान के।—रत्नाकर। २. भेद।
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भेददर्शी (र्शिन)  : वि० [सं० भेद√दृश् (देखना)+णिनि, उप० स०] वि० दे० ‘द्वैतवादी’।
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भेदन  : पुं० [सं०√भिद्+ल्युट्—अन] [वि० भेदनीय, भेद्य] १. भेदने की क्रिया। छेदना। बेधना। विदीर्ण करना। २. भेद लेने की क्रिया या भाव। वि० [√भिद्+ल्यु—अन] १. भेदने या छेदनेवाला। २. दस्त लाने वाला। रोचक। पुं० अमलबेंत। २. हींग। ३. सूअर।
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भेदना  : स० [सं० भेदन] १. भेद करना। छेदना। बेधना। २. किसी के मन का आशय जानने के लिए उसकी ओर गम्भीर दृष्टि से देखना। उदा०—ता पाछैं जुर्जोधन भेदों सिर दिसीतैं मन गर्व घरी।—सूर।
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भेदित  : पुं० [सं०√भिद्+णिच्+क्त] तंत्र के अनुसार एक प्रकार का मंत्र जो निंदित समझा जाता है। भू० कृ० भेदा हुआ। छेदा हुआ।
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भेदिनी  : पुं० [सं० भेदिन्+ङीप्] षट-चक्र को भेदन करने की शक्ति या सिद्धि। (तंत्र)
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भेदिया  : पुं० [सं० भेद+हिं० इया (प्रत्य०)] १. वह जो कोई भेद या रहस्य जानता हो। २. जिसने किसी का कोई भेद जान लिया हो। ३. दूत। गुप्तचर।
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भेदिर  : पुं० [सं० भिदुर+पृषो०] वज्र।
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भेदी (दिन्)  : वि० [सं० भिद्+णिनि] भेदन करनेवाला। फोड़नेवाला। भेदक। पुं० अमलबेंत। पुं० भेदिया। जैसे—घर का भेदी लंका दाहे। (कहा०)
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भेदीकरण  : पुं० [सं० भेद+च्वि, ईत्व√कृ+ल्युट्—अन] १. भेदने की क्रिया या भाव। २. भेद-भाव या विभाग करने की क्रिया या भाव।
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भेदुर  : पुं० [सं० भिदुर, पृषो० सिद्धि] वज्र।
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भेद्य  : वि० सं० [सं० भिद् (भेदन करना)+ण्यत्, गुण] जो भेदा या छेदा जा सके। भेदे जाने के योग्य। (परमिएबुल) पुं० वैद्यक में शास्त्रों आदि की सहायता से किसी पीड़ित अंग या फोड़े दि का भेदन करने की क्रिया। चीड़-फाड़।
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भेन  : स्त्री०=भैन (बहन)।
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भेना  : स० [हिं० भिगोना] भिगोना। तर करना।
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भेभभ  : पुं० [देश०] एक तरह का पतला पहाड़ी बाँस जिससे हुक्कों की निगालियाँ बनाई जाती हैं।
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भेर  : स्त्री०=भेरी।
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भेरवा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की खजूर (वृक्ष और फल)।
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भेरा  : पुं० [देश०] मध्य या दक्षिण बारत में होनेवाला मझोले आकार का एक प्रकार का पेड़। भीरा। पुं०=बेड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भेरि  : स्त्री०=भेरी।
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भेरिकार  : पुं० [सं०√भी+क्रुन्, भेरि√कृ+अण्] भेरी बजानेवाला।
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भेरी  : स्त्री० [सं० भेरि+ङीष्] प्राचीन काल में रण-क्षेत्र में बजाया जानेवाला एक प्रकार का बड़ा ढोल।
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भेरीकार  : पुं० [पुं० भेरी√कृ+अण्] [स्त्री० भेरिकारी] भेरी बजानेवाला।
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भेरुंड  : वि० [सं०] भयानक। पुं० १. गर्भ-धारण। २. एक प्रकार का पक्षी। ३. हिंस्र जंति (भेड़िया, सियार आदि)।
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भेल  : वि० [सं०] १. कायर। डरपोक। भीरु। २. चंचल। ३. मूर्ख। पुं० एक प्राचीन ऋषि।
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भेलना  : स० [सं० भेलन] १. तोड़ना-फोड़ना। २. अस्त-व्यस्त करना। ३. लूटना। (राज०)
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भेला  : पुं० [हिं० भेंट या सं० भेलन ?] १. भेंट। मुलाकात। उदा०—पुरि भेला मिलि किऔ प्रवेश।—प्रिथीराज। २. मुठभेड़ भिडंत। ३. एकत्र होने की क्रिया या भाव। उदा०—कर चुका हूँ हँस रहा यह देख कोई नहीं भेला।—निराला। पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० भेली] बड़ा गोला या तिंड। जैसे—गुड़ का भेला। पुं०=भिलावाँ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भेली  : स्त्री० [?] १. गुड़ का छोटा टुकड़ा या पिंड। २. गुड़। (क्व०) ३. किसी चीज का डलाया पिंड।
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भेव  : पुं० [सं० भेद] १. मर्म की बात। भेद। रहस्य। २. तरह प्रकार। ३. पारी। बारी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भेंवना  : स०=भिगोना।
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भेवना  : स०=भिगोना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भेश  : पुं०=वेश।
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भेष  : पुं०=भेस।
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भेषज  : पुं० [सं० भिषज्+अण्] १. रोगी को निरोग तथा स्वस्थ करना या बनाना। २. औषधि। औषध। दवा। ३. जल। पानी। ४. सुख। ५. विष्णु का एक नाम।
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भेषज-करण  : पुं० [ष० त०] दवा तैयार करना। औषध बनाना।
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भेषज-संग्रह  : पुं० [सं०] किसी देश या राज्य के द्वारा प्रकाशित वह आधिकारिक ग्रंथ जिसमें प्रामाणिक और मान्य औषधों की तालिका और उनके गुण, धर्मों, मात्राओं आदि का विवेचन हो। (फारमाकोपिआ)
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भेषजांग  : पुं० [सं० भेजन-अंग, ष० त०] वह पदार्थ जो दवा के साथ अथवा जिससे दवा मिलाकर खाया जाता है और इसलिए जो दवा का अंग माना जाता है।
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भेषजागार  : पुं० [सं० भेषज-आगार, ष० त०] औषधालय।
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भेषना  : स० [हिं० भेष] १. भेस बनाना। स्वांग बनाना। २. कपड़े आदि धारण करना। पहनना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भेस  : पुं० [सं० वेष] १. किसी व्यक्ति का वह रूप-अंग जो उसके साधारण पहनावे आदि से प्रकट होता है। क्रि० प्र०—बदलना।—बनाना। २. वह बनावटी रूप-रंग और नकली पहनावा आदि जो अपना वास्तविक रूप या परिचय छिपाने के लिए धारण किया जाय। कृत्रिम रूप और वस्त्र आदि। क्रि० प्र०—धरना। मुहा०—भेस बदलना या बनाना=किसी दूसरे को ऐसा रंग या रूप-रंग धारण करना और पहनावा पहनना जिसे देखकर लोग सहसा उस व्यक्ति को पहचान न सकें, और वही व्यक्ति समझे जिसका भेस उसने बना रखा हो। ३. योगियों, साधु-संन्यासियों आदि का वह रूप-रंग और पहनावा जो उसके विशिष्ट संप्रदाय का सूचक होता है। उदा०—कौन से भेस में, कौन गुरु के चेला।—कबीर।
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भेसज  : पुं०=भेषज। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भेसना  : स० [सं० हिं० भेष] १. वस्त्रादि पहनना। २. किसी का भेस धारण करना।
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भै  : पुं०=भय।
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भैकर  : वि० [स्त्री० भैकरी]=भयकर (भयंकर)।
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भैक्ष  : पुं० [सं० भिक्षा+अण्, वृद्धि] १. भिक्षा माँगने की क्रिया या भाव। भिखमंगी। २. वह चीज जो भिक्षा माँगने पर मिले। भीख।
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भैक्ष-चर्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] चारों ओर घूम-घूमकर भिक्षा माँगने की क्रिया।
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भैक्ष-वृत्ति  : स्त्री० [तृ० त०]=भैक्ष-चर्या।
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भैक्षव  : वि० [सं० भिक्षु+अञ्,] भिक्षु-संबंधी। पुं० भिक्षुओं का समूह।
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भैक्षाकुल  : पुं० [सं० भैक्ष-आकुल, तृ० त०] वह स्थान जहाँ बहुत से लोगों को भिक्षा मिलती हो। दानशाला।
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भैक्षान्न  : पुं० [सं० भैय-अन्न, कर्म० स०] भीख में मिला हुआ अन्न।
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भैक्षाशी (शिन्)  : वि० [सं० भैक्ष√अश् (खाना)+णिनि] भिक्षान्न खानेवाली। पुं० भिक्षुक। भिखमंगा।
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भैक्षाहार  : पुं० [सं० भैक्ष-आहार, ब० स०] भिक्षुक।
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भैक्षुक  : पुं० [सं० भिक्षुक+अण्] १. भिक्षुकों का दल। २. संन्यास।
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भैक्ष्य  : पुं० [सं० भिक्षा+ष्यञ्] भिक्षा। भीख।
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भैक्ष्य-चरण  : पुं०=भिक्ष-चर्या।
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भैक्ष्य-जीविका  : स्त्री० [तृ० त०] भिक्षा पर जीवन बिताना।
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भैक्ष्य-वृत्ति  : स्त्री० [तृ० त०] भिक्षा-वृत्ति।
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भैक्ष्य-शुद्धि  : स्त्री० [स्त्री० मध्य० स०] भिक्षा माँगने और ग्रहण करने के दोष से मुक्त होने के लिए की जानेवाली शुद्धि। (जैन)
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भैक्ष्यवर्या  : स्त्री०=भिक्षु-चर्या।
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भैचक, भैचक्क  : वि०=भौचक।
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भैजन  : वि० [हिं० भै=भय+जनक] भय उत्पन्न करनेवाला। भयप्रद। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भैडक  : वि० [सं०] भेड़-संबंधी। भेड़ों का।
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भैदा  : वि० [सं० भय+दा (प्रत्य०)] भयप्रद। डरावना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भैन  : स्त्री० [हिं० बहिन] बहन। भगिनी।
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भैना  : स्त्री० [हिं० बहन] बहन के लिए सम्बोधन। स्त्री० [?] गंगई नामक पक्षी। अ० १.=भीनना। २. भींगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भैनी  : स्त्री० [हिं० बहन] बहन। भगिनी।
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भैने  : पुं० [सं० भागिनेय] बहन का पुत्र। भानजा।
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भैम  : वि० [सं० भीम+अण्] भीम-संबंधी। भीम का।
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भैम  : स्त्री० [सं० भैम+ङीप्] १. माघ शुक्ल एकादशी। भीमसेन एकादशी। २. दमयंती जो राजा भीम की कन्या थी।
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भैयंस  : पुं० [हिं० भाई+अंश] संपत्ति में भाइयों का हिस्सा। भाइयों का अंश।
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भैया  : पुं० [हिं० भाई] १. भाई। भ्राता। २. बराबरवालों का छोटे के लिए सम्बोधन का शब्द। ३. उत्तरी भारत विशेषतः उत्तर प्रदेश का वह निवासी जो पश्चिम भारत में रईसों के यहाँ दरबान का काम करता हो। (बम्बई) पुं० [?] नाव की पट्टी या तख्ती।
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भैयाचारा  : पुं०=भाईचारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भैयाचारी  : स्त्री०=भाईचारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भैयादूज  : स्त्री०=भाई-दूज।
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भैरव  : वि० [सं० भीरु+अण्] १. जिसका रव अर्थात् शब्द भीषण हो। ३. जो देखने में भयंकर हो। भयानक। ३. घोर विनाश करनेवाला। ४. बहुत अधिक उग्र, तीव्र या विकट। उदा०—पंचभूत का भैरव मिश्रण।—पंत। पुं० [सं०] १. महादेव। शिव। २. शिव के एक प्रकार के गण जो उन्हीं के अवतार माने माने जाते हैं। ३. साहित्य में भयानक नामक रस। ४. संगीत में संपूर्ण जाति का एक राग जो शरद् ऋतु में प्रातःकाल गाया जाता है। ५. ताल के सात मुख्य भेदों में से एक। ६. कपाली। ७. ऐसी तीव्र मदिरा जिसे पीते ही आदमी वमन करने लगे। (तांत्रिक) ८. एक प्राचीन नद।
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भैरव-झोली  : स्त्री० [सं० भैरव+हिं० झोली] एक प्रकार की लंबी झोली जो प्रायः साधु-संन्यासी अपने पास रखते हैं।
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भैरव-तर्जक  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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भैरव-बहार  : पुं० [सं० भैरव+हिं० बहार] वसंत-ऋतु में प्रातः गाया जानेवाला एक संकर राग जो भैरव और बहाल के मेल से बनता है।
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भैरव-मस्तक  : पुं० [सं०] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक।
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भैरवांजन  : पुं० [सं० भैरव-अंजन, मध्य० स०] आँखों में लगाने का एक प्रकार का अंजन। (वैद्यक)
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भैरवी  : स्त्री० [सं० भैरव+ङीप्] १. तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार की देवी जो महाविद्या की मूर्ति मानी जाती है। २. पार्वती। ३. पुराणानुसार एक नदी। ४. संगीत में एक रागिनी जो भैरव राग की भार्या कही गई है और जो शरद् ऋतु में प्रातःकाल के समय गाई जाती है। इसका स्वरग्राम इस प्रकार है
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भैरवी यातना  : स्त्री० [सं० भैरवी+यातना व्यस्त पद] वह कष्ट जो प्राणियों को मरते समय भैरव देते हैं।
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भैरवी-चक्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] तांत्रिकों का वह मंडल जो देवी के पूजन के लिए एकत्र होता है। मद्यपों और अनाचारियों आदि का वर्ग या समूह।
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भैरवी-याचना  : स्त्री० दे० ‘भैरवी यातना’।
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भैरवेश  : पुं० [सं० भैरव-ईश, ष० त०] शिव।
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भैरा  : पुं०=बहेड़ा।
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भैरी  : पुं०=बहरी (पक्षी)।
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भैरु  : पुं०=भैरव।
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भैरो  : पुं०=भैरव।
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भैवा  : पुं० [हिं० भैया] भाई अथवा बराबरवालो के लिए संबोधन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भैवाद  : पुं० [हिं० भाई+आद (प्रत्य०)] १. कुल या परिवार के लोग जिनसे भाइयों का सा संबंध हो। २. एक ही वंश या परिवार के लोग। ३. भाई-चारा।
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भैषज  : पुं० [सं० भेषज+अण्] १. औषध। दवा। २. वैद्य के शिष्य और अनुचर। ३. लवा पक्षी।
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भैषजिकी  : स्त्री० [सं० भैषज से] औषध आदि बनाने की कला, विद्या या शास्त्र। (फार्मेसी)
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भैषज्य  : पुं० [सं० भेषज+ञ्य] दवा। औषध।
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भैष्ज्यज्ञ  : पुं० [सं०] वह जो भैषज-शास्त्र का ज्ञाता हो। ओषधियों आदि की सहायता से अच्छी चिकित्सा करनेवाला चिकित्सक। काय-चिकित्सक।
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भैष्मकी  : स्त्री० [सं० भीष्मक+इञ्—डीप्] भीष्मक की कन्या रुक्मणी।
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भैंस  : स्त्री० [सं० महिष] १. गाय की तरह का एक प्रसिद्ध पालतू मादा चौपाया जिसका दूध दूहा जाता है। मुहा०—भैंस काटना=गरमी या आतशक नाम का रोग होना। उपदंश होना। (बाजारू) २. एक प्रकार की बड़ी मछली जो पंजाब, बंगाल तथा दक्षिण अफ्रीका की नदियों में पाई जाती है। इसका माँस खामे में स्वादिष्ट होता है, परन्तु इसमें हड्डियाँ अधिक होती हैं। ३. एक प्रकार की घास।
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भैंसवाली  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की बेल जिसकी पत्तियाँ पाँच से आठ इंच तक लम्बी होती हैं।
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भैंसा  : पुं० [हिं० भैंस] १. भैंस का नर। २. लाक्षणिक अर्थ में, हट्टा-कट्टा व्यक्ति।
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भैंसाव  : पुं० [हिं० भैंस+आव (प्रत्य०)] भैंस और भैंसे का जोड़ा खाना। भैंसे से भैंस का गर्भ धारण करना।
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भैंसासुर  : पुं०=महिषासुर।
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भैंसिया गूगल  : पुं० [हिं० भैंसिया+गूगल] एक प्रकार का गूगल जिसका व्यवहार ओषधि के रूप में होता है।
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भैंसिया लहसुन  : पुं० [हिं० भैंसिया+लहसुन] सामुद्रिक में एक प्रकार लाल दाग या निशान जो प्रायः गाल, गरदन आदि पर होता है। लच्छन।
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भैंसौरी  : स्त्री० [हिं० भैंसा+औरी (प्रत्य०)] भैंस का चमड़ा।
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भैहा  : पुं० [हिं० भय+हा (प्रत्य०)] १. भयभीत। डरा हुआ। २. जो भूत-प्रेत आदि से डरकर उनके आवेश में आ गया हो। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भों  : स्त्री० [अनु०] १. भों भों का शब्द। कुत्तों के भोंकने का शब्द।
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भो  : वि० [हिं० भया] भया। हुआ। अव्य० [सं० भोस्] हे। हो। (सम्बोधन) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भों भों  : पुं० [अनु०] भूँकने की आवाज।
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भोंकना  : स० [भों भों] १. किसी नरम पदार्थ में कोई कड़ी तथा नुकीली चीज एकबारगी घँसाना। २. नुकीला अस्त्र किसी में धँसाना। अ०=भूकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भोकस  : पुं० [सं० पुल्कस] दानव। राक्षस। वि०=भुक्खड़। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भोकार  : स्त्री० [भो से अनु०+कार (प्रत्य०)] जोर जोर से रोना। क्रि० प्र०—फाड़ना।
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भोक्तव्य  : वि० [वि०√ भुज् (खाना, उपभोग करना)+तव्य] १. जो भोगा जाने को हो। २. जो भोगा जा सके।
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भोक्ता (क्तृ)  : वि० [सं०√भुज् (खाना)+तृच्] १. भोजन करनेवाला। २. भोग अर्थात् उपभोग या उपयोग करनेवाला। ३. सुखों को भोग करनेवाला। पुं० १. विष्णु। २. स्त्री का पति। स्वामी। ३. एक प्रकार के प्रेत।
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भोक्तृ-शक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] बुद्धि।
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भोक्तृव्य  : पुं० [सं० भोक्तृ+त्व] भोक्ता होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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भोग  : पुं० [सं०+भुज (उपभोग करना)+घञ्] १. भोगने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. सुख-दुख आदि का अनुभव करते हुए उन्हें अपने मन और शरीर पर प्राप्त या सहन करना। ३. इच्छाओं की तृप्ति, प्रसन्नता, मनस्तोष आदि के विचार से अभीष्ट, लाभदायक या सुखद वस्तु मनमाने ढंग से अपने उपयोग में लाने की क्रिया या भाव। जैसे—सम्पत्ति का भोग, सांसारिक सुखों का भोग। ४. किसी पदार्थ का किया जानेवाला उपयोग या व्यवहार। किसी चीज का काम में लाया जाना। ५. भोजन करना। खाना। ६. देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने उनके काल्पनिक उपभोग के उद्देश्य से रखे जानेवाले खाद्य पदार्थ। नैवेद्य। मुहा०—भोग लगाना=(क) देवताओं की मूर्तियों के सामने खाद्य पदार्थ यह समझकर रखना कि उसका आस्वादन और उपभोग करेंगे। स्वस्थ भोजन करना। खाना। ७. व्यावहारिक क्षेत्र में वह स्थिति जिसमें कोई भूमि या संपत्ति अपने अधिकार में रखकर उससे पूरा लाभ उठाया जाता है। भुक्ति। कब्जा। (पज़ेशन) ८. पुरुष और स्त्री में होनेवाला मैथुन। संभोग। ९. पाप, पुण्य आदि का वह फल जो भोगा अर्थात् प्राप्त या सहन किया जाता है। प्रारब्ध। १॰. किसी काम या बात से प्राप्त होनेवाला फल। ११. किसी की दुर्दशाओं, दुष्कर्मों आदि का वह उल्लेख जो लड़ाई-झगड़े के समय गाली-गलौज के साथ किया जाता है। जैसे—अब अगर किसीने मेरा नाम लिया तो मैं सैकड़ों भोग सुनाऊँगी। (स्त्रियाँ) १२. ज्योतिष में, सूर्य आदि ग्रहों का मीन, मेष आदि राशियों में अवस्थित रहने का काल या समय। जैसे—अभी इस राशि में बुध का भोग एक महीने और रहेगा। १३. सुख। १४. दुख। १५. ऐसी वस्तु जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त हो। १६. दावत। भोज। १७. फायदा। लाभ। १८. आमदनी। आय। १९. धन-सम्पत्ति। २॰. वह धन जो वेश्या को उसके साथ संभोग करने के बदले में दिया जाता है। २१. साँप का फन। २२. साँप। २३. देह। शरीर। २४. पंक्तिबद्ध। सेना। २५. किराया। भाड़ा। २६. घर। मकान। २७. पालन-पोषण। २८. परिणाम। मान। २९. पुर। नगर। ३॰. एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना।
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भोग लियाल  : स्त्री० [?] कटारी नाम का शस्त्र। (डिं०)
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भोग-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. उतना समय जितने में कोई घटना या बात आदि से अन्त तक घटित हो। (ड्यूरेशन) २. कष्ट, रोग, सुख आदि भोग जाने का पूरा समय।
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भोग-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] अन्तःपुर। जनानखाना।
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भोग-चिन्तामणि  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भोग-देह  : पुं० [सं० मध्य० स०] पुराणानुसार वह सूक्ष्म शरीर जो मनुष्य को मारने के उपरांत स्वर्ग या नरक में जाकर सुख या दुःख भोगने के लिए करना पड़ता है।
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भोग-धर  : पुं० [सं० ष० त०] सर्प। साँप।
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भोग-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो पालन-पोषण करता हो। पालक।
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भोग-पति  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में किसी क्षेत्र विशेषतः किसी जनपद या प्रदेश का शासक।
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भोग-पत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. प्राचीन भारत में वह पत्र जो राजा को उपहार भेजने के संबंध में लिखा जाता था। (शुक्र नीति) २. वह पत्र जिसके अनुसार किसी को कोई चीज या सम्पत्ति भोगने का अधिकार दिया जाय।
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भोग-पाल  : पुं० [सं० भोग√पाल् (पालन करना)+अण्, उप० स०] १. भोगपति। २. साईस।
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भोग-पिशाचिका  : स्त्री० [सं० स० त०] भूख।
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भोग-बंधक  : पुं० [सं० भोग्य+हिं० बंधक] बंधक या रेहन का वह प्रकार जिसमें रेहन रखी जानेवाली चीज के भोग का अधिकार भी महाजन को रहता है। (मार्टगेज विद पोज़ेशन)
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भोग-भूमि  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] जैनों के अनुसार वह लोक जिसमें किसी प्रकार का कर्ण नहीं करना पड़ता है और सुख भोग की सब आवश्यताएँ कल्पवृक्ष के द्वारा पूरी होती हैं।
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भोग-भृतक  : पुं० [सं० मध्य० स०] केवल भोजन, वस्त्र लेकर काम करनेवाला नौकर।
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भोग-लदाई  : स्त्री० [हिं० भोग+लदाई ?] खेत में कपास का सबसे बड़ा पौधा जिसके आसपास बैठकर देहाती लोग उसकी पूजा करते हैं।
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भोग-लाभ  : पुं० [सं० ष० त०] पहले दिये हुए अन्न के बदले में फसल तैयार होने पर ब्याज के रूप में मिलनेवाला कुछ अधिक अन्न।
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भोग-विलास  : पुं० [सं० द्व० स०] सब प्रकार के सुख भोगते हुए किया जानेवाला अमोद-प्रमोद। सुख-चैन की वह स्थिति जिसमें मनुष्य वासनाओं की तृप्ति में लिप्त रहता हो।
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भोग-वेतन  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह धन जो किसी धरोहर रखी हुई वस्तु के व्यवहार के बदले में उसके स्वामी को दिया जाय।
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भोग-व्यूह  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह व्यूह जिसमें सैनिक एक दूसरे के पीछे खड़े किये हों। (कौ०)
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भोग-शरीर  : पुं०=भोगा-देह।
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भोग-सामंत  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भोगना  : स० [सं० भोग+हिं० ना (प्रत्य०)] १. किसी चीज़ का भोग करना। उपभोग या प्रयोग करना। २. किसी चीज या बात के अच्छे-बुरे फल वहन या सहन करना। ३. कष्ट सहना। विशेष—भोगना, झेलना और सहना का अन्तर जानने के लिए दे० ‘सहना’ का विशेष। ४. स्त्री के साथ प्रसंग या संभोग करना।
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भोंगरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की बेल या लता।
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भोगली  : स्त्री० [देश०] १. छोटी नली। पुपली। २. नाक में पहनने का लौंग। ३. कान में पहनने की तरकी। ४. नाक (या लौंग) में पहनने के लौंग (या फूल) में पीछे की ओर से बंद करने के लिए डाली जानेवाली लम्बी पतली और पोली कील।
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भोगवती  : स्त्री० [सं० भोग+मतुप्,म—व,+ङीन्] १. पाताल गंगा। २. गंगा। ३. पुराणानुसार एक प्राचीन तीर्थ। ४. एक प्राचीन नदी। ५. नागों के रहने की नाम की पुरी। ६. कार्तिकेय की एक मातृका।
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भोगवना  : स०=भोगना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भोगवसा  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भोगवाना  : स० [हिं० भोगना का प्रे० रूप] भोगने में दूसरे को प्रवृत्त करना। भोग करना।
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भोगवान् (वत्)  : पुं० [सं० भोग+मतुप्, म—व] १. साँप। २. अभिनय। नाट्य। ३. गीत। गाना।
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भोगांतराय  : पुं० [सं० भोग-अंतराय, सुप्सुपा स०] वह अंतराय जिसका उदय होने से मनुष्य के भोगों की प्राप्ति में विघ्न पड़ता है। (जैन)
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भोगाधिकार  : पुं० [सं० भोग अधिकार, मध्य० स०] वह अधिकार जो किसी दूसरे की वस्तु का कुछ समय भोग करते रहते के उपरांत प्राप्त होता है। (ऑकुपैन्सी राइट)
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भोगाना  : स० [हिं० भोगना का प्रे०] भोगने में दूसरे को प्रवृत्त करना। भोग कराना।
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भोंगाल  : पुं० [अं० बिगुल] एक प्रकार का बड़ा भोंपा।
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भोगावती  : स्त्री०=भोगवती।
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भोगांश  : पुं० [सं०]=देशांतर (भूगोल का)।
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भोगिआर  : वि० [हि० भोगना] जो भोगे जाने के योग्य हो। फलतः आकर्षक या सुन्दर। (पूरब)
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भोगिक  : पुं० [सं० भोग+ठन्—इक] १. गाँव का मुखिया। २. साईस।
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भोगिन  : स्त्री०=भोगिनी।
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भोगिनी  : स्त्री० [सं० भोग+इनि,+ङीप्] १. राजा की उपपत्नी। २. रखेली स्त्री। ३. नागिन।
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भोगी (गिन्)  : वि० [सं० भोग-इनि] १. भोगनेवाला। जो भोगता हो। २. सुखी। ३. इंद्रियों के सुख-भोग की इच्छा रखनेवाला विषयासक्त। ४. विषयी। व्यसनी। ५. खानेवाला। पुं० १. वह जो गृहस्थाश्रम में रहकर सब प्रकार का सुख-दुःख भोगता हो। गृहस्थ। २. राजा। ३. जमींदार। ४. नाई। हज्जाम। ५. साँप। ६. शेषनाग। (डिं०) ७. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भोगींद्र  : पुं० [सं० भोगिन-इन्द्र, स० त०] पतंजलि का एक नाम।
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भोगीन  : पुं० [सं० भोग+ख—ईन]=भोगी।
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भोगीभुक्  : पु० [सं० भोगिभुक्] नेवला।
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भोगीश्वरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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भोगेंद्र  : पुं० [सं० भोग-इन्द्र, स० त०] १. अधिक मात्रा में अच्छी चीजें खानेवाला। २. अच्छी तरह सुखों का भोग करनेवाला।
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भोग्य  : वि० [सं० भुज् (उपभोग करना)+ण्यत्] १. (पदार्थ या संपत्ति) जिसका भोग करना उचित हो, किया जाने को हो अथवा किया जा रहा हो। २. जो भोगे जाने अर्थात् झेले या सहे जाने को हो। पुं० १. धन। २. धान्य। ३. रेहन का भोगबंधक का प्रकार।
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भोग्य भूमि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. वह स्थान जहाँ आनन्द केलि की जाती हो। २. मर्त्य-लोक, जिसमें जीव को अपने किये हुए कर्मों का फल भोगना पड़ता है।
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भोग्या  : वि० [सं० भोग्य+टाप्] भोग्य का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० वेश्या।
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भोंचाल  : पुं०=भूकंप।
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भोज  : पुं० [सं० भोज+अण् अण्-लुक्] १. भोजकट नामक देश जिसे आज-कल भोजपुर कहते हैं। २. चन्द्रवंशी क्षत्रियों का एक कुल या शाखा। ३. महाभारत के अनुसार राजा हुह्य के एक पुत्र का नाम। ४. पुराणानुसार वसुदेव का एक पुत्र। ५. श्रीकृष्ण का सखा, एक ग्वाल। ६. विदर्भ के एक प्राचीन राजा। ७. मालवे के एक प्रसिद्ध राजा जिन्होंने संस्कृत भाषा में कई ग्रंथ लिखे थे। इनका जन्म-काल १॰वीं शताब्दी है। पुं० [सं० भोजन] १. किसी विशिष्ट अवसर पर या उपलक्ष में निमंत्रित व्यक्तियों को एक साथ बैठाकर कराया जानेवाला भोजन। २. खाने-पीने की चीजें। खाद्य-पदार्थ।
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भोज-पत्र  : पुं० [सं० भूर्जपत्र] १. ऊँचे पर्वतों पर होनेवाला मझोले आकार का एक वृक्ष। २. उक्त वृक्ष की छाल जो प्राचीन काल में ग्रंथ और लेख आदि लिखने के काम आती थी। छाल।
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भोज-परीक्षक  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो इस बात की परीक्षा करता हो कि भोजन में विष आदि तो नहीं मिला है।
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भोज-भात  : पुं० [हिं०] बिरदारी आदि के लोगों का एक साथ बैठकर भोजन करना। भोज।
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भोज-विद्या  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] इंद्रजाल। बाजीगरी।
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भोजक  : वि० [सं०√भुज् (खाना भोग करना)+ण्वुल्—अक] १. भोग करनेवाला। भोगी। ३. भोजन करने या खानेवाला। पुं० ऐयाश। विलासी।
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भोजकट  : पुं० [सं०] भोजपुर।
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भोजन  : पुं० [सं०√भुज्+ल्युट्—अन्] १. भक्षण करना। खाना। २. भूख मिटाने के उद्देश्य से प्रायः भर पेट खाये जानेवाले खाद्य पदार्थ। खाने की सामग्री। ३. विशेष परिस्थिति या अवस्था में खाई जानेवाली कुछ विशिष्ट प्रकार की वस्तुएँ। (डायर)
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भोजन नली  : स्त्री०=भोजन नलिका।
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भोजन शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. रसोई-घर। पाकशाला। २. भोजनालय।
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भोजन-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ बैठकर भोजन किया जाता है।
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भोजन-नलिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] गले और छाती के अन्दर की वह नली जिसमें से होकर खाई हुई चीज़ें नीचे उतरती और पक्वाशय में पहुँचती हैं। (फूड पाइप)
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भोजन-भट्ट  : वि० [सं० स० त०] बहुत अधिक खानेवाला। पेटू।
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भोजनखानी  : स्त्री० [सं० भोजन हिं० खानी] १. पाकशाला। रसोईघर। २. भोजनालय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भोजनग्राही (हिन्)  : वि० [सं० बोजन√ग्रह+णिनि, उप० स०] भोजन ग्रहण करनेवाला। २. जो किसी विशेष अवस्था में कहीं से मिलने वाला भोजन ग्रहण करता हो। (डायरेक्ट) जैसे—इस अस्पताल में २॰ भोजनग्राही रोगी हैं।
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भोजनाच्छादन  : पुं० [सं० भोजन-अच्छादन, द्व० स०] खाने और पहनने की सामग्री। अन्न-वस्त्र। खाना-कपड़ा।
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भोजनालय  : पुं० [सं० ष० त०] १. पाकशाला। रसोई-घर। २. वह स्थान जहाँ मूल्य लेकर पका हुआ भोजन परोसकर खिलाया जाता है। (रेस्टोरेण्ट)
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भोजनीय  : वि० [सं०√भुज् (खाना)+अनीयर] जो खाया जा सके। खाये जाने के योग्य। खाद्य।
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भोजनोत्तर  : वि० [सं० भोजन-उत्तर, ष० त०] जो भोजन के बाद खाया जाता हो। (औषध आदि)। क्रि० वि० भोजन करने के उपरान्त। खाने के बाद।
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भोजपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. कंसराज। २. राजा भोज।
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भोजपुर  : पुं० [वि० भोजपुरिया, भोजपुरी] बिहार के शाहाबाद जिले में स्थित एक गाँव।
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भोजपुरिया  : पुं० [हिं० भोजपुर+इया (प्रत्य०)] भोजपुर का रहनेवाला। वि० भोजपुर में रहने या होनेवाला।
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भोजपुरी  : वि० [हिं० भोजपुर] भोजपुर-संबंधी। जैसे—भोजपुरी भाषा। पुं० भोजपुर का निवासी। स्त्री० पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकतर भागों में बोली जानेवाली बोली, जिसकी उत्पत्ति मागधी अपभ्रंश से हुई है।
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भोजयिता (तृ०)  : वि० [सं०√भुज्+णिच्+तृच्] खिलानेवाला।
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भोजराज  : पुं०=भोज (राजा)।
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भोजी  : पुं० [सं० भोजिन्] भोजन करने या खानेवाला। जैसे—माँसभोजी।
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भोजूँ  : पुं०=भोजन। वि० [सं० भोज्य] काम में आने योग्य। पद—काजू भोजू=काम चलाऊ। वि० १. बोजन करनेवाला। २. भोगनेवाला। ३. भोगा जानेवाला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भोजेश  : पुं० [सं० भोज-ईश, ष० त०] १. भोजराज। २. कंस।
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भोज्य  : वि० [सं०√भुज्+ण्यत्] खाये जाने के योग्य। जो खाया जा सके। खाद्य। पुं० वे पदार्थ जो खाये जाते हैं। खाद्य पदार्थ।
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भोट  : पुं० [सं० भोटग] १. भूटान देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. एक प्रकार का बड़ा और मोटा पत्थर जो प्रायः २।। इंच मोटा, ५ फुट लम्बा और १।। फुट चौड़ा होता है।
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भोटिया  : वि० [हि० भोट+इया (प्रत्य०)] भूटान देश का। पुं० भोट या भूटान देश का निवासी। स्त्री० भूटान देश की भाषा।
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भोटिया बादाम  : पुं० [हिं० भोटिया+फा० बादाम] १. आलूबुखार। २. मूँगफली।
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भोटी  : वि० [हिं० भोट+ई (प्रत्य०)] भूटान देश का। पुं० भोट।
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भोंडर  : पुं०=भोडर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भोडर  : पुं० [देश०] १. अभ्रक। अबरक। २. अबरक का चूरा। बुक्का। ३. एक प्रकार का मुश्क बिलाव।
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भोडल  : पुं० दे० ‘अबरक’।
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भोडलय  : पुं० [पुं० भू-मंडल] नक्षत्र-समूह। (डिं०)
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भोंड़ा  : वि० [हिं० भद्दा या भों से अनु०] [स्त्री० भोंडी] बहुत ही भद्दी और विकृत आकृतिवाला। (क्लम्जी) २. जिसमें शालीनता, शिष्टता आदि का नितान्त अभाव हो। ३. जो दोषी और लज्जित होने के कारण सिर न उठा सके। उदा०—भाँवड़े भोंडी करी भानिनि में भोरी करी।—देव। पुं० [देश०] एक प्रकार की घास और उसके दाने जिसे पशु खाते हैं।
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भोडागार  : पुं० [सं० भांडागार] भंडार। (डिं०)
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भोंडापन  : पुं० [हिं० भोंडा+पन (प्रत्य०)] १. ‘भोंडा’ होने की अवस्था या भाव। २. भद्दापन।
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भोंडी  : स्त्री० [हिं० भोंड़ा] काले रंग की भेड़ जिसके छाती पर के बाल सफेद हों।
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भोण  : पुं०=भवन। (डिं०)
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भोत  : वि०=बहुत।
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भोंतण  : वि०=मथुरा। (कुछ धारवाला)।
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भोंतला  : वि०=भुथरा।
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भोतिक विज्ञान  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह शास्त्र जिसमें भूतों तथा तत्त्वों का विवेचन हो। २. वह विज्ञान जिसमें अजैव विशेषतः ताप, प्रकाश, ध्वनि आदि पदार्थों का वैज्ञानिक विवेचन करते हैं। (फ़ीज़िक्स)
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भोथार  : पुं० [?] एक प्रकार का घोड़ा।
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भोथार (रा)  : वि०=भुथरा।
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भोंदू  : वि० [हिं० बुद्धू] बहुत ही सीधा-सादा और बेवकूफ़।
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भोना  : अ० [हिं० भीनना] १. किसी तेल का किसी पदार्थ में पूरी तरह से व्याप्त या संचारित होना। भीनना। २. किसी काम या बात में लिप्त या लीन होना। ३. किसी पर अनुरक्त या आसक्त होना। उदा०—नारी चितवन नर रहै भीना।—सूर। संयो० क्रि०—आना।—पड़ना। ४. युक्त होना। मिलना। ५. धोखे में आना। स० १. भिगोना। २. लिप्त करना। ३. अनुरक्त करना। ४. मिलाना। ५. धोखे में डालना।
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भोपा  : वि०, पुं०=भोंपा।
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भोंपू  : पुं० [अनु० भों+पू (प्रत्य०)] १. फूँककर बजाया जानेवाला एक तरह का बाजा। २. वह ऊँची तथा लंबी सीटी जो समय सूचित करने के लिए कल-कारखाने बजाते हैं। ३. मोटरों आदि में शब्द करने के लिए दबाकर बजाया जानेवाला बाजा।
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भोबरा  : पुं० [देश०] एक तरह की घास। झेरन।
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भोम  : स्त्री० [सं० भूमि] पृथ्वी। (डिं०)
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भोमि  : स्त्री०=भूमि।
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भोमी  : स्त्री० [सं० भूमि] पृथ्वी (डिं०)
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भोयन  : पुं०=भोजन।
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भोर  : पुं० [सं० विभावरी] प्रातःकाल। सबेरा। तड़का। पुं० [सं० भ्रम] धोखा। भ्रम। वि०=भोला (सीधा-सादा)। पुं० [देश०] १. एक प्रकार का बड़ा पक्षी जिसके पर बहुत सुन्दर होते हैं। यह जल तथा हरियाली बहुत पसन्द करता है और खेतों को बहुत अधिक हानि पहुँचाता है। २. एक प्रकार का सदाबहार वृक्ष जिसे ‘खभो’ भी कहते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भोरा  : पुं० [देश०] एक तरह की मछली। पुं०=भोर। वि०=भोला (सीधा-सादा)। पुं० [हिं० भूल] धोखा। भुलावा। उदा०—दीन दुखी जो तुमको जाँचत सो दाननि के भोरे।—सत्यनारायन। वि० १. धोखे या भुलावे में आया हुआ। २. मोह या भ्रम में पड़ा हुआ। ३. भूला या खोया हुआ। उदा०—रची विरंचि विषय सुख भोरी।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भोराई  : स्त्री० [हिं० भोरा+आई (प्रत्य०)] भोलापन। स्त्री० [हिं० भोराना+आई (प्रत्य०)] १. धोखा। भुलावा। २. भ्रम।
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भोराना  : स० [हिं० भँवर या भ्रम] किसी को धोखे या भ्रम में डालना। चकमा देना। अ० धोखे या भ्रम में आना या पड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भोरानाथ  : पुं०=भोलानाथ (शिव)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भोरी  : स्त्री० [देश०] पोस्ते के पौधे का एक रोग। वि० स्त्री०=भोली (भोला का स्त्री०)।
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भोरु  : पुं०=भोर।
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भोरे  : अव्य० [सं० भ्रम या हिं० भूल] भूलकर भी। उदा०—चहत न भरत भूपपद भोरे।—तुलसी।
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भोल  : पुं० [सं० भा+उल्] वैश्य पिता और नटी माता से उत्पन्न संतान।
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भोलना  : स० [हिं० भुलाना] धोखे में डालना। भुलावा देना। बहकाना। उदा०—अग्यानी पुरुष कौं भोलि भोलि खाई।—कबीर।
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भोलपन  : पुं०=भोलापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भोला  : वि० [सं० भ्रम; प्रा० भोल] १. (व्यक्ति) जो (क) छल-कपट न जानता हो, (ख) लोक-व्यवहार न जानता हो। सीधा-सादा। सरल। २. (कथन या बात) जो ऊपर से देखने में बहुत ही सरल तथा ठीक प्रतीत होती हो परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में अनुपयुक्त या अव्यवहार्य हो। उदा०—आहा ! यह परमार्थ कथन है कैसा भोला भाला है।—मैथिलीशरण। ३. (व्यक्ति) जो किसी की बात पर सहसा विश्वास कर लेता हो।
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भोला-भाला  : वि० [हिं० भोला+अनु० भाला] निश्छल और निरीह। सरल-हृदय।
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भोलानाथ  : पुं० [हिं० भोला+सं० नाथ] महादेव। शिव।
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भोलापन  : पुं० [हिं० भोला+पन (प्रत्य०)] भोले होने की अवस्था, गुण या भाव। सिधाई।
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भोस  : पुं० [?] एक प्रकार का केला।
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भोसर  : वि० [देश०] मूर्ख।
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भोंसला  : पुं० [देश०] महाराष्ट्र के एक राजकुल उपाधि। महाराज शिवाजी और रघुनाथ राव आदि इसी राजकुल के थे। नागपुर के महाराष्ट्र राजा लोग भोंसले ही थे।
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भौं  : स्त्री०=भौंह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौ  : [पुं० सं० भव] १. संसार। जगत। दुनियाँ। २. जन्म। पुं०=भय (डर)। अ० [हिं० भवना] हुआ। (अवधी) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भौ-जल  : पुं०=भवजाल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भौकन  : स्त्री० [हिं० भभक] १. आग की लपट। ज्वाला। २. जलन। ताप।
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भौंकना  : अ०=भूँकना।
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भौका  : पुं० [देश०] [स्त्री० भौकी] बड़ी दौरी। टोकरी।
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भौंगर  : पुं० [देश०] क्षत्रियों की एक जाति। वि० मोटा-ताजा। हृष्ट-पुष्ट।
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भौगर्भिक  : वि० [सं० भूगर्भ+ठक्—इक] भूपटल के अन्दर जन्म लेनेवाला। पृथ्वी के भीतरी भाग में होनेवाला।
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भौगिया  : वि०=भोगी।
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भौगोलिक  : वि० [सं० भूगोल+ठक्—इक] भूगोल-संबंधी। भूगोल का। (जियाग्रैफ़्रिकल)
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भौगोलिकी  : स्त्री० [सं० भौगोलिक+ङीष्] वह पुस्तक जिसमें किसी देश, महादेव, महादेश, अथवा सारी पृथ्वी के भौगोलिक नामों और नगरों, नदियों पहाड़ों आदि के संबंध की सब बातें रहती हैं। (गजेटियर)
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भौचक  : वि० [सं० भय+चकित] १. सहसा भयपूर्ण स्थिति उत्पन्न होने पर जो घबरा गया हो और फलतः कुछ करने-धरने में असमर्थ हो गया हो। २. चकित। हैरान।
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भौचक्का  : वि०=भौचक।
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भौंचाल  : पुं०=भूकंप।
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भौचाल  : पुं०=भूकंप।
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भौज  : स्त्री०=भावज। (भौजाई)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौजाई  : स्त्री० [सं० भ्रातृजाया] भाई के विचार से विशेषतः बड़े भाई की स्त्री०। भाभी।
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भौजी  : स्त्री०=भौजाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौट  : पुं० [सं०+अण्] भोट या भूटान देश का निवासी।
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भौठा  : पुं०=मीठा।
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भौंडा  : वि०=भोडा (भद्दा)। स्त्री०=भौंडी।
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भौंडी  : स्त्री० [देश०] १. छोटा पहाड़। पहाड़ी। २. टीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौण  : पुं०=भवन (घर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौत  : वि० [सं० भूत+अण्] १. भूत-संबंधी। २. भूत-निर्मित। भौतिक। ३. भूत-प्रेत संबंधी। पैशाचिक। ४. भूताविष्ट। पुं० १. मन्दिर। २. पुजारी। ३. वह जो भूत-प्रेतों की पूजा करता हो। ४. भूतों का दल या वर्ग। ५. भूत-यज्ञ। वि०=बहुत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौतारन  : वि०=भव-तारण (परमेश्वर)।
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भौतिक  : वि० [सं० भूक+ठक्—इक] १. पंचभूतों से संबंध रखनेवाला। २. पंचभूतों से बना हुआ। ३. इस जगत से संबंध रखनेवाला। लौकिक। सांसारिक। ४. पार्थिव। शरीर संबंधी। शारीरिक। (मैटीरियल) ५. भूत योनि से संबंध रखनेवाला। ६. प्राकृतिक नियमों सिद्धान्तों, रूपों आदि से संबंध रखनेवाला। (फ़िजिकल) जैसे—भौतिक विज्ञान। पुं० महादेव। शिव। २. उपद्रव। ३. आधि, व्याधि, कष्ट और रोग। ४. आँख, कान आदि शरीर की इंद्रियाँ।
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भौतिक चिकित्सा  : स्त्री० [सं०] आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि शरीर की उखड़ी या टूटी हुई हड्डियाँ बैठाने या जोड़ने के उपरांत किस प्रकार मालिश, व्यायाम सेंक आदि के द्वारा उन्हें ठीक से तरह से काम करने के योग्य बनाया जाता है। (फ़िज़ियोथैरपी)
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भौतिक भूगोल  : पुं० [सं० कर्म० स०] भूगोव की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि पृथ्वी के किस अंश की प्राकृतिक बनावट कैसी है और उसमें कैसे उत्पादन होते हैं। (फिज़िकल ज़ियाग्रैफ़ी, फ़िज़ियोग्रैफी)
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भौतिक विद्या  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. भूत-प्रेत संबंध स्थापित करे, उन्हें बुलाने और दूर करने की विद्या। २. दे० ‘भौतिक विज्ञान’।
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भौतिक सृष्टि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] पुराणानुसार दैव, मनुष्य और तिर्यक् योनियों का समाहार।
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भौतिकवाद  : पुं० [सं० ष० त० ?] १. वह दार्शनिक सिद्धान्त जिसके अनुसार पंचभूतों से बना हुआ यह संसार ही वास्तविक और सत्य माना जाता है (मिटीरियलिज्म) २. दे० ‘यथार्थवाद’।
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भौतिकवादी  : वि० [सं०] भौतिकवाद का। पुं० जो भौतिकवाद का अनुयायी या पोषक हो।
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भौतिकी  : स्त्री० दे० ‘भौतिक विज्ञान’।
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भौती  : स्त्री० [सं० भूत+अण्, वृद्धि+ङीप्] रात। रात्रि। रजनी। स्त्री० [हिं० भँवना=घूमना] एक बालिश्त लम्बी और पतली लकड़ी जिसकी सहायता से ताने का चरखा घूमाते हैं। भेंडती। (जुलाहा)
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भौंतुआ  : पुं० [हिं० भ्रमना=घूमना] काले रंग का एक तरह का छोटा कीड़ा जो जल के ऊपरी तल पर तेजी से दौड़ता और चक्कर काटता रहता है। २. एक प्रकार का रोग जिसमें बाहुदंड के नीचे एक गिलटी निकल आती है। ३. तेली का बैल जिसे दिन भर घूमते या चक्कर लगाते रहना पड़ता है। वि० बराबर घूमता रहनेवाला या चक्कर लगानेवाला।
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भौत्य  : पुं० [सं० भूति+ष्यञ्] चौदहवें मनु जो स्मृति के पुत्र थे। (पुराण)
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भौन  : पुं०=भवन। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भौंना  : अ० [सं० भ्रमण] घूमना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भौना  : अ० [सं० भ्रमण] १. चक्कर लगाना। घूमना। २. व्यर्थ इधर-उधर घूमना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भौपाल  : पुं० [सं० भूपाल+अण्, वृद्धि] राजकुमार।
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भौम  : वि० [सं० भूमि+अण्] १. भूमि-संबंधी। भूमि का। २. भूमि से उत्पन्न होनेवाला। भूमिज। ३. भूमि पर रहने या होनेवाला। पुं० १. मंगल ग्रह। २. अंबर नामक गंध द्रव्य। ३. लाल पुनर्नवा। ४. योग में एक प्रकार का आसन। ५. वह केतु या पुच्छल पुनर्नवा। ४. योग में एक प्रकार का आसन। ५. वह केतु या पुच्छल तारा जो दिव्य और अंतरिक्ष के परे हो।
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भौम-रत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] मूँगा।
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भौम-वार  : पुं० [सं० ष० त०] मंगलवार।
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भौमदेव  : पुं० [सं०] एक प्राचीन लिपि।
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भौमवती  : स्त्री० [सं० भौम+मतुप्+ङीप्] भौभासुर की स्त्री का नाम।
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भौमासुर  : पुं० [सं० कर्म० स०] नरकासुर का एक नाम।
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भौमिक  : पुं० [स० भूमि+ठक्—इक] भूमि का अधिकारी या स्वामी। जमींदार। विं०=भौम।
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भौमिकी  : स्त्री० [सं० भौमिक से] १.=भूगोल। २.=भू-विज्ञान।
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भौमिकीय  : वि० [सं०] १. भूमिका-संबंधी। भूमिका का। २. भूमिका के रूप में होनेवाला। वि०=भौमिक।
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भौमी  : स्त्री० [सं० भौम+ङीप्] पृथ्वी की कन्या, सीता।
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भौम्य  : वि० [सं० भूमि+ष्यञ्] १. भूमि-संबंधी। २. पृथ्वी पर होनेवाला।
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भौंर  : पुं० [हिं० भौंर; सं० भ्रमर] १. भौंरा। २. मुश्की घोड़ा। स्त्री०=भौंरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौर  : पुं० [सं० भ्रमर] १. घोड़े का एक भेद। २. भँवर। ३. भौंरा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भौंरकली  : स्त्री०=भँवरकली।
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भौंरा  : पुं० [सं० भ्रमर; पा० भमर; प्रा० भंवर] [स्त्री० भँवरी] १. काले रंग का उड़नेवाला एक पतंगा जो फूलों पर मँडराता और उसका रस चूसता है। इसके छः पैर, दो पर और दो मूँछें होती हैं। २. बड़ी मधुमक्खी। सारंग। डंगर। ३. बर्रे। भिड़। ४. ज्वार आदि की फसल को हानि पहुँचानेवाला एक प्रकार का कीड़ा। ५. लट्टू के आकार का एक प्रकार का खिलौना जिसमें कील या छोटी डडी लगी रहती है। इसी कील में रस्सी लपेटकर लड़के इसे जमीन पर नचाते हैं। ६. हिंडोले की वह लड़की जो मयारीमें लगी रहती है और जिसमें डोरी डंडी बंधी रहती है। ७. गाड़ी के पहिये का वह भाग जिसके बीच के छेद में घुरे का गज रहता है और जिसमें आरा लगाकर पहिये की पट्टियाँ जड़ी जाती हैं। नाभि। लट्ठा। मूँडी। ८. रहट की खड़ी चरखी जो भँवरी को चिराती है। चकरी। (बुंदेल) 9. पशुओं का एक रोग जिसे ‘चेचक’ भी कहते है। (बुंदेल०) १॰. पशुओं को आनेवाली मिरगी। ११. गड़ेरिये की भेड़ों की रखवाली करनेवाला कुत्ता। १२. तहखाना। १३. अनाज रखने का खत्ता। खात। १४. रहस्य सम्प्रदाय में, मन। पुं०=भाँवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौंराना  : स० [सं० भ्रमण] १. परिक्रमा कराना। घुमाना। २. चक्कर या फेरा देना। ३. विवाह के समय भाँवर की क्रिया सम्पन्न कराना। ४. विवाह कराना। अ०=भौरना (घूमना या चक्कर खाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौंराला  : वि० [हिं० भौंरा] [स्त्री० भौराली] भौंरे की तरह काले रंग का। वि० [हिं० भँवर] छल्लेदार। घुँघराला। (बाल) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भौंराही  : स्त्री० [हिं० भौंराना+आही (प्रत्य०)] १. भौंरे के मँडराने की क्रिया या भाव। २. वह शब्द जो भौंरा मँडराते समय करता है।
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भौरिक  : पुं० [सं० भूरि+ठक्—इक] १. राजकीय कोष का प्रधान अधिकारी। २. कोषाध्यक्ष।
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भौरिकी  : स्त्री० [सं० भौरिक+ङीष्] १. कोषागार। २. टकसाल।
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भौंरी  : स्त्री० [सं० भ्रमर्थ] १. प्रायः पशुओं के शरीर पर होनेवाला रोओं का मंडलाकार छोटा घेरा जो अनेक आकृतियाँ आदि के विचार से शुभ या अशुभ माना जाता है। २. दे० ‘भाँवर’। ३. दे० ‘भँवर’। स्त्री०=भौंह। स्त्री० [देश०] लिट्टी। बाटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भौलिया  : स्त्री० [सं० बहुका] एक प्रकार की छोटी नाव जो ऊपर से ढकी रहती है।
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भौसा  : पुं० [देश०] १. भीड़-भाड़। जन-समूह। २. हो-हुल्लड़। शोरगुल। बहुत अधिक कुव्यवस्था।
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भौसागर  : पुं०=भव-सागर।
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भौंह  : स्त्री० [सं० भ्रू] आँखों के ऊपर की हड्डी पर के रोएँ या बाल। भृकुटी। भौं। मुहा०—(किसी के सामने) भौंह उठाना=आँख उठाकर देखना। भौंह चढ़ाना या तानना=आँखें तानकर क्रोध या क्षोभ प्रकट करना। त्योरी चढ़ाना। बिगड़ना। (किसी की) भौंह जोहना या ताकना=यह देखते रहना कि कोई अप्रसन्न न होने पावे। भौंह नचाना=बराबर भौंहें हिलाना जो स्त्रियों के हाव-भाव और विशेष चंचलता का सूचक है। भौंह मरोड़ना=(क) असंतोष, उपेक्षा, रोष आदि प्रकट करने के लिए अपनी आकृति विकृत करना। नाक-भौंह चढ़ाना। उदा०—सुनि सौंतिनि के गुनि की चरचा द्विज जू तिय भौंह मरोरन लागी।—द्विजदेव। (ख) दे० ऊपर ‘भौंह चढ़ाना या तानना’। स्त्री० [अनु०] कुत्तों के भूँकने का शब्द।
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भौंहरा  : पुं०=भुइँहरा। पुं०=भौंरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भ्रकुटि  : स्त्री० [सं० भ्रू-कुटि, ष० त०, अत्व] १. क्रोध के मारे भौंह का सिकुड़ना। २. भौंह।
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भ्रकुटि  : स्त्री०=भृकुटी।
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भ्रंकुश  : पुं० [सं० भ्रू-कुंष, ब० स०, पृषो० सिद्धि] स्त्री का भेष धारण करके नाचनेवाला व्यक्ति।
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भ्रंगारी  : पुं० [सं० भृंगार] झींगुर। (डिं०)
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भ्रंगी  : पुं० [सं० भृंगी] गुंजार करनेवाला एक प्रकार का फतिंगा। स्त्री०=भृंग का स्त्री०।
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भ्रत  : पुं० [सं० भृत्य] दास। सेवक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भ्रत्त  : पुं०=भृत्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भ्रद्र  : पुं० [सं० भद्र] हाथी। (डिं०)
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भ्रम  : पुं० [सं०√भ्रम (भ्रांत होना)+घञ्] १. भ्रमण करने की अवस्था या भाव। २. चारों और घूमना। ३. वह अवस्था जिसमें दृष्टिकोण अथवा पुरानी या बँधी हुई धारणा के कारण किसी चीज को कुछ का कुछ समझ लिया जाता है। ४. संदेह। संशय। ५. एक प्रकार का रोग जिसमें रोगी का शरीर चलने के समय चक्कर खाता है और प्रायः जमीन पर पड़ा रहता है। यह रोग मूर्च्छा के अन्तर्गत माना जाता है। ६. बेहोशी। मूर्छा। ७. नाबदान। पनाला। ८. कुम्हार का चाक। वि० १. चक्कर काटने या घूमनेवाला। २. चलने या भ्रमण करनेवाला। पुं० [सं० सम्भ्रम] प्रतिष्ठा। मान।
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भ्रम-मूलक  : वि० [सं० ब० स०, कप्] जिसके मूल में भ्रम हो। भ्रम के कारण उत्पन्न।
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भ्रमकारी (रिन्)  : वि० [सं० भ्रम√कृ (करना)+णिनि, उप० स०] जिससे भ्रम उत्पन्न होता है अथवा जो भ्रम उत्पन्न करता हो।
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भ्रमजाल  : पुं० [सं० ष० त०] सांसारिक मोह का पाश।
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भ्रमण  : पुं० [सं०√भ्रम (घूमना)+ल्युट्—अन] १. घूमना-फिरना। विचरण। २. आना-जाना। ३. देश-विदेश में जाना। देशाटन।( ४. यात्रा। सफर।
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भ्रमणकारी (रिन्)  : वि० [सं० भ्रमण√कृ (करना)+णिनि] भ्रमण करनेवाला।
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भ्रमणी  : स्त्री० [सं० भ्रमण+ङीप्] सैर या मनोविनाद के लिए चलना। घूमना-फिरना। २. जोंक नाम का कीड़ा।
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भ्रमणीय  : वि० [सं०√भ्रम्+अनीयर्] १. घूमनेवाला। २. चलने-फिरनेवाला।
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भ्रमत्कुटी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] खपच्चियों आदि का बना हुआ बड़ा छाता।
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भ्रमद  : वि० [सं० भ्रम√दा (देना)+[क] [स्त्री० भ्रमदा] भ्रम उत्सन्न करनेवाला। उदा०—हतभागिनी कवित भ्रमदा वस्तुनि लौं भावै।—रत्नाकर।
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भ्रमन  : पुं०=भ्रमण।
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भ्रमना  : अ० [सं भ्रमण] १. घूमना-फिरना। २. चक्कर खाना। अ० [सं० भ्रम] १. भ्रम या धोखे में पड़ना। २. भूलकर इधर-उधर भटकना।
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भ्रमनि  : स्त्री०=भ्रमण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भ्रमर  : पुं० [सं०√भ्रम (घूमना)+अरन्] १. भौंरा नाम का फतिंगा। २. उद्धव का एर नाम। ३. दोहे का पहले भेद जिसमें २२ गुरु और ४ लघुवर्ण होते हैं। ४. छप्पय का तिरसठवाँ भेद जिसमें ८ गुरु, १३६ लघु, १४४ वर्ण या कुल और १५२ मात्राएँ होती हैं। ५. साहित्य में चंचल मन वाला वह नायक जो अनेक नायिकाओं से अनुराग अथवा संबंध रखता हो। ६. संत समाज में चंचल मन जो अनेक प्रकार की विषय-वासनाओं का रस लेता रहता है। वि० कामुक। लम्पट।
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भ्रमर सारंग  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भ्रमर-कंडरक  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारत में मधुमक्खियों की वह पिटारी जिसे चोर साथ रखते थे और कहीं की रोशनी बुझाने के लिए खोल देते हैं।
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भ्रमर-कीट  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार की बर्रे।
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भ्रमर-गीत  : पुं० [मध्य० स०] वह गीत जिसमें उद्धव और गोपियों का संवाद हो।
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भ्रमर-गुफा  : स्त्री० [सं०] हठ योग में ब्रह्मरंध्र।
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भ्रमर-ध्वनि  : पुं० [सं० ष० त०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भ्रमर-हंसी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भ्रमर-हंसी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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भ्रमर-हस्त  : पुं० [सं० मध्य० स०] नाटक के चैदह प्रकार के हस्त-विन्यासों में से एक प्रकार का हस्त-विन्यास।
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भ्रमर-हासिनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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भ्रमरक  : पुं० [सं० भ्रमर+कन्] १. माथे पर लटकनेवाले बाल। जुल्फ। २. भ्रमर। भँवर। ३. खेलने का गेंद।
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भ्रमरच्छली  : स्त्री० [सं० भ्रमर√छल् (धोखा देना)+अच्+ङीष्] एक प्रकार का बहुत बड़ा जंगली वृक्ष जिसके पत्ते बादाम के पत्तों के समान होते हैं और जिसमें बहुत पतली-पतली फलिया लगती हैं।
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भ्रमरपद  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का वृत्त।
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भ्रमरप्रिय  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का कदंब।
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भ्रमरमुखी  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भ्रमरा  : स्त्री० [सं० भ्रमर+टाप्] भ्रमरछली नामक पौधा।
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भ्रमरातिथि  : पुं० [सं० भ्रमर-अतिथि, ब० स०] चंपा का वृक्ष।
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भ्रमरानंद  : वि० [सं० भ्रमर-आनंद, ब० स०] बकुल वृक्ष।
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भ्रमरावली  : स्त्री० [भ्रमर-आवली, ष० त०] १. भौंरों की पंक्ति या श्रेणी। २. छंद शास्त्र में नलिनी या मनहरण नाम का वृत्त।
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भ्रमरी  : स्त्री० [सं० भ्रमर+ङीष्] १, भ्रमर का स्त्री। भौंरे की मादा। २. पार्वती। ३. मिरगी नामक रोग। ४. जतुका नाम की लता। षटपदी।
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भ्रमरेष्ट  : पुं० [सं० भ्रमर-इष्ट, ष० त०] एक प्रकार का श्योनाक।
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भ्रमरेष्टा  : स्त्री० [सं० भ्रमर-इष्टा, ष० त०] १. भुँई जामुन। २. नारंगी।
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भ्रमवात  : पुं० [सं० मध्य० स०] आकाश का वह वायु-मंडल जो सर्वदा घूमा करता है।
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भ्रमात्मक  : वि० [सं० भ्रम-आत्मन्, ब० स०,+कप्] जिससे अथवा जिसके संबंध में भ्रम उत्पन्न होता हो। भ्रम से युक्त। संदिग्ध।
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भ्रमाना  : स० [हिं० भ्रमना का स०] १. घुमाना-फिराना। २. चक्कर देना। ३. भ्रम या धोखे में डालना।
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भ्रमासक्त  : पुं० [सं० भ्रम-आसक्त, स० त०] वह जो अस्त्र-शस्त्र आदि साफ़ करने का काम करता हो।
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भ्रमि  : स्त्री० [सं० भ्रम+इ]=भ्रमी।
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भ्रमित  : भू० कृ० [सं० भ्रम+इतच्] १. जिसे भ्रम हुआ हो। शंकित। २. जिसे भ्रम में डाला गया हो। ३. घूमता या चक्कर खाता हुआ। ४. जो घुमाया या चक्कर में डाला गया हो।
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भ्रमित-नेत्र  : वि० [सं० ब० स०] ऐंचा-ताना।
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भ्रमी  : स्त्री० [सं० भ्रमी+ङीष्] १. घूमना-फिरना। भ्रमण। २. चक्कर खाना या लगाना। ३. तेज बहते हुए पानी का भँवर। ४. कुम्हार का चाक। ५. एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना जिसमें सैनिक मंडल बाँधकर खड़े होते हैं। वि० १. भ्रम में पड़ा हुआ। २. भौचक।
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भ्रमीन  : वि०=भाभी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भ्रंश  : पुं० [सं०√भ्रंश् (नीचे गिराना)+घञ्] अधःपतन। १. नीचे गीरना। २. ध्वंश। नाश ३. तोड़ना-फोड़ना। वि०=भ्रष्ट।
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भ्रंश (स) न  : पुं० [सं०√भ्रंश्+ल्युट्-अन] १. नीचे गिरना। पतन। २. भ्रष्ट होना। वि० नीचे गिरानेवाला।
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भ्रंशोद्धार  : पुं० [सं० भ्रश-उद्धार, ष० त०] समुद्र में डूबी हुई या आग में जलती हुई चीज को बचाने के लिए बाहर निकालना या उसका उद्धार करना। (सैल्वेज)
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भ्रष्ट  : भू० कृ० [सं०√भ्रंश्+क्त] १. ऊँचाई या ऊपर से नीचे गिरा हुआ। २. गिरने के कारण जो टूट-फूट गया हो। ३. ध्वस्त। ४. जो अपने मार्ग से इधर-उधर हो गया हो। ५. कुछ भी काम न दे सकनेवाला। ६. आचार, धर्म, नीति आदि की दृष्टि से दूषित और निंदनीय। बुरे आचार-विचार वाला। (कोरप्ट) ७. किसी चीज या बात से वंचित।
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भ्रष्ट-क्रिय  : वि० [ब० स०] जो विहित कर्म न करता हो।
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भ्रष्ट-निद्र  : वि० [ब० स०] जिसे निद्रा न आती हो।
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भ्रष्ट-श्री  : वि० [ब० स०] श्री से रहित।
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भ्रष्टा  : स्त्री० [स० भ्रष्ट+टाप्] भ्रष्ट चरित्र वाली स्त्री। कुलटा। पुंश्चली।
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भ्रष्टाचरण  : पुं० [भ्रष्ट-आचरण, कर्म० स०] भ्रष्टाचार करना।
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भ्रष्टाचार  : वि० [सं० भ्रष्ट-आचार, कर्म० स०] जिसका आचार बिगड़ गया हो। पुं० १. दूषित और निन्दनीय आचार-विचार। २. आज-कल वह बहुत बिगड़ी हुई स्थिति जिसमें अधिकारी तथा कर्मचारी विहित कर्तव्यों का पालन निष्ठापूर्वक, भली-भाँति और समय पर नहीं करते बल्कि मनमाने ढंग से, विलंब से, तथा अनुचित रूप से करते हैं। (कोरप्शन)
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भ्रसुंड  : पुं०=भुशुंड।
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भ्राजक  : पुं० [सं०√भ्राज् (चमकना)+ण्वुल्—अक] त्वचा में रहनेवाला पित्त। (वैद्यक) वि० चमकानेवाला।
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भ्राजना  : अ० [सं० भ्राजन=दीपन] १. चमकना। २. सुशोभित होना। स० १. चमकाना। २. सुशोभित करना।
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भ्राजमान  : वि० [सं०√भ्राज्+शानच्, मुक्-आगम] शोभायमान।
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भ्राजिर  : पुं० [सं०] भौत्य मन्वंतर के देवता। (पुराण)
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भ्राजिष्णु  : वि० [सं० भ्राज्+इष्णुच्] चमकनेवाला। पुं० १. विष्णु। २. शिव।
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भ्राजी (जिन्)  : वि० [सं० भ्राज्+इनि,] चमकरनेवाला। दीप्तियुक्त।
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भ्रांत  : वि० [सं०√भ्रम् (घूमना)+क्त] १. जिसे भ्रान्ति या भ्रम हुआ हो। धोखे में डाला या पड़ा हुआ। २. घबराया हुआ। विकल। ३. उन्मत्त। ४. घुमाया या चक्कर में लाया हुआ। पुं० १. घूमना-फिरना। भ्रमण। २. तलवार चलाने का एक ढंग या हाथ जिसमें उसे चारों ओर घुमाते हुए शत्रु के वार विफल किये जाते हैं। ३. मस्त हाथी। ४. राज-धतूरा।
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भ्रात  : पुं०=भ्राता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भ्रात-भाव  : पुं० [सं० ष० त०] भाई या भाइयों का सा व्यवहार और संबंध। २. भाइयों में होनेवाला परस्पर प्रेम।
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भ्रातव्य  : पुं० [सं० भ्रातृ+व्यत्] भाई का लड़का। भतीजा।
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भ्राता (तृ)  : पुं० [सं०√भ्राज्+तृन्, नि० सिद्धि] सगा भाई। सहोदर।
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भ्रांतापह्नुति  : स्त्री० [सं० भ्रांत-अपह्नति, कर्म० स०] साहित्य में अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें किसी एक बात या वस्तु में दूसरी वात या वस्तु की भ्रांति होने पर वास्तविक बात बतलाकर वह भ्रम दूर करने का उल्लेख होता है।
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भ्रांति  : स्त्री० [सं०√भ्रम्+क्तिन्] १. चारों और घूमने या चक्कर लगाने की क्रिया या भाव। २. चक्कर। फेरा। ३. वह मानसिक स्थिति जिसमें किसी चीज को ठीक तरह से पहचाना या समझ न सकने के कारण कुछ और ही मान लिया जाता है। धोखा। ४. सन्देह। शक। ५. उन्माद। पागलपन। ६. सिर में चक्कर ने का रोग। घुमेर। ७. भूल-चूक। ८. प्रमाद। ९. मोह। १॰. साहित्य में एक प्रकार का काव्यालंकार जिसमें किसी चीज या बात को धोखे से कुछ और मान या समझ लेने का उल्लेख होता है। जैसे—चंद्रमुखी नायिका को देख कर यह कहना—अरे यह चन्द्रमा कहाँ से निकल आया।
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भ्रांतिमान (मत्)  : वि० [सं० भ्रांति+मतुप्] १. जिसे भ्रांति या धोखा हुआ हो। २. चक्कर खाता हुआ। पुं० साहित्य में एक प्रकार का काव्यालंकार जिसमें भ्रम से उपमेय को उपमान समझ लेने का उल्लेख होता है।
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भ्रातृ-जाया  : स्त्री० [सं० ष० त०] भाई की स्त्री। भौजाई। भाभी।
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भ्रातृ-द्वितीया  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कार्तिक शुक्ल द्वितीया। इसी दिन बहन अपने भाइयों को राखी बाँधती है।
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भ्रातृ-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] भतीजा।
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भ्रातृ-भांड  : पुं० [सं० ष० त०] यमज भाई। जुड़वाँ बच्चे।
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भ्रातृ-वधू  : स्त्री० [सं० ष० त०] भौजाई। भाभी। भावज।
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भ्रातृज  : पुं० [सं० भ्रात√जन् (उत्पत्ति)+ज] [स्त्री० भ्रातृजा] भाई का लड़का। भतीजा।
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भ्रातृत्व  : पुं० [सं० भ्रातृ+त्व] भाई होने की अवस्था, धर्म या भाव। भाईपन।
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भ्रातृश्वसुर  : पुं० [सं० उपमि० स०] पति का बड़ा भाई। जेठ। भसुर।
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भ्रात्क  : पुं० [सं० भ्रात्+उञ्—क] धन सम्पत्ति जो भाई से मिली हो।
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भ्रांत्यपह्नुति  : स्त्री०=भ्रांतापह्नुति।
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भ्रात्र  : पुं० [भातृ+अण्] भाई।
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भ्रात्रीय  : वि० [सं० भातृ+छ—ईय] भ्राता-संबंधी। भाई का। पुं० भाई का लड़का। भतीजा।
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भ्राम  : वि० [सं०√भ्रम् (संदेह)+ण] १. भ्रम-युक्त। २. घूमनेवाला। पुं० १. धोखा। भ्रम। २. भूल-चूक।
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भ्रामक  : वि० [सं०√भ्रम् (संदेह)+णिच्+ण्वुल्—अक] १. भ्रम या धोखे में डालनेवाला। मन में भ्रम उत्पन्न करनेवाला। २. सन्देह उत्पन्न करनेवाला। ३. घुमाने या चक्कर देनावाला। ४. चालबाज। धूर्त। मक्कार। पुं० १. कांतिसार लोहा। २. चुम्बर पत्थर। ३. गीदड़। सियार।
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भ्रामर  : वि० [सं० भ्रमर+अञ्] १. भ्रमर-संबंधी। भ्रमर का। २. भ्रमर से उत्पन् या प्राप्त होनेवाला। पुं० १. भ्रमर से उत्पन्न होनेवाला मधु या शहद। चुम्बक पत्थर। ३. अपस्मार या मिरगी नामक रोग। ४. दोहे का दूसरा भेद जिसमें २१ गुरु और ६ लघु मात्राएँ होती हैं। उदा०—माधो मेरे ही बसो राखो मेरी लाज। कामी क्रोधी लंपटी जानि न छाँडों काज। ५. ऐसा नाच जिसमें बहुत से लोग फेरा या मंडल बाँधकर गोलाकार नाचते हों।
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भ्रामरी (रिन्)  : वि० [सं० भ्रामर+इनि] जिसे भ्रामर या अपस्मार रोग हुआ हो। स्त्री० [भ्रामर+ङीष्] १. पार्वती। २. पुत्रदात्री। नाम की लता।
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भ्रामित  : भू० कृ० [सं०√भ्रम्+णिच्+क्त, इट्] घुमाया या इधर-उधर चक्कर खिलाया हुआ।
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भ्राष्ट्र  : पुं० [सं०√भ्रस्ज्+ष्ट्रन्] १. आकाश। २. वह बरतन जिसमें अनाज रखकर भड़भूँजे भूनते हैं।
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भ्रिंग  : पुं०=भृंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भ्रिंगा  : स्त्री० पुं०=भृंगी।
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भ्रु-कुंस  : पुं० [सं० भ्रू-कुंस, ब० स०, हवस्ता] स्त्रियों के वेष में नाचनेवाला नट।
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भ्रू  : स्त्री० [सं०√भ्रम्+डू] आँखों के ऊपर के बाल। भौं। भौंह।
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भ्रू-क्षेप  : पुं० [सं० ष० त०] भौंहें टेढ़ी करना।
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भ्रू-प्रकाश  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का काला रंग जिससे श्रृंगार आदि के लिए भौंहे बनाते हैं।
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भ्रू-भंग  : पुं० [ष० त०] क्रोध आदि प्रकट करने के लिए भौंहें चढ़ाना। त्यौरी चढ़ाना।
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भ्रू-भेद  : पुं० [ष० त०] क्रोध आदि में होकर भौंहें टेढ़ी करना।
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भ्रू-मध्य  : पुं० [ष० त०] दोनों भौहों के बीच का स्थान।
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भ्रू-लता  : स्त्री० [कर्म० स०] भेहराबदार भौंह।
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भ्रू-विक्षेप  : पुं० [ष० त०] त्योरी बदलना। नाराजगी दिखाना। भ्रू-भंग।
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भ्रू-विलास  : पुं० [ष० त०] १. भौहों की कोई विशेष भावभंगी। २. भौंहों का संचालन करके प्रकट किया जानेवाला कोई मोहक भाव।
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भ्रूण  : पुं० [सं०√भ्रूण् (आशा करना)+घञ्] १. स्त्री का गर्भ। २. प्राणी के माता के गर्भ में पहले चार महीने तक रहने की अवस्था। (एम्ब्रीयो) ३. जीव का गर्भ या अंडे में स्थित होने की अवस्था में प्राप्त होनेवाला रूप। (फीटस)
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भ्रूण विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक जीव-विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि भ्रूण किस प्रकार बनता और विसकित होता है। (ऐंब्रीयोलोजी)
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भ्रूण-हत्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] गर्भ में आये हुए बालक की की जानेवाली हत्या जो बहुत बड़ा अपराध हो।
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भ्रूणध्न  : पुं० [सं० भ्रूण√हन् (मारना)+क] भ्रूण-हत्या करनेवाला। वह जो गर्भ में स्थित बालक को मार डालता हो।
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भ्रूणहा (हन्)  : पुं० [सं० भ्रूण√हन्+क्विप्] वह जिसमें भ्रूण हत्या की हो।
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भ्रूणाग्र  : पुं० [सं० भ्रूण-अग्र, ष० त०] भ्रूण का अगला भाग।
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भ्रूह  : स्त्री०=भ्रू।
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भ्रेष  : पुं० [सं०√भ्रेष् (गिरना)+घञ्] १. नाश। २. गमन। चलना।
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भ्रौण-हत्या  : स्त्री० [कर्म० स०]=भ्रूण-हत्या।
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भ्रौणिकी  : स्त्री०=भ्रूण विज्ञान।
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भ्वहरना  : अ० [हिं० भय+हरना (प्रत्य०)] भयभीत होना। डरना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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भ्वासर  : वि० [?] बेवकूफ। मूर्ख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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