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ज  : चवर्ग की तीसरा अक्षर जो उच्चारण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तालव्य, स्पर्श, संघर्षी अल्प प्राण, सघोष व्यंजन है। प्रत्यय यह प्रत्यय रूप में कुछ शब्दों के अंत में लगकर ‘में उत्पन्न’ या ‘से उत्पन्न’ का अर्थ देता है। जैसे–जलज, देशज, पित्तज आदि। पुं० जगण का संक्षिप्त रूप। (छंद शास्त्र) अव्य० ही। भी । तो। (डिं०) उदाहरण–तिणि तिणि हीज ब्राह्मण तणै।–प्रिथीराज।
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जइसे  : अव्य० [हिं० जैसे] जिस प्रकार। जैसे।
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जई  : स्त्री० [हिं० जौ] १. एक प्रसिद्ध मोटा अन्न जिसका पौधा जौ के पौधे से बहुत कुछ मिलता जुलता होता है। २. उक्त अन्न का पौधा। ३. जौ का छोटा अंकुर जो मंगल द्रव्य माना जाता है। ४. किसी पौधे नया का कल्ला। अंकुर। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार के पौधों, वृक्षों, लताओं आदि में लगनेवाले वे फूल जिनके मूल में बतिया (फल का आरंभिक रूप) होता है। वि० [हिं० जयी] विजयी।
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जईफ  : वि० [अ० जईफी] [स्त्री० जईफा, भाव० जईफी] बुडढा। बूढ़ा। वृद्ध।
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जईफी  : पुं० [फा० जईफी] जईफ अर्थात् वृद्ध होने की अवस्था या भाव। बुढ़ापा। वृद्धावस्था।
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जउँना  : स्त्री०=जमुना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जउवा  : पुं०=जौ। (पूरब) उदाहरण–जउवा में फूटेला बालि।–लोकगीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जऊ  : अव्य० [हिं० जो+ऊ] यद्यपि। अगरचे। उदाहरण–(क) कहै रतनाकर धरैना मृगछाला अरु धूरि हू परै भी जऊ अंग छिलि जाइयौ।–रत्नाकर। (ख) लाल है प्रबाल फूले देखत बिसाल जऊ।–सेनापति।
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जएस  : पुं०=जायस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जक  : स्त्री० [अ० ज़क] १. पराजय। हार। २. हानि। स्त्री० [हिं० झक] १. जिद। हठ। मुहावरा–जक पकड़ना=जिद करना। हठ करना। उदाहरण–अधम समूह उधारन कारन तुम जिय जक पकरी।–सूर। २. धुन। रट। स्त्री० [?] १. आराम। सुख। २. मन की स्थिरता। शान्ति। चैन। उदाहरण–जक न परति चकरी भई फिरि आवत फिरि जाति।-बिहारी। पुं० [सं० यक्ष] १. यज्ञ। २. कंजूस आदमी।
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जकड़  : स्त्री० [हिं० जकड़ना] १. जकड़ने की क्रिया ढंग या भाव। २. जकड़े अर्थात् चारों ओर से दृढ़ बंधन में होने की अवस्था या स्थिति।
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जकड़ना  : स० [सं० युक्त+करण] १. इस प्रकार किसी चीज को कसकर दबाते हुए बाँधना कि वह हिल-डुल न सके। २. इस प्रकार से नियम, बंधन आदि बनाना या लागू करना कि उनसे बच सकना किसी का संभव न हो। अ० १. जकड़ा जाना। चारों ओर से कसकर बाँधा जाना। २. नियमों बंधनों आदि से इस प्रकार घिरना कि छुटकारा या बचत न हो सकती हो। ३. शीत आदि के कोप से शरीर अथवा शरीर के किसी अंग का इस प्रकार कस, ऐंठ या तन जाना कि वह हिल-डुल न सके। जैसे–गठिया के रोग से घुटने जकड़ना।
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जकड़बंद  : वि० [हिं० जकड़+फा० बंद] जिसे अच्छी तरह जकड़कर बाँध लिया गया हो। किसी की जकड़ में आया हुआ।
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जकंद  : स्त्री० [फा० जकंद] उछाल। छलांग।
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जकंदना  : अ० [हिं० जकंद] १. उछाल भरना। छलांग लगाना। २. टूट पड़ना।
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जकंदनि  : स्त्री० [हिं० जकद] १. उछलने-कूदने की क्रिया या भाव। २. दौड़-धूप। ३. उलझन।
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जकना  : अ० [हिं० जक] [वि० जकित] १. भौंचक्का होना। चकित या स्तंभित होना। उदाहरण–दीन से रहैं संत जन सों, रूप में नैना जके।–अलबेली अली। २. व्यर्थ बोलना। बकना। ३. रटना।
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ज़कर  : पुं० [अ०] १. पुरुषोंद्रिय। लिंग। २. नर। ३. फौलाद।
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जकरना  : स० अ०=जकड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जंकशन  : पुं=जंक्शन।
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जकाजक  : पुं० [अनु०] जोरों की लड़ाई। घोर युद्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि० खूब जोरों से। वेग-पूर्वक।
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जकात  : स्त्री० [अ० जकात] १. इस्लाम में विहित आय का वह चालीसवाँ भाग जो दान-धर्म में देना आवश्यक कहा गया है। २. दान खैरात। ३. कर। महसूल।
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जकाती  : वि० [अ० जकात] कर या महसूल उगानेवाला। जगाती।
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जकित  : वि=चकित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जकी  : वि० [हिं० जक] १. जिद्दी। हठी। २. चकित। स्तंभित। उदाहरण–चको जकी सी ह्रै रही बूझे बोलति नीठि।–बीसलदेव।
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जकुट  : पुं० [सं० ज√ कुट् (कौटिल्ल)+क] १. मलयाचल। २. कुत्ता। ३. बैंगन के पौधे में लगनेवाला फूल।
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जक्की  : स्त्री० [देश०] बुलबुलों की एक जाति। वि० दे० ‘झक्की’।
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जक्त  : पुं०=जगत्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जंक्शन  : पुं० [अं०] वह रेलवे स्टेशन जहाँ दो से अधिक दिशाओं से गाड़ियाँ आती-जाती हों। (जंक्शन)।
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जक्ष  : पुं० =यक्ष।
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जक्षण  : पुं० [सं०√जक्ष् (भक्षणकरना)+ल्युट-अन] १. भक्षण। २. भोजन। खाना।
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जक्ष्म  : पुं=यक्ष्म।
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जक्ष्मा  : पुं=यक्ष्मा (तपेदिक)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जखन  : अव्य०=जब। (पूरब)।
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जखनी  : स्त्री०=यक्षिणी (यक्ष की पत्नी)। स्त्री०=यखनी। (दे०)
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जखम  : पुं० [फा० जख्म] १. आघात आदि के कारण शरीर में लगनेवाली ऐसी चोट जिसमें त्वचा कट, फट या छिल जाती है और रक्त बहने लगता है। घाव। जैसे–ईट सिर पर गिर पड़ने से यह जख्म हुआ है। २. फोड़ा आदि फटने से होनेवाला घाव। ३.लाक्षणिक अर्थ में, किसी के द्वारा किसी हुआ वह आघात या अपकार जिससे मनुष्य सदा दुःखी रहता हो। मुहावरा–जखम पर नमक छिड़कना=ऐसा काम करना जिससे दुःखी व्यक्ति और भी अधिक दुःखी हो। जख्म ताजा या हरा होना=किसी के द्वारा किया हुआ अपकार स्मरण हो आना।
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जखमी  : वि० [फा० जख्मी] जिसे जखम या घाव हुआ हो। घायल।
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जखीरा  : पुं० [अ० जखीरॉः] १. ढेर। राशि। २. कोष। ३. वह प्रदेश जहां कोई वस्तु बहुतायत से प्राप्त होती है। जैसे–पंजाब गेहूँ का जखीरा है। ४. वह स्थान जहाँ पौधे, बीज आदि बिकते हों।
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जखेड़ा  : पुं०=जखीरा। पुं० हिं० बखेड़ा का अनु०।
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जखैया  : पुं० [सं० यक्ष] एक कल्पित भूत जिसके संबंध में यह कहा जाता है कि वह लोगों को यों ही बहुत कष्ट देता है।
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जख्ख  : पुं० [स्त्री० जख्खनी]=यक्ष उदाहरण–सहस जख्ख भक्खनिय, मनह अचले चल बद्दिय।–चंदबरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जख्म  : पुं०=जखम।
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जंग  : स्त्री० [फा०] सशस्त्र सैनिकों की लड़ाई। युद्ध। पुं० [फा० जंग] १. लोहे पर जमनेवाली वह मैल या विकृत अंश जो लोहे में वायु और नमी के प्रभाव से उत्पन्न होता है। मोरचा। २. अफ्रीका का जंगबार या जंजीबार नामक प्रदेश। स्त्री० [अं० जक] एक प्रकार की बहुत बड़ी नाव।
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जग  : पुं० [सं० जगत्] १. जगत्। संसार। २. चेतन सृष्टि। पुं०=यज्ञ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जग-जीवन  : पुं० [सं० जगज्जीवन] ईश्वर। परमात्मा।
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जंगआवर  : वि० [फा०] लड़ाका। योद्धा।
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जगकर  : पुं० [सं०] ब्रह्मा।
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जगकारन  : पुं० [हिं० जग+कारन] परमेश्वर जो जगत्कर्त्ता माना जाता है।
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जगच्चक्षु  : पुं० [हिं० जगत्+चक्षुस्, ष० त०] सूर्य।
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जगजग (ा)  : वि० [हिं० जगजगाना=जगमगाना] जगमगाता हुआ।
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जगजगा  : पुं० [जगमग से] किसी चमकीली धातु का पतला पत्तर जिसके कटे हुए छोटे-छोटे टुकड़े टिकुला, ताजिए आदि में लगाये जाते हैं।
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जगजगाना  : अ०=जगमगाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=जगमगाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जंगजू  : वि० [फा०] युद्ध करने की इच्छा रखनेवाला। (व्यक्ति)।
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जगजोनि  : पुं० [सं० जगद्योनि] ब्रह्मा।
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जगज्जनी  : स्त्री० [सं० जगत्-जननी, ष० त०] १. जगदंबा। २. परमेश्वरी। ३. सीता।
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जगज्जयी(यिन्)  : वि० [सं० जगत्-जयी, ष० त०] जग को जिसने जीत लिया हो। विश्वविजयी।
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जगझंप  : पुं० [सं० ?] युद्ध-क्षेत्र में बजाया जानेवाला एक प्रकार का ढोल।
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जगड्वाल  : पुं० [सं०] व्यर्थ का आडंबर या बखेड़ा।
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जगण  : पुं० [ष० त०] छंद शास्त्र में तीन ऐसे अक्षरों के समूह की संज्ञा जिसका पला अक्षर लघु, दूसरा गुरु और तीसरा लघु हो। इसका सांकेतिक चिन्ह ।ऽ। है।
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जगत-जननि  : स्त्री=जगज्जनी।
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जगतसेठ  : पुं० [सं० जगत्-श्रेष्ठी] वह महाजन या सेठ जो किसी नगर या बस्ती में और उसके चारों ओर दूर-दूर तक सब से बड़ा माना जाता हो।
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जगतारण  : वि० [सं० जगत्-तारण] १. संसार को तारनेवाला। २. संसार की रक्षा करनेवाला।
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जगति  : स्त्री० [सं० जगत] द्वारिका।
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जगती  : स्त्री० [सं०√गम्+अति-ङीष्] १. जगत्। २. पृथ्वी। ३. जीवन। ४. एक वैदिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में बारह अक्षर होते हैं। ५. बारह अक्षरों के छंदों की संज्ञा।
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जगती-चर  : वि० [जगती√ चर् (चलना)+ट] जगत् में विचरण करनेवाला। पुं० मनुष्य।
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जगती-जानि  : पुं० [जगती-जाया, ब० स० नि० आदेश] राजा।
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जगती-तल  : पुं० [ष० त०] १. धरती। पृथ्वी। २. संसार।
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जगती-धर  : पुं० [ष० त०] पर्वत।
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जगती-पति  : पुं० [ष० त०] राजा।
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जगती-भर्त्ता(र्तृ)  : पुं० [ष० त०] राजा।
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जगती-रुह  : पुं० [सं० जगती√ रुह् (उगना)+क] वृक्ष।
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जगत्  : वि० [सं०√गम् (जाना)√ क्विप्, द्वित्व, तुगागम] १. जागता हुआ। चेतन। २. जो चलता-फिरता हो। पुं० १. पृथ्वी का वह अंश या भाग जिसमें जीव या प्राणी चलते-फिरते या रहते हों। चेतन सृष्टि। २. किसी विशिष्ट प्रकार के कार्य-क्षेत्र अथवा उसमें रहनेवाले जीवों, पिंड़ों आदि का वर्ग या समूह। जैसे–नारी जगत् और जगत् हिन्दी जगत आदि। ३. इस पृथ्वी के निवासी। जैसे–जगत् तो मेरी हँसी उड़ाने पर तुला हुआ है। ४. संसार। दुनिया। जैसे–यह जगत् और उसके सब जंगल जंजाल झूठे हैं।
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जगत्  : स्त्री० [सं० जगति=घर की कुरसी] कुएँ के ऊपर चारों ओर बना हुआ वह चबूतरा जिस पर खड़े होकर उसमें से पानी खींचा जाता है। पुं०=जगत्। (दे०)।
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जगत्प्राण  : पुं० [जगत्-प्राण ष० त०] १. संसार को जीवित रखनेवाले तत्त्व। २. ईश्वर।
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जगत्साक्षी(क्षिन्)  : पुं० [जगत्-साक्षिन्, ष० त०] सूर्य।
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जगत्सेतु  : पुं० [जगत्-सेतु,ष० त०] परमेश्वर।
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जगदंतक  : पुं० [जगत्-अंतक, ष० त०] १. वह जो जगत् का नाश करता हो। मृत्यु। २. यमराज। ३. शिव।
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जगदंबा  : स्त्री० [जगत्-अंबा, ष० त०] दुर्गा।
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जगदंबिका  : स्त्री० [जगत्-अंबिका, ष० त०] दुर्गा।
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जगदयु(स्)  : पुं० [जगत्-आयुस्, ष० त०] वायु।
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जगदात्मा(त्मन्)  : पुं० [जगत्-आत्मन्, ष० त०] १. ईश्वर। २. वायु।
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जगदादि  : पुं० [जगत्-आदि, ष० त०] १. ब्रह्मा। २. परमेश्वर।
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जगदाधार  : पुं० [जगत्-आधार ष० त०] १. परमेश्वर। २. वायु। वि० जगत् का आधार।
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जगदानन्द  : पुं० [जगत्-आनंद, ष० त०] परमेश्वर।
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जगदीश  : पुं० [जगत्-ईश, ष० त०] १. ईश्वर। परमेश्वर। २. विष्णु। जगन्नाथ।
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जगदीश्वर  : पुं० [जगत्-ईश्वर] ईश्वर। परमेश्वर।
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जगदीश्वरी  : स्त्री० [जगत्-ईश्वरी, ष० त०] भगवती।
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जगदीस  : पुं०=जगदीश।
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जगद्गुरु  : पुं० [जगत्-गुरु, ष० त०] १. परमेश्वर। २. शिव। ३. नारद। ४. वह महान व्यक्ति जिसे सब लोग गुरु के समान पूज्य मानते हों। जैसे–जगद्गुरु शंकराचार्य। ५. शंकराचार्य की गद्दी के अधिकारी महंत की उपाधि।
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जगद्गौरी  : स्त्री० [स० त०] १. दुर्गा। २. नागों की बहन मनसादेवी, जिसका विवाह जरत्कारु ऋषि से हुआ था।
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जगद्दीप  : पुं० [जगत्-दीप, ष० त०] १. ईश्वर। २. महादेव।
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जगद्धाता(तृ)  : पुं० [जगत्-धातृ ष० त०] [स्त्री० जगद्धात्री] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। शंकर।
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जगद्धात्री  : स्त्री० [जगत्-धात्री, ष० त०] १. दुर्गा। २. सरस्वती।
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जगद्बल  : पुं० [जगत्-बल, ब०स० ] वायु। हवा।
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जगद्योनि  : पुं० [जगत्-योनि,ष० त०] १. शिव। २. विष्णु। ३. ब्रह्मा। ४. परमेश्वर। ५. पृथ्वी।
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जगद्वंद्य  : वि० [जगत्-वंद्य, ष० त०] १. जिसकी वंदना जगत् करता हो। २. जिसकी वंदना जगत् को करनी चाहिए।
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जगद्वहा  : स्त्री० [सं० जगत्√ वह (ढोना)+अ-टाप्] पृथ्वी।
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जगद्विख्यात  : वि० [जगत्-विख्यात, स० त०] जिसकी ख्याति जगत् में हो।
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जगद्विनाश  : पुं० [जगत्-विनाश, ब० स०] प्रलयकाल।
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जगन  : पुं० [सं० यज्ञाग्नि](यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) १. यज्ञ की अग्नि। २. यज्ञस्थल। उदाहरण–जो वै जाँ गृहि गृहि जगन जागवै।–प्रिथीराज। स्त्री० [हिं० जागना] जागने की क्रिया या भाव। पुं० =जगण।
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जगनक  : पुं० [देश०] महोबे के राजा परमाल के दरबार का एक प्रसिद्ध कवि।
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जगना  : अ० [सं० जागरण] १. जाग्रत होना। जागना। २. अग्नि, दीप-शिखा आदि का प्रज्वलित होना। जैसे–ज्योति जगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जगनी  : स्त्री० [?] १. एक प्रकार का पौधा। २. उक्त पौधे के बीज जिनका तेल निकाला जाता है।
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जगनु  : पुं० [सं० जगन्नु] १. अग्नि। २. कीड़ा। ३. जंतु। पुं०=जुगनूँ।
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जगन्नाथ  : पुं० [जगत्-नाथ, ष० त०] १. जगत के नाथ, ईश्वर। २. विष्णु। ३. उड़ीसा प्रदेश की पुरी नगरी के एक प्रसिद्ध देवता।
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जगन्नाथ-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] उड़ीसा प्रदेश की पुरी नामक नगरी जो एक तीर्थस्थल है। जगन्नाथपुरी।
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जगन्नाथ-धाम(न्)  : पुं० [ष० त०] जगन्नाथपुरी।
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जगन्नियंता(तृ)  : पुं० [जगत्-नियतृ, ष० त०] वह जो जगत् का नियत्रण करता हो। ईश्वर।
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जगन्निवास  : पुं० [जगत्-निवास, ष० त०] ईश्वर। परमेश्वर।
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जगन्नु  : पुं० [सं० जगत्√ नम् (नम होना)+डु] १. अग्नि। २. कीड़ा। ३. जंतु।
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जगन्मंगल  : पुं० [जगत्-मंगल, ब० स०] काली का एक कवच।
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जगन्मय  : पुं० [सं० जगत्-+मय] विष्णु।
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जगन्मयी  : स्त्री० [सं० जगन्मय+ङीष्] १. लक्ष्मी। २. वह शक्ति जो जगत् का संचालन करती है।
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जगन्माता(तृ)  : स्त्री० [जगत्-मातृ, ष० त०] दुर्गा।
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जगन्मोहिनी  : स्त्री० [जगत्-मोहिनी, ष० त०] १. दुर्गा। २. महामाया।
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जगबंद  : वि० [सं० जगत् वंद्य] जगत् जिसकी वंदना करे। जगद्वंद्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जंगबार  : पुं० [फा० जंग+बार] पूर्वी अफ्रीका का एक प्रदेश। जंजीबार।
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जंगम  : वि० [√ गम् (जाना)+यङ्-लुक्, द्वित्वादि+अच्] १.जो एक स्थान से चलकर दूसरे स्थान पर जाता हो या जा सकता हो। २. चलनेवाले प्राणियों से उत्पन्न होने या उनसे संबंध रखनेवाला। जैसे–जंगम विष=कीड़े-मकोड़ो, पशु-पक्षियों आदि के शरीर से निकलने वाला विष। ३. जिसे एक स्थान से उठा या हटाकर दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता हो। पुं० १. लिंगायत शैव संप्रदाय के गुरुओ की उपाधि। २. एक प्रकार के साधु।
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जंगम-गुल्म  : पुं० [कर्म० स०] पैदल चलनेवाले सिपाहियों का दस्ता।
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जगमग, जगमगा  : वि० [अनु०] १. जगमगाता हुआ। २. चमकदार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जगमगाना  : अ० [अनु० जग-मग] [भाव० जगमगाहट] किसी चीज पर प्रकाश पड़ने से उसका चमकने लगना। जगमग करना। जैसे–बिजली की रोशनी में पंडाल जगमगा रहा था। स० प्रकाश आदि से प्रज्वलित करना या चमकाना।
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जगमगाहट  : स्त्री० [हिं० जगमग] जगमगाने की अवस्था या भाव।
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जगर  : पुं० [सं०√ जागृ (जागना)+अच्, पृषो० सिद्धि] कवच।
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जगरन  : पुं०=जागरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जगरनाथ  : पुं०=जगन्नाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जगरमगर  : वि०=जगमग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जँगरा  : पुं० [देश०] कुछ वनस्पतियों के डंठल। जैसे–मूँग का जँगरा। पुं० [हिं० जाँगर] शारीरिक बल।
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जगरा  : स्त्री० [सं०शर्करा] खजूर के रस से बनी हुई खांड या चीनी।
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जँगरैत  : वि० [हिं० जाँगर] [स्त्री० जँगरैतिन] (व्यक्ति) जो कोई काम करने में अपनी पूरी शारीरिक शक्ति लगाता हो। जाँगरवाला। परिश्रमी।
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जंगल  : पुं० [सं०√गल् (भक्षण)+यङ्+अच्,नि० सिद्धि] १. जलशून्य। भूमि। रेगिस्तान। २. वह स्थान जहाँ बहुत से वृक्ष तथा वनस्पतियाँ आप से आप उग आई हो। वन। पद–जंगल में मंगल=सूने स्थल में होनेवाली चहल-पहल। मुहावरा–जंगल जाना=शौच के लिए मैदान में जाना। टट्टी जाना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, वह स्थान जहाँ पर बहुत सी वस्तुएँ ऐसे अव्ययस्थित रूप में रखी हुई हों कि जल्दी किसी वस्तु का पता न लगे। ४. मांस।
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जगल  : पुं० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+ड√गल्+अच्, ज-गल, कर्म० स०] १. पीठी से बना हुआ मद्य जिसे पृष्टी भी कहते हैं। २. शराब की सीठी। कल्क। ३. मदन वृक्ष। मैनी। ४. कवच। ५. गोमय। गोबर। वि० धूर्त। चालाक।
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जंगल-जलेबी  : स्त्री० [सं० जंगल+हिं० जलेबी] १. काँटेदार जंगली पौधा, जिसमें जलेबी की तरह फल लगते हैं। २. गू की लेंड़ी। (परिहास)।
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जंगल-बाड़ी  : स्त्री० [हिं० जंगल+बाड़ी] एक प्रकार की बढ़िया मलमल।
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जंगला  : पुं० [पुर्त्त जंगिला] १. बरामदे, छज्जे आदि के किनारे-किनारे खड़ी की हुई वह रचना जिसमें एक पंक्ति में लकड़ी या लोहे के छड़ लगे होते हैं। २. खिड़की का वह चौखट जिसमें लोहे के छड़ लगे हों। ३. खिड़की। ४. वह चित्रण या नक्काशी जिसमें एक दूसरे को काटती हुई बेलें आदि बनी हों। जैसे–जंगले की साड़ी। पुं० [सं० जांगल्य] १. संगीत के बारह मुकामों में से एक। २. एक राग का नाम। ३. एक प्रकार की मछली जो बंगाल की नदियों में बहुतायत से होती है। ४. वनस्पतियों के डंठल।
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जंगली  : वि० [सं० जंगल] १. जंगल में उगने, उपजने या होनेवाला। २. (वह वनस्पति) जो आप से आप उग आई हो। ३. जंगल में रहनेवाला। जैसे–जंगली चिडि़याँ, जंगली जातियाँ। ४. जो घरेलू या पालतू न हो। जैसे–जंगली कुत्ता। ५. जंगल में रहनेवाले पशुओं, व्यक्तियों जैसा (आचरण, स्वभाव)। जैसे–जंगली आदत। ६. असभ्य तथा असंस्कृत। गँवार। ७. मूर्ख। ८. (प्रदेश) जिसमें जंगल हों। पुं० १. जंगल में रहनेवाला व्यक्ति। २. असभ्य या अशिष्ट व्यक्ति।
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जंगली बादाम  : पुं० [हिं० जंगली+बादाम] १. कतीले की जाति का एक पेड़ जिसके फलों के बीज को भुनाकर खाया या उबालकर तेल निकाला जाता है। २. हर्रे की जाति का एक पेड़ जिसकी छाल से चमड़ा सिझाया जाता है और बीजों से तेल निकाला जाता है। हिंदी-बादाम।
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जंगली-रेड़  : पुं०=बन-रेंड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जगवाना  : स० [हिं० जगाना का प्रे० रूप] किसी को जगाने में प्रवृत्त करना। जगाने का काम दूसरे से कराना।
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जगसूर  : पुं० [सं० जगत-सूर] राजा। उदाहरण–बिनती कीन्ह घालि गिउ पागा, ए जगसूर सीउ मोहि लागा।–जायसी।
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जगसेन  : स्त्री० [हिं० जग] संसार–प्रसिद्ध। उदाहरण–स्यामि समुँद्र मोर निरमल रतनसेनि जगसेनि।–जायसी।
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जगह  : स्त्री० [फा० जायगाह] १. कोई विशिष्ट भू-भाग या उसका विस्तार। स्थान। २. बीच में होनेवाला अवकाश या विस्तार। ३. वह पद या स्थान जहाँ पर कोई काम करता हो। जैसे–इस समय कार्यालय में कोई जगह खाली नहीं है। ४. अवसर। मौका। जैसे–हर बात अपनी जगह पर अच्छी मालूम होती है।
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जगहर  : स्त्री० [हिं० जगना] जागते रहने की अवस्था या भाव। वि० जागता हुआ। जागनेवाला।
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जगहँसाई  : स्त्री० [हिं० जग+हँसना] लोगों का किसी पर उसके कोई मर्यादा विरुद्ध काम करने पर हंसना। जगत् में होनेवाली बदनामी।
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जंगा  : पुं० [फा० जगूला] घुँघरू का दाना।
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जगा  : पुं० [हिं० जागना] किसी धार्मिक उपलक्ष्य में रात भर जागते रहने की क्रिया या भाव। स्त्री=जगह।
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जगाजोति  : स्त्री०=जगमगाहट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जगात  : पुं०=जकात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जगाती  : पुं० [अ० जकात-कर] १. कर उगाहने की क्रिया या भाव। २. कर उगाहनेवाला अधिकारी। उदाहरण–काहै कौ कर माँगतौं बिरह जगाती आइ।–रसनिधि।
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जगाना  : स० [हिं० जगाना] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई जाग उठे। जागने में प्रवृत्त करना। २. तंत्र, मंत्र आदि के प्रसंग में,किसी अलौकिक या दैवी शक्ति को जाग्रत करके अपने अनुकूल करने का प्रयत्न करना। जैसे–अलख जगाना, जादू जगाना। ४. धूमिल या मद्धिम चीज को उज्जवल और स्पष्ट करना।
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जंगार  : पुं० [फा०] [वि० जंगारी] १. ताँबे का कसाव। तूतिया। २. एक प्रकार का नीला रंग जो ताँबे को सिरके में भिगोकर निकाला जाता है। ३. आज-कल कुछ नई प्रक्रियाओं से बनाया हुआ उक्त प्रकार का रंग।
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जगार  : स्त्री० [हिं० जागना] जागरण। जाग्रति।
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जंगारी  : वि० [फा० जंगार] जंगार अर्थात् नीले रंगवाला। नीला।
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जंगाल  : पुं=जंगार। पुं० [फा० जंग] जंग। मोरचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जंगाली  : वि०=जंगारी। पुं० [हिं० जंगार] नीले रंग का एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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जंगाली पट्टी  : स्त्री० [हिं० जंगारी+पट्टी] फोड़े-फुंसियों पर लगाई जानेवाली गंधे-बिरोजे की पट्टी।
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जंगी  : वि० [फा०] १. जंग अर्थात् युद्ध संबंधी। २. युद्ध में भाग लेनेवाला अथवा युद्ध में काम करनेवाला। सामरिक। ३. सेना संबंधी। सैनिक। ४. बहुत बड़ा। दीर्घ काय। ५. लड़ने-झगड़नेवाला। झगड़ालू। पुं० [देश०] घड़ा। (कहार)।
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जगी  : स्त्री० [देश०] मोर की जाति की एक प्रसिद्ध बड़ी चिड़ियां जिसका शिकार किया जाता है।
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जंगी लाट  : पुं० [हिं०] आज-कल किसी देश का प्रधान सेनापति।
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जगीत  : स्त्री०=जगत (कूएँ के ऊपर का चबूतरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जगीर  : स्त्री=जागीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जगीला  : वि० [हिं० जागना] [स्त्री० जगीली] १. जागता हुआ। जागा हुआ। २. जागने के कारण थका तथा आलस्य से भरा हुआ।
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जंगीहड़  : स्त्री० [फा० जंगी+हड़] काली हड़ा। छोटी हड़।
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जगुरि  : पुं० [सं०√ गृ (निकलना)+किन्, द्वित्व, उत्व] जंगम।
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जंगुल  : पुं० [सं०√ गम् (जाना)+यङ्-लुक्+डुल् बा०] जहर। विष।
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जंगेला  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जिसे चौरी, मामरी या रूही भी कहते हैं।
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जंगै  : स्त्री० [सं० जंघा] एक प्रकार की करधनी जिसमें घुँघरू लगे रहते हैं और जिसे नाच के समय अहीर, धोबी आदि कमर में बाँधते हैं।
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जगैया  : वि० [हिं० जगाना] जगानेवाला।
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जगौहाँ  : वि० [हिं० जागना] १. बराबर जागता रहनेवाला। २. दूसरों को जगाने का प्रयत्न करता रहनेवाला।
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जग्ग  : पुं० [हिं० जग] जगत्। पुं० [सं० यज्ञ] यज्ञ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=जंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जग्य  : पुं०=यज्ञ।
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जग्युपवीत  : पुं० [सं०√गम् (जाना)+कि, द्वित्व] वायु। हवा वि० जिसमें गति हो। गतिमान। गतिशील।
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जंघ  : स्त्री=जंघा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=जाँघिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जघट्ट  : पुं०=जमघट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जघन  : पुं० [√ हन् (मारना)+अच्, द्वित्व] १. पेड़। (विशेषतः स्त्रियों का)। २. चूतड़। ३. जंघा। जाँघ। ४. सेना का पिछला भाग।
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जघन-कूप  : पुं० [ष० त०] चूतड़ के ऊपर का गड्ढा।
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जघन-चपला  : स्त्री० [ब० स०] १. दुश्चरित्रा स्त्री। कुलटा। २. वह स्त्री जो बहुत तेजी से नाचती हो। ३. आर्या छंद का एक भेद जिसका कोई पूर्वार्द्ध आर्या छंद का और उत्तरार्द्ध चपला छंद का होता है।
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जघनकूपक  : पुं० [जघनकूप√ कै (शब्द करना)+क] जघन-कूप।(दे०)।
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जघनी(निन्)  : वि० [सं० जघन+इनि] जिसके नितंब बड़े-बड़ें हों।
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जघन्य  : वि० [सं० जघन+यत्] [भाव० जघन्यता] १. अंतिम सीमा पर का। चरम। २. बहुत ही निंदनीय और बुरा। गर्हित। ३. क्षुद्र। नीच। पुं० १. नीच जाति का व्यक्ति। २. पीठ पर का पुट्ठे के पास का भाग।
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जघन्य-भ  : पुं० [कर्म० स०] आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा, भरणी और शतभिषा ये छः नक्षत्र।
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जघन्यज  : पुं० [सं० जघन्य√ जन् (उत्पत्ति)+ड] १. शूद्र। २. अंत्यज।
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जंघा  : स्त्री० [√हन् (जाना) √यङ-लुक्+अच्, टाप्] १. पैर का घुटने और पेड़ू के बीच का भाग। २. एक प्रकार का जूता। ३. कैंची का दस्ता जिसमें फल और दस्ताने लगे रहते हैं।
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जंघा-त्राण  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का कवच जो जांघ पर बाँधा जाता था।
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जंघा-बन्धु  : पुं० [ब० स०] एक ऋषि का नाम।
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जंघा-रथ  : पुं० [ब० स०] १. एक प्राचीन ऋषि। २. उक्त ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
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जंघाफार  : पुं० [हिं० जंघा+फारना] रास्ते में पड़नेवाली खाई। (कहार)।
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जंघामथानी  : स्त्री० [सं० जंघा+हिं० मथानी] १. छिनाल स्त्री। पुंश्चली। २. वेश्या।
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जंघार  : पुं० [हिं० जंघा+आर] जाँघ पर होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा।
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जंघारा  : पुं० [देश०] राजपूतानों की एक जाति।
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जंघारि  : पुं० [सं० ब० स०] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।
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जंघाल  : पुं० [सं० जंघा+लच्] १. धावन। धावक। दूत। २. मृग।
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जंघाला  : स्त्री० [सं०] पुरानी चाल की एक प्रकार की नाव जो १२८ हाथ लम्बी, १६ हाथ चौंड़ी और १२ हाथ ऊँची होती थी।
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जंघिल  : वि० [सं० जंघा+इलच्] १. तेज दौड़नेवाला। २. फुर्तिला।
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जघ्नि  : पुं० [सं०√हन् (मारना)+किन्, द्वित्व] १. वह जो वध करता हो। २. वध करने का अस्त्र।
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जघ्नु  : वि० [सं०√ हन्+कु, द्वित्व] वध करनेवाला।
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जघ्रि  : पुं० [सं०√घ्रा (सूँघना)+कि, द्वित्व] सूँघनेवाला।
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ज़चगी  : स्त्री० [फा०] १. प्रसव। २. प्रसूतावस्था।
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जंचना  : अ० [हिं० जाँचना] १. जाँचा जाना। जाँचा परखा जाना। जैसे–हिसाब जँचना। २. जाँच में ठीक या पूरा उतरना। ३. जान पड़ना। प्रतीत होना। ४. भला जान पड़ना।
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जचना  : अ=जँचना।
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जँचा  : वि० [हिं० जँचना] १. जांचा हुआ। सुपरीक्षित। २. जो ठीक प्रकार से जांच करने में अभ्यस्त हो। ३. जाँच करते-करते जिसे किसी बात का अभ्यास हो गया हो। जैसे–जँचा हाथ। पद–जँचातुला=ठीक ठीक।
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ज़चा  : स्त्री०=जच्चा।
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जच्चा  : स्त्री० [फा० जच्चः] वह स्त्री जिसको हाल ही में बच्चा हुआ हो। प्रसूता।
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जच्चा-खाना  : पुं० [फा० जचः खाना] सूतिका-गृह। सौरी।
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जच्छ  : पुं=यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जच्छपति  : पुं०=यक्षपति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जच्छेस  : पुं०=यक्षेश्वर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जंज  : अव्य० [?] जो। स्त्री० [सं० यज्ञ] बरात। (पंजाब)।
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जज  : पुं० [सं०√जज् (युद्ध करना)+अच्] योद्धा। पुं० [अं०] न्यायधीश (दे०)।
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जंज घर  : पुं० [हिं० जंज+घर] १. बरात को ठहराने का स्थान। २. वह स्थान जहाँ पर बरातें आकर ठहरती हों।
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जजना  : स० [सं० यजन] १. आदर करना २. पूजना।
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जंजपूक  : पुं० [सं०√ जप् (जपना)+यङ्+ऊक] मंद स्वर में जप करने वाला व्यक्ति।
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जंजबील  : स्त्री० [अ०] सोंठ।
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जजमनिका  : स्त्री० [हिं० जजमान] पुरोहिताई।
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जजमान  : पुं०=यजमान।
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जजमानी  : स्त्री० [सं० यजमान] १. यजमान होने की अवस्था, पद या भाव। २. ऐसी वृत्ति जो यजमानों के कृत्य कराने से चलती हो।
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जंजर(ल)  : वि=जर्जर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जजा  : स्त्री० [अ० जज़ा] १. बदला। प्रतिफल। २. परलोक में मिलनेवाला अच्छा या बुरा फल।
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जजाति  : पुं०=ययाति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जंजाल  : पुं० [हिं० जग+जाल] [वि० जंजालिया] १. सांसारिक व्यापार जिसमें मनुष्य फँसा रहता है। मनुष्य को ईश्वर या भगवत् भजन से विमुख करने तथा उसका ध्यान अपनी ओर लगाये रखनेवाली बात। माया। २. प्रपंच। झंझट। बखेड़ा। ३. उलझन। ४. पानी का भँवर। ५. पुराने ढंग की एक प्रकार की पलीतेदार बड़ी बंदूक। ६. चौड़े मुँहवाली एक प्रकार की पुरानी चाल की तोप। ७. मछलियाँ पकड़ने का बड़ा जाल।
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जंजालिया  : वि० [हिं० जंजाल+इया (प्रत्य)]=जंजाली।
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जंजाली  : वि० [हिं० जंजाल+ई (प्रत्यय)] १. जो जंजाल में फँसा हो। सांसारिक बंधनों में पड़ा हुआ। २. झगडा-बखेड़ा करनेवाला। स्त्री० [देश०] वह रस्सी और घिरनी जिससे नावों का पाल चढ़ाया और उतारा जाता है।
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जजित  : पुं० [सं० यज्ञ] यज्ञकर्त्ता। उदाहरण–सुकरि कमंडल बारि, जजित आह्रान थान दिया।–चंदबरदाई।
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जजिमान  : पुं०=यजमान।
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जजिया  : पुं० [अ० जजियः] १. दंड। २. मुसलमानी राज्य-काल में अन्य धर्मवालों पर लगने वाला एक प्रकार का कर।
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जजी  : स्त्री० [हिं० जज+ई (प्रत्यय)] १. जज होने की अवस्था, पद या भाव। २. जज की कचहरी।
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जंजीर  : स्त्री० [फा०] १. धातु की बहुत-सी कड़ियों को एक दूसरे में पहनाकर बनाई जानेवाली लड़ी। सांकल। २. साँकल की तरह का बना हुआ गले में पहनने का एक आभूषण। सिकड़ी। ३. कैदियों के पावों में बाँधी जानेवाली लोहे की श्रृंखला। ४. किवाड़े के पल्ले बंद करने की सिकड़ी। साँकल। ५. लाक्षणिक अर्थ में, वह बात जो आगे-पीछे की घटनाओं को जोड़ती या मिलाती है। श्रृंखला।
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जंजीरा  : पुं० [हिं० जंजीर] १. कसीदे के काम में, कपड़े आदि पर काढ़ी या निकाली हुई जंजीर की बनावट। लहरया। २. लहरियेदार कपड़ा। उदाहरण–जनि बाँधों जंजीरें की पाग नजर तोहें लगि जायगी।–गीत।
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जजीरा  : पुं० [अ० जजीरः] द्वीप।
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जजीरानुमा  : पुं० [अ०] प्रायद्वीप।
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जंजीरी  : वि० [हिं० जंजीर] १. गले में पहनने की सिकड़ी। २. हथेली के पिछले भाग पर पहना जानेवाला एक प्रकार का गहना। वि० जिसमें जंजीर या सिकड़ी लगी हो।
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जज्ज  : पुं=जज (न्यायाधीश)।
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जज्ञ  : पुं=यज्ञ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जज्ब  : वि० [अ० जज़्ब](यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) १. जो सीख लिया गया हो। शोषित। २. जो हड़प लिया गया हो।
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जज्बा  : पुं० [अ० जज़्बा] १. भाव। भावना। २. जोश। ३. रोष।
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जझती  : वि० [अ०] १. जन्नत में होने या रहनेवाला। २. स्वर्गीय।
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जझर  : पुं० [हिं० झरना] लोहे की चद्दर का तिकोना टुकड़ा जो उसमें से तवे काटने के बाद बच रहता है।
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जंट  : पुं० [अं० ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट] [भाव० जंटी] जिला मजिस्ट्रेट का सहायक अधिकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जट  : पुं० [?] एक प्रकार का गोदना जो झाड़ के आकार का होता है। पुं० [हिं० जाट] १. पंजाब में खेती-बारी करनेवाली एक जाति २. कृषक। किसान।
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जटना  : स० [सं० जटन या हिं० जाट] धोखा देकर किसी की कोई चीज ले लेना। ठगना। स०=जड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जटल  : स्त्री० [सं० जटिल] व्यर्थ और झूठ-मूठ की बात। गप। बकवास। मुहावरा–जटल काफिये उड़ाना या मलाना=बेसिर-पैर की और व्यर्थ की बातें करना।
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जटा  : स्त्री० [√जट् (परस्पर संलग्न होना)+अच्-अन] १.सिर के लंबे तथा आपस में गुथे और लिपटे हुए बालों की ऐसी लट जो कभी चिकनाई या सुलझाई न गई हो। जैसे–ऋषि मुनियों या साधुओं की जटा। २. बालों जैसी किसी वस्तु का चिपका हुआ रूप। जैसे–नारियल की जटा। ३. पेड़-पौधों की जड़ों के आपस में गुथे हुए पतले-पतले रेशों या सूतों का समूह। झकरा। ४. जटामासी। ५. जूट। पाट। ६. केवाँच। ७. वेद-पाठ का एक प्रकार जिसमें मंत्र के दो या तीन पदों को क्रमानुसार पूर्व और उत्तरपद पहले पृथक् पृथक् और फिर मिलाकर दो बार पढ़े जाते हैं। ८. शतावर। ९. बालछड़।
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जटा-चीर  : पुं० [ब० स०] शिव।
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जटा-जूट  : पुं० [ष० त०] जटा को लपेटकर बनाया जानेवाला जूड़ा।
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जटा-ज्वाल  : पुं० [ब० स०] दीया।
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जटा-टंक  : पुं० [ब० स०] शिव।
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जटा-धर  : वि० [ष० त०]=जटाधारी।
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जटा-धारी(रिन्)  : वि० [सं० जटा√ धृ (रखना)+णिनि] जिसके सिर पर जटा हो। पुं० १. शिव। २. ऐसा साधु जिसके सिर पर जटा हो। ३. मरसे की जाति का एक पौधा।
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जटा-पटल  : पुं० [ब० स०] वेदपाठ का एक जटिल क्रम।
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जटा-माली(लिन्)  : पुं० [जटा-माला, ष० त०+इनि] शिव।
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जटा-वल्ली  : स्त्री० [उपमि० स०] १. रुद्र जटा। शंकर जटा। २. गंधमासी नाम की वनस्पति।
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जटाटीर  : पुं० [सं० जटा√अट् (प्राप्त होना)+ईरन्] शिव।
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जटाना  : अ० [हिं० जटना] धोखे में आकर ठगा जाना।
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जटामांसी  : स्त्री० [जटा√मन् (जानना)+स, दीर्घ, ङीष्] औषध के काम आनेवाली एक प्रकार की सुंगधित वनस्पति। बालछड़।
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जटामासी  : स्त्री०=जटा-मांसी।
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जटायु  : पुं० [सं० जटा√या (गति)+कु] एक प्रसिद्ध गिद्ध जिसने सीता को हरण करके ले जाते हुए रावण से युद्ध किया था और उसी के हाथों मारा गया था। यह सूर्य के सारथी अरुण का पुत्र था जो उसकी श्येनी नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।
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जटाल  : वि० [सं० जटा+लच्] जटा से युक्त। २. कचूर। ३. मुष्कक। मोरवा। ४. गुग्गुल।
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जटाला  : स्त्री० [सं० जटाल+टाप्] जटामांसी।
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जटाव  : स्त्री० [देश०] कुम्हारों की बोली में वह मिट्टी जिससे वे बरतन आदि बनाते हैं। पुं० [हिं० जटना] जटने या जटे जाने अर्थात् ठगने या ठगे जाने की क्रिया या भाव।
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जटावती  : स्त्री० [सं० जटा+मतुप्, वत्व, ङीप्] जटामांसी।
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जटासुर  : पुं० [जटा-असुर, मध्य० स०] १. एक प्रसिद्ध राक्षस जिसका वध भीम ने उस समय किया था जब वह ब्राह्मण वेश धारण करके द्रौपदी को हर कर ले जा रहा था। २. एक प्राचीन देश।
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जटित  : भू० कृ० [सं०√जट् (जुड़ना)+क्त+इतच्] जड़ा हुआ। जैसे–रत्नजटित मुकुट या सिंहासन।
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जटियल  : वि० [सं० जटिल] निकम्मा। रद्दी।
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जटिल  : वि० [सं० जटा+इलच्] १. जटावाला। जटाधारी। २. (व्यक्ति) जिसके सिर पर जटा हो। ३. (कार्य) जो इतना अधिक उलझा हुआ हो कि सरलता से संपन्न न किया जा सके। ४. (बात) जो इतनी पेचीली हो कि जल्दी समझ में न आ सके। ५. क्रूर। पुं० १. शिव। २. जटामांसी। ३. ब्रह्मचारी। ४. सिंह।
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जटिलक  : पुं० [सं० जटिल+कन्] १. एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. उक्त ऋषि के वंशज।
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जटिलता  : स्त्री० [सं० जटिल+तल्-टाप्] जटिल होने की अवस्था, गुण या भाव।
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जटिला  : स्त्री० [सं० जटिल+टाप्] १. ब्रह्मचारिणी। २. जटामांसी। ३. पिप्पली। पीपल। ४. बचा। बच। ५. दोना। ६. एक ऋषि कन्या जिसका विवाह सात ऋषि पुत्रों से हुआ था। (महाभारत)।
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जंटी  : स्त्री० [हिं० जंट] ज्वाइंट मजिस्ट्रेट होने की अवस्था, भाव या पद।
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जटी(टिन्)  : वि० [सं० जटा+इनि] जटाधारी। पुं० १. शिव। २. बरगद। स्त्री० [√ जट्√इन-ङीष्]=जटामांसी। जटुल
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जट्टा  : पुं० [हिं० जाट] एक प्रसिद्ध खेतिहर जाति। उदाहरण–ब्रज के गूजर जट्टा।–भगवत रसिक।
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जठर  : पुं० [√जन् (उत्पन्न होना)+अर, ठ आदेश] १. पेट। २. पेट का भीतरी भाग। ३. किसी वस्तु का भीतरी भाग। ४. एक उदर रोग जिसमें पेट फूलने लगता है और भूख बन्द हो जाती है। ५. शरीर। ६. एक पर्वत। (पुराण)। वि० १. जो कठोर कड़ा या दृढ़ हो। २. पुराना। ३. वृद्ध। ४. बँधा या बाँधा हुआ।
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जठर-गद  : पुं० [ष० त०] आँत में होनेवाला विकार।
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जठर-ज्वाला  : स्त्री० [ष० त०] १. पेट में लगनेवाली भूख अथवा इस भूख से होनेवाला कष्ट। २. शूल। (दे०)।
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जठराग्नि  : स्त्री० [जठर-अग्नि, मध्य० स०] जठर या पेट के अंदर का वह शारीरिक ताप जिससे खाया हुआ अन्न पचता है।
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जठराजि  : स्त्री०=जठराग्नि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जठरानल  : पुं० [जठर-अनल, मध्य० स०] जठराग्नि। (दे०)
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जठरामय  : पुं० [जठर-आमय] १. अतिसार रोग। २. जलोदर (रोग)।
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जठारि  : पुं० [देश०] पाला। उदाहरण–पूस मास जठारि पड़त बा, जस कुठार के घाई।–
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जठेरा  : वि० [हिं० जेठ, सं० ज्येष्ठ] [स्त्री० जठेरी] जो अवस्था में किसी से अपेक्षाकृत बड़ा हो। जेठा।
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जठौली  : स्त्री० [देश०] झुंड में रहनेवाली हलके बादामी रंग की एक चिड़िया जिसके पैर, छोटे शरीर कुछ चौड़ा तथा चिपटा होता है। इसके नर का सिर भूरा होता है।
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जंड  : पुं० [देश०] एक जंगली पेड़ जिसकी फलियों का अचार डाला जाता है। सागर।
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जड़  : वि० [√जल् (जमना)+अच्, ड आदेश] १. जिसमें जीवन न हो। निर्जीव। २. जिसमें चेतना शक्ति हो। अचेतन। ३. जिसमें कुछ भी बुद्धि या ज्ञान विशेषतः व्यावहारिक बुद्धि या ज्ञान न हो। ४. वेद पढ़ने में असमर्थ। ५. ठंढ़ा। ६. ठंढ़ आदि से ठिठुरा हुआ। स्त्री० [सं० जटा] १. पेड़-पौधों आदि का नीचेवाला वह मूल भाग जो जमीन के अन्दर रहता है और जो जमीन में से रस खींचकर उन पेड़-पौधों का पोषण और वृद्धि करता है। मूल। मुहावरा–(किसी की) जड़ उखाड़ना, काटना या खोदना=(क) ऐसा काम करना जिससे कोई पिर उमड़ या पनप न सके। (ख) किसी की बहुत बड़ी हानि करना। (किसी की) जड़ जमना=ठीक प्रकार से चल या बढ़ सकने की स्थिति में हो जाना। जड़ जमाना=ऐसा काम या प्रयास करना जिससे कोई स्थान पर टिककर अपने कार्य में सफलतापूर्वक अग्रसर होता जाय। (किसी की) जड़ (में) लगना=किसी की बहुत बड़ी हानि करने में प्रयत्नशील होना। उदाहरण–सउतिनि जर लागल हो रामा।–ग्रा० गीत। जड़ों में तेल या पानी देना=समूल नाश करने का प्रयत्न करना या कुचक्र रचना। २. नींव। आधार-स्थल। जैसे–आपको पहले संस्था की जड़ मजबूत करनी चाहिए। ३. किसी चीज का बिलकुल नीचेवाला भाग। जैसे–नाखून को जड़ से मत काटों। ४. वह भाग या स्थल जिसमें कोई चीज गड़ी या फँसी हुई हो। जैसे–दाँत या बाल को ज़ड़ से निकालो। ५. किसी कार्य या मूल कारण या प्रेरक। जैसे–चलो, इस झगड़े की जड़ ही कट गई।
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जड़ भरत  : पुं० [उपमि० स०] आंगरिस गोत्री एक ब्राह्मण जो संसार की आसक्ति से बचने के लिए जड़वत् रहते थे इसलिए जड़ भरत कहलाते थे।
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जड़-आमला  : पुं० [हिं० जड़+आमला] भुँइ आँवला।
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जड़-काला  : पुं० [हिं० जाड़ा+सं० काल] जाड़े का समय। सरदी के दिन।
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जड़-जगत्  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा जगत् जो जड़ के रूप में हो। पाँच भौतिक पदार्थों की समष्टि। जड-प्रकृति।
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जड़-पदार्थ  : पुं० [कर्म० स०] अचेतन पदार्थ।
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जड़-प्रकृति  : स्त्री० [कर्म० स०] जड़-जगत् (दे०)।
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जड़-वाद  : पुं० [ष० त०] एक दार्शनिक सिद्धान्त जिसके अनुसार चेतन आत्मा का अस्तित्व नहीं माना जाता और सब कुछ जड़ता का ही विकार माना जाता है।
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जड़-विज्ञान  : पुं० [ष० त०]=पदार्थ विज्ञान।
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जड़कना  : अ० [हिं० जड़] जड़ के समान हो जाना। निश्चल या स्तब्ध होना।
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जड़ता  : स्त्री० [सं० जड़+तल्–टाप्] १. जड़ (अर्थात् निर्जीव, अचेतन या मूर्ख) होने की अवस्था, गुण या भाव। २. साहित्य में एक संचारी भाव और पूर्वराग की दस दशाओं में से एक जो ऐसी अवस्था का सूचक है जिसमें मनुष्य आश्चर्य या भय के कारण इतना अधिक स्तब्ध हो जाता है कि उसे अपने कर्त्तव्य की ही सुध नहीं रहती।
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जड़ताई  : स्त्री०=जड़ता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जड़त्व  : पुं० [सं० जड़√त्व]=जड़ता।
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जड़ना  : स० [सं० जटन] १. किसी चीज की किसी दूसरी चीज के तल में ठोंक या धँसाकर इस प्रकार जमाना या बैठाना कि वह अपने स्थान से इधर-उधर न हो सके। जड़ जमाते हुए कहीं कुछ बैठाना या लगाना। जैसे–तख्ते या दीवार में कील जड़ना। २. किसी प्रकार के अवकाश में कोई चीज इस प्रकार जमाकर बैठाना कि वह अपने स्थान से इधर-उधर न हो सके। जैसे–अँगूठी में नगीना जड़ना, दीवार बनाते समय उसमें खिड़की या दरवाजे की चौखट जड़ना। ३. जोर से आघात या प्रहार करना। जैसे–थप्पड़, मुक्का या लाठी जड़ना। ४. किसी के संबंध में कोई बात किसी दूसरे से चोरी से कहना। चुगली खाना। लगाना। जैसे–(क) उन्होंने सब बातें भाई साहब से जड़ दीं। (ख) किसी ने तुम्हें जड़ दिया है इसलिए तुम ऐसी बातें करते हो।
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जड़वादी(दिन्)  : वि० [सं० जड़वाद+इनि] जड़वाद का अनुयायी या समर्थक।
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जड़वाना  : स० [हिं० जड़ना का प्रे० रूप] जड़ने का काम दूसरे से कराना।
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जड़वी  : स्त्री० [हिं० जड़] धान का वह छोटा पौधा जिसे जमे अभी थोड़े ही दिन हुए हों।
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जड़हन  : पुं० [हिं० जड़+हनन-गाड़ना] वह धान जिसके पौधे को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह पर रोपा जाता है।
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जड़ा  : स्त्री० [सं० जड़+णिच्+अच्–टाप्] १. भुईंआमला। २. केवाँच। कौंछ।
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जड़ाई  : स्त्री० [हिं० जड़ना] जड़ने की क्रिया, भाव या मजदूरी। स्त्री०=जड़ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जड़ाऊ  : वि० [हिं० जड़ना] (वह आभूषण) जिसमें नग, मोती, रत्न आदि जड़े हुए हों।
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जड़ान  : स्त्री० [हिं० जड़ना] जड़े जाने की क्रिया या भाव।
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जड़ाना  : स०=जड़वाना। अ०=जड़ा जाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ० [हिं० जाड़ा] सरदी से ठिठुरना। उदाहरण–नगन जड़ाती ते अब नगन जड़ाती हैं।–भूषण।
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जड़ाव  : पुं० [हिं० जड़ना] जड़ने या जड़े जाने की क्रिया, ढंग या भाव।
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जड़ावट  : स्त्री०=जड़ाव।
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जड़ावर  : पुं० [हिं० जाड़ा] १. जाड़े में पहनने के वस्त्र। २. वे वस्त्र जो किसी कर्मचारी को अथवा नौकर, मजदूर आदि को पहनने के लिए जाड़े के दिनों में दिये जाते हैं।
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जड़ावर्त्त  : पुं० [सं० जड़-आवर्त्त, ष० त०] दार्शनिक और धार्मिक क्षेत्रों में अज्ञान का आवर्त्त या चक्कर।
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जड़ावल  : पुं०=जड़ावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जड़ित  : वि० [सं० जटित] १. जड़ा हुआ। २. जकड़ा हुआ। (असिद्ध प्रयोग)।
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जड़िमा  : स्त्री० [सं० जड़+इमानिच्] १. जड़ता। जड़त्व। २. ऐसी अवस्था जिसमें मनुष्य इस प्रकार जड़वत् हो जाता है कि उसे भले-बुरे सुख-दुख या हानि-लाभ का ज्ञान ही नहीं होने पाता।
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जड़िया  : पुं० [हिं० जड़ता] वह सुनार जो गहनों पर नगीनें आदि जड़ने का काम करता हो। कुंदनसाज।
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जड़ी  : स्त्री० [हिं० जड़] किसी वनस्पति की वह जड़ जो औषध के रूप में काम आती हो।
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जड़ी-बूटी  : स्त्री० [हिं०] औषध के काम आनेवाली जंगली वनस्पतियाँ और उनकी जड़ें।
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जड़ीभूत  : वि० [सं० जड़+च्वि√भू (होना)+क्त, दीर्घ] जो जड़ अथवा जड़ के समान अचेतन हो गया हो। जिसमें हिलने-डुलने की शक्ति न रह गई हो।
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जड़ीला  : वि० [हिं० जड़+ईला (प्रत्यय)] जिसमें जड़ हो। जड़ से युक्त।
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जड़ुआ  : पुं० [हिं० जड़ना] पैर के अँगूठे में पहनने का एक आभूषण।
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जड़ुँल  : पुं० [सं० जटुल] त्वचा पर का काला दाग। लच्छन।
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जड़ैया  : स्त्री० [हिं० जड़ा+ऐया (प्रत्यय)] वह ज्वर जिसके आने के समय जाड़ा लगता हो। जू़ड़ी। मलेरिया। वि०=जड़िया (=जड़नेवाले)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जढ़  : वि० [भाव० जढता]=जड़। स्त्री=जड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जढ़ाना  : अ०=जड़ाना।
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जण  : पुं०=जन।
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जत  : वि० [सं० यत्] जितना। जिसे मात्रा का। क्रि० वि० जिस मात्रा में। पुं० [सं० यति] ढोलक, तबले आदि में, एक प्रकार का ठेला या ताल। स्त्री०=यति (कविता की)।
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जत  : पुं०=जगत। पुं०=यति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जतन  : पुं०=यत्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जतनी  : वि० [सं० यत्नी] १. यत्न करनेवाला। २. चालाक या धूर्त्त। स्त्री० [सं० यत्न ?] सूत कातने के चर्खे की वह रस्सी जो उसकी चरखी के पंखों परबँधी रहती है।
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जंतर  : पुं० [सं० यंत्र] १. दे० ‘यंत्र’। २. गले आदि में पहनने का धातु का वह छोटा आधान जिसके अंदर मंत्र या टोटके की कोई वस्तु रहती है। तावीज। ३. जंतर-मंतर। ४. यंत्र, जिससे तेल या आसव आदि तैयार किया जाता है। ५. वाद्य-यंत्र। बाजा।
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जंतर-मंतर  : पुं० [सं० यंत्र-मंत्र] १. भूत-बाधा आदि उतारने अथवा किसी पर भूत-बाधा आदि लाने का मंत्र। टोटका। २. वेष-शाला जहाँ पर नक्षत्रों आदि की गति-विधि देखी जाती है।
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जंतरा  : स्त्री० [सं० यंत्री] वह रस्सी जो गाड़ी के ढाँचे पर कसी, तानी या बाँधी जाती है।
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जंतरी  : स्त्री० [सं० यंत्र] सोनारों का एक उपकरण जिसमे से वे तार खींचकर पतले तथा लंबे करते हैं। २. पंचांग। तिथिपत्र। (उर्दू)। ३. जादूगर। ४. बाजा बजानेवाला।
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जतलाना  : स०=जताना।
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जंतसर  : पुं० [हिं० जाता+सर (प्रत्यय)] वह गीत जिन्हें जांता अर्थात् चक्की पीसते समय स्त्रियाँ गाती हैं।
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जतसर  : पुं०=जंतसर।
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जंतसार  : स्त्री० [हिं० जांता+सार-शाल] वह स्थान जहाँ पर जाँता गाड़ा हो।
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जंता  : पुं० [सं० यंत्र] [स्त्री० जंती, जंतरी] १. यंत्र। कल। २. सुनारों का तार खींचने का उपकरण। वि० [सं० यंतृ] १. यंत्रणा देनेवाला। २. दंड देनेवाला।
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जँताना  : अ० [हिं० जाँता] १. (अन्न आदि का) जाँते में पीसा जाना। २. भीड़ में चारों ओर से इस प्रकार दबना जैसे जाँते में दाने पिसते हैं।
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जताना  : स० [सं० ज्ञाप्त] १. किसी को किसी बात की जानकारी कराना। ज्ञात कराना। बतलाना। २. पूर्व सूचना देना। सचेत करने के लिए पहले से सूचना देना। चेताना।
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जतारा  : पुं० [सं० जाति] कुल। जाति। वंश।
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जति  : पुं०=यति। वि० [सं०√जित्] जीतनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जंती  : स्त्री० [हिं० जंता] सुनारों का तार खींचने का छोटा जंता। स्त्री० [सं० जनयित्री] जननी। माता।
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जती  : पुं०=यति।
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जंतु  : पुं० [सं०√जन् (प्रादुर्भाव)+तुन्] १. वह जिसने जन्म लिया हो। २. शारीरिक दृष्टि से साधारण या छोटे आकार-प्रकार के पशु, कीड़े-मकोड़े आदि। जैसे–चूहा, मछली सांप आदि।
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जतु  : पुं० [सं०√जन् (उत्पन्न होना)+उ, त आदेश] १. वृक्ष में से निकलनेवाला गोंद। २. लाक्षा। लाख। ३. शिलाजीत।
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जतु-कृष्णा  : स्त्री० [उपमि० स०] जतुका या पपड़ी नामक लता।
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जतु-गृह  : पुं० [मध्य० स०] १. घास-फूस की झोपड़ी। २. लाख का वह घर जो वारणावत में दुर्योधन ने पांडवों के रहने के लिए बनवाया था।
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जंतु-नाशक  : पुं० [ष० त०] हींग। वि० जंतुओं या कीड़ों का नाशक।
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जतु-पुत्रक  : पुं० [सं० जतु-पुत्र मध्य० स०√कै (प्रतीत होना)+क] १. शतरंज का मोहरा। २. चौंसर की गोटी।
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जंतु-फल  : पुं० [ब० स०] गूलर।
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जतु-रस  : पुं० [ष० त०] राख से बनाया जानेवाला लाल रंग जिसे स्त्रियाँ पैरों, हाथों आदि पर लगाती हैं। अलक्तक। आलता। महावर।
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जंतु-विज्ञान  : पुं०=जीव-विज्ञान।
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जंतु-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहां पर अनेक प्रकार के पशु-पक्षी और जीव-जंतु प्रदर्शन के लिए रखे गये हों। चिड़ियाघर।
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जतुक  : पुं० [सं० जंतु√कै (प्रतीतहोना)+क] १. हीग। २. लाख। ३. त्वचा पर का काला चिन्ह। लच्छन।
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जंतुका  : स्त्री० [सं० जंतु√ क (प्रकाश करना)+क-टाप्] लाख। लाक्षा।
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जतुका  : पुं० [सं० जतुक+टाप्] १. पहाड़ी नामक लता जिसकी पत्तियाँ ओषधि के काम आती है। २. चमगादड़। ३. लाक्षा। लाख।
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जतुकारी  : स्त्री० [सं० जतुक्√ऋ (गमनादि)+अण्-ङीष्] पपड़ी नामक लता।
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जंतुघ्न  : वि० [सं० जंतु√हन् (मारना)+टक्] (औषध या पदार्थ) जंतुओं को नष्ट करनेवाला। पुं० १. बायबिडंग। २. हींग।
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जंतुघ्नी  : स्त्री० [सं० जंतुघ्न+ङीष्] बायबिंडग।
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जतुनी  : स्त्री० [सं० जतु√नी (पहुँचाना)+क्विप्] चमगादड़।
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जंतुमारी(रिन्)  : पुं० [सं० जंतु√मृ (मरना)+णिंव+णिनि] जँबीरी। नीबू। वि०=जंतुघ्न।
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जंतुला  : स्त्री० [सं० जंतु√ ला(लेना)+क-टाप्] काँस नामक घास।
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जंतुहन  : वि०=जंतुघ्न।
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जतूका  : स्त्री० [सं० जतुका, नि० दीर्घ] जतुका। (दे०)
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जतेक  : क्रि० वि० [सं० यत्, या हिं० जितना+एक] जिस मात्रा में। वि० जितना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जंतैत  : पुं० [हिं० जांता] वह व्यक्ति जो जाँता अर्थात् चक्की पीसकर अपनी जीविका उपार्जन करता हो।
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जत्तु  : पुं० [सं०√जनु+तु, र, आदेश]=जर्त्त।
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जत्था  : पुं० [सं० यूथ] एक ही वर्ग विचार या संप्रदाय के लोगों का समूह जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर किसी विशिष्ट उद्धेश्य से जाता हो। जैसे–यात्रियों का जत्था, स्वंय-सेवकों का जत्था।
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जंत्र  : [सं० यंत्र] १. यंत्र (दे०)। २. ताला।
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जत्र  : क्रि० वि०=यंत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जंत्र-मंत्र  : पुं०=जंतर-मंतर।
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जंत्रना  : पुं० [सं० जंत्र](यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) १. जंत्र अर्थात् ताला लगना। २. बाँध या रोक (दे.) रखना। स,.स्त्री० [सं० यंत्रणा] १. यंत्रणा देना। दुःख देना। २. दंड देना।
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जंत्रा  : स्त्री=जंतरा।
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जत्रानी  : स्त्री० [?] रुहेलखंड में बसी हुई जाटों की एक जाति।
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जंत्रित  : वि० [सं० यंत्रित] १. यंत्र द्वारा बाँधा या रोका हुआ। २. जो किसी के वश में हो। पर-वश।
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जंत्री  : पुं० [सं० यंत्रिन्] वीणा आदि बजानेवाला। बाजा बजानेवाला व्यक्ति। पुं० [सं० यंत्र] बाजा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=जंतरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जत्रु  : पुं० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+रु, त आदेश] धड़ के ऊपरी भाग में गले के नीचे और छाती के ऊपर दोनों ओर की अर्द्ध-चंद्राकार हड्डियाँ। हँसली।
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जत्रुक  : पुं० [सं० जत्रु+कन्]=जत्रु।
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जत्वश्मक  : पुं० [सं० जंतु-अश्मन्, मध्य० स०+कन्] शिलाजीत।
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जथा  : अव्य=यथा। स्त्री० [हिं० गथ] पूँजी। धन। स्त्री० [सं यूथ हि० जत्था] मंडली।
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जथारथ  : वि०=यथार्थ।
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जंद  : पुं० [सं० छन्दस् का ईरानी रूप] पारसियों का प्रसिद्ध धर्म-ग्रन्थ जो जरतुश्त की रचना है। (पहले लोग इसे भूल से उक्त ग्रंथ की भाषा का नाम समझते थे जो वास्तव में अवेस्ता है)।
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जद  : अव्य० [सं० यदा] १. जिस समय। २. जब कभी। ३. यदि। स्त्री० [फा० जद] १. आघात। चोट। २. लक्ष्य। निशाना। ३. हानि। नुकसान।
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जदनी  : वि० [फा०] मारने योग्य। वाध्य। स्त्री० मारने की क्रिया या भाव।
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जदपि  : अव्य=यद्यपि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जदबद  : पुं=जद्दबद्द।
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जंदरा  : पुं० [सं० यंत्र] ताला। (पश्चिम)। पुं०=जाँता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जदल  : पुं० [अं०] युद्ध। लड़ाई।
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जदवर, जदवार  : पुं० [अ० जडदवार] निर्विषी नामक ओषदि। निर्विसी।
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जदा  : वि० [फा० ज़दा] १. जिस पर किसी प्रकार का आघात हुआ हो। २. पीड़ित।
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जदि  : अव्य=यदि। २. =जब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जदीद  : वि० [अ०] १. नया । नवीन। २. आधुनिक। हाल का।
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जदु  : पुं०=यदु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जदुकुल  : पुं०=यदुकुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जदुपति  : पुं० [सं० यदुपति] श्रीकृष्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जदुपाल  : पुं० [सं० यदुपाल] श्रीकृष्ण।
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जदुपुर  : पुं०=यदुपुर (मथुरा)।
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जदुबर  : पुं० [सं० यदुवर] श्रीकृष्णचंद्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जदुबंसी  : पुं०=यदुवंशी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जदुबीर  : पुं०=यदुवीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जदुराई  : पु० [सं० यदुराज] श्रीकृष्णचंद्र।
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जदुराज  : पुं० [सं० यदुराज] श्रीकृष्ण चंद्र।
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जदुराम  : पुं० [सं० यदुराम] यदुकुल के राम। बलदेव।
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जदुराय  : पुं० [सं० यदुराज] श्रीकृष्णचंद्र।
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जदुवीर  : पुं=यदुवीर।
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जद्द  : पुं० [अं०] १. दादा। पितामह। २. पूर्वज। वि० [अ० ज्यादा] अधिक। ज्यादा। वि० [फा० जद] प्रचंड। प्रबल। अव्य० [सं० यदि] १. जब। २. जब कभी।
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जद्दपि  : अव्य०=यद्यपि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जद्दबद्द  : पुं० [सं० यत्+अवद्य] अकथनीय या अश्लील बात।
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जद्दव  : पुं० [सं० यादव] श्रीकृष्ण। उदाहरण–का चहुआनि कित्ति, जेपि जद्दव रस चंगी।–चंदबरदाई।
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जद्दी  : वि० [अं०] (वह अधिकार या संपत्ति) जो बाप-दादाओं से उत्तरा-धिकार में मिलती हो। बाप-दादाओं के समय से चला आनेवाला। स्त्री० कोशिश। प्रयत्न।
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जद्दौ  : पुं० [सं० यादव] यादववंशी राजा।
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जन  : पुं० [सं०√जन् (उत्पन्न होना)+अच्] १. लोक। लोग। २. प्रजा। ३. सेवक। जन। ४. अनुयायी। अनुचर। ५. समुदाय। समूह। ६. सात लोको में से पाँचवा लोक। अव्य=जनि (नहीं)।
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जन-आंदोलन  : पुं० [ष० त०] वह आंदोलन जिसमें जनता अथवा बहुत से लोग भाग लें।
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जन-कारी(रिन्)  : पुं० [जन्√कृ (बिखेरना)+णिनि, उप० स०] अलक्तक। अलक्तका। अलता।
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जन-गणना  : स्त्री० [ष० त०] किसी देश या राज्य के समस्त जनों अर्थात् निवासियों की गणना। वह कार्य जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि इस देश में कुल कितने व्यक्ति हैं।
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जन-चक्षु(स्)  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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जन-चर्चा  : स्त्री० [स० त०] वह बात जिसकी चर्चा सब लोग करते या कर रहे हों। सर्वसाधारण में फैली हुई बात। जनश्रुति।
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जन-जागरण  : पुं० [ष० त०] जनता के जागरूक होने की स्थिति या भाव।
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जन-जाति  : स्त्री० [ष० त०] जंगलों, पहाड़ों आदि पर रहनेवाली ऐसी असभ्य जाति या लोगों का वर्ग जो साधारणतः एक ही पूर्वज के वंशज होते है और जिनका प्रायः एक ही पेशा, एक जैसे विचार और एक जैसी रहन-सहन होती है।
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जन-तंत्र  : पुं० [ष० त०] वह शासन प्रणाली जिसमें देश या राज्य का शासन जनता द्वारा स्वयं अथवा जनता के प्रतिनिधियों द्वारा होता हो।
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जन-त्रा  : स्त्री० [जन√त्रै (रक्षा करना)+क] छाता।
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जन-देव  : पुं० [ष० त०] १. राजा। २. महाभारत में वर्णित मिथिला का एक राजा।
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जन-धन  : पुं० [द्व० स०] मनुष्य और उसकी संपत्ति।
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जन-पद  : पुं० [ब० स०] [वि० जान-पद, जानपदिक, जनपदीय] १. मनुष्यों से बसा हुआ स्थान। बस्ती। २. किसी राज्य की वह समस्त भूमि जिसमें केवल राजधानी का क्षेत्र सम्मिलित न हो। राजधानी के अतिरिक्त बाकी सारा राज्य। ३. किसी देश का वह अंश या भाग जिसमें एक ही तरह की बोली बोलने वाले लोग बसते हों। सूबा।
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जन-पाल  : पुं० [जन्√पल् (पालन करना)+णिच्+अण्, उप० स०] १. मनुष्यों का पालन करनेवाला व्यक्ति। २. राजा। ३. सेवक।
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जन-प्रवाद  : पुं० [स० त०] जनता में फैली हुई कोई बात।
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जन-प्रिय  : वि० [ष० त०] [भाव० जनप्रियता] १. (व्यक्ति) जो जनता को प्रिय हो। जैसे–जनप्रिय नेता। २. (बात आदि) जिसे जन-साधारण उचित या वांछनीय समझते हों। जैसे–जनप्रिय विचार या सिद्धांत। ३. धनिया। ४. सहिंजन का पेड़।
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जन-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] हुलहुल का साग।
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जन-मत  : पुं० [ष० त०] १. आधुनिक राजनीति में किसी विशिष्ट प्रदेश या स्थान के वयस्क निवासियों का वह मत जो किसी प्रकार की संधि या सार्वराष्ट्रीय संस्था के निर्णय के अनुसार यह जानने के लिए दिया जाता है कि वे लोग किस अथवा किस के राज्य० या शासन में रहना चाहते हैं। (प्लेबिसाइट) २. दे० लोकमत।
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जन-मरक  : पुं० [ष० त०] वह बीमारी या रोग जिससे बहुत से लोग मरते हों। महामारी।
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जन-मर्यादा  : स्त्री० [ष० त०] लौकिक आचार या रीति।
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जन-मुरीद  : वि० [फा० जन-मुरीद] (व्यक्ति) जो अपनी पत्नी का अंधभक्त हो। पत्नी का गुलाम।
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जन-यात्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] बहुत से लोगों का मिल-जुलकर प्रदर्शन आदि के लिए शहर के प्रमुख कूचों, बाजारों आदि में से होकर जाना। जलूस।
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जन-रंजन  : वि० [ष० त०] जनता का रंजन करनेवाला।
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जन-रव  : पुं० [ष० त०] १. लोगों का कोलाहल। शोर। २. [स० त०] अफवाह। जनश्रुति।
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जन-वल्लभ  : पुं० [ष० त०] श्वेत रोहित का पेड़ा। सफेद रोहिड़ा। वि० जनता का प्यारा। जन-प्रिय।
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जन-वाद  : पुं० जनरव। (दे०)
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जन-वास  : पुं० [ष० त०] १. मनुष्यों के बसने या रहने का स्थान। २=जनवासा।
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जन-शून्य  : वि० [तृ० त०] सुनसान। निर्जन।
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जन-श्रुत  : वि० [स० त०] १. जिसके संबंध में लोगों ने सुना हो। २. प्रसिद्ध।
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जन-श्रुति  : स्त्री० [ष० त०] १. वह बात जिसे लोग परंपरा से सुनते चले आये हों। २. अफवाह।
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जन-संख्या  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी प्रदेश, राज्य या स्थान पर बसे हुए कुल लोग। २. उक्त बसे हुए लोगों की संख्या।
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जन-साधारण  : पुं० [कर्म० स०] १. जनता। २. समाज का कोई एक व्यक्ति।
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जन-सेवक  : पुं० [ष० त० ] १. वह जो जन-साधारण या जनता की सेवा के काम करता हो। २. दे० ‘लोक-सेवक’।
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जन-सेवा  : स्त्री० [ष० त०] ऐसे काम जो जन-साधारण या जनता के उपकार या हित के लिए हो। (पब्लिक सर्विस)
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जन-स्थान  : पुं० [ष० त०] दंडकारण्य। दंडकवन।
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जन-हरण  : पुं० [ष० त०] एक दंडक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीस लघु और एक गुरु होता है।
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जन-हित  : पुं० [ष० त०] १. जनता या जन-साधारण का हित। २. जनता के हित का काम।
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जन-हीन  : वि० [तृ० त०] निर्जन।
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जनक  : वि० [√जन्+णिच्+ण्वुल्–अक] जननेवाला। जन्म देनेवाला। पुं० १. पिता। २. मिथिला के एक राजवंश की उपाधि। ३. मिथिला के राजा जिनकी सीता कन्या थी। ४. शंबरासुर का चौथा पुत्र। ५. एक वृक्ष का नाम।
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जनक-तनया  : स्त्री० [ष० त०] सीता।
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जनक-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त०] सीता।
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जनक-पुर  : पुं० [ष० त०] मिथिला की राजधानी।
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जनक-सुता  : स्त्री० [ष० त०] सीता।
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जनकता  : स्त्री० [सं० जनक+तल्-टाप्] जनक होने की अवस्था या भाव।
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जनकात्मजा  : स्त्री० [जनक-आत्मजा, ष० त०] सीता।
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जनकौर  : पुं० [हिं० जनक+औरा (प्रत्यय)] १. जनकपुर। २. राजा जनक के वंशज।
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जनखा  : पुं० [फा० ज़न्खः] १. वह व्यक्ति जिसके कार्य व्यापार या हाव-भाव औरतों जैसे हों। २. वह व्यक्ति जिसमें किसी प्रकार के शारीरिक विकार के कारण बच्चे उत्पन्न करने की शक्ति न हो। नपुंसक।
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जनंगम  : पुं० [सं० जन्√गम् (जाना)+खच्, मुम्, आगम] चांडाल।
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जनगी  : स्त्री० [देश०] मछली।
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जनघर  : पुं० [सं० जन-गृह] मंडप। (डिं०)।
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जनड़ी  : स्त्री० [सं० जनती] माँ। माता। (स्त्रियाँ)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जनता  : स्त्री० [सं० जन+तल्-टाप्] १. जन का भाव। २. किसी देश या राज्य में रहनेवाले कुल व्यक्तियों की संज्ञा। प्रजा। जन-साधारण।
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जनथोरी  : स्त्री० [देश०] कुकड़बेल। बंदाल।
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जनधा  : पुं० [सं० जन√धा (रखना)+क्विप्] अग्नि। आग।
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जनन  : पुं० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+ल्युट-अन] १. जनने अर्थात् संतान को जन्म देने की क्रिया या भाव। २. उत्पत्ति। ३. आविर्भाव। ४. [√जन्+णिच्+ल्यु-अन] पिता। ५. कुल। वंश। ६. ईश्वर।
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जनन-गति  : स्त्री० [ष० त०] किसी एक वर्ष में किसी एक स्थान पर बसे हुए एक हजार व्यक्तियों के पीछे जन्मे हुए बच्चों की संख्या। (बर्थरेट)
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जनना  : स० [सं० जनन] जन्म देकर बच्चों को अस्तित्व में लाना। जन्म देना। प्रसव करना।
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जननाशौच  : पुं० [सं० जनन-अशौच, तृ० त०] वह अशौच जो घर में बच्चे के जन्म लेने पर लगता है। वृद्धि।
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जननि  : स्त्री=जननी।
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जननिर्देश  : पुं० [सं०] आधुनिक राजनीति में, जनता के प्रतिनिधियों विधान सभाओं आदि के निश्चयों या प्रस्तावित कार्यों आदि के संबंध में की जानेवाली वह व्यवस्था जिसके अनुसार यह जाना जाता है कि मत-दाता वर्ग उस बात के पक्ष में है या नहीं। (रेफरेण्डम)।
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जननी  : स्त्री० [सं०√जन्+अनि-ङीष्] जन्म देने वाली स्त्री। माँ। माता।
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जननेंद्रिय  : स्त्री० [सं० जन-इंद्रिय, ष० त०] वह इंद्रिय जो जनने (जैसे–योनि) या जनाने (जैसे–लिंग) का काम करती हो।
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जनपद–कल्याणी  : स्त्री० [ष० त०] वेश्या।
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जनपदी(दिन्)  : पुं० [सं० जनपद+इनि] जन-पद का शासक।
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जनपदीय  : वि० [सं० जनपद+छ-ईय] जनपद संबधी। जनपद का।
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जनबगुल  : पुं० [सं० जन+हिं० बगुला] बगुलों की एक जाति।
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जनम  : पुं० [सं० जन्म] १. जन्म। २. जीवन-काल। आयु। जिंदगी। मुहावरा–जनम गँवाना या घालना=व्यर्थ जीवन नष्ट करना। उदाहरण–देखत जनम आपनौ घालै।–कबीर। जनम हारना=(क) व्यर्थ सारा जीवन बिताना। (ख) जन्म भर किसी का दास होकर रहने की प्रतिज्ञा करना।
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जनम-जला  : वि० [हिं० जनम+जलना] [स्त्री० जनमवाली] अभागा। भाग्यहीन।
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जनमघूँटी  : स्त्री० [हिं० जनम+घूँटी] वह घूँटी जो बच्चों को जन्म लेने के बाद कुछ दिनों तक दी जाती है। मुहावरा–(किसी बात का) जन्म-घूँटी में पड़ना=जन्म से ही (किसी बात का) अभ्यास या चसका होना।
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जनमधरती  : स्त्री=जन्मभूमि।
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जनमना  : अ० [सं० जन्म] १. जन्म लेकर अस्तित्त्व में आना। २. खेल में मरे हुए व्यक्ति का या मरी हुई गोटी का फिर से खेल में सम्मलित होने के योग्य होना। स० संतान को जन्म देना प्रसव करना।
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जनमपत्री  : स्त्री०=जन्मपत्री।
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जनमसँधाती  : वि० [हिं० जनम+संघाती] १. जिसका साथ जन्म से ही रहा हो। २. जो जन्म भर साथ रहे। पुं० मित्र। घनिष्ठ मित्र।
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जनमाना  : स० [हिं० जनम] १. प्रसूता को प्रसव कार्य में सहायता देना। २.=जनमना।
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जनमारो  : पुं०=जन्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जनमेजय  : पुं० [सं० जन√एज् (कँपाना)+णिच्+खश्, मुम्]=जन्मेजय।
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जनयिता(तृ)  : पुं० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+णिच्+तृच्] [स्त्री० जनयित्री] पिता। बाप।
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जनरल  : पुं० [अं०] सेना का एक बहुत बड़ा अधिकारी। सेनानायक। सेना-पति।
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जनवरी  : स्त्री० [अं० जनअरी] ईसवीं सन् का पहला महीना।
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जनवाई  : स्त्री० [हिं० जनवाना] १. जनवाने अर्थात् प्रसव में सहायक होने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। २. दे० ‘जनाई’।
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जनवाना  : स० [हिं० जनना का प्रे० रूप] [भाव० जनवाई] जनने अर्थात् प्रसव करने में सहायक होना। स० [हिं० जानना का प्रे० रूप] जानने या ज्ञान-प्राप्त करने में सहायक होना। ज्ञात या विदित कराना। जनाना। (दे०)
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जनवासा  : पुं० [सं० जनवास] वह स्थान जहाँ पर बराती ठहरते या ठहराये जाते हैं। बरातियों के ठहरने की जगह।
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जना  : स्त्री० [सं०√जन्+णिच्+अ-टाप्] १. उत्पत्ति। पैदाइश। २. माहिष्मती के राजा नीलध्वज की स्त्री। पुं०=जन (आदमी)।
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जनाई  : स्त्री० [हिं० जनना] १. जनाने अर्थात् प्रसव कराने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. प्रसव में सहायक होनेवाली दाई। स्त्री० [हिं० जनाना-जतलाना] किसी बात का परिचय या परिज्ञान कराने की क्रिया या भाव।
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जनाउ  : पुं०=जनाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जनाकीर्ण  : वि० [जन-आकीर्ण, तृ० त० ] १. (प्रदेश) जिसमें बहुत अधिक व्यक्ति बसे हुए हों। घनी बस्तीवाला। २. (स्थान) जो मनुष्यों से भरा हुआ हो।
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जनाचार  : पुं० [जन-आचार, ष० त०] लोकाचार।
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जनाजा  : पुं० [अ.जनाजः] १. शव। २. अरथी या वह संदूक जिसमें मुसलमान लोग शव रखकर कब्रिस्तान ले जाते हैं।
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जनांत  : पुं० [जन-अंत] १. वह स्थान जहाँ मनुष्य न रहते हों। २. वह प्रदेश जिसकी सीमा निश्चित हो। ३. यम। वि० मनुष्यों का अंत या नाश करनेवाला।
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जनांतिक  : पु० [जन-अंतिक, ष० त०] नाटक में ऐसी सांकेतिक बात-चीत जिसका आशय औरों की समझ में न आता हो।
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जनाती  : पुं० [हिं० बराती का अनु०?] विवाह के अवसर पर कन्या-पक्ष के लोग। घराती।
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जनाधिनाथ  : पुं० [जन-अधिनाथ, ष० त०] जनाधिप।
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जनाधिप  : पुं० [जन-अधिप,ष० त०] १. राजा। २. विष्णु।
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जनानखाना  : पुं० [फा० जनान खानः] घर या महल का वह भीतरी भाग जिसमें औरतें या रानियाँ रहती हैं।
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जनाना  : स० [सं० ज्ञापय, जानाय, प्रा० जाणवेइ] किसी घटना, चीज या बात की जानकारी किसी को कराना। अवगत कराना। स० [सं० जनन, हिं० जनना] प्रसवकाल में गर्भिणी की सहायता करना। प्रसव कराना। वि० [फा० जनानः] [स्त्री० जनानी, भाव० जनानापन] १. स्त्रियों का सा आचरण अथवा उन जैसे हाव-भाव दिखलानेवाला (व्यक्ति)। २. स्त्रियों का सा। ३. केवल स्त्रियों में चलने या होनेवाला। जैसे–जनानी धोती। पुं० १. हीजड़ा। नपुंसक। २. अंतःपुर। स्त्री० पत्नी। जोरू।
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जनानापन  : पुं० [फा० जनानः+हिं० पन (प्रत्य०)] स्त्री होने की अवस्था, गुण या भाव। स्त्रीत्व।
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जनानी  : स्त्री० [हिं० जनाना] १. स्त्री। २. पत्नी। जोरू।
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जनाब  : पुं० [अ०] महाशय। महोदय।
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जनाब-आली  : पुं० [अ०] मान्य महोदय।
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जनाबा  : स्त्री० [अ०] श्रीमती।
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जनारदन  : पुं० [सं० जनार्दन] विष्णु।
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जनार्दन  : पुं० [सं० जन√अर्द् (पीड़ित करना)+णिच्+ल्यु–अन] विष्णु।
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जनाव  : पुं० [हिं० जनाना=जतलाना] जनाने अर्थात् जानकारी कराने की क्रिया या भाव। पुं० [हिं० जनाना=प्रसव कराना] प्रसव करने या कराने की क्रिया या भाव।
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जनावर  : पुं०=जानवर।
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जनाशन  : वि० [सं० जन√अश् (खाना)+ल्यु–अन] मनुष्यों को भक्षण करनेवाला। पुं० भेड़िया।
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जनाश्रम  : पुं० [जन-आश्रम, ष० त०] वह आश्रय या स्थान जिसमें मनुष्य जाकर कुछ समय के लिए रहते हों। जैसे–धर्मशाला, सराय आदि।
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जनाश्रय  : पुं० [जन-आश्रय, ष० त०] १. घर। मकान। २. धर्मशाला। ३. सराय। ४. किसी विशेष कार्य के लिए बनाया हुआ मंडप।
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जनि  : स्त्री० [सं० जन+इन्] १. उत्पत्ति। जन्म। पैदाइश। २. नारी। स्त्री। ३. पत्नी। ४. माता। अव्य० मत। नहीं। उदाहरण–तहँ तहँ जनि छिन छोह न छाँडियै।–तुलसी। स्त्री० =जनी।
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जनिक  : वि० [सं० जनक] १. जन्म देनेवाला। २. उत्पादक।
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जनिका  : स्त्री० [हिं० जनाना] पहेली। बुझौवल। स्त्री० [सं० जनि+कन्-टाप्]=जनि।(दे०)।
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जनित  : वि० [सं०√जन्+णिच्+क्त] १. जन्मा या उपजा हुआ। २. जना हुआ। ३. किसी के कारण या फल-स्वरूप उत्पन्न होनेवाला। जैसे–रोगनजित दुर्बलता।
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जनिता(तृ)  : पुं० [सं०√जन्+णिच्+तृच्, णिलोपनि०] वह जो किसी को जनाये अर्थात् जन्म दे। जनक। पिता।
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जनित्र  : पुं० [सं० जनि+त्रल्] जन्म-स्थान।
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जनित्री  : स्त्री० [सं० जनितृ+ङीप्] वह जो किसी को जन्म दे। माँ। माता।
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जनित्व  : पुं० [सं०√जन्+णिच्+इत्वन्] [स्त्री० जनित्वा=माता] पिता।
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जनियाँ  : स्त्री=जानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जनी  : स्त्री० [सं० जनि+ङीष्] १. प्रकृति, जो सब को उत्पन्न करने वाली मानी गई है। २. माता। ३. स्त्री। ४. बेटी। ५. दासी। वि० स्त्री० जिसे जना गया हो। पैदा की हुई।
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जनु  : स्त्री० [सं०√जन्+उ] जन्म। उत्पत्ति। अव्य० [हिं० जनाना] मानों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जनुक  : अव्य० [हिं० जनु] जैसे। कि।
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जनू  : स्त्री० [सं० जनु+ऊङ] जन्म।
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जनून  : पुं० [अ० जुनून] पागलपन। उन्माद।
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जनूनी  : वि० [अ०] पागल।
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जनूब  : पुं० [अ०] दक्षिण (दिशा)।
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जनूबी  : वि० [अ० जनूब] दक्षिण दिशा का। दक्षिणी।
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जनेऊ  : पुं० [सं० यज्ञोपवीत] १. हिन्दुओं में बालकों का यज्ञोपवीत नामक संस्कार। २. सूत के धागे की वह तेहरी माला जो उक्त संस्कार के समय गले में पहनाई जाती है। यज्ञोपवीत। ब्रह्मसूत्र।
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जनेत  : स्त्री० [सं० जन+एत (प्रत्यय)] बरात। उदाहरण–जम से बुरी जनेत।-कहा०।
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जनेता  : पुं० [सं० जनयिता] पिता। बाप। (डिं०)।
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जनेंद्र  : पुं० [सं० जन-इंद्र, ष० त०] राजा।
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जनेरा  : पुं० [हिं० ज्वार] बाजरे की एक जाति।
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जनेव  : पुं०=जनेऊ।
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जनेवा  : पुं० [हिं० जनेऊ] १. किसी चीज के चारों ओर जनेऊ की तरह पड़ी हुई धारी या लकीर। २. एक प्रकार की घास। ३. तलवार का वह वार जो कंधे पर पड़कर तिरछे बल (दूसरी ओर) कमर तक काट करे।
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जनेश  : पुं० [सं० जन-ईश, ष० त०] १. ईश्वर। २. राजा।
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जनेष्टा  : स्त्री० [सं० जन-इष्टा, ष० त०] १. हल्दी। २. चमेली का पेड़। ३. पपड़ी। ४. एक औषधि।
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जनै  : अव्य० [हिं० जानना] मानों।
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जनैया  : वि० [हिं० जनना+ऐया (प्रत्यय)] जानने या जनाने वाला। जो स्वयं जानता हो अथवा किसी को कुछ जतलाता हो।
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जनो  : पुं०=जनेऊ। अव्य० [हिं० जनु०] मानों।
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जनोपयोगी(गिन्)  : वि० [सं० जन-उपयोगिन् ष० त०] जन-साधारण के लिए उपयोगी।
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जनौघ  : पुं० [सं० जन-ओध, ष० त०] मनुष्यों का समूह। भीड़।
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जन्नत  : पुं० [अ०] १. उद्यान। बाग। २. मुसलमानों के अनुसार स्वर्ग।
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जन्म-कील  : पुं० [ष० त० ] विष्णु।
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जन्म-कुण्डली  : स्त्री० [ष० त० ] १. फलित ज्योतिष में, वह चक्र जिसमें जन्मकाल के ग्रहों की स्थिति बताई गई हो। २. दे.जन्मपत्री।
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जन्म-कृत  : पुं० [सं० जन्म√ कृ(करना)+क्विप्,तुक् आगम] जनक। पिता।
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जन्म-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] जन्मस्थान। जन्मभूमि।
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जन्म-गत  : वि० [तृ० त०] जन्म से ही साथ लगा रहने या होनेवाला।
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जन्म-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] गर्भ से निकलकर जीवन प्राप्त करने की क्रिया या भाव।
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जन्म-तिथि  : स्त्री० [ष० त०] जन्म-दिन।
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जन्म-दिन  : पुं० [ष० त०] १. वह दिन जिसमें किसी ने जन्म लिया हो किसी के जीवन धारण करने का दिन। २. तिथि, तारीख आदि के विचार से प्रति वर्ष पड़नेवाला किसी के जन्म का दिन जो प्रायः उत्सव के रूप में मनाया जाता है। वर्ष-गाँठ। (बर्थ डे)।
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जन्म-दिवस  : पुं० [ष० त०] जन्म-दिन। (दे०)
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जन्म-नक्षत्र  : पुं० [ष० त०] वह नक्षत्र जिसेक भोग काल में किसी का जन्म हुआ हो।
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जन्म-पंजी  : स्त्री० [ष० त०] वह पंजी जिसमें जन्म लेनेवाले बच्चों का जन्म,समय,जन्म-स्थान, पिता का नाम आदि लिखा जाता है। ( बर्थ रजिस्टर)।
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जन्म-पति  : पुं० [ष० त०] १. कुण्डली में जन्म राशि का मालिक। २. जन्म लग्न का स्वामी।
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जन्म-पत्र  : पुं०=जन्मपत्री।
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जन्म-पत्रिका  : स्त्री०=जन्म-पत्री।
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जन्म-पत्री  : स्त्री० [ष० त०] १. वह पत्र या खर्रा जिसमें किसी के जन्म काल के समय के ग्रहों की स्थिति, उनकी दशा, अतर्दशा आदि और उनके फलों आदि का उल्लेख होता है। (हारस्कोप) २. किसी घटना या कार्य का आदि से अन्त तक का सारा विवरण।
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जन्म-पादप  : पुं० [ष० त०] वंश वृक्ष। शजरा।
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जन्म-प्रतिष्ठा  : स्त्री० [तृ० त०] १. माता। माँ। २. जन्म होने का स्थान।
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जन्म-प्रमाणक  : पुं० [सं०] वह प्रमाण-पत्र जिसमें किसी व्यक्ति के जन्म-काल, जन्मतिथि, जन्म-स्थान आदि का आधिकारिक विवरण होता है। (बर्थ सर्टिफिकेट)।
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जन्म-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] वह देश या राज्य (अथवा संकुचित अर्थ में नगर या ग्राम) जिसमें किसी का जन्म हुआ हो।
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जन्म-भृत्  : पुं० [सं० जन्म√भृ (भरण)+क्विप्, तुक् आगम] जीव। प्राणी।
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जन्म-योग  : पुं० [ष० त०] फलित ज्योतिष में, ग्रहों की वह स्थिति जो इस बात की सूचक होती है कि अमुक अवसर या समय पर घर में संतान का जन्म होगा।
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जन्म-राशि  : स्त्री० [ष० त०] वह राशि जिसमें किसी का जन्म हुआ हो।
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जन्म-वर्त्म(न्)  : पुं० [ष० त०] योनि। भग।
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जन्म-विधवा  : स्त्री० [तृ.त० ] अक्षत योनि। बाल-विधवा।
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जन्म-सिद्ध  : वि० [तृ० त०] जिसकी सिद्धि या प्राप्ति जन्म से ही होती या मानी जाती हो। जैसे–जन्म-सिद्ध अधिकार।
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जन्म-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. जन्मभूमि। २. माता का गर्भ। ३. कुंडली में वह स्थान जिसमें जन्म समय के ग्रहों का उल्लेख होता है।
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जन्म(न्)  : पुं० [सं०√ जन्(उत्पत्ति)+मनिन्] १. गर्भ से निकलकर जीवन धारण करने की क्रिया या भाव उत्पत्ति। पैदाइश। २. अस्तित्व में आना। आविर्भाव। जैसे–नये विचार से जन्म लेते हैं। ३. जीवन। जिन्दगी। ४. जीवन-काल। आयु। जैसे–जन्म भर वह पछताता रहा।
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जन्मअष्टमी  : स्त्री०=जन्माष्टमी।
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जन्मतुआ  : वि० [हिं० जन्म+तुआ(प्रत्यय)] [स्त्री० जन्मतुई] (बच्चा) जिसको जन्म लिए अभी थोड़े ही दिन हुए हों। शिशु।
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जन्मना  : अ० [सं० जन्म+हिं० ना(प्रत्यय)] १. जन्म होना। जन्मग्रहण करना। पैदा होना। २. अस्तित्व में आना। स० १. जन्म लेना। प्रसव करना। २. अस्तित्व में लाना। अव्य० जन्म के विचार से। जन्म की दृष्टि से। जैसे– जन्मना जाति मानना।
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जन्मा  : पुं० [सं० जन्मन्] समस्तपदों के अंत में, वह जिसका जन्म हुआ हो। जैसे–अग्र जन्मा, नेत्र जन्मा आदि। वि० जन्मा हुआ। जो पैदा हुआ हो।
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जन्मांतर  : पुं० [जन्म-अंतर, मयू० स०] एक बार मरने के बाद होनेवाला दूसरा जन्म।
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जन्मांध  : वि.[जन्म-अंध, तृ० त०] जो जन्म से ही अंधा हो।
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जन्माधिप  : पुं० [जन्म-अधिप, ष० त०] १. शिव का एक नाम। २. जन्म राशि का स्वामी। ३. जन्म लग्न का स्वामी।
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जन्माना  : स० [हिं० जन्मना] जन्म देना।
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जन्माष्टमी  : स्त्री० [जन्म-अष्टमी, ष० त०] भाद्रपद की कृष्णाष्टमी। विशेष–भगवान कृष्ण का जन्म इसी अष्टमी की रात्रि में हुआ था।
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जन्मास्पद  : पुं० [जन्म-आस्पद, ष० त०] जन्मभूमि। जन्मस्थान।
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जन्मी(न्मिन्)  : पुं० [सं० जन्म+इनि] प्राणी। जीव। वि० जन्मा हुआ।
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जन्मेजय  : पुं० [सं० जनमेजय] १. विष्णु। २. एक प्रसिद्ध राजा जो हस्तिनापुर के महाराज परीक्षित का पुत्र था। विशेष–इसी राजा ने तक्षक नाग से अपने पिता का बदला लिया था और एक नागमेध यज्ञ किया था।
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जन्मेश  : पुं० [जन्म-ईश, ष० त०] फलित ज्योतिष में, वह ग्रह जो किसी की जन्म राशि का स्वामी हो।
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जन्मोत्सव  : पुं० [जन्म-उत्सव, ष० त०] १. किसी के जन्म के समय होनेवाला उत्सव। २. किसी के जन्म-दिन के स्मरण में होनेवाला उत्सव।
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जन्य  : वि० [सं० जन+यत्√जन् (उत्पत्ति)+ण्यत्] [भाव० जन्यता] १. जिसका संबंध जन अर्थात् मनुष्य से हो। जन-संबधी। २. जिसे मनुष्य ने उत्पन्न किया हो। ३. किसी जाति, देश या राष्ट्र से संबंध रखनेवाला। जातीय, देशीय या राष्ट्रीय। ४. किसी चीज से उत्पन्न होनेवाला। जैसे–विचारजन्य। पुं० १. साधारण मनुष्य। २. राष्ट्र। ३. पुत्र। ४. पिता। ५. जन्म। ६. किंवदंती। ७. लड़ाई। ८. बाजार। ९. विवाह के समय दूल्हे के साथ जानेवाला बालक। सहबाला।
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जन्यता  : स्त्री० [सं० जन्य+तल्-टाप्] जन्म होने की अवस्था या भाव।
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जन्या  : स्त्री० [सं० जन्य+टाप्] १. माता की सखी। २. वधू की सहेली। ३. वधू।
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जन्यु  : पुं० [सं० जन+युच्] १. जीव। प्राणी। २. अग्नि। ३. ब्रह्मा।
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जंप  : पुं० [सं० जल्प ?] शांति। उदाहरण–जंप जीव नहीं आवतौ जाणे।–
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जप  : पुं० [सं०√जप् (जपना)+अप्] १. जपने या जाप करने की क्रिया या भाव। २. वह शब्द, पद या वाक्य जिसका उच्चारण भक्ति पूर्वक बार-बार किया जाय। ३. पूजा, संध्या आदि में मंत्रों का संख्यापूर्वक पाठ करना। जप करने में मंत्र की संख्या का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए जप में माला की भी आवश्यकता होती है।
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जप-माला  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वह माला जो जप करने के समय फेरी जाती है। जपनी।
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जपजी  : पुं० [हिं० जप] सिक्खों का प्रसिद्ध ग्रंथ जिसका वे प्रायः पाठ करते हैं।
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जपतप  : पुं० [हिं० जप+तप] संध्या, पूजा और पाठ आदि। पूजा पाठ।
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जपता  : स्त्री० [सं० जप+तल्-टाप्] जपने की क्रिया या भाव।
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जंपती  : पुं,. [सं० जाया-पति द्व० स० जम् आदेश] दंपति।
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जपन  : पुं० [सं०√जप्+ल्युट-अन] जपने की क्रिया या भाव। जप।
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जंपना  : स० [हिं० जपना सं० जल्पन](यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) १. कहना। बोलना। उदाहरण–यों कवि भूषण जंपत है लखि संपति को अलका-पति लाजै।–भूषण। २. बकना। बकवाद करना। अ० =झंपना (कूदना)।
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जपना  : स० [सं० जपन] १. धार्मिक फल-प्राप्ति के लिए किसी शब्द, पद वाक्य आदि को भक्ति या श्रद्धापूर्वक बार-बार कहना। २. पूजा, संध्या, यज्ञ आदि करते समय संख्यानुसार मन ही मन उच्चारण करना। ३. यज्ञ करना। ४. किसी की कोई चीज हजम करना। हड़पना। (बाजारू)।
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जपनी  : स्त्री० [हिं० जपना] १. माला जिसे जप करते समय फेरा जाता है। जप करने की माला। २. वह थैली जिसमें माला और हाथ डालकर जप किया जाता है। गुप्ती। गोमुखी। ३. जपने की क्रिया या भाव। (क्व०) ४. बार-बार कोई बात बहुत आग्रहपूर्वक कहना। रट।
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जपनीय  : वि० [सं०√जप्+अनीयर्] जिसको जपना चाहिए। जपे जाने योग्य।
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जपा  : स्त्री० [सं०√जप्+अच्-टाप्] जवा। अड़हुल। पुं० [सं० जप] जप करनेवाला व्यक्ति। उदाहरण–तपा जपा सब आसन मारे।–जायसी।
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जपाना  : स० [हिं० ‘जपना’ का प्रे० रूप] दूसरे से जप कराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जपालक्त  : पुं० [जपा-अल्कत, उपमि० स०] एक प्रकार का अलक्तक जो गहरे लाल रंग का होता है।
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जपिया  : वि=जपी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जपी  : वि० [हिं० जपना+ई (प्रत्यय)] जप करनेवाला।
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जप्त  : वि०=जब्त।
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जप्तव्य  : वि० [सं०+जप्+तव्यत्] जपे जाने के योग्य। जपनीय।
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जप्ती  : स्त्री०=जब्ती।
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जप्य  : वि० [सं०√जप्+ण्यत्] जपे जाने के योग्य।
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जफर  : पुं० [फा० जफर] तावीज, यंत्र आदि बनाने की कला या काम। पुं० [अ०] विजय।
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जफा  : स्त्री० [फा०] १. अन्यायपूर्ण कार्य या व्यवहार। २. अत्याचार।
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जफाकश  : वि० [फा०] १. अन्यायपूर्ण व्यवहार या अत्याचार सहन करनेवाला। सहनशील। २. परिश्रमी।
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जफीरी  : स्त्री० [अ०] १. सीटी अथवा उससे किया जानेवाला शब्द। २. मुँह में दो उँगलियाँ रखकर बजाई जानेवाली सीटी। ३. एक प्रकार की कपास।
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जफील  : स्त्री०=जफीरी।
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जफीलना  : अ० [हिं० जफील] सीटी बजाना। सीटी देना।
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जंब  : पुं० [सं०√जम्ब्+अच्] कीचड़।
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जब  : अव्य० [सं० यावत्] १. जिस समय। जिस वक्त। (इस अर्थ में इसका नित्य संबंधी ‘तब’ है) जैसे–जब सवेरा होता है तब अंधकार आप से आप नष्ट हो जाता है। २. जिस अवस्था में। जिस दशा या हालत में। (इस अर्थ में इसका नित्य संबंधी ‘तो’ है) जैसे–जब उन्हें क्रोध चढ़ता है तो उनका चेहरा लाल हो जाता है। पद–जब कभी=किसी समय। जब जब=जिस समय। जब तब-कभी=कभी। जैसे–वहाँ जब=तब ही जाना होता है। जब देखो तब=प्रायः। अक्सर। जैसे–जब देखो तब तुम खेलते ही रहते हों। जब होता है तब=अक्सर प्रायः।
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जबड़ा  : पुं० [सं० ज्रंभ] मुँह में की उन दो (एक ऊपर तथा एक नीचे) हड्डियों में से हर एक जिसमें दांत जमे या जड़े रहते हैं। पद–जबड़े की सान=गवैयों की एक प्रकार की तान (हलक की तान से भिन्न) जो साधारण या निम्न कोटि की मानी जाती है।
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जबर  : वि० [अ० ज़बर] १. बलवान। बली। २. पक्का। दृढ़। मजबूत।
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जबर-जंग, जबरदस्त  : वि० [फा०] १. बहुत बड़ा या बलवान। २. उच्च। श्रेष्ठ। वि०=जबरदस्त।
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जबरई  : स्त्री० [हिं० जबर] १. जबरदस्ती। २. ज्यादती।
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जबरदस्त  : वि० [फा०] [भाव०, जबरदस्ती] १. (व्यक्ति) जो बहुत अधिक शक्तिशाली हो तथा स्वभाव से कड़ा हो। जैसे–वह जबरदस्त हाकिम है। २. (वस्तु) जो बहुत ही दृढ़ या मजबूत हो। ३. (कार्य) जो बहुत अधिक कठिन हो। जैसे–जबरदस्त सवाल।
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जबरदस्ती  : स्त्री० [फा०] १. जबरदस्त या शक्तिशाली होने की अवस्था या भाव। २. कोई ऐसा कार्य या व्यवहार जो बलपूर्वक तथा कड़ाई के साथ किसी के प्रति किया गया हो। जैसे–यह सरासर आपकी जबरदस्ती है। अव्य. १. बलपूर्वक। जैसे–ये जबरदस्ती अंदर घुस आये। २. दबाव पड़ने पर। जैसे–जबरदस्ती खाना पड़ा।
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जबरन्  : अव्य० [अ० जब्रन] बलात्। जबरदस्ती। बलपूर्वक।
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जबरा  : पुं० [अं० जेब्रा] घोड़े की तरह का एक जंगली जानवर जिसके सारे शरीर पर लंबी-लंबी सुन्दर काली धारियाँ होती है। वि=जबर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जबरूत  : स्त्री० [अ०] १. महत्ता। २. वैभव। ३. ऊपर के नौ लोकों में से तीसरा। (मुसल०)।
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जबल  : पुं० [अ०] पहाड़।
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जबह  : पुं० [अ०] १. गला काटकर प्राण लेने की क्रिया। २. मुसलमानों में मंत्र पढ़ते हुए पशु-पक्षियों आदि का गला रेतकर काटना।
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जबहा  : पुं० [?] जीवट। साहस।
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जबाँ  : स्त्री०=जबान।
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जबान  : स्त्री० [फा०] [वि० जबानी] १. मुँह के अन्दर का वह लचीला लंबोत्तरा चिपटा अंग, जिसके द्वारा चीजों का स्वाद लिया जाता है, मुँह में डाली हुई चीजें गले के नीचे उतारी जाती है तथा ध्वनियों का उच्चारण किया जाता है। जीभ। मुहावरे (क) स्वाद संबंधी (कोई चीज) जबान पर रखना=किसी वस्तु का स्वाद चखना। थोड़ी मात्रा में कोई चीज चखना। जबान बिगड़ना=(क) बीमारी आदि के कारण मुँह का स्वाद खराब होना। (ख) अच्छी-अच्छी विशेषतः चटपटी चीजें खाने का चस्का लगना। मुहावरे (ख) उच्चारण संबंधी, (किसी की) जबान खींचना या खींच लेना=कोई अनुचित या विरुद्ध बात कहनेवाले को कठोर दंड देना। (किसी की) जबान खुलना=(क) बहुत समय तक चुप रहने पर किसी का कुछ कहना आरंभ करना। (ख) अनुचित या उद्दंतापूर्ण बातें करने का अभ्यास पड़ना या होना। (किसी की) जबान घिस खाना या घिसना=कोई बात कहते-कहते हार जाना। जबान चलना=हर समय कुछ न कुछ कहते या बोलते रहना। जबान चलाना=(क) जल्दी-जल्दी बातें कहना। (ख) अनुचित बात कहना। जबान चलाने की रोटी खाना=केवल लोगों की खुशामद करके जीविका चलाना। (बच्चे की) जबान टूटना-छोटे बच्चे की जबान का ऐसी स्थिति में आना कि वह कठिन शब्दों या संयुक्त वर्णों का उच्चारण कर सके। जबान डालना=किसी से किसी प्रकार की प्रार्थना या याचना करना। (किसी की) जबान थामना या पकड़ना=कहते हुए को कोई बात कहने से रोकना। (कोई बात) जबान पर आना=भूली हुई कोई बात अथवा अवसर के अनुकूल कोई बात याद आना। जबान पर चढ़ना-कंठस्थ होना। जबान पर रखना=सदा स्मरण रखना। जैसे–यह गाली तो उनकी जबान पर रहती है। जबान पर लाना=चर्चा या बात कहना। जबान पर होना=स्मरण होना याद रहना। (किसी की) जबान बंद करना=किसी प्रकार किसी को कुछ कहने से रोकना। जबान बंद होना=कुछ न कहने की विशेषतः उत्तर न देने को विवश होना। जबान बंदी करना=किसी की कही हुई बात को उसी के शब्दों में लिख लेना। जबान बिगड़ना=मुँह से अपशब्द निकलने का अभ्यास होना। जबान में लगाम न होना=अशिष्टता या धृष्टतापूर्वक अनुचित या कठोर बातें कहने का अभ्यास होना। जबान रोकना=(क) कुछ कहते-कहते रुक जाना। (ख) किसी को कुछ कहने से रोकना। जबान संभालना=मुँह से अनुचित या अशिष्ट शब्द न निकलने देना। जबान हिलाना=बहुत दबते हुए कुछ कहना। २. किसी को दिया हुआ वचन। मुहावरा–जबान देना=कोई काम करने का किसी को वचन देना। जबान बदलना=कही हुई बात या दिये हुए वचन से पीछे हट जाना। मुकर जाना। जबान हारना=वचन देना। ३. भाषा। बोल=चाल।
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जबानदराज  : वि० [फा०] [भाव० जबानदराजी] अशिष्टता या धृष्टतापूर्वक बड़ों से बातें करने वाला। न कहने योग्य बातें भी बढ़ बढ़कर कहनेवाला।
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जबानबंदी  : स्त्री० [फा०] १. किसी घटना के संबंध में लिखी जानेवाली किसी साक्षी की गवाही। २. मौन। चुप्पी। ३. चुप रहने की आज्ञा।
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ज़बानी  : वि० [फा०] १. जबान संबंधी। २. जो केवल जबान से कहा गया हो। मौखिक। ३. जो कहा तो गया हो परन्तु जिसका आचरण या व्यवहार न किया गया हो। जैसे–जबानी जमा-खरच।
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जंबाल  : पुं० [सं० जंब-आ√ला (लेना)+क] १. कीचड़। २. मिट्टी। ३. पानी में होनेवाली एक घास। ४. केवड़े का फूल।
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जंबाला  : स्त्री० [सं० जंबाल+टाप्] केतकी का पौधा।
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जबाला  : स्त्री० [सं०] छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार सत्यकाम जाबाल ऋषि की माता का नाम जो एक दासी थी।
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जंबालिनी  : स्त्री० [सं० जंबाल+इनि-ङीप्] नदी।
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जंबीर  : पुं० [सं०√जम् (खाना)+ईरन्-बुक्] जँबीरी नीबू (दे०)। स्त्री० [अ० जंबीर] मुँह से बजाने की पुरानी चाल की एक सीटी।
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जंबीरी नीबू  : पुं० [सं० जंबीर] एक प्रकार का बड़ा नीबू जिसका रस बहुत खट्टा होता है।
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जंबील  : स्त्री० [फा०] फकीरों, साधुओं संन्यासियों आदि की किसी कपड़े के चारों कोनों की गाँठ लगाकर बनाई हुई थैली जिसमें वे भिक्षा से मिली हुई वस्तुएँ रखते हैं।
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जंबु  : पुं० [सं०√जंबू, पृषो० ह्रस्व] जामुन का पेड़ और उसका फल।
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जंबु-खंड  : पुं० दे० ‘जंबूद्वीप’।
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जंबु-द्वीप  : पुं=जंबूद्वीप।
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जंबु-प्रस्थ  : पुं=जंबूप्रस्थ (दे०)।
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जंबुक  : पुं० [सं० जंबु+कन्] १. बडा़ जामुन। फरेंदा। २. श्योनाक वृक्ष। सोनापाठा। ३. केवड़ा। ४. गीदड़। ५. वरुण। ६. स्कंद का एक अनुचर।
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जंबुमती  : स्त्री० [सं० जबुमत+ङीष्] एक अप्सरा का नाम।
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जंबुमान(मत्)  : पुं० [सं० जंबु+मतुप्] १. पहाड़। २. जांबवान नामक एक वानर।
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जंबुमाली(लिन्)  : पुं० [सं० जंबु-माला, ष० त० इनि] एक राक्षस का नाम।
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जंबुर  : पुं=जंबूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जंबुल  : पुं० [सं० जंबु√ला (लेना)+क] जंबूल। (दे०)
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जंबू  : पुं० [सं० जंबु+ऊङ]=जंबु। (दे०)
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जंबू-खंड  : पुं० [मध्य० स०] जंबूद्वीप।
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जंबू-दीप  : पुं०=जंबूद्वीप।
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जंबू-द्वीप  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार सात द्वीपों में से एक जिसमें भारतवर्ष की भी स्थिति मानी गई है।
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जंबू-नदी  : स्त्री० [मध्य० स०] ब्रह्म लोक से निकली हुई सात नदियों में से एक जिसके संबंध में यह कहा जाता है कि यह जामुन के पेड़ों से चूने वाले जामुनों के रस से निकलती है।
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जंबू-प्रस्थ  : पुं० [ब० स०] वाल्मिकी रामायण के अनुसार एक नगर का नाम।
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जंबू-वनज  : पुं० [जंबू-वन मध्य० स०, जंबूवन√जन (उत्पत्ति)+ड] श्वेत जपापुष्प। सफेद गुड़हुल का फूल।
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जंबूका  : स्त्री० [सं० जंबू√(प्रतीत होना)+क-टाप्] किशमिश।
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ज़बून  : वि० [तु०] १. खराब। बुरा। २. निकृष्ट। निकम्मा।
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जंबूनद  : पुं०=जंबू-नदी।
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जंबूर  : पुं० [अ० जन बूर] १. बर्रे। भिड़। २. शहद की मक्खी। ३. पुरानी चाल की एक तोप। पुं०=जंबूरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जंबूरक  : स्त्री० [फा० जंबूर] १. एक प्रकार की छोटी तोप। २. तोप रखने की गाड़ी। ३. भँवर कली।
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जंबूरखाना  : पुं० [अ० जनबूर+फा० खानः] भिड़ या शहद की मक्खियों का छत्ता।
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जंबूरची  : पुं० [अ० जंबूर+फा० ची (प्रत्य०] १. तोपची। २. सिपाही।
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जंबूरा  : पुं० [फा० जंबूर] १. एक प्रकार की छोटी तोप। २. तोप लादने की गाड़ी। ३. भँवर कली(दे०) ४. सँड़सी या चिमटी की तरह का एक उपकरण जिससे कारीगर चीजों को ऐंठते, दबाते या घुमाते हैं। ५. मस्तूल पर आड़ा बँधा रहनेवाला डंडा।
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जंबूरी  : स्त्री० [फा०] एक प्रकार का जालीदार कपड़ा।
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जंबूल  : पुं० [सं० जंबू√ला (लेना)+क] १. जामुन का वृक्ष और उसका फल। २. केवड़ा।
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जब्त  : वि० [अ०] १. दबाया या रोका हुआ। जैसे–गुस्सा जब्त करना। २. (वह वैयक्तिक संपत्ति) जो किसी अपराध के दंडस्वरूप शासन द्वारा किसी से छीन ली गई हो। क्रि० प्र०–करना।
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जब्ती  : स्त्री० [अ० जब्त] जब्त होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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जब्भा  : पुं०=जबहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जब्र  : वि०=जबर।
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जब्रन  : अव्य=जबरन्।
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जब्री  : वि० [अ०] जबरदस्ती या बलात् किया हुआ।
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जंभ  : पुं० [√जंभ (भक्षण, जमुहाई)+घञ्] १. दाढ़। २. जबड़ा। ३. जँभाई। ४. तरकश। ५. जँबीरी नीबू। ६. [√जंभ+अच्] महिषासुर का पिता जिसका वध इंद्र ने किया था।
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जंभ-भेदी(दिन्)  : पुं० [सं० जंभ√भिद्(विदारण)+णिनि] इंद्र।
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जंभक  : पुं० [सं०√जंभ्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. जँबीरी नीबू। २. शिव। ३. एक राजा। वि० १. जिसके सेवन से जँभाई आती हो। २. हिंसक। ३. [जंभ् (संभोग)+ण्वुल्-अक] कामुक।
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जंभका  : स्त्री० [सं० जंभा+कन्-टाप्,हृस्व] जँभाई।
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जंभन  : पु० [सं०√जंभ्+ल्युट-अन] १. भक्षण। २. रति। ३. जँभाई।
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जभन  : पुं० [सं० यभन] मैथुन। स्त्री-प्रसंग।
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जंभा  : स्त्री० [सं०√जंभ्+णिच्√अ-टाप्] जँभाई।
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जँभाई  : स्त्री० [सं० जुम्भा] एक शारीरिक व्यापार जिसमें मनुष्य गहरा सांस लेने के लिए पूरा मुँह खोलता है। विशेष–यह व्यापार थकावट या नींद के आने का सूचक होता है। क्रि० प्र०–आना। लेना।
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जँभाना  : अ० [सं० जृम्भण] पूरा मुँह खोलकर गहरा साँस लेना। जँभाई लेना।
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जंभाराति  : पुं० [सं० जंभ+अराति, ष० त०] जंभारि। (दे०)
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जंभारि  : पुं० [सं० जंभ-अरि, ष० त०] १. इंद्र। २. विष्णु। ३. अग्नि। ४. ब्रज।
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जंभिका  : स्त्री० [सं० जंभा+कन्+टाप्, इत्व] जंभा।
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जंभी(भिन्)  : पुं० [सं०√जंभ्+णिच्+णिनि] दे० ‘जंबीरी’।
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जंभीर  : पुं० [सं०√जंभ्+ईरन्] दे० ‘जंबीरी’।
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जंभीरी  : पुं० दे० ‘जंबीरी नीबू’।
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जंभु-रिपु  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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जंभूरा  : पुं०=जंबूरा।
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जम  : पुं०=यम।
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जम-जाई  : स्त्री० [सं० यम+जाया] मृत्यु। मौत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जम-दिसा  : स्त्री० [सं० यम+दिशा] वह दिशा जिसमें यम का निवास माना जाता है। दक्षिण दिशा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जमक  : पुं=यमक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जमकना  : अ०=चमकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जमकात  : स्त्री०=जमकातर (यम का खाँड़ा)। उदाहरण–बिजुरी चक्र फिरै चहुँ फेरी। औ जमकात फिरै जम केरी।–जायसी।
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जमकातर  : पुं० [सं० यम+हिं० कातर] भवँर। स्त्री० [सं० यम+कर्त्तरी] १. यम का खाँड़ा। २. एक प्रकार की तलवार। खाँड़ा।
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जमकाना  : स० [हिं० जमकना का सकर्मक रूप] चमकाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जमघट  : पुं० [हिं० जमना+घट] किसी स्थान पर विशेष काम से आये हुए लोगों की भीड़।
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जमघटा  : पुं०=जमघट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जमज  : वि=यमज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जमजम  : अव्य० [सं० जन्म, पुं० हिं० जमना=जन्म लेना] ऐसे आवश्यक और शुभ रूप में जिसका सब लोग हार्दिक स्वागत करे। जैसे–आप हमारे यहाँ आवें और जमजम आवें।
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जमजोहरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की छोटी चिड़िया।
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जमड़ा  : पुं० [हिं० जन्मना] वह जो जन्म दे। पिता। उदाहरण–अपने जमड़ा जमड़ी को छोड़ा बिलकता।–साँपा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जमडाढ़  : स्त्री० [सं० यम+हिं० डाढ़] शरीर में भोंकने का कटारी की तरह का एक हथियार जिसकी नोक आगे की ओर झुकी हुई होती है।
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जमण  : स्त्री०=जमुना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जमदग्नि  : पुं० [सं०] एक ऋषि जो भृगुवंशी ऋचीक के पुत्र थे तथा जिनकी गणना सप्तऋषियों में होती है।
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जमदढ्ढ  : स्त्री०=जम-डाढ़।
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जमधर  : पुं०=जमडाढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जमन  : पुं० [सं० यवन] [स्त्री.जमनी](यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) १. यवन। २. मुसलमान। पुं०=जमाना। स्त्री=यमुना (नदी)।
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जमना  : अ० [सं० यमन=जकड़ना, मि० अ० जमा] १. किसी तरल पदार्थ का अधिक शीत के कारण ठोस रूप धारण करना। जैसे–पानी जमना। २. उक्त प्रकार के ठोस रूप धारण किये हुए किसी पर स्थित होना। जैसे–(क) पहाड़ों पर बरफ जमना। (ख) दीवार पर रंग जमना। ३. किसी प्रकार का किसी तरल पदार्थ में विकार उत्पन्न किये जाने पर उसका ठोस रूप धारण करना। जैसे–दही जमना। ४. दृतापूर्वक स्थित होना। ५. हाथ से काम करने का पूरा अभ्यास होना। जैसे–लिखने में हाथ जमना। ६. किसी कार्य का बहुत ही अच्छे तथा प्रभावशाली रूप में निर्वाह होना। जैसे–खेल या गाना जमना। ७. किसी काम का अच्छी तरह चलने योग्य होना। जैसे–रोजगार जमना। ८. एकत्र होना। जमा होना। जैसे–भीड़ जमना। ९. अच्छा प्रहार होना। खूब चोट पड़ना। जैसे–थप्पड़ या लाठी जमना। १॰. घोड़े का हुमक-हुमककर चलना। अ० [सं० जन्म+हिं० ना (प्रत्यय)] उत्पन्न होना। उगना। जैसे–(क) जमीन पर घास या पौधा जमना। (ख) सिर पर बाल जमना। पुं० [हिं० जमना=उत्पन्न होना] वह घास जो पहली जो बरसात के बाद खेतों में उगती है। स्त्री०=यमुना।
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जमनिका  : स्त्री० [सं० जवनिका] १. जवनिका। परदा। २. काई।
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जमनोत्तरी  : स्त्री० [सं० यमनोत्तरी] हिमालय में वह स्थान जहाँ से यमुना निकलती है।
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जमनौता  : पुं० [अ० जमानत+औता (प्रत्य०)] वह धन जो अपनी जमानत करने के बदले में जमानत करनेवाले को दिया जाता है।
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जमनौती  : स्त्री०=जमनौता।
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जमराण  : पुं०=यमराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जमरूद  : पुं० [?] जामुन की तरह का एक प्रकार का छोटा लंबोत्तर तथा सफेद फल।
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जमरूल  : पुं०=जमरूद।
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जमवट  : स्त्री० [सं० जम्बु पट्ट] जामुन की लकड़ी का वह गोल चक्कर या पहिया जो कूआँ बनाने में भगाड़ में रखा जाता है और जिसके ऊपर कोठी की जोड़ाई होती है।
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जमवार  : पुं० [सं० यमद्वार] यम का द्वार। न्याय-सभा। उदाहरण–सिंहल द्वीप भए औतारू। जंबूद्वीप जाइ जमबारू।–जायसी।
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जमशेद  : पुं० [ईरा०] ईरान का एक प्राचीन राजा जिसके संबंध में यह प्रसिद्ध है कि इसके पास एक ऐसा प्याला था जिसमें संसार में होनेवाली घटनाएँ, बातें आदि दिखाई देती थीं।
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जमहूर  : पुं० [अं०] १. जन-समूह। २. राष्ट्र।
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जमहूरियत  : स्त्री० [अ०]=लोकतंत्र।
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जमहूरी  : वि० [अ०] प्रजातांत्रिक।
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जमाँ  : पुं० [अ०] जमाना का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक शब्दों के अंत में प्राप्त होता है। जैसे–खलोलुलजमाँ, रुस्तमेजमाँ आदि।
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जमा  : वि० [अ० जमऽ] १. बचा अथवा जोड़कर रखा हुआ (धन)। जैसे–दो वर्षों में मैंने केवल सौ रुपये मुश्किल से जमा किए हैं। पद–कुल जमा=सब मिलाकर। कुल। जैसे–कुल जमा वहाँ दस आदमी आये थे। २. देन अथवा पावने के रूप में दिया अथवा प्राप्त होनेवाला (धन)। जैसे–(क) सदस्यों का चंदा जमा हो गया है। (ख) २॰ रुपया इनका गेहूँ मद्दे जमा क लो। ३. (धन आदि) सुरक्षा के लिए किसी के पास अमानत रूप में रखा हुआ। जैसे–बैंक में रुपये जमा करना। ४. किसी खाते के आय पक्ष में लिखा हुआ। स्त्री० [अ०] १. मूलधन। पूँजी। २. धन। रुपया-पैसा। मुहावरा–जमा मारना=अनुचित रीति से किसी का धन हजम कर लेना। ३. भूमिकर। मालगुजारी। ४. जोड़ (गणित) ५. खाते या बही का वह भाग या कोष्ठक जिसमें प्राप्त धन का ब्योरा दिया जाता है। ६. व्याकरण में किसी शब्द का बहुवचन रूप। जैसे–खबर की जमा अखबार है।
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जमाई  : पुं० [सं० जामातृ] जँवाई। स्त्री० [हिं० जमाना] जमाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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जमाखर्च  : पुं० [फा० जमा+खर्च] १. आय और व्यय। २. आय और व्यय का हिसाब और मद। मुहावरा–जमा खर्च=किसी के यहाँ से आई हुई रकम जमा करके उसके नाम पड़ी हुई रकम का हिसाब पूरा करना।
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जमाजथा  : स्त्री० [हिं० जमा+गथ-पूँजी] धन-संपत्ति। नगदी और माल।
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जमात  : स्त्री० [अ० जमाअत] १. कक्षा (विद्यार्थियों की)। २. समुदाय या संघ (व्यक्तियों का) ३. गरोह।
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जमादार  : पुं० [फा०] [भाव० जमादारी] छोटे कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षक एक अधिकारी। जैसे–सेना या सिपाहियों का जमादार, भंगियों या जमदूरों का जमादार।
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जमादारी  : स्त्री० [अ०] जमादार का कार्य या पद।
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जमान  : पुं० [फा० जामिन] जमानतदार।
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जमानत  : स्त्री० [अ०] १. जिम्मेदारी। २. वह जिम्मेदारी जो इस रूप में ली जाती है कि या कोई व्यक्ति विशेष समय पर कोई काम नहीं करेगा तो उसका दण्ड या हरजाना हम देगें। जैसे–अदालत ने एक हजार की जमानत पर इसे छोड़ने को कहा है। २. वह धन जो किसी की जिम्मेदारी लेते समय किसी अधिकारी के पास जमा किया जाता है।
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जमानतनामा  : पुं० [अ० जमानत+फा० नामा] वह लिखा हुआ कागज जो जमानतदार जमानत के प्रमाण में लिखकर देता है।
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जमानती  : पुं० [अ० जमानत+ई (प्रत्यय)] जमानत करनेवाला व्यक्ति। वह जो जमानत करे। जार्मिन। जिम्मेदार। वि० १. जमानत संबंधी। २. जो जमानत के रूप में हो।
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जमाना  : स० [हिं० जमना का स० रूप] १. किसी तरल पदार्थ को शीत पहुँचाकर अथवा और किसी प्रक्रिया से ठोस बनाना। जैसे–दही या बरफ जमाना। २. एक वस्तु को दूसरी वस्तु पर दृढ़तापूर्वक स्थित करना या बैठाना। जैसे–दीवार पर पत्थर जमाना। ३. अच्छी तरह चलने के योग्य बनाना। जैसे–रोजगार या वकालत जमाना। ४.ऐसे ढंग से कोई काम करना कि वह यथेष्ट प्रभावशाली सिद्ध हो। जैसे–खेल या महफिल जमाना। ५. कोई काम अच्छी तरह कर सकने की योग्यता प्राप्त करने के लिए बराबर उसका अभ्यास या संपादन करना। जैसे–लिखने में हाथ जमाना। ७. अच्छी तरह या जोर लगाकर प्रहार करना। जैसे–थप्पड़ या मुक्का जमाना। पुं० [अ० जमानः] १. काल। समय। पद–जमाने की गर्दिश=समय का फेर। मुहावरा–(किसी का) जमाना बदलना या पलटना=किसी की अवस्था या स्थिति बदल जाना। २. सौभाग्य का समय। जैसे–उनका भी जमाना था। ३. सारी सृष्टि। संसार। मुहावरा–जमाना देखना=संसार की गति विधियाँ देखना। जमाना देखे होना-संसार की गति-विधियों का ज्ञान होना। अनुभवी होना। पद–जमाने भर का=संसार में जितना हो सकता हो उतना सब। बहुत अधिक। जैसे–उन्हें तो जमाने भर का सुख चाहिए। ४. संसार के लोग। जैसे–जमाना जो चाहे सो कहे आप किसी की नहीं सुनेगें।
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जमानासाज  : वि० [फा०] [भाव० जमानासाजी] १. (व्यक्ति) जो समय विशेष के अनुकूल अपने को ढाल सके। २. विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न रूप धारण करनेवाला।
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जमाबंदी  : स्त्री० [अ०+फा०] पटवारी का वह खाता जिसमें असामियों के नाम, उनसे मिलनेवाले लगान की रकमें आदि लिखी जाती हैं।
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जमामार  : वि० [हिं० जमा+मारना] दूसरों की संपत्ति अनुचित रूप से ले लेनेवाला।
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जमाल  : पुं० [अ०] १. बहुत सुन्दर रूप। २. सौंदर्य। खूबसूरती।
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जमालगोटा  : पुं० [सं० जयपाल] एक पौधा जिसका बीज बहुत अधिक रेचक होता है। जयपाल। दंतीफल।
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जमाली  : वि० [अ०] सुन्दर रूपवाला।
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जमाव  : पुं० [हिं० जमाना] १. एक स्थान पर बहुत-सी चीजों या व्यक्तियों के इकट्ठे होने की अवस्था या भाव। २. जमने, जमाने या जमे होने की अवस्था या भाव।
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जमावट  : स्त्री० [हिं० जमाना] जमने या जमाने की क्रिया या भाव।
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जमावड़ा  : पुं० [हिं० जमना-एकत्र होना] एक स्थान पर इकटेठे होने वाले व्यक्तियों का समूह।
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जमी  : स्त्री० [सं० यमी] यम का बहन। यमी। वि० [सं० यमिन्] यम या संयमपूर्वक रहनेवाला।
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जमीकंद  : पुं० [जमीन+कंद] सूरन। ओल।
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जमींदार  : पुं० [फा०] जमीन का मालिक। भूमि का स्वामी। विशेषतः वह व्यक्ति जो किसानों की लगान पर अपनी जमीन जोतने-बोने को देना है।
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जमींदारा  : पु०=जमींदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जमींदारी  : पुं० [फा०] १. जमींदार होने की अवस्था, भाव या पद। २. जमींदार की वह भूमि जिसका लगान वह उन काश्तकारों से वसूल करता है जिसे वे जोतते-बोते हैं। विशेष–अब इस प्रथा का प्रायः अंत हो चुका है।
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जमींदोज  : वि० [फा०] १. जमीन से मिला या सटा हुआ। २. जो जमीन पर गिरा या ढा कर उसके बराबर कर दिया गया हो। ३. भूगर्भ में स्थित।
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जमीन  : स्त्री० [फा०] १. सौर जगत् का वह उपग्रह जिसमें हम लोग रहते हैं। पृथ्वी। २. उक्त उपग्रह का ठोस तल (समुद्र से भिन्न) धरातल। पद–जमीन आसमान का फरक=बहुत बड़ा तथा स्पष्ट अंतर या भेद। जमीन का गज-व्यक्ति जो सदा इधर-उधर घूमता फिरता रहता हो। मुहावरा–जमीन आसमान एक करना=किसी काम के लिए बहुत अधिक प्रयत्न करना। जमीन आसमान के कुलाबे मिलाना=(क) सेखी बघारना। लंबी-चौड़ी हाँकना। डींग मारना। (ख) तोड़-जोड़ मिलाना। चालाकी करना। जमीन पर पैरों तले से निकल या सरक जाना=ऐसी स्थिति उत्पन्न होना कि होश-हवाश ठिकाने न रहे। जमीन चूमने लगना=जमीन पर पट गिरना। (किसी की) जमीन दिखाना=जमीन पर गिराना या पटकना। बुरी तरह से पराजित या परास्त करना। जमीन पर पैर न रखना=अकड़कर अथवा बड़प्पन दिखाते हुए कोई काम करना। ऐठ या शेखी दिखलाना। जमीन पर पैर न पड़ना=बहुत अभिमान होना। ३. उक्त के आधार पर ठोस, तल अर्थात् धरातल का कोई अंश या भाग। जैसे–ऊँची या नीची जमीन। मुहावरा–जमीन पकड़ना=किसी स्थान पर जमकर बैठना। ४. वह आधार या सतह जिस पर बेल-बूटे आदि कढ़े, छपे या बने हुए हों। जैसे–इस धोती की जमीन और सफेद धारियाँ पीली है। ५. वह सामग्री जिसका उपयोग किसी द्रव्य के प्रस्तुत करने में आधार रूप से किया जाय। जैसे–अतर खींचने में चंदन की जमीन फुलेल में मिट्टी के तेल की जमीन। ६. चित्र बनाने के लिए मसाले से तैयार की हुई सतह या तल। आधार पृष्ठ। मुहावरा–जमीन बाँधना=अस्तर या मसाला लगाकर चित्र आदि बनाने के लिए सतह तैयार करना। ७. किसी कार्य के लिए पहले से निश्चित की हुई प्रणाली। उपक्रम। आयोजन। मुहावरा–जमीन बाँधना=कोई काम करने से पहले उसकी प्रणाली निश्चित करना।
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जमीनी  : वि० [फा०] जमीन-संबधी। जमीन का।
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जमीमा  : पुं० [अ० जमीमः] परिशिष्ट। (दे०)।
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जमीर  : पुं० [अ० जमीर] १. मन। हृदय। २. अन्तःकरण। ३. विवेक।
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जमील  : वि० [अ०] [स्त्री० जमीली] जमाल अर्थात् सौन्दर्य से युक्त। सुन्दर।
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जमुआ  : पुं० [हिं० जामुन] जामुन का पेड़ और उसका फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जमुआर  : पुं० [हिं० जमुआ+आर (प्रत्यय)] वह स्थान जहाँ जामुन के बहुत से पेड़ हों।
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जमुकना  : अ० [?] आगे बढ़कर या बढते हुए किसी के साथ लगना।
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जमुण  : स्त्री० [सं० यमुना] यमुना नदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जमुना  : स्त्री०=यमुना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जमुनियाँ  : वि० [हिं० जामुन] जामुन के रंग का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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जमुरका  : पुं० [फा० जंबूर] १. कुलाबा। २. एक प्रकार की छोटी तोप।
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जमुरी  : स्त्री० [फा० जंबूर] १. एक प्रकार की छोटी चिमटी या सँड़सी। २. घोड़ों के नाखून काटने का एक उपकरण।
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जमुर्रद  : पुं० [अ० ज़मुर्रद] पन्ना नामक रत्न।
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जमुर्रद  : पुं० [फा० ज़मुर्रदीन] जमुर्रद अर्थात् पन्ने के रंग का। नीलापन लिये हुए हरे रंग का। पुं० नीलापन लिए हुए हरा रंग।
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जमुवाँ  : पुं० [हिं० जमुना] जामुन का रंग। जामुनी। पुं०=जामुन।
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जमुहाना  : अ० [हिं० जम्हाना] जम्हाई लेना। जँभाई लेना।
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जमूरक  : पुं० [फा० जंबूरक] एक प्रकार की छोटी तोप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जमूरा  : पुं०=जमूरक।
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जमेंती  : स्त्री०=दमयंती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जमैयत  : स्त्री० [अ०] परिषद्। संस्था।
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जमैयतुलउलेमा  : स्त्री० [अ०] आलिमों अर्थात् विद्वानों की परिषद् या संस्था।
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जमोग  : पुं० [हिं० जमोगना] १. जमोगने की क्रिया या भाव। २. ऋण चुकाने की एक प्रथा जिसके अनुसार ऋण लेनेवाला स्वयं ऋण नहीं चुकाता बल्कि ऋण चुकाने का भार किसी दूसरे पर डाल देता है। ३. चित्रकला में, बेल-बूटे आदि एक दूसरे से नियत दूरी और अपने-अपने ठीक स्थान पर बैठाने की क्रिया या भाव।
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जमोंगदार  : पुं० [हिं० जमोग+फा० दार] वह व्यक्ति जो ऋणी का रुपया चुकाता हो। वह जिसने किसी दूसरे का ऋण चुकाने का भार अपने ऊपर लिया हो।
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जमोगना  : स० [?] १. आय-व्यय या हिसाब-किताब की जाँच करना २. ब्याज को मूलधन में जोड़ना। ३. अपने उत्तरदायित्व विशेषतः लिए हुए ऋण या देन का भार दूसरे को सौंपकर उससे ऋण चुकाने की स्वीकृति दिला देना। ३. किसी बात का दूसरे व्यक्ति से समर्थन कराना।
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जमोगवाना  : स० [हिं० जमोगना] जमोगने का काम किसी दूसरे से कराना। सरेखवाना।
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जमौआ  : वि० [हिं० जमाना] बुनकर नहीं, बल्कि जमाकर बनाया हुआ। जैसे–जमौआ कंबल, जमौआ बनात।
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जम्मु  : पुं० १.=यम। २.=जन्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जम्हाई  : स्त्री०=जँभाई।
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जम्हाना  : अ=जँभाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जय  : स्त्री० [सं० जि+अच्] किसी बहुत बड़े कार्य में मिलनेवाली महत्त्वपूर्ण विजय या सफलता। पद–जय गोपाल=भेंट होने पर पारस्परिक अभिवादन के लिए कहा जानेवला एक पद। मुहावरा–जय बोलना या मनाना=विजय सफलता आदि की कामना करना। पुं० १. विष्णु के एक पार्षद का नाम। २. ‘महाभारत’ नामक महाकाव्य का पुराना नाम। ३. संगीत में एक प्रकार का ताल। ४. ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति के प्रौष्ठपद नामक युग का तीसरा वर्ष। ५. युधिष्ठिर का उस समय का कल्पित नाम जब वे विराट के यहाँ अज्ञातवास कर रहे थे। ६. जयंती नामक पेड़। ७. लाभ ८. अयन। मार्ग। ९. वशीकरण। १॰. एक नाग। ११. दसवें मन्वन्तर के एक ऋषि।
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जय-कंकण  : पुं० [मध्य० स०] विजय का सूचक कंकण जो प्राचीन काल में विजयी को पहनाया जाता था।
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जय-कार  : पुं० [ष० त०] १. किसी की जय कहने की क्रिया या भाव। २. वह पद या वाक्य जिसमें किसी की जय कही जाय। जैसे–बोलेगा सो निहाल सत् श्री अकाल।
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जय-कोलाहल  : पुं० [ब० स०] पासे का एक प्राचीन खेल।
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जय-खाता  : पुं० [हिं० जय=लाभ+खाता] वह बही जिसमें बनिये प्रतिदिन होनेवाले लाभ का हिसाब लिखते हैं।
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जय-घोष  : पुं० [ष० त०] जोर से कहीं जानेवाली किसी की जय।
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जय-चिन्ह  : पुं० [ष० त०] १. कोई ऐसा चिन्ह या संकेत जो किसी प्रकार की जीत का सचूक हो। जैसे–आखेट, युद्ध आदि में प्राप्त की हुई और अपने पास स्मृति के रूप में रखी जानेवाली कोई चीज। २. खेल, प्रतियोगिता आदि में विजयी को मिलनेवाली कोई चीज जो स्मारक के रूप में पास रखी जाय (ट्राफी)।
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जय-जयकार  : स्त्री० [हि०] सामूहिक रूप से किसी की बार-बार जय कहने की क्रिया या भाव।
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जय-जीव  : पुं० [हिं० जय+जी] एक प्रकार का अभिवादन जिसका अर्थ है कि तुम्हारी जय हो और तुम चिरजीवी होओ।
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जय-ढक  : पुं=जयढक्का।
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जय-ढक्का  : स्त्री० [मध्य० स०] संगीत में एक ताल का नाम।
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जय-दुंदुभी  : स्त्री० [मध्य० स०] जीत होने पर बजाया जानेवाला डंका।
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जय-दुर्गा  : स्त्री० [कर्म० स०] दुर्गा की एक मूर्ति। (तंत्र)।
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जय-ध्वज  : पुं० [मध्य० स०] विजय पताका।
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जय-पत्र  : पुं० [मध्य० स०] १. वह पत्र जो प्राचीन काल में पराजित राजा विजयी राजा को अपनी पराजय स्वीकार करते हुए लिखकर देते थे। २. न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को दिया हुआ वहपत्र जिसमें उसकी मुकदमें में होनेवाली जीत का उल्लेख होता है।
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जय-पत्री  : स्त्री० [मध्य० स०] जावित्री।
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जय-पाल  : पुं० [जय√पाल्(रक्षा करना)+अण्] १. जमालगोटा। २. विष्णु। ३. राजा।
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जय-पुत्रक  : पुं० [मध्य० स०] पुरानी चाल का एक प्रकार का पासा।
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जय-प्रिय  : पुं० [ब० स०] १. राजा विराट के भाई का नाम। २. ताल का एक भेद।
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जय-मंगल  : पुं० [ब० स०] १. वह हाथी जिस पर विजयी राजा सवारी करता था। २. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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जय-मल्लार  : पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सभी युद्ध स्वर लगते हैं।
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जय-माल  : स्त्री=जय-माला।
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जय-माला  : स्त्री० [मध्य० स०] १. विजेता को पहनाई जानेवाली माला। २. विवाह के समय फूलों आदि की वह माला जो कन्या अपने भावी पति के गले में डालती हैं।
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जय-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] अश्वमेज्ञ यज्ञ।
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जय-लक्ष्मी  : स्त्री० [मध्य० स०] जय-श्री। विजय-श्री।
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जय-लेख  : पुं०=जय-पत्र (दे०)
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जय-वाहिनी  : स्त्री० [ष० त०] इंद्राणी। शची।
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जय-श्री  : स्त्री० [ष० त०] १. विजय। २. विजय की अधिष्त्राती देवी। ३. संध्या के समय गाई जानेवाली संपूर्ण राग की एक रागिनी।
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जय-श्रृंग  : पुं० [मध्य० स०] जय-ध्वनि करनेवाला। नरसिंघा।
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जय-स्तंभ  : पुं० [मध्य० स०] वह स्तम्भ या बहुत ऊंची वास्तु-रचना जो किसी देश पर विजय की स्मृति में बनाई जाती है।
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जयक  : वि० [सं० जय+कन्] जीतनेवाला। विजयी।
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जयकरी  : स्त्री० [सं० जय√कृ (करना)+ट-ङीष्] चौपाई नामक छंद का दूसरा नाम।
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जयजयवंती  : स्त्री० [हिं०] रात के दूसरे पहर में गाई जानेवाली संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसे कुछ लोग मेघराज को आर्या और कुछ लोग मालकोश की सहचरी बताते हैं।
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जयंत  : वि० [सं०√जि (जीतना)+झव्-अन्त] [स्त्री० जयंती] १. जय प्राप्त करनेवाला। विजयी। २. तरह-तरह के भेस बनानेवाला। बहुरुपिया। पुं० १. रुद्र। २. कार्तिकेय, इंद्र के पुत्र, धर्म के पुत्र, अक्रूर के पिता, दशरथ के मंत्री आदि लोगों का नाम। ३. संगीत में ध्रुवक जाति का एक ताल। ४. फलित ज्योतिष में एक योग जिसमें युद्ध के समय यात्रा करने पर विजय निश्चित मानी जाती है।
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जयंत-पुर  : पुं० [मध्य० स०] एक प्राचीन नगर जिसकी स्थापना निमिराज ने की थी और जिसका अवस्थान गौतम ऋषि के आश्रम के निकट था।
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जयति  : पुं० [सं० जयंत्] एक संकर राग जिसे कुछ लोग गौरी और ललित तथा कुछ लोग पूरिया और कल्याण के योग से बना हुआ मानते हैं।
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जयति श्री  : स्त्री० [हिं०] एक रागिनी जिसे दीपक राग का भार्या कहा गया है।
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जयंतिका  : स्त्री० [सं० जयंती+कन्-टाप्, हृस्व]=जयंती।
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जयंती  : वि० [सं०√जि (जीतना)+शतृ-ङीष्] विजय प्राप्त करने वाली। विजयिनी। स्त्री० १. वह स्त्री जिसने विजय प्राप्त की हो। २. दुर्गा। ३. पार्वती। ४. ध्वजा। ५. हल्दी। ६. अरणी और जैत नामक पेड़ों की संज्ञा। ७. बैंजंती का पौधा। ८. ज्योतिष का एक योग जो श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की आधी रात के समय रोहिणी नक्षत्र पड़ने पर होता है। ९. जन्माष्टमी। १॰. जौ के छोटे पौधे जो ब्राह्मण अपने यजमान को मंगल द्रव्य के रूप में विजयादशमी के दिन भेंट करता है। ११. किसी महापुरुष की जन्म-तिथि पर मनाया जानेवाला उत्सव। १२. किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के आरंभ होने की वार्षिक तिथि पर होनेवाला उत्सव। जैसे–स्वर्ण या हीरक जयंती।
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जयती  : स्त्री=जयति।
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जयत्कल्याण  : पुं० [सं०] रात के पहले पहर में गाया जानेवाला संपूर्ण जाति का एकसंकर राग जो कल्याण और जयति-श्री के योग से बनता है।
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जयत्सेन  : पुं० [सं० जयन्ती-सेना, ब० स०] नकुल का वह नाम जो उसने स्वंय विराट् नगर में अज्ञातवास करते समय अपने लिए रखा था।
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जयदित्य  : पुं० [सं०] काश्मीर के एक प्राचीन राजा जो काशिकावृत्ति के कर्त्ता माने जाते हैं।
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जयदेव  : पुं० [सं०] संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि का नाम जो गीत गोविन्द के रचयिता थे।
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जयद्बल  : पुं० [सं० जयत्-बल, ब० स०] सहदेव का वह नाम जो उसने स्वयं विराट् नगर में अज्ञातवास करते समय अपने लिए रखा था।
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जयद्रथ  : पुं० [सं० जयत्-रथ, ब० स०] महाभारत में वर्णित एक राजा जिसने अभिमन्यु को मारा था और जिसका वध अर्जुन ने किया था।
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जयना  : स० [सं० जयन्] जय प्राप्त करना। जीतना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जयनी  : स्त्री० [सं०√जि+ल्युट्-अन, ङीष्] इन्द्र की कन्या का नाम।
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जयफर  : पुं०=जायफल। उदाहरण–जयफर, लौंग सुपारि छोहारा। मिरिच होइ जो सहै न झारा।–जायसी।
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जयरात  : पुं० [सं०] महाभारत में वर्णित कलिंग देश का एक राजकुमार जो युद्ध में भीम के हाथों मारा गया था।
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जयशाल  : पुं० [सं०] यादव वंश के प्रसिद्ध राजा जिन्होंने जैसलमेर नगर बसाया था।
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जया  : स्त्री० [सं०√जि (जीतना)+अच्-टाप्] १. दुर्गा, दुर्गा की सहचरी तथा पार्वती जी का नाम। २. अरणी, जयंती तथा शमी के वृक्षों की संज्ञा। ३. अड़हुल का फूल। ४. हरी दूब। ५. हरीतकी। हड़। ६. भाँग। ७. पताका। ८. सोलह मातृकाओं में से एक। ९. माघ शुक्ला एकादशी। १॰. कृष्ण तथा शुक्ल पक्षों की तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी तिथियाँ। वि० स्त्री० जय दिलानेवाली।
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जया-द्वय  : स्त्री० [ष० त०] जयंती और हड़।
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जयानीक  : पुं० [सं०] १. राजा द्रुपद के एक पुत्र का नाम। २. राजा विराट् के भाई का नाम।
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जयावती  : स्त्री० [सं० जया+मतुप्, वत्व-ङीष्] १. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम। २. संकर जाति की एक रागिनी।
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जयावह  : वि० [सं० जय-आ√वह् (पहुँचाना)+अच्] जय दिलानेवाला।
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जयाश्व  : पुं० [सं०] राजा विराट् के एक भाई का नाम।
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जयिष्णु  : वि० [सं०√जि (जीतना)+इष्णुच्] १. जय दिलानेवाला। विजय प्राप्त करनेवाला। २. जो बराबर जीतता रहता हो।
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जयी(यिन्)  : वि० [सं०√जि (जीतना)+इनि] जिसकी जय अर्थात् विजय हुई हो। स्त्री० =जई।
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जयेती  : स्त्री० [सं०] एक संकर रागिनी।
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जयेंद्र  : पुं० [सं०] काश्मीर के राजा विजय के एक पुत्र का नाम।
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जयोल्लास  : पुं० [जय-उल्लास, ष० त०] जय अर्थात् विजय मिलने पर होनेवाला उल्लास।
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जय्य  : वि० [सं०√जि+यत्] जो जीता जा सकता हो। जीते जाने के योग्य।
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जर  : पुं० [सं०√जृ+अप्] १. जीर्ण या नष्ट होने की अवस्था या भाव। २. वह कर्म जिससे शुभाशुभ कर्मों का क्षय होता है। वि० [√जृ+अच्] १. वृद्ध होनेवाला। २. क्षीण या वृद्ध करनेवाला। पुं० [सं० जरा] जरा० वृद्धावस्था। पुं०=ज्वर। पुं० [फा० जर] १. सोना। २. धन। पुं० [हिं० जड़] जड़। पुं० [देश] एक प्रकार की समुद्री सेवार।
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जर-कंबर  : पुं० [फा० जरी+हिं० कंबल] वह आवरण या ओढ़ना जिस पर जरी का काम बना हो। उदाहरण–जुरा जर कंबर सो पहिरायो।–केशव।
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जर-खरीद  : वि० [फा०] धन देकर खरीदा हुआ। क्रीत।
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जर-तुश्त  : पुं०=जरदुश्त।
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जर-दार  : वि० [फा०] [भाव० जरदारी] १. (व्यक्ति) जिसके पास जर अर्थात् धन हो। २. अमीर। धनवान।
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जर-बफ्ती  : वि० [फा० जबरफती] १. जर बफ्त संबंधी। २. (कपड़ा) जिस पर जरबफ्त का काम हुआ हो।
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जर-बाफ  : पुं० [फा०] वह व्यक्ति जो कपड़े पर जरबफ्त का काम करता हो।
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जरई  : स्त्री० [सं० जीरक] १. बोये हुए बीज में से निकलनेवाला नया अंकुर। २. जौ या धान के छोटे अंकुर जो विशिष्ट अवसरों पर मंगल-कामना प्रकट करने के लिए भेंट किये जाते हैं।
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जरक  : स्त्री०=झलक।
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जरकटी  : स्त्री० [देश०] एक शिकारी चिड़िया।
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जरकस  : वि० [फा० जरकश] (वस्त्र) जिस पर जरी का काम हुआ हो। पुं० जरी का काम।
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जरकसी  : वि०=जरकस।
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जरकान  : पुं० [अ०] गोमेद नामक रत्न।
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जरखज  : वि० [फा०] [भाव० जरखेजी] (भूमि) जिसमें फसल अधिक मात्रा में होती है। उपजाऊ।
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जरगह, जरगा  : पुं०=जिरगा।
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जरछार  : वि० [हिं० जरना+सं० क्षार] १. जो जलकर राख हो गया हो। २. नष्ट।
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जरज  : पुं० [देश०] एक प्रकार का कंद।
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जरजर  : वि०=जर्जर।
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जरजरना  : अ० [हिं० जरजर] जर्जर होना या जीर्ण-शीर्ण होना।
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जरठ  : वि० [सं०√जृ+अठच्] १. बुड्ढा। वृद्ध। २. जीर्ण। ३. कठिन। कठोर। ४. कर्कश। ५. निर्दय। ६. जिसका रंग कुछ पीलापन लिए हुए सपेद हो। पुं०=बुढापा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जरठाई  : स्त्री० [सं० जरठ+हिंआई(प्रत्यय)] बुढ़ापा।
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जरंड  : वि० [सं०] १. क्षीण। २. वृद्ध।
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जरडा  : स्त्री० [√जृ(बुढ़ापा)+ष्यड-ङीष्] एक प्रकार की घास।
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जरण  : पुं० [सं०√जृ+णिच्+ल्यु-अन] १. हींग। २. जीरा। ३. काला नमक। ४. कासमर्द। कसौंजा। ५. बुढ़ापा। ६. दस प्रकार के ग्रहणों में से वह जिसमें पश्चिम से मोक्ष होना आरम्भ होता है। वि० जीर्ण। पुराना।
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जरण-द्रुम  : पुं० [कर्म० स] १. साखू का वृक्ष। २. सागौन।
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जरणा  : स्त्री० [सं० जरण+टाप्] १. काला जीरा। २. वृद्धावस्था। ३. स्तुति। ४. मोक्ष।
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जरंत  : पुं० [सं०√जृ (जीर्ण होना)+झच्-अंत] १. अधिक अवस्थावाला व्यक्ति। २. भैंसा।
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जरतार  : पु० [फा० जर+हिं० तार] जरी अर्थात् सोने, चाँदी आदि के वे तार जिसमें कपड़े पर बेल-बूटें आदि बनाये जाते हैं।
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जरतारा  : वि० [हिं० जरतार] [स्त्री० जरतारी] (वस्त्र) जिस पर जरी का काम हुआ हो।
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जरतारी  : स्त्री० [हिं० जरतार] जरी से बना हुआ बेल-बूटों का काम।
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जरतिका  : स्त्री० [सं० जरती+कन्-टाप्, ह्रस्व] बूढ़ी स्त्री।
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जरती  : स्त्री० [सं० जरती+ङीष्]=जरतिका।
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जरतुवा  : वि० [हिं० जलना] दूसरे की अच्छाई या स्मृद्धि को देखकर मन ही मन कुढ़ने या जलनेवाला।
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जरत्  : वि० [सं०√जृ+अतृन] [स्त्री० जरती] १. बुड्ढा। वृद्ध। २. क्षीण। ३. पुराना।
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जरत्कर्ण  : पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि।
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जरत्कारु  : पुं० [सं०] एक ऋषि जिन्होंने वासुकि नाग की कन्या मनसा से विवाह किया था। स्त्री० उक्त ऋषि की पत्नी मनसा का दूसरा नाम।
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जरद  : वि० [फा० जर्द] पीले रंग का।
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जरद, अंछी  : स्त्री० [हिं० जरद+अंछी] काली अंछी की तरह का एक झाड़ी।
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जरदक  : पुं० [फा० जर्दक] जरदा या पीलू नाम का पक्षी।
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जरदा  : पुं० [फा० जरदः] १. विशेष प्रकार से पकाये हुए मीठे पीले चावल। २. पान के साथ खाने के लिए विशेष प्रकार से बनाई हुई मसालेदार सुगधित सुरती जो प्रायः पीले रंग की और कभी-कभी काले या लाल रंग की भी होती है। ३. पीले रंग का घोड़ा। पुं० [सं० जरदक] एक प्रकार का पक्षी जिसकी कनपटी तथा पैर पीले होते हैं। पीलू।
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जरदालू  : पुं० [फा० जरद+आलू] खूबानी।
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जरदिष्ट  : वि० [सं०] १. वृद्ध। २. बुड्ढा। दीर्घ-जीवी। स्त्री० १. बुढ़ापा। २. दीर्घजीवन।
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जरदी  : स्त्री० [फा०] १. जरद अर्थात् पीले होने की अवस्था, गुण या भाव। मुहावरा–(किसी पर) जरदी छाना=रोग आदि के कारण किसी के शरीर का पीला रंग पड़ना। २. अंडे में से निकलनेवाला पीला अंश।
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जरदुश्त  : पुं० [फा० मि० सं० जरदिष्ट=दीर्घजीवी, वृद्ध] फारस का एक प्रसिद्ध विद्वान जिसका जन्म ईसा से छः सौ वर्ष पूर्व हुआ था।
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जरदोज  : पुं० [फा० जरदोज] [भाव० जरदोजी] वह व्यक्ति जो सोने, चाँदी की तारों से कपड़ों पर बेल-बूटे बनाता हो। जरदोजी का काम करनेवाला।
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जरदोज़ी  : स्त्री० [फा० ज़रदोजी] १. सोने, चाँदी आदि के तारों से वस्त्रों आदि पर बेल-बूटे बनाने का काम। २. उक्त प्रकार का बना हुआ काम। वि० (कपड़ा) जिस पर उक्त प्रकार का काम बना हो।
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जरद्गव  : पुं० [सं० जरत्-गो, कर्म० स० टच्] १. बुड्ढ़ा बैल। २. बृहत्सहिता के अनुसार एक वीथी जिसमें विशाखा और अनुराधा नक्षत्र हैं।
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जरद्विष  : पुं० [सं०] जल।
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जरन  : स्त्री०=जलन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जरना  : अ०=जलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=जड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जरनि  : स्त्री० [हिं० जलन] जलन। उदाहरण–हृदय की कबहुँ न जरनि घटी।–सूर।
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जरनिशा  : पुं० [फा० जरनिशाँ] लोहे पर सोने, चाँदी आदि से की जानेवाली पच्चीकारी।
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जरनैल  : पुं०=जनरल (सेनापति)।
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जरब  : स्त्री० [अ० जब] १. आघात। चोट। प्रहार। २. तबले, मृदग आदि पर किया जानेवाला आघात। चाँटी। ३. गुणा। ४. कपड़े आदि पर काढ़ी या छपी हुई बेल।
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जरबाफी  : वि० [फा०] जर-बफ्त या जरबाफ संबंधी। स्त्री० कपड़े आदि पर कलाबत्तू से बेल-बूटे आदि काढ़ने की क्रिया या भाव।
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जरबीला  : वि० [फा० जरब] चमक-दमकवाला। भड़कीला।
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जरम  : पुं०=जन्म। उदाहरण–कहुँ सुख राखै की दुख दहुँ कर जरा निबाहु।–जायसी।
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जरमन  : पुं० [अं०] यूरोप के जर्मनी नामक देश का नागरिक या निवासी। स्त्री० उक्त देश की भाषा। वि० १. जरमनी देश में होने या रहनेवाला। २. जरमन देश संबंधी।
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जरमनसिलवर  : पुं० [अं०] एक चमकीली मिश्र धातु जो जस्ते, ताँबे, निकल आदि के योग से बनाई जाती है।
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जरमनी  : पुं० [अं०] यूरोप का एक प्रसिद्ध राज्य।
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जरमुआ  : वि० [हिं० जरना+मुअना=मरना] [स्त्री० जरमुई] ईर्ष्या द्वेष आदि के कारण जलनेवाला।
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जरल  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) सेवाती। स्त्री०=जलन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जरवारा  : वि० [फा०जर(=धन)+हिं० वारा(वाला)] [स्त्री.जरवाली] १ जिसके पास जर अर्थात् धन हो। २. अमीर। धनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जरस  : पुं० [देश०] समुद्र में होनेवाली एक प्रकार की घास।
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जरहि  : पुं० [अ०] [भाव० जर्राही] वह चिकित्सक जो विकृत अंगों की शल्य चिकित्सा करता हो। चीर-फाड़ करनेवाला व्यक्ति।
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जरा  : स्त्री० [सं०√जृ (वृद्ध होना)+अङ्-टाप्] १. वृद्ध होने की अवस्था। बुढ़ापा। वृद्धावस्था। २. बुढ़ापे में होनेवाली कमजोरी। ३. काल की कन्या का नाम। (पुराण)। पुं० एक व्याध जिसके वाण से कृष्ण जी देवलोक सिधारे थे। वि० [अ० ज़रः] मान या मात्रा में थोड़ा। अल्प। कम। पद–जरा-सा= (क) बहुत ही कम। नहीं के बराबर। जैसे–जरा सा चूर्ण खा लो। (ख) तुच्छ या हेय। जैसे–जरा सी बात। अव्य० किसी काम या बात की अल्पता,तुच्छता,सामान्यता आदि पर जोर देने के लिए प्रयुक्त होनेवाला अव्यय। जैसे–(क) जरा तुम भी चले चलो। (ख) जरा कलम उठा दो।
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जरा-कुमार  : पुं० [ष० त०] जरासंध।
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जरा-ग्रस्त  : वि० [तृ० त] जो जरा से पीड़ित हो। वृद्धावस्था के कारण कमजोर तथा शिथिल।
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जरा-जीर्ण  : वि० [तृ० त०] जो पुराना अथवा वृद्ध होने के कारण जर्जर हो गया हो। जरा से जर्जर।
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जरा-पुष्ट  : पुं० [तृ० त०] जरासंध।
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जरा-शोष  : पुं० [मध्य० स०] वृद्धावस्था में होनेवाला एक शोष रोग।
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जरा-संध  : पुं० [ब० स०] मगध का एक प्रसिद्ध प्राचीन राजा जो कंस का श्वसुर था।
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जरा-सुत  : पुं० [ष० त०] जरासध।
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जराअत  : स्त्री० [अ० जिराअत] [वि० जराअती] खेती-बारी।
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जराऊ  : वि० [हिं० जड़ाऊ] जिसमें नगीने जड़े हों। उदाहरण–पाँवरि कबक जराऊ पाऊँ। दीन्हि असीस तेहि जड़े ठाऊँ।–जायसी।
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जरांकुश  : पुं० [सं० ज्वरांकुश] एक प्रकार की घास जिसकी पत्तियाँ सुगंधित होती हैं।
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जरातुर  : वि० [जरा-आतुर तृ० त] जरा-ग्रस्त। बूढ़ा।
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जराद  : पुं० [सं० जरा√ अ(खाना)+अण्] टिड्डी।
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जराना  : स०=जलाना। स०=जड़ाना।
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जराफत  : स्त्री० [अ० जराफत] जरीफ अर्थात् हँसोड़ होने की अवस्था या भाव। मसखरापन।
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ज़राफा  : पुं० [अ० जुर्राफः] ऊँट की तरह का लंबी गरदन तथा लंबी टाँगोंवाला एक पशु।
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जराभीत  : वि० [तृ० त०] वृद्धावस्था से डरनेवाला। पुं० कामदेव।
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जरायम  : पुं० [अ० जुर्म का बहु] अनेक प्रकार के अपराध।
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जरायम-पेशा  : वि० [अ० जरायम+फा० पेशः] (वह) जो अनेक प्रकार के अपराधों के द्वारा ही जीविका चलाता हो। अपराधशील।
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जरायु  : पुं० [सं० जरा√इ(गति)+अण्] १. वह झिल्ली जिसमें माता के गर्भ से निकलते समय बच्चा लिपटा हुआ होता है। आँवल। खेंड़ी। २. गर्भाशय। ३. योनि।
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जरायुज  : पुं० [सं० जरायु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] वह प्राणी जो माता के गर्भ में से निकलते समय खेड़ी में लिपटा हुआ होता है। पिंडज।
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जराव  : वि०=जड़ाऊ। पुं०=जड़ाव।
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जराह  : पुं०=जर्राह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जरिणी  : स्त्री० [सं० जरा+इनि-ङीष्] अधिक अवस्थावाली स्त्री। बुढ़िया।
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जरित  : वि० [सं० जरा+इतच्] बुड्ढा। वि०=जटित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जरिया  : पुं० [अ० जरीअऽ] १. संबंध। लगाव। २. कारण। हेतु। ३. साधन। पद–के जरिये=द्वारा। वि० [हिं० जड़ना] जड़नेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० जलना](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. जला हुआ। २. जलाने से बननेवाला। जैसे–जरिया नमक
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जरिया(मन्)  : स्त्री० [सं० जरा+इमनिच्] जर। बुढ़ापा। वृद्धावस्था।
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जरिश्क  : पुं० [फा० जरिश्क] दारुहल्दी।
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जरी-बाफ  : पुं० [फा० जरीबाफ] जरी के काम के कपड़े आदि बुननेवाला कारीगर।
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जरी(रिन्)  : वि० [सं० जरा+इनि] बुड्ढा। वृद्ध। स्त्री० जड़ी। स्त्री० [फा०] १. बादले से बुना हुआ ताश नामक कपड़ा। २. सोने के वे तार जिनसे कपड़ों पर बेल-बूटे आदि बनाये जाते हैं।
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जरीनाल  : स्त्री० [?] वह स्थान जहाँ पर ईंटे और रोड़े पड़े हों।
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जरीफ  : वि० [अ० जरीफ] १. परिहास-प्रिय। २. हँसोड़।
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जरीब  : स्त्री० [फा०] १. खेत या जमीन नापने की एक प्रकार की जंजीर या डोरी जो लगभग ६॰ गंज लंबी होती है। क्रि० प्र०–डालना। २. डंडा। लाठी।
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जरीबकश  : पुं० [फा०] जरीब खींचने अर्थात् जरीब से जमीन नापनेवाला व्यक्ति।
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जरीमाना  : पुं०=जुरमाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जरीया  : पुं०=जरिया।
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जरूथ  : पुं० [सं०√जृ(जीर्ण होना)+ऊथन्] गोश्त। मांस।
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जरूर  : अव्य० वि० [अ०] अवश्य। अवश्यमेव।
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जरूरत  : स्त्री० [अ० जरूरत] १. आवश्यकता। २. प्रयोजन।
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जरूरी  : वि० [फा० जरूरी] १. जिसके बिना किसी का काम ठीक प्रकार से न चले। जैसे–रोगी को नींद आना जरूरी हैं। २. जिसका होना या घटित होना रुकने को न हो। जैसे–मृत्यु जरूरी है। ३. प्रस्तुत परिस्थितियों में जो किया ही जाना चाहिए। जैसे–उन पर मुकदमा चलाना जरूरी है। ४. जो तुरन्त किया जाने को हो। जैसे–एक जरूरी काम आ गया है।
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जरोल  : पुं० [देश०] आसाम और नीलगिरी के पहाड़ों पर होनेवाला एक पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है।
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जरौट  : वि० [हिं० जड़ना] जड़ाऊ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जर्कवर्क  : वि० [फा०] चमक-दमकवाला। चमकीला।
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जर्कान  : पुं०=जरकान।
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जर्जर  : वि० [सं०√जर्ज (झिड़कना)+अरन्] १. (वस्तु) जो पुरानी हो जाने के कारण या अधिक उपयोग में आने के कारण कमजोर तथा बेकाम हो चली हो। जैसे–जर्जर मकान या जर्जर वस्त्र। २. लाक्षणिक अर्थ में कोई चीज या बात जिसका महत्त्व या मान पुराने पड़ने के कारण बहुत कम हो गया हो। जैसे–ये साहित्यिक परम्पराएँ अब जर्जर हो चुकी हैं। ३. खंडित। टूटा-फूटा। ४. वृद्ध। बुड्ढा। पुं० छरीला। पत्थर फूल।
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जर्जराना  : स्त्री० [सं० जर्जर-आनन,ब०स०] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका का नाम।
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जर्जरित  : वि० [सं० जर्जर+णिच्+क्त] जर्जर किया हुआ।
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जर्ण  : पुं० [सं०√जृ+नन्] १. चंद्रमा। २. वृक्ष।
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जर्तिक  : पुं० [सं०√जृ+तिकन्] १. प्राचीन वाहीक देश का नाम। २. उक्त देश का निवासी।
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जर्तिल  : पुं० [सं०√जृ+विच्<जर्,-तिल, कर्म० स०] जंगली तिल। वन तिलवा।
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जर्त्त  : पुं० [√जन्(उत्पत्ति)+त, र आदेश] १. हाथी। २. योनि।
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जर्द  : वि० [फा० जर्द] पीले रंगवाला। पीला। जरद।
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जर्दा  : पुं=जरदा।
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जर्दालू  : पुं०=जरदालू।
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ज़र्दी  : स्त्री० [फा०] जरदी।
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जर्दोज  : पुं० [भाव० जर्दोजी]=जरदोज (दे०)।
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जर्रा  : पुं० [अ० जर्रः] १. किसी वस्तु का बहुत छोटा टुकड़ा। अणु। कण। २. धूल आदि का कण विशेषतः वह कण जो प्रकाश में उड़ता तथा चमकता हुआ दिखाई देता है। रेणु। ३. तौल में एक जौ का सौवाँ भाग।
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जर्रार  : वि० [अ०] [भाव० जर्रारी] बहादुर। वीर।
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जर्राही  : स्त्री० [अ०] जर्राह का काम या पेशा।
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जर्वर  : पुं० [सं०] नागों के एक पुरोहित।
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जर्हिल  : पुं० [सं० जर्तिल, पृषो० सिद्धि] जंगली तिल। जर्तिल।
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जल  : पुं० [√जल (जीवन देना)+अच्] १. गंध तथा स्वाद से रहित वह प्रसिद्ध सफेद तरल पदार्थ जो बादल वर्षा के रूप में पृथ्वी पर गिराते हैं। और जिससे झीलें, नदियाँ, समुद्र आदि बनते हैं। पानी। २. उशीर। खस। ३. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र। ४. जन्म कुंडली में का चौथा घर। ५. सुंगधवाला। ६. तेल। उदाहरण–मेरे अंतरतम के दीपक वे क्या जल बिन जल न सकेंगे।-नरेन्द्र। ७. एक प्रकार का दिव्य। (परीक्षा)। ८. रहस्य संप्रदाय में, (क) माया। (ख) शरीर। (ग) संसार।
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जल-अलि  : पुं० [ष० त०] १. पानी का भँवर। २. पानी पर तैरनेवाला काले रंग का एक छोटा कीड़ा। भौंरा।
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जल-कंटक  : पुं० [स० त०] १. सिघाड़ा। २. कुंभी।
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जल-कंडु  : पुं० [मध्य० स०] पैरों मे होनेवाली वह खुजली जो उनके जल में भींगते रहने के कारण उत्पन्न होती है।
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जल-कंद  : पुं० [मध्य० स०] १. केला। २. काँदा नामक गुल्म।
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जल-कपि  : पुं० [स० त०] सूँस नामक जल-जंतु।
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जल-कपोत  : पुं० [मध्य० स०] जलाशयों के किनारे रहनेवाली एक चिड़िया।
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जल-कर  : पुं० [मध्य० स०] १. वह कर जो किसानों को नहर से सिंचाई के लिए जल लेने के बदले में देना पड़ता है। २. जलाशयों में होनेवाले पदार्थ। जैसे–कमल गट्टा, मछली सिघाड़ा आदि। ३. उक्त प्रकार के पदार्थों पर लगनेवाला कर।
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जल-करंक  : पुं० [मध्य० स०] १. नारियल। २. कमल। ३. शंख। ४. तरंग। लहर। ५ बादल।
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जल-कल  : स्त्री० [सं० जल+हिं० कल] १. वह यंत्र जिसकी सहायता से नलों द्वारा किसी नगर के घर-घर में पानी पहुँचाया जाता है। २. उक्त कार्य की व्यवस्था करनेवाला विभाग।
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जल-कल्क  : पुं० [ष० त०] १. कीचड़। २. सेवार। ३. काई।
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जल-कल्मष  : पुं० [ष० त०] हलाहल।
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जल-काक  : पुं० [स० त०] जल-कौआ नामक पक्षी।
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जल-कांक्ष  : पुं० [जल√कांक्ष् (चाहना)+अण्] हाथी।
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जल-कांक्षी(क्षिन्)  : पुं० [जल√कांक्ष्+णिनि] हाथी।
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जल-काँच  : पुं० [सं० जल+हिं० काँच] १. काँच का वह बड़ा पात्र जिसमें इसलिए जल भरकर रखते हैं कि उसमें मछलियाँ वनस्पतियाँ आदि रह सकें। २. एक प्रकार का यंत्र जो ऐसी बालटी के रूप में होता है जिसके पेदें में शीशा लगा रहता है और जिसकी सहायता से जल के अंदर की चीजें देखी जाती हैं। (वाटर ग्लास)।
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जल-कांत  : पुं० [ष० त० ] १. वायु। २. वरुण।
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जल-कांतार  : पुं० [ब० स०] वरुण।
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जल-कामुक  : पुं० [ष० त०] कुटुंबिनी नामक वृक्ष।
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जल-किराट  : पुं० [जल-किर, स० त√अट् (गति)+अच्] ग्राह। घड़ियाल।
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जल-कुक्कुट  : पुं० [स० त०] मुरगाबी नामक पक्षी।
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जल-कुक्कुभ  : पुं० [स० त०] एक जल-पक्षी।
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जल-कुंतल  : पुं० [ष० त०] सेवार।
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जल-कुब्जक  : पुं० [जल-कुब्ज० स० त√कै (प्रतीत होना)+क] १. सेवार। २. काई।
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जल-कूपी  : स्त्री० [ष० त०] १. तालाब। २. भँवर।
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जल-कूर्म  : पुं० [स० त०] सूँस नामक जल-जंतु।
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जल-केतु  : पुं० [ष० त०] एक पुच्छल तारे का नाम।
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जल-केलि  : स्त्री० [स० त०] जलाशय में नहाते या तैरते समय की जानेवाली क्रीड़ाएँ।
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जल-केश  : पुं० [ष० त०] सेवार।
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जल-क्रिया  : पुं० [मध्य० स०] तर्पण।
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जल-क्रीड़ा  : स्त्री० [स० त०] जलाशय में नहाते समय की जानेवाली क्रीड़ा। जल-विहार।
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जल-खग  : पुं० [ष० त०] जलाशयों के किनारे रहनेवाला एक पक्षी।
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जल-गर्द  : पुं० [स० त०] जल में रहनेवाला साँप। डेढ़हा।
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जल-गर्भ  : पुं० [मध्य०स०] बुद्ध के प्रसिद्ध शिष्य आनंद का पूर्व जन्म का नाम। वि० [ब० स०] जिसके गर्भ में जल हो। पानी बरसानेवाला (बादल)।
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जल-घड़ी  : स्त्री० [हिं० जल+हिं० घड़ी०] समय का बोध करानेवाला एक प्राचीन यंत्र। विशेष–एक विशेष प्रकार की कटोरी को जिस में एक छोटा सा छेद होता था, पानी से भरी हुई नाँद में छोड़ा जाता है और इसमें भरे जाने वाले जल के परिमाण से समय का ज्ञान होता था।
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जल-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] वह भू-भाग जहाँ जल की कमी हो।
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जल-चर  : पुं० [जल√ चर्(चलना)+ट] जल में रहनेवाले जीव जंतु।
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जल-चादर  : स्त्री० [सं० जल+हिं० चादर] ऊँचे स्थान से चादर के रूप में गिरनेवाला जल का चौड़ा प्रवाह। झरना।
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जल-चारी(रिन्)  : पुं० [जल√चर्+णिनि] जल में रहनेवाला जीव।
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जल-चिन्ह  : पुं० [ष० त०] १. एक जल-जंतु। कुंभीर। नाक। २. वह चिन्ह या रेखा जो यह सूचित करने के लिए बनाई जाती है कि नदी की बाढ़ आदि का पानी कब कितना ऊँचा पहुँचता या पहुँचा था। ३. कागज बनाने के समय वह विशिष्ठ प्रक्रिया से बनाया जानेवाला वह चिन्ह जो उसकी किसी विशिष्टता का सूचक होता है और जो कागज को केवल प्रकाश के सामने रखने पर दिखाई देता है। (वाटर मार्क)।
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जल-जन्तु  : पुं० [ष० त०] जल में रहनेवाले जीव या प्राणी।
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जल-जन्य  : पुं० [तृ० त०] कमल।
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जल-जात  : वि० [स० त०] जो जल में उत्पन्न हो। जलज। पुं० कमल।
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जल-जिह्न  : पुं० [ब० स०] घड़ियाल।
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जल-जीवी (विन्)  : पुं० [जल√ जीव् (जीना)+णिनि] मछुआ।
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जल-डमरूमध्य  : पुं० [सं०] भूगोल में जल की वह पतली जलधारा जो दो बड़े समुद्रों को मिलाती है।
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जल-डिंब  : पुं० [स० त०] घोंघा।
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जल-तरंग  : पुं० [ष० त०] १. जल से भरी हुई कटोरियों का वर्ग या समूह जिस पर अलग-अलग आघात कर के सातों स्वर निकाले जाते हैं। २. उक्त कटोरियों पर आघात करने से होनेवाली ध्वनि या शब्द।
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जल-तरोई  : स्त्री० [हिं० जल+तरोई] मछली (व्यंग्य और हास्य)।
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जल-ताड़न  : पुं० [ष० त०] जल पर आघात करने के समान व्यर्थ का काम करना।
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जल-तापिक  : पुं० [सं० जलतापिन्+कन्] एक प्रकार की बड़ी समुद्री मछली।
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जल-तापी(पिन्)  : पुं० [सं० जल√तप् (तपना)+णिनि]=जलतापिक।
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जल-तिक्तिका  : स्त्री० [मध्य० स०] सलई का पेड़ और उसकी लकड़ी।
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जल-त्रास  : पुं० [तृ० त०] जलातंक। (दे०)।
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जल-दस्यु  : पुं० [मध्य० स०] [भाव० जलदस्युता] वह जो समुद्री जहाजों के यात्रियों आदि का सामान लूटता हो।
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जल-दान  : पुं० [ष० त०] तर्पण।
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जल-दाशन  : पुं० [सं० जलद-अशन, ष० त०] साखू का पेड़ और उसकी लकड़ी।
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जल-दुर्ग  : पुं० [मध्य० स०] वह दुर्ग जो किसी झील, नदी, समुद्र आदि से घिरा हुआ हो।
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जल-देव  : पुं० [ब० स०] १. पूर्वाषाढ़ा नामक नक्षत्र। २. [ष० त०] वरुण।
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जल-देवता  : पुं० [सं० ष० त०] वरुण।
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जल-द्रव्य  : पुं० [मध्य० स०] जल में उत्पन्न होनेवाली वस्तुएँ। जैसे–मुक्ता, शंख आदि।
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जल-धर  : पुं० [√धृ (धारण)+अच्-धर, जल-धर, ष० त०] १. बादल। २. समुद्र। ३. जलाशय।
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जल-धारा  : स्त्री० [ष० त०] १. जल की वह राशि जो पृथ्वी पर बह रही हो। जल का प्रवाह। २. एक प्रकार की तपस्या जिसमें ध्यान-मग्न तपस्वी पर धारा के रूप में जल कुछ समय तक छोड़ा जाता है।
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जल-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. इंद्र। २. वरुण। ३. समुद्र।
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जल-निधि  : पुं० [ष० त०] १. समुद्र। २. चार की संख्या की सूचक संज्ञा।
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जल-निवास  : पु० [स० त०] वह झोपड़ी या छोटा मकान जो कुछ देशों के लोग बड़ी झील के पिछले भाग में खंभों पर अपने रहने के लिए बनाते हैं। (लेक ड्वेलिंग)।
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जल-पक्षी(क्षिन्)  : पुं० [मध्य० स०] वे पक्षी जो जलाशयों के समीप रहने तथा उनमें की मछलियाँ पकड़कर खाते हैं।
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जल-पति  : पुं० [ष० त०] १. वरुण। २. समुद्र। ३. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र।
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जल-पथ  : पुं० [ष० त०] १. दे० जलमार्ग। २. नहर।
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जल-परी  : स्त्री० [सं० जल+फा०परी] एक कल्पित जल-जंतु जिसका कमर से ऊपरी भाग स्त्रियों का सा और नीचे का भाग मछलियों का सा माना जाता है। (मर्मेड)।
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जल-पान  : पुं० [सं० जल और पान] भोजन से पहले या बाद में। (प्रायः प्रातःकाल और सायंकाल) किया जानेवाला हलका भोजन। कलेवा। नाश्ता।
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जल-पाराक्त  : पुं० [स० त०] जलाशयों के किनारे रहनेवाली जल कपोत। नामक चिड़िया।
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जल-पिंड  : पुं० [ष० त०] अग्नि। आग।
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जल-पिप्पलिका  : स्त्री० [मध्य० स०] जलपीपल।
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जल-पिप्पली  : स्त्री० [मध्य० स०] जलीपात नामक ओषधि।
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जल-पिप्पिका  : स्त्री० [ष० त०] मछली।
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जल-पीपल  : स्त्री० [सं० जलपिप्पली] १. पीपल की जाति का एक प्रकार का छोटा पेड़ जो खड़े या स्थिर पानी में होता है। २. उक्त पेड़ की फली जो पाचक होती है और ओषधि के काम आती है।
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जल-पुष्प  : पुं० [मध्य० स०] १. जलाशयों में उत्पन्न होनेवाले फूलों की संज्ञा। २. लज्जावंती की जाति का एक पौधा जो प्रायः दलदलों में होता है।
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जल-पृष्ठ जा  : स्त्री० [सं० जल-पृष्ठ, ष० त०,√ जन् (उत्पत्ति)+ड-टाप्] सेवार।
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जल-प्रदान  : पुं० [ष० त०] जल देने विशेषतः तर्पण करते समय पितरों आदि को जल देने की क्रिया या भाव।
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जल-प्रपा  : पुं० [ष० त०] पौंसरा। प्याऊ।
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जल-प्रपात  : पुं० [ष० त०] १. पहाड़ों आदि में बहुत ऊँचाई से गिरनेवाला पानी या प्राकृतिक झरना। प्रपात। (वाटर फाल) २. वह स्थान या ऊँचा पहाड़ जहाँ पर से जल की धारा नीचे गिरती हो।
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जल-प्रवाह  : पुं० [ष० त०] १. कोई चीज जल में प्रभावित करने अर्थात् बहाने की क्रिया या भाव। २. जल की धारा से किसी ओर बहने की क्रिया, गति या भाव।
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जल-प्रांगण  : पुं० [ष० त०] समुद्र का उतना भादृग जितने पर उसके तट पर स्थित राज्य का अधिकार समझा जाता है। (टेरिटोरियल वाटर्स) विशेष–अंतर्राष्ट्रीय विधान के अनुसार वह क्षेत्र तट से तीन मील की दूरी तक होता है। पर अब कुछ राष्ट्र इसे १२ मील तक रखना चाहते हैं।
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जल-प्रांत  : पुं० [ष० त०] जलाशय के आसपास का प्रदेश।
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जल-प्राय  : वि० [ब० स०] (ऐसा भू-भाग) जिसमें जलाशय अर्थात् ताल, नदियाँ, नहरें आदि बहुत अधिक हों।
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जल-प्रिय  : पुं० [ष० स०] १. मछली। २. चातक। पपीहा।
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जल-प्लावन  : पुं० [ष० त०] १. ऐसी भीषण बाढ़ जिसमें चारों ओर बहुत दूर-दूर तक जल ही जल दिखाई देता हो और धरातल उक्त बाढ़ के फलस्वरूप पानी से ढक जाता हो। २. एक प्रकार का प्रलय जिसमें सब देश डूब जाते हैं। (पुराण)।
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जल-फल  : पुं० [मध्य० स०] सिंघाड़ा।
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जल-बंधक  : वि० [ष० त०] जल को बाँधनेवाला। पुं० बाँध।
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जल-बंधु  : पुं० [ब० स०] मछली।
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जल-बम  : पुं० [सं० जल+अं० बाम्ब] जल में छोड़ा जानेवाला एक प्रकार का रासायनिक विस्फोटक गोला जो आस-पास के जहाजों, पनडुब्बियों आदि को नष्ट कर देता है।
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जल-बाला  : स्त्री० [ष० त०] बिजली। उदाहरण–जलबाला न समाइ जलदि।–प्रिथीराज।
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जल-बालिका  : स्त्री० [ष० त०] बिजली। विद्युत्।
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जल-बिडाल  : पुं० [स० त०] ऊदबिलाव।
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जल-बिंब  : पुं० [ष० त०] पानी का बुलबुला। बुल्ला।
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जल-बिल्व  : पुं० [मध्य० स०] १. केकड़ा। २. वह प्रदेश जहां जल की कमी हो।
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जल-बुदबुद  : पुं० [ष० त०] पानी का बुलबुला। बुल्ला।
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जल-ब्राह्मी  : स्त्री० [स० त०] हुरहुर का साग।
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जल-भँगरा  : पुं० [सं० जल+हिं० भँगरा] जलाशयों में होनेवाला एक प्रकार का भँगरा।
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जल-भालू  : पुं० [हिं० जल+भाल] सील की जाति का आठ-दस हथ लंबा एक समुद्री जंतु जिसके सारे शरीर पर बड़े-बड़े बाल होते हैं।
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जल-भूषण  : पुं० [ष० त० ] वायु। हवा।
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जल-भौंरा  : पुं० [सं० जल+हिं० भौंरा] काले रंग का एक प्रसिद्ध छोटा कीड़ा जो जल के ऊपरी स्तर पर चलता, दौड़ता या तैरता रहता है। भौंतुआ।
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जल-मंडल  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार की बड़ी विषैली मकड़ी जिसके स्पर्श से कभी-कभी मनुष्य मर जाता है। चिरैयाबुदकर।
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जल-मंडूक  : पुं० [उपमि० स०] पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा।
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जल-मदगु  : पुं० [उपमि० स०] कौड़िल्ला (पक्षी)।
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जल-मधूक  : पुं० [मध्य० स०] जल-महुआ।
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जल-मल  : पुं० [ष० त०] झाग। फेन।
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जल-मसि  : पुं० [तृ० त०] १. बादल। मेघ २. एक प्रकार का कपूर।
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जल-महुआ  : पुं० [सं० जलमधूक] जलाशयों के समीप होनेवाला एक प्रकार का महुआ (पेड़) और उसका फल।
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जल-मातृका  : स्त्री० [मध्य० स०] जल में रहनेवाली सात देवियों-मत्सी, कूर्मी, वाराही, दर्दुरी, मकरी, जलूका और जंतुका में से कोई एक। (पुराण)
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जल-मानुष  : पुं० [मध्य० स०] [स्त्री० जलमानुषी] दे० ‘जल-परी’।
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जल-मापक  : पुं० [ष० त०] घड़ी के आकार का वह यंत्र जो जल आदि में से निकले हुए जल का मान बतलाता है। (हाइड्रो मीटर)।
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जल-माया  : स्त्री० [ष० त०] मृग-तृष्णा।
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जल-मार्ग  : पुं० [ष० त०] नहर, नदी, समुद्र आदि में का वह मार्ग या रास्ता जिससे जहाज, नावें आदि आती-जाती रहती हैं। (वाटरवेज)
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जल-मार्जार  : पुं० [ष० त०] ऊदबिलाव।
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जल-मुलेठी  : स्त्री० [सं० जलयष्टी] जलाशय में होनेवाली एक प्रकार की मुलेठी।
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जल-मूर्ति  : पुं० [ब० स०] शिव।
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जल-मूर्तिका  : पुं० [सं० जल-मूर्ति, ष० त०+कन्-टाप्] ओला। करका।
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जल-यंत्र  : पुं० [ष० त०] १. वह उपकरण जिससे कुएँ आदि से पानी ऊपर उठाकर नलों की सहायता से दूर-दूर तक पहुँचाया जाता है। २. फुहारा। ३. जलधड़ी।
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जल-यात्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. नदी, समुद्र आदि के द्वारा होनेवाली यात्रा। २. अभिषेक आदि के समय पवित्र जल लाने के लिए कहीं जाना। ३. ज्येष्ठ की पूर्णिमा को होनेवाला वैष्णवों का एक उत्सव जिसमें विष्णु की मूर्ति को ठंडे जल से स्नान कराया जाता है। ४. राजपूताने में कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को मनाया जानेवाला एक उत्सव।
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जल-यान  : पुं० [ष० त०] वह यान या सवारी जो जल में चलती हो। जैसे–जहाज, नाव आदि।
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जल-रंक  : पुं० [सं० स० त०] बगुला।
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जल-रंकु  : पुं० [सं० स० त०] बनमुर्गी।
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जल-रंग  : पुं० [मध्य० स०] १. चित्र-कला में, तैल-रंग से भिन्न वह रंग जो जल और गोंद आदि के योग से तैयार किया जाता है। (वाटर कलर) २. उक्त प्रकार के रंगों से चित्र अंकित करने की प्रणाली। ३. उक्त प्रकार के रंगों से अंकित चित्र।
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जल-रंड  : पुं० [ष० त०] १. भँवर। २. जलकण। ३. साँप।
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जल-रस  : पुं० [मध्य०] नमक।
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जल-राशि  : पुं० [ष० त०] १. अथाह जल। २. समुद्र। ३. ज्योतिष में, कर्क, मकर, कुंभ और मीन राशियाँ।
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जल-रुद्ध  : वि० [तृ० त०] १. जल से घिरा या रुँधा हुआ। २. इतना कड़ा या ठोस (पदार्थ) कि उसके छेदों में जल का प्रवेश न हो सकता हो। (वाटर टाइट)।
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जल-रुह  : वि० [सं० जल√रुह्(उगना)+क] जल में उत्पन्न होने वाला। पुं० जल में उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियों तथा उनके फल-फूलों आदि की संज्ञा। जैसे–कमल, सिंघाड़ा आदि।
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जल-रूप  : पुं० [ब० स०] ज्योतिष में मकर राशि।
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जल-लता  : स्त्री० [स० त०] तरंग। लहर।
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जल-लोहित  : पुं० [ब० स०] एक राक्षस का नाम।
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जल-वर्त्त  : पुं० [ष० त०] १. एक प्रकार के मेघ। २. जलार्वत।
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जल-वल्कत  : पुं० [ष० त०] जलकुंभी।
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जल-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] सिंघाड़ा।
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जल-वानीर  : पुं० [मध्य० स०] जलबेंत।
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जल-वायस  : पुं० [स० त०] कौडिल्ला। (पक्षी)।
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जल-वायु  : पुं० [द्व० स०] किसी प्रदेश की प्राकृतिक या वातावरणिक स्थिति जिसका विशेष प्रभाव, जीवों, जंतुओं, वनस्पतियों आदि की उपज, विकास तथा स्वास्थ्य पर पड़ता है। (क्लाइमेट)।
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जल-वायुमान  : पुं० [ष० त०] वह वायुमान जो समुद्र या बड़े जलाशयों के तल पर भी उतर सकता और फिर वहीं से उड़कर आकाश में भी जा सकता है। (हाइड्रो प्लेन)।
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जल-वाष्प  : पुं० [ष० त०] पानी की वह भाप जो वेग से किसी चमकीले पदार्थ पर डाल कर ताप, प्रकाश आदि उत्पन्न करने के काम में लाई जाती हैं। (वाटर गैस)।
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जल-वास  : पुं० [स० त०] १. जल में वास करने अर्थात् रहने की क्रिया या भाव। २. साँस रोककर तथा पानी में डुबकी लगाकर बैठने की क्रिया या साधना। उदाहरण–कुशल बली है जलवास की कला में भी। मैथलीशरण। ३. [ब० स०] खस। ४. [जल√वस्] विष्णुकंद।
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जल-विश्लेषण  : पुं० [ष० त०] जल के संयोजक तत्त्वों को अलग-अलग करने की क्रिया या भाव। (हाइड्रोलिसिस)।
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जल-विषुव  : पुं० [मध्य० स०] ज्योतिष में वह योग या स्थिति जब सूर्य कन्या राशि से तुला राशि में संक्रमण करता है।
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जल-वीर्य  : पुं० [ब० स०] भरत के पुत्र का नाम।
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जल-वृश्चिक  : पुं० [स० त०] झींगा मछली।
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जल-वैकृत  : पुं० [ष० त०] जलाशयों नदियों आदि के संबंध में होनेवाली कुछ अनोखी और असाधारण बातें जो अपनी भावी दैवी उत्पात आदि की सूचक होती हैं। जैसे–नदी का अपने स्थान से हटना, जलाशयों का अचानक सूख जाना आदि आदि।
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जल-व्याघ्र  : पुं० [स० त०] [स्त्री० जल-व्याघ्री] सील की जाति का एक हिंसक जल-जंतु।
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जल-व्याल  : पुं० [मध्य० स०] पानी में रहनेवाला सांप।
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जल-शयन  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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जल-शूक  : पुं० [स० त०] सेवार।
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जल-शूकर  : पुं० [ष० त०] कुंभीर नाक नामक जल-जंतु।
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जल-संघ  : पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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जल-संघात  : पुं० [ष० त०]=जलराशि।
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जल-संत्रास  : पुं=जलांतक।
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जल-समाधि  : स्त्री० [स० त०] १. जल में डूबकर प्राण देना। २. जल में डुबाया या प्रवाहित किया जाना।
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जल-समुद्र  : पुं० [मध्य० स०] सात समुद्रों में से अंतिम समुद्र। (पुराण)
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जल-सर्पिणी  : स्त्री० [स० त०] जोंक।
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जल-संस्कार  : पुं० [स० त०] १. स्नान करना। नहाना। २. धोना। ३. शव को नदी आदि में प्रवाहित करना।
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जल-सूचि  : पुं० [स० त०] १. सूँस। २. बड़ा कछुआ। ३. जोंक। ४. जल में होनेवाला एक पौधा। ५. सिंघाड़ा। ६. कौआ। ७. कौआ नामक मछली।
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जल-सूत  : पुं० [स० त०] नहरुआ। (रोग०)
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जल-सेना  : स्त्री० [मध्य० स०] किसी राष्ट्र की वह सेना (वायु तथा स्थल-सेना से भिन्न) जो समुद्र-तटों की शत्रुओं से रक्षा करता तथा समुद्र में पहुँचकर विपक्षियों के जहाजों से युद्ध करती है। (नेवी)।
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जल-सेनी  : पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।
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जल-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] एक प्राकृतिक घटना जिसमें जलाशय या समुद्र में आकाश से बादल झुक पड़ते हैं और जलाशय या समुद्र का जल कुछ समय के लिए ऊपर उठकर स्तंभ का रूप धारण कर लेता है। सूँडी (वाटर स्पाउट)।
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जल-स्तंभन  : पुं० [ष० त०] मंत्रों आदि की शक्ति से जल की गति या प्रवाह रोकना या बंद करना।
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जल-हरण  : पुं० [ष० त०] मुक्तक दंडक का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में ३२ वर्ण होते हैं और आठ, आठ, नौ और फिर सात पर यति होती है।
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जल-हस्ती(स्तिन्)  : पुं० [स० त०] सील की जाति का एक स्तनपायी जल-जंतु।
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जल-हास  : पुं० [ष० त०] समुद्र फेन।
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जल-होम  : पुं० [स० त०] हवन का एक प्रकार जिसमें जल में ही आहुति दी जाती है।
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जलई  : स्त्री० [?] एक प्रकार की कील या काँटा जिसके दोनों ओर अँकुडे होते हैं।
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जलक  : पुं० [सं० जल√कै (प्रकाशित होना)+क] १. शंख। २. कौड़ी।
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जलकिनार  : पुं० [हिं० जल+किनारा] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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जलकुंभी  : स्त्री० [हिं० जल+कुंभी] कुंभी।
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जलकौआ  : पुं० [हिं० जल+कौआ] काले रंग का एक प्रसिद्ध जल-पक्षी जिसकी गर्दन सफेद और चोंच भूरे रंग की होती है।
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जलखर  : पुं० [हिं० जाल] [स्त्री० अल्पा० जलखरी] धागों या रस्सियों की बनी हुई वह बड़ी जाली जिसमें फल आदि रखकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाये जाते हैं।
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जलखावा  : पुं० [सं० जल+हिं० खाना] जलपान। कलेवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जलंग  : पुं० [सं० जल√गम् (जाना)+ड, मुम्] महाकाल नामक लता।
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जलंगम  : पुं० [सं० जल√गम्+खच्, मुम्] चांडाल।
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जलगुल्म  : पुं० [ष० त०] १. पानी में का भँवर। २. कछुआ। ३. ऐसा प्रदेश जिसमें जल की कमी हो।
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जलग्रभ  : वि०=जल-गर्भ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जलघुमर  : पुं० [हिं० जल+घूमना] पानी का भँवर। जलावर्त्त। चक्कर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जलचरी  : स्त्री० [जलचरी+ङीप्] मछली।
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जलचौलाई  : स्त्री०=चौलाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जलज  : वि० [सं० जल√जन् (उत्पत्ति)+ड] जल में से उत्पन्न होने वाला। पुं० १. कमल। २. जल-जंतु। ३. मोती। ४. शंख।
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जलजन्तुका  : स्त्री० [सं० जलजंतु+कन्-टाप्] जोंक।
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जलजंबुका  : स्त्री० [सं० जल-जंबु, मध्य० स०+कन्-टाप्] जल जामुन नामक पेड़ और उसका फल।
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जलजला  : पुं० [अ० ज़ल जलः] भूकंप। भूडोल।
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जलजामुन  : पुं० [सं० जल+हिं० जामुन] १. नदियों के किनारे होनेवाला एक प्रकार का जंगली जामुन का वृक्ष। २. उक्त पेड़ का फल।
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जलजासन  : पुं० [जलज–आसन, ब० स०] वह जिसका आसन कमल हो अर्थात् ब्रह्मा।
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जलण  : स्त्री० [सं० ज्वलन] अग्नि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जलताल  : पुं० [सं० जल+तल्-टाप्, जलता√अल् (पूरा होना)+अच्] सलई का पेड़ और उसकी लकड़ी।
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जलत्रा  : स्त्री० [जल√त्रा(वचाना)+क-टाप्] छाता।
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जलथंभ  : पुं० [सं० जलस्तंभन] १. जल की धारा को बाँधने या रोकने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘जलस्तंभ’।
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जलद  : वि० [जल√दा (देना)+क] जल देनेवाला। पुं० १. बादल। २. वंशज, जो पितरों को जल देते हैं।
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जलद-काल  : पुं० [ष० त०] वर्षाऋतु।
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जलद-क्षय  : पुं० [ब० स०] शरद ऋतु।
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जलदर्दुर  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार का पुराना बाजा।
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जलदागम  : पुं० [सं० जलद-आगम, ब० स०] वर्षाकाल।
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जलदाभ  : पुं० [सं० जलद–आभा, ब० स०] वह जिसकी आभा बादल के रंग जैसी हो।
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जलदोदो  : पुं० [?] जलाशयों में होनेवाला एक प्रकार का पौधा जिसके शरीर से स्पर्श होने से खुजली उत्पन्न होती है।
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जलंधर  : पुं० [सं० जल√धृ (धारण)+खच्, मुम्] १. एक प्रसिद्ध राक्षस जिसका जन्म समुद्र से माना जाता है, और जिसका वध विष्णु ने किया था। २. नाथपंथी एक सिद्ध। पुं=जलोदर (रोग)।
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जलधर-केदारा  : पुं० [सं० जलधर+हिं० केदारा] मेघ और केदारा के योग से बननेवाला एक संकर राग।
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जलधर-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. बादलों की श्रेणी या समूह। २. बारह वर्णों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक मगण, एक भगण, एक सगण और एक यगण होता है।
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जलधरी  : स्त्री० [सं० जलधर+ङीष्] धातु, पत्थर आदि का बना हुआ वह आधान जिसके बीच में शिंवलिंग स्थापित किया जाता है और जो तीन ओर से गोलाकार होता है और एक ओर से लंबोतरा अर्धा।
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जलधार  : पुं० [सं० जल√धृ (रखना)+णिच्+अच्] शाक द्वीप का एक पर्वत। स्त्री० [सं० जल+धारा] जल की धारा।
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जलधारी(रिन्)  : वि० [सं० जल√धृ+णिनि] [स्त्री० जलधारिणी] जलधारण करनेवाला। पुं० १. मेघ। २. बादल।
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जलधि  : पुं० [सं० जल√धा+कि] १. समुद्र। २. दस शंख की सूचक संख्या की संज्ञा। ३. महापद्म।
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जलधिगा  : स्त्री० [स० जलधि√गम् (जाना)+ड-टाप्] १. लक्ष्मी। २. नदी।
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जलधिज  : पुं० [सं० जलधि√जन् (उत्पत्ति)+ड] चंद्रमा।
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जलधेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] एक कल्पित गाय। (पुराण)।
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जलन  : स्त्री० [हिं० जलना] १. जलने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. शरीर के किसी अंग के जलने पर उसमें होनेवाली कष्टकारक चुन-चुनाहट या पीड़ा। ३. शरीर में अथवा उसके किसी अंग में किसी प्रकार का रोग या विकार होने के कारण होनेवाली कष्टकारक चुनचुनाहट। जैसे–खुजली के कारण शरीर में जलन होना। ४. किसी की उन्नति, वैभव, सुख आदि देखकर ईर्ष्या और द्वेष के कारण होनेवाला मानसिक कष्ट।
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जलनकुल  : पुं० [सं० स० त०] ऊदबिलाव।
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जलना  : अ० [सं० ज्वलन] १. आग का संयोग या संपर्क होने पर किसी वस्तु का ऐसी स्थिति में होना कि उसमें से (क) लपट (जैसे–कोयला जलना) (ख) प्रकाश (जैसे–दीया जलना) (ग) ताप (जैसे–कहाड़ी या तावा जलना) (घ) धूआँ (जैसे–गीली लकड़ी जलने पर) आग उत्पन्न होने या निकलने लगे। विशेष–प्रयोग की दृष्टि से जलना का क्षेत्र बहुत व्यापक है। हमारे यहाँ स्वयं आग भी जलती है आग की भट्ठी या चूल्हा भी जलता है, भट्ठी या चूल्हे में का ईधन भी जलता है जिसमें कोई चीज पकाई जाती है। इसी प्रकार दीया भी जलता है, उसमें का तेल भी जलता है और उसमें की बत्ती जलती है। पद–जलती आग-भयावह या संकट-पूर्ण वातावरण या स्थिति। मुहावरा–जलती आग में कूदना=जान-बूझकर अपनी जान जोखिम में या विशेष संकट में डालना। २. उक्त के आधार पर किसी वस्तु का आग से संयोग या संपर्क होने पर जलकर भस्म हो जाना। जैसे–घर या शव जलना। ३. किसी विशिष्ट प्रक्रिया से किसी वस्तु के साथ अग्नि का ऐसा संयोग होना कि उस वस्तु को कोई दूसरा या नया रूप प्राप्त हो। ४. शरीर के किसी अंग का अग्नि या ताप के कारण विकृत अवस्था को प्राप्त होना। जैसे–(क) रोटी पकाते समय तवे से हाथ जलना। (ख) गरम बालू पर चलते समय पैर जलना। (ग) गरम दूध पीने से मुँह जलना। मुहावरा–जले पर नमक छिड़कना=ऐसा काम करना जिससे दुखिया का दुख और अधिक बढ़े। ५. पेड़-पौधों के संबंध में, अधिक ताप के प्रभाव के कारण मुरझा या सूख जाना। जैसे–इस भीषण गरमी में खेत के खेत जल गये हैं। ६. (आंतरिक ताप) के कारण शरीर का बहुत अधिक तप जाना। जैसे–ज्वर के कारण शरीर जलना। ७. किसी प्रकार की भौतिक या रासायनिक प्रक्रिया के कारण किसी वस्तु के विशिष्ट गुणों का नष्ट होना। जैसे–(क) बिजली का तार जलना। (ख) तेजाब की बूँद पड़ने पर कपड़ा जलना। ८. लाक्षणिक अर्थ में, ईर्ष्या, क्रोध रागद्वेष आदि के कारण बहुत अधिक उतप्त होना। मुहावरा–जली कटी सुनाना=ईर्ष्या क्रोध आदि के कारण बहुत सी कटु बातें कहना। जल मरना=ईर्ष्या द्वेष आदि के कारण बहुत अधिक दुखी होना।
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जलनीम  : स्त्री० [सं० जल निंब] जलाशयों की दलदली भूमि से उपजने वाली एक प्रकार की लोनिया।
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जलनीलिका  : स्त्री० [सं० जलनीली+कन्-टाप्, हृस्व] सेवार।
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जलनीली  : स्त्री० [सं० जल√निल् (नीला करना)+णिच्+अण्-ङीषी] सेवार।
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जलपक  : वि०=जल्पक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जलपना  : अ० [सं० जल्पन] १. निर्रथक या व्यर्थ की बातें कहना। बकना। उदाहरण– धाए बुद्धि विरूद्ध कुद्ध जलपत दुर्भाषा।-रत्नाकर। २. लंबी चौड़ी हाँकना। डींग मारना।
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जलपाई  : स्त्री० [देश०] रूद्राक्ष की जाति का एक पेड़ उसका फल।
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जलपाटल  : पुं० [सं० जल और पटल] काजल।
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जलप्लव  : पुं० [सं० जल√प्लु (कूदना)+अच्] ऊदबिलाव।
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जलबंध  : पुं० [सं० जल√बंध् (बाँधना)+अच्] मछली।
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जलंबल  : पुं० [सं०] १. नदी। २. अंजन।
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जलबालक  : पुं० [सं० जल√बल् (जिलाना)+णिच्+ण्वुल्-अक] बिंध्याचल पर्वत।
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जलबिंदुजा  : स्त्री० [सं० जल-बिंदु, ष० त०√जन् (उत्पत्ति)+ढ-टाप्] एक प्रकार की रोचक ओषधि।
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जलबेंत  : पुं० [सं० जलवेत्र] जलाशयों या दलदल में लता के रूप में उपजनेवाला एक प्रकार का बेंत का पौधा जिसके छिलको से कुर्सियां आदि बुनी जाती हैं।
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जलभू  : पुं० [सं० जल√भू (होना)+क्विप्] १. मेघ। २. एक प्रकार का कपूर। ३. जलचौलाई। स्त्री० जल-प्राय भूमि। कछ।
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जलभूतृ  : पुं० [सं० जल√भृ (धारण)+क्विप्] १. बादल। मेघ। २. वह पात्र जिसमें जल रखा जाता हो। ३. एक प्रकार का कपूर।
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जलम  : पुं०=जन्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जलमय  : पुं० [सं० जल+मयट्.] १. चंद्रमा। २. शिव की एक मूर्ति।
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जलमुच्  : पुं० [सं० जल√मुच् (छोड़ना)+क्विप्] १. बादल। मेघ। २. एक प्रकार का कपूर।
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जलमोद  : पुं० [सं० जल√मुद् (प्रसन्न होना)+णिच्+अण्] खस।
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जलरंज  : पुं० [सं० जल√रंज् (अनुरक्त होना)+अच्] बगुलों की एक जाति।
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जलवाना  : स० [हिं० जलाना का प्रे० रूप] जलाने का काम किसी दूसरे से कराना।
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जलवाह  : पुं० [सं० जल√वह् (ढोना)+अण्] मेघ।
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जलवेतस  : पुं० [मध्य० स०] जलबेंत।
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जलशायी(यिन्)  : पुं० [जल√शी (शयन करना)+णिनि] विष्णु।
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जलशुंडी  : स्त्री०=जलस्तंभ।
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जलसा  : पुं० [अ०] १. दे० ‘उत्सव’ या समारोह। २. दे० ‘अधिवेशन’।
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जलसाईं  : पुं० [हिं० जलाना] मुरदे जलाने का स्थान। मरघट।
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जलसिरस  : पुं० [सं० जलशिरीष] जलाशयों में पैदा होनेवाला एक प्रकार का सिरस का वृक्ष।
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जलसिंह  : पुं० [स० त०] [स्त्री० जलसिंही] सील की जाति का एक प्रकार का बड़ा तथा हिंसक जल-जंतु।
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जलसीप  : स्त्री० [स्त्री० जलशुक्ति] वह सीप जिसके अंदर मोती हो।
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जलसीम  : स्त्री० [सं० जल+शिंबा] जल की सेम अर्थात् मछली।
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जलस्था  : स्त्री० [सं० जल√स्था (रहना)+क-टाप्] गंडदूर्वा।
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जलहर  : वि=जलहल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=जलधर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जलहरी  : स्त्री०=जलधरी।
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जलहल  : वि० [हिं० जल] जल से भरा हुआ। जलमय। पुं० १. =जलाशय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) २. =सागर।
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जलहार  : पुं० [सं० जल√हृ (हरण)+अण्] [स्त्री० जलहारी] पानी भरनेवाला मजदूर। पनिहारा।
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जलहालम  : पुं० [सं० जल+हालम ?] जलाशयों के किनारे होनेवाला एक प्रकार का हालम वृक्ष।
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जलाऊ  : वि० [हिं० जलाना+आऊ (प्रत्यय)] १. जलानेवाला। २. (वह) जो जलाया या जलाये जाने को हो। जैसे–जलाऊ लकड़ी।
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जलांक  : पुं० [सं० जल-अंक, ष० त०] [वि० जलांकित] जल-चिन्ह। (दे०)।
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जलाक  : स्त्री० [हिं० जलाना] १. पेट की जलन। २. तेज धूप की लपट। ३. लू।
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जलांकन  : पुं० [सं० जल-अंकन, ष० त०] जलांक या जल-चिन्ह अंकित करने की क्रिया या भाव।
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जलाकर  : पुं० [सं० जल-आकार, ष० त०] वह स्थान जहाँ बहुत अधिक जल हो। जलाशय। जैसे–नदी समुद्र आदि।
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जलाका  : स्त्री० [सं० जल-आ√का (जाहिर होना)+अच्-टाप्] जोंक।
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जलाकांक्ष  : पुं० [सं० जल-आ√कांक्ष् (चाहना)+अण्, ब० स०] हाथी।
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जलाक्षी  : स्त्री० [सं० जल√अक्ष् (व्याप्त होना)+अच्-ङीष्] जलपीपल। जलपिप्पली।
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जलाखु  : पुं० [सं० जल-आखु] ऊदबिलाव। (जंतु)।
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जलांचल  : पुं० [सं० जल-अंचल, ष० त०] पानी की नहर।
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जलांजल  : पुं० [सं० जल√अंज् (व्याप्त करना)+अलच्] १. सेवार। २. सोता। स्रोत।
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जलाजल  : वि०=झलाझल। पुं०=झलाझल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जलांजलि  : स्त्री० [सं० जल-अंजलि, मध्य० स०] १. जल से भरी अंजुली। २. तर्पण के समय पितरों आदि को दी जानेवाली जल की अंजुलि।
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जलांटक  : पुं० [सं० जल√अंट (घूमना)+ण्वुल्-अक] मगर।
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जलाटन  : पुं० [सं० जल√अट् (घूमना)+ल्यु–अन] सफेद चील।
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जलाटनी  : स्त्री० [सं० जलाटन+ङीप्] जोंक।
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जलाटीन  : पुं०=जेलाटीन।
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जलांतक  : पुं० [सं० जल-अंतक, ब० स० कप्] १. सात समुद्रों में से एक। २. श्री कृष्ण का एक पुत्र जो सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। (हरिवंश)।
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जलांतक  : पुं० [सं० जल-आतंक, पं० त०] १. जल से लगनेवाला भय। २. पागल कुत्तों, गीदड़ों आदि के काटने से होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें मनुष्य को जल देखने भर से बहुत अधिक डर लगता है। (हाइड्रोफोबिया)।
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जलातन  : वि० [हिं० जलना+तन] १. जिसका तन जला हो अर्थात् बहुत दुखी या संतप्त। २. क्रोधी। ३. ईर्ष्यालु। पुं० कष्ट देने की क्रिया या भाव। जैसे–इतना जलातन करोगे तो मैं चला जाऊँगा।
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जलात्मिका  : स्त्री० [सं० जल-आत्मन्, ब० स० कप्, टाप्, इत्व, ब० स०] १. जोंक। २. कूआँ।
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जलात्यय  : पुं० [सं० जल-अत्यय, ब० स०] शरत्काल।
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जलाद  : पुं०=जल्लाद।
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जलाधर  : पुं० [सं० जल-आधार, ष० त०] जलाशय।
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जलाधिदैवत  : पुं० [सं० जल-अधिदैवत, ष० त०] १. वरुण। २. पूर्वाषाढा़ नक्षत्र।
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जलाधिप  : पुं० [सं० जल-अधिप, ष० त०] १. वरुण। २ ज्योतिष में वह ग्रह जो किसी विशिष्ट संवत्सर में जल का अधिपति होता है।
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जलाना  : स० [हिं० जलना क्रिया का स० रूप] १. आग के संयोग से किसी चीज को जलने में प्रवृत्त करना। प्रज्वलित करना। विशेष–कोई चीज या तो (क) ताप उत्पन्न करने के लिए जलाई जाती है जैसे–ईधन जलाना या (ख) प्रकाश उत्पन्न करने के लिए, जैसे–लालटेन जलाना, अथवा (ग) नष्ट या भस्म करने के लिए, जैसे–मकान या शहर जलाना। २. आज-कल उक्त क्रियाएँ आग के अतिरिक्त कुछ दूसरी प्रक्रियाओं से भी की जाती है। जैसे–बिजली की बत्ती या लट्टू जलाना। ३. ऐसा काम करना जिससे अधिक ताप लगने के कारण कोई चीज जलकर विकृत दशा को प्राप्त हो जाय। जैसे–तरकारी या रोटी जलाना। ४. किसी पदार्थ को आग पर रखकर इस प्रकार गरम करना कि उसका कुछ अंश भाप के रूप में उड़ जाय। जैसे–दूध में का पानी जलाना। ५. कुछ विशिष्ट रासायनिक पदार्थों के संयोग से ऐसी क्रिया करना जिससे कोई तल निर्जीव या विकृत हो जाय। जैसे–क्षार या तेजाब से कपड़ा या फोड़ा-फुंसी जलाना। ६. किसी को ऐसी चुभती हुई बात कहना अथवा कोई ऐसा काम करना जिससे कोई बहुत अधिक मन ही मन दुःखी हो। ७. ऐसा काम करना जिससे किसी के मन में ईर्ष्या-जन्य कष्ट उत्पन्न हो।
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जलापा  : पुं० [हिं० जलना+आपा (प्रत्यय)] बराबर बहुत समय तक मन ही मन जलते रहने की अवस्था या भाव।
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जलापात  : पुं० [जल-आपात, ष० त०] जलप्रपात (दे०)।
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जलांबिका  : स्त्री० [सं० जल-अंबिका, ष० त०] कूआँ। कूप।
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जलायुका  : स्त्री० [जल-आयुस्, ब० स० कप्, पृषो० सलोप] जोंक।
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जलार्क  : पुं० [जल-अर्क, मध्य० स०] जल में दिखाई पड़नेवाला सूर्य का प्रतिबिंब।
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जलार्णव  : पुं० [जल-अर्णव, मध्य० स०] १. जल-समुद्र। २. बरसात। वर्षाकाल।
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जलार्द्र  : वि० [जल-आर्द्र, तृ० त०] पानी में या से भींगा हुआ। गीला।
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जलार्द्रा  : स्त्री० [सं० जालार्द्र+टाप्] १. गीला वस्त्र। २. भीगा पंखा।
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जलाल  : पुं० [अ०] १. तेज। प्रकाश। २. प्रताप। महिमा। ३. वैभव और संपन्नता।
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जलाली  : वि० [अ० जंलाल] तेज या प्रकाश से युक्त।
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जलालु  : पुं० [जल-आलु, मध्य, स०] जमींकंद। सूरन।
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जलालुक  : पुं० [सं० जलालु√कै (जाहिर होना)+उक] कमल की जड़। भसींड।
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जलालुका  : स्त्री० [सं० जल√अल् (जाना)+उक-टाप्] जोंक
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जलाव  : पुं० [हिं० जलना+आव (प्रत्यय)] १. जलने या जलाने की क्रिया या भाव। २. जलने के कारण कम होनेवाला अंश। ३. खमीर। ४. पतला शीरा।
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जलावतन  : वि० [अ०] [स्त्री० जलावतनी] देश या राज्य से निर्वासित।
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जलावतनी  : स्त्री० [अ०] देश-द्रोह आदि के अभियोग में किसी को देश छोड़कर विदेश चले जाने की दी जानेवाली आज्ञा या दंड। निर्वासन देश निकाला।
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जलावतार  : पुं० [जला-अवतार, ष० त०] नाव आदि पर वे उतरने का घाट।
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जलावन  : पुं० [हिं० जलाना] १. जलाने की वस्तुएँ। ईधन। २. किसी वस्तु का वह अंश जो जलकर विकृत या नष्ट हो गया हो।
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जलावर्त्त  : पुं० [जल-आवर्त्त, ष० त०] पानी का भँवर।
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जलाशय  : पुं० [जल-आशय, ष० त०] १. वह स्थल (प्रायः गहरा स्थल) जिसमें जल भरा हो। जैसे–गड्ढा, झील, नदी नहर आदि। २. खस। उशीर। ३. सिंघाड़ा। ४. लामज्जक नामक तृण।
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जलाशया  : स्त्री० [सं० जलाशय+टाप्] नागरमोथा।
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जलाश्रय  : पुं० [जल-आश्रय, ब० स०] १. दीर्घनाल या वृत्तगुंड नामक तृण। सिघाड़ा।
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जलाश्रया  : स्त्री० [सं० जलाश्रय+टाप्] शूली घास।
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जलाष्ठीला  : स्त्री० [जल-अष्ठीला, तृ० त०] बहुत बड़ा तथा चौकोर तालाब।
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जलासुका  : स्त्री० [जल-असु, ब० स० कप्-टाप्] जोंक।
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जलाहल  : वि० [हिं० जलाजल अथवा सं० जलस्थल] जल से भरा हुआ। जलमय। उदाहरण–जगत जलाहल होइ कुलाहल त्रिभुवन व्यापै।–रत्नाकर।
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जलाह्वय  : पुं० [सं० जल-आह्नय, ब० स०] १. कमल। २. कुईं। कुमुद।
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जलिका  : स्त्री० [सं० जल+ठन्-इक, टाप्] जोंक।
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जलिया  : पुं० [सं० जल] केवट। मल्लाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जलीय  : वि० [सं० जल+छ-ईय] १. जल-संबंधी। जल का। जैसे–जलीय क्षेत्र २. जल में उपजने, रहने या होनेवाला। जैसे–जल-जंतु। ३. जिसमें जल का अंश हो।
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जलीय-क्षेत्र  : पुं० [कर्म० स०] दे० ‘जल-प्रांगण’।
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जलील  : वि० [अ०] [भाव० जलाल] पूज्य या महान। (व्यक्ति) वि० [अ० जलील] [भाव० जिल्लत] १. जिसका अपमान हुआ हो। अपमानित। २. जो अपमानित किये जाने पर भी हठ वश वही काम करता हो। ३. तुच्छ। नीच।
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जलुका  : स्त्री० [सं०√जल (तेज होना)+उक्-टाप्] जोंक।
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जलू  : स्त्री० [सं० जलौका] जोंक।
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जलूका  : स्त्री० [जल-जोक,ब०स० पृषो.सिद्धि] जोंक।
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जलूस  : पुं० [अ० जुलूस] १. गलियों, बाजारों सड़कों आदि पर प्रचार प्रदर्शन आदि के लिए निकलनेवाला व्यक्तियों का समूह। क्रि० प्र–निकलना।–निकालना। २. बहुत ही ठाठ-बाट या सजावट की अवस्था या स्थान। उदाहरण–बैठी जमन जलूस करि फरस फबी कुखयान।–विक्रम सतसई।
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जलूसी  : वि० [अ० जुलूस] १. जलूस संबंधी। जलूस का। २. (सन या संवत्) जिसका आरंभ किसी राजा के सिंहासन पर बैठने के दिन से हुआ हो।
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जलेचर  : वि० [सं० जले√चर्(चलना)+ट] जलचर।
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जलेच्छया  : पुं० [सं० जल√इ (गति)+क्विप्√शी (सोना)+अच्, टाप्] जलाशय में होनेवाला हाथी सूँड़ नामक पौधा।
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जलेज  : पुं० [सं० जले√जन् (उत्पत्ति)+ड] कमल।
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जलेतन  : वि० [हिं० जलना+तन] १. जिसे बहुत अधिक शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचा हो। २. ईर्ष्या, द्रोह आदि के कारण बहुत अधिक दुःखी या संतप्त ३. क्रुद्ध।
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जलेंद्र  : पुं० [जल-इंद्र, ष० त०] १. वरुण। २. महासागर।
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जलेंधन  : पुं० [जल-इंधन, ब० स०] बड़वाग्नि।
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जलेबा  : पुं० [हिं० जलेबी] बड़ी जलेबी।
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जलेबी  : स्त्री० [देश०] १. घी में तलकर शीरे में पगाई हुई मैदे की कंडलाकार एक प्रसिद्ध मिठाई। २. बरियारे की जाति का एक पौधा जिसमे पीले रंग के फूल लगते हैं। ३. एक प्रकार की छोटी आतिशबाजी। ४. घेरा। लपेट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जलेभ  : पुं० [जल-इभ, मध्य० स०] जलहस्ती नामक जल-जंतु।
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जलेरुहा  : स्त्री० [सं० जले√रुह (उगना)+क-टाप्] सूरजमुखी नाम का पौधा और उसका फूल।
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जलेला  : स्त्री० [सं० जले√ला (लेना)+क-टाप्] एक मातृका जो कार्तिकेय की अनुचरी कही गई है।
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जलेवाह  : पुं० [सं० जले√वाह (प्रयत्न)+अण्] गोताखोर। पनडुब्बा।
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जलेशय  : पुं० [सं० जले√शी (शयन करना)+अच्] १. मछली। २. विष्णु।
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जलेश्वर  : पुं० [जल-ईश्वर,ष० त०] १ वरुण। २. समुद्र।
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जलोका  : स्त्री० [जल-ओक, ब० स० पृषो० सिद्धि] जोंक।
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जलोच्छास्  : पुं० [जल-उच्छ्वास, ष० त०] जलाशय में उठनेवाली वह बड़ी लहर जो तट की भूमि को भी स्पर्श करती है।
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जलोत्सर्ग  : पुं० [जल-उत्सर्ग, ष० त०] पुराणानुसार ताल, कूआँ या बाबली आदि का विवाह।
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जलोदर  : पुं० [जल-उदर, ब० स०] एक रोग जिसमें पेट में पानी जमा होने लगता है और उसके फलस्वरूप पेट फूलने लगता है।
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जलोद्भवा  : स्त्री० [जल-उद्भव, ब० स० टाप्] १. गुंदला नाम की घास। २. छोटी ब्राह्मी।
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जलोद्भूता  : स्त्री० [जल-उद्भता, स० त०] गुदला नामक घास।
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जलोद्वतिगति  : स्त्री० [जल-उद्धति, ष० त०, जलउद्धति, ब० स०] बारह अक्षरों की एक वर्ण-वृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण, सगण, जगण और सगण होता है।
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जलोन्नाद  : पुं० [जल-उन्नाद, ब० स०] शिव का एक अनुचर।
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जलोरगी  : स्त्री० [जल-उरगी, स० त०] जोंक।
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जलौकस  : पुं० [जल-ओकस्, कर्म० स० स,+अच्] जोंक।
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जलौका  : स्त्री० [जल-ओक, कर्म० स० टाप्] जोंक।
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जल्द  : अव्य० [अ०] जल्दी (दे०)।
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जल्दबाज  : वि० [फा०] [भाव० जल्दबाजी] (किसी काम में) आवश्यकता से अधिक जल्दी करनेवाला। हर काम या बात में जल्दी मचानेवाला।
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जल्दबाजी  : स्त्री० [फा०] जल्दबाज होने की अवस्था या भाव। आवश्यक या उचित से अधिक जल्दी या शीघ्रता करना।
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जल्दी  : स्त्री० [अ०] तीव्रगति से आगे बढ़ने या कोई काम करने की अवस्था, क्रिया या भाव। जैसे–हर काम में जल्दी करना ठीक नहीं। अव्य० १. शीघ्रता से। जैसे–जल्दी चलो। २. आनेवाले थोड़े समय में। जैसे–अभी जल्दी पानी नहीं बरसेगा। ३. सहज में। सुगमता से। जैसे–यह बात जल्दी तुम्हारी समझ में न आयेगी।
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जल्प  : पुं० [सं०√जल्प (कहना)+घञ्] १. कथन। २. बकवाद। प्रलाप। ३. ऐसा तर्क-वितर्क या विवाद जिसमें औचित्य, न्याय, सत्य आदि का विचार छोड़कर केवल अपनी बात ठीक सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाय। ४. सोलह पदार्थों में से एक पदार्थ। (न्याय)
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जल्पक  : वि० [सं०√जल्प+ण्वुल्-अक] १. कहनेवाला। २. बकवादी। वाचाल। ३. झूठ-मूठ तर्क-वितर्क करनेवाला।
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जल्पन  : पुं० [सं०√जल्प+ल्युट-अन] १. जल्प करने की क्रिया या भाव। २. डींग।
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जल्पना  : अ० [सं० जल्पन] १. कहना। बोलना। २. व्यर्थ में या बेफायदा बोलना। बकवाद करना। ३. व्यर्थ में तर्क-वितर्क करना। ४. डींग मारना।
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जल्पाक  : वि० [सं०√जल्प+षाकन्]=जल्पक।
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जल्पित  : भू० कृ० [सं०√जल्प+क्त] १. कहा हुआ। २. बका हुआ। ३. मनगढंत और मिथ्या (बात)।
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जल्ला  : पुं० [सं० जल] १. झील। (लश०) २. ताल। ३. हौज। ४. वह स्थान जहाँ जल अधिक होता या ठहरता हो।
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जल्लाद  : पुं० [अ०] १. मुस्लिम शासन-काल में, राज्य द्वारा नियुक्त वह कर्मचारी जो दंडित अपराधी का किसी तेज धारवाले वस्त्र से सिर काटता था। २. लाक्षणिक अर्थ में, बहुत बड़ा क्रूर तथा निर्दय (व्यक्ति)।
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जल्वा  : पुं० [अ० जल्वः] १. प्रकाश। तेज। २. शोभा। सौंदर्य।
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जल्सा  : पुं०=जलसा।
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जल्होर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का धान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जव  : पुं० [सं०√जु (जाना)+अप्] १. वेग। तेजी। २. जल्दी। शीघ्रता। वि० १. [√ जु+अच्] १. वेगवान्। २. जल्दी या शीघ्रता करनेवाला। पुं०=जौ।
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जवन  : वि० [सं०√जु(जाना)+ल्यु-अन] [स्त्री० जवनी] तेज। वेगवान। पुं० [√ जु+ल्युट] वेग। पुं०=यवन।
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जवनाल  : पुं=यवनाल।
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जवनिका  : स्त्री०=यवनिका।
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जवनिमा(मन्)  : स्त्री० [सं० जवन+इमानिच्] वेग।
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जवनी  : स्त्री० [सं० जवन+ङीष्]१. अजवायन। २. वेग। तेजी। स्त्री=यवनी (यवन जाति की स्त्री)।
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जवस  : पुं० [सं०√जु+असच्] घास।
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जवस्  : पुं० [सं०√जु+असुन्] वेग।
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जवाँ  : वि० [फा] जवान का संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों के आरंभ में प्राप्त होता है। जैसे–जवाँमर्द।
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जवा  : स्त्री० [सं०√जु (प्राप्त होना)+अच्-टाप्] अड़हुल। जपा। पुं० [सं० यव] १.जौ के आकार का दाना। २. लहसुन का दाना। ३. एक प्रकार की सिलाई।
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जवा-कुसुम  : पुं० [मध्य० स०] अड़हुल का फूल।
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जवाइन  : स्त्री०=अजवायन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जँवाई  : पुं० [सं० जामातृ] दामाद।
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जवाई  : स्त्री० [हिं० जाना] १. जाने की क्रिया या भाव। गमन। २. वह धन जो किसी को कहीं जाने पर उपहार या पारिश्रमिक के रूप में दिया जाय। पुं०=जँवाई (दामाद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जवाखार  : पुं० [सं० यवक्षार] वैद्यक में जौ के क्षार से बनाया जानेवाला एक प्रकार का नमक।
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जवाड़ी  : स्त्री० [हिं० जौ+आड़ी (प्रत्य०)] गेहूँ में मिले हुए जौ के दाने।
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जवादानी  : स्त्री० [हिं० जौ+दानी] गले में पहनने का एक प्रकार का आभूषण। चंपाकली।
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जवादि  : पुं० [अ० जब्बाद, जबाद] कस्तूरी की तरह का एक प्रकार का सुगंधित द्र्व्य जो गंध-मार्जार की नाभि में से निकलता है।
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जवाधिक  : पुं० [सं० जव-अधिक, ब० स०] बहुत तेज चलनेवाला घोड़ा।
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जवान  : वि० [फा०] [भाव० जवानी] १. युवा। तरुण। २. (व्यक्ति) जो तरुण अवस्था प्राप्त कर चुका हो। बचपन और प्रौढ़ता के बीच की अवस्था वाला। ३. वीर। पद–जवान
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जवानी  : स्त्री० [फा०] जवान होने की अवस्था या भाव। तरुणाई। यौवन। क्रि० प्र०–आना।–उतरना।–चढ़ना।–ढलना। पद–उठती या चढ़ती जवानी=वह अवस्था जिसमें किसी का यौवनकाल आरंभ हो रहा हो। मुहावरा–उतरती या ढलती जवानी=यौवन काल समाप्त होने का समय। स्त्री० [सं०] अजवायन।
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जवाब  : पुं० [अ०] [वि० जवाबी] १. वह बात जो किसी के प्रश्न, अभियोग, तर्क आदि के संबंध में उसके समाधान के लिए कही जाय। उत्तर। जैसे–पत्र का जबाब दिया गया है। मुहावरा–जवाब तलब करना=अधिकारपूर्वक किसी से उसके अनुचित या अवैधानिक आचरण या व्यवहार का कारण पूछना। २. ऐसा कार्य जो बदला चुकाने के लिए किया जाय। जैसे–उन्होंने थप्पड़ का जवाब मुक्के से या ईँट का जवाब पत्थर से दिया है। ३. किसी वस्तु के जोड़ की कोई दूसरी वस्तु। जैसे–(क) ताजमहल का जवाब देनेवाली रचना संसार में नहीं है। (ख) वह ऐसा लुच्चा है जिसका जवाब नहीं। (ग) यह कंगूरा उस कंगूरे का जवाब है। ४. नहिक या नकारात्मक आदेश या उत्तर। जैसे–उन्हें नौकरी से जवाब मिल गया है।
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जवाब सवाल  : पुं० [अ० जवाब+सवाल] १. किसी द्वारा पूछे जानेवाले प्रश्नों का दिया जानेवाला उत्तर। प्रश्न और उत्तर। २. वाद-विवाद।
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जवाबदारी  : स्त्री०=जवाबदेही।
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जवाबदावा  : पुं० [अ०] वह लिखित पत्र जो वादी के अभियोग या कथन के उत्तर में प्रतिवादी की ओर से न्यायालय में उपस्थित किया जाता है।
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जवाबदेह  : वि० [फा०] (व्यक्ति) जिस पर किसी कार्य का पूरा उत्तरदायित्व हो। दायी।
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जवाबदेही  : स्त्री० [फा०] जवाबदेह होने की अवस्था या भाव। उत्तरदायित्व।
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जवाबी  : वि० [फा० जवाब] १. जवाब संबंधी। २. जिसका जवाब दिया जाने को हो। ३. जो किसी के जवाब के रूप में हो। जैसे–जवाबी कंगूरा।
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जवाँमर्द  : पुं० [फा०] [भाव० जवाँमर्दी] १. नौजवान आदमी। २. वीर पुरुष। बहादुर।
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जवाँमर्दी  : स्त्री० [फा०] १. जवान अर्थात् युवा होने की अवस्था या भाव। वीरता।
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जवार  : पुं० [अ०] १. आस-पास का स्थान। २. पड़ोस ३. मार्ग। रास्ता। पुं०=जवाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=ज्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जवारा  : पुं० [हिं० जौ] १. जौ के नये निकले हुए अंकुर। २. नवरात्र की नवमी को होनेवाला एक उत्सव जिसमें लोग दल बाँधकर जौ के अंकुर प्रवाह करने के लिए निकलते हैं।
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जवारी  : स्त्री० [हिं० जव] १. एक प्रकार की माला जिसमें जौ, छुहारे तालमखाने के बीज आदि गूँधे जाते हैं। २. ऊन या रेशम का वह धागा जो तंबूरे के तार के नीचे उस अंश पर लपेटा जाता है जो घोड़ी पर रहता है। पद–जवारीदार गला=संगीत में ऐसा गला जिससे गाने के समय उसी के साथ कंप या छाया के रूप में उस स्वर की बहुत महीन या हलकी रेखा भी सुनाई पड़ती है। ३. जवारा।
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जवाल  : पुं० [अ० ज़वाल] १. अवनति। उतार। ह्रास। २. आफत। झंझट। मुहावरा–जवाल में डालना=संकट में फँसाना। जवाल में पड़ना=आफत या संकट में पड़ना।
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जवाशीर  : पुं० [फा० गावशीर] एक प्रकार का गंधा बिरोजा।
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जवास  : (ा) पुं० [सं० यवासक, प्रा० यवासअ] एक प्रकार का कँटीला क्षुप जिसके कई अंग औषध के रूप में काम आते हैं।
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जवाह  : पुं० [?] प्रवाल नामक रोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जवाहड़  : स्त्री० [हिं० जवा-दाना+हड़] एक प्रकार की छोटी हड़।
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जवाहर  : स्त्री० [अ० जौहर का बहु० रूप] रत्न। मणि।
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जवाहर खाना  : पुं० [अ० जवाहर+फा० खानः] वह स्थान जहाँ पर जवाहर अर्थात् रत्न आदि रखे जाएँ।
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जवाहरात  : पुं० [अ० जवाहर का बहुवचन रूप] अनेक प्रकार की मणियों या रत्नों का संग्रह या समूह।
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जवाहिर  : पुं०=जवाहर।
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जवाहिरात  : पुं०=जवाहरात।
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जवाही  : वि० [हिं० जवाह] जवाह अर्थात् प्रवाल रोग से पीड़ित।
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जवी(जविन्)  : वि० [सं० जव+इनि] वेगवान। तेज। पुं० १. घोड़ा। २. ऊँट।
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जवीय(स्)  : वि० [सं० जव+ईयसुन] बहुत तेज। वेगवान्।
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जवैया  : वि० [हि० जाना+ऐया (प्रत्यय)] प्रस्थान करने या रवाना होनेवाला। जानेवाला। उदाहरण–बरसत में कोऊ घर सों न निकसत तुमही अनोखे विदेस जवैया।–कोई कवि।
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जशन  : पुं० [फा० मि० सं० यजन] १. बहुत धूमधाम से मनाया जानेवाला कोई धार्मिक या सामाजिक उत्सव। आनन्दोत्सव। जलसा। २. बड़ी महफिलों के अन्त में होनेवाला वह नृत्य जिसमें सब नर्त्तकियाँ या वेश्याएँ एक साथ मिलकर नाचती और गाती हों।
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जंषना  : अ० [हिं० झंखना] पछताना। पश्चाताप् करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जष्ट  : स्त्री=यष्टि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जस  : वि=जैसा। पद–जस का तस=ज्यों का त्यों। जैसा था वैसा ही। उदाहरण–जस दूलहा तस बनी बराता।–तुलसी। क्रि० वि०=जैसे। पुं०=यश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जसद  : पुं० [सं० जस√दा (देना)+क] जस्ता।
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जसन  : पुं=जशन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जसवै  : स्त्री०=यशोदा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जसामत  : स्त्री० [अ० जिस्म का भाव० रूप] शारीरिक स्थूलता। मोटापा।
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जसीम  : वि० [अ० जिस्म का वि०] स्थूल आकारवाला। भारी भरकम।
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जसु  : पुं० [सं०√जस् (छोड़ना आदि)+उ] १. अस्त्र। हथियार। २. अशक्तता। ३. थकावट। पुं०=जस (यश)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) सर्व० [सं० यस्यं या जस्स] जिसका। स्त्री=यशोदा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जसुरि  : पुं० [सं०√जस्+उरिन्] वज्र।
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जसूँद  : पुं० [देश०] एक वृक्ष जिसके रेशों को बटकर रस्से बनाये जाते हैं। नताउल।
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जसोदा  : स्त्री०=यशोदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जसोमति  : स्त्री० यशोदा।
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जसोवा  : स्त्री=यशोदा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जसोवै  : स्त्री=यशोदा।
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जसौं  : अव्य० [हिं० जासु] १. जिसकी ओर। २. जिस ओर। उदाहरण–जासौ वै हेरहिं चख नारी। बाँक नैन जनु हनहिं कटारी।–जायसी। सर्व०=जिसको।
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जस्त  : पुं०=जस्ता (धातु)। स्त्री० [फा०] छलाँग। चौकड़ी।
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जस्तई  : वि० [हिं० जस्ता] १. जस्ते का बना हुआ। २. जस्ते के रंग का। खाकी। पुं० उक्त प्रकार का रंग जो प्रायः मटमैला होता है।
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जस्ता  : पुं० [सं० जसद] १. कुछ मटमैले रंग की एक प्रसिद्ध धातु। २. कपडो़ में, बुनावट के सूतों का इधर-उधर हट जाने के कारण दिखाई देनेवाला झीनापन।
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जहँ  : अव्य०=जहाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जहक  : वि० [सं०√हा (त्याग)+कन्, द्वित्वादि] त्याग करनेवाला। स्त्री० [हिं० जहकना] जहकने की क्रिया या भाव।
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जहकना  : अ० [हिं० झकना] १. चिढ़ना। २. कुढ़ना। ३. बढ़ बढ़कर बातें करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जहका  : स्त्री० [सं० जहक-टाप्] कटास, नेवले आदि की तरह का एक जन्तु।
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जहटना  : स०=जटना (ठगना)।
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जँहड़ना  : अ० स०=जहँड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जहँड़ना  : अ० [सं० जहन, हिं० जँहड़ना] १. घाटा उठाना। २. धोखे में आना। ठगा जाना। ३. निष्फल या व्यर्थ होना। उदाहरण–ईजग तो जहँड़े गया, भया जोग न भोग।–कबीर। स० धोखा देना। ठगना।
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जहँड़ाना  : अ० स०=जहँड़ना।
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जहतिया  : पुं० [हिं० जगात+कर] वह जो कर उगाहता या वसूल करता हो। जगाती।
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जहत्  : पुं० [सं०√हा (त्याग)+शतृ,द्वित्वादि] परित्याग।
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जहत्-लक्षणा  : स्त्री [ब० स०] साहित्य में लक्षणा का एक भेद जिसमें पद या वाक्य अपना वाच्यार्थ छोड़कर सामीप्य संबंध से किसी और अर्थ का बध कराता है। जैसे–हमारा घर गंगा पार है का अर्थ होगा हमारा घर गंगा के किनारे हैं।
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जहत्-स्वार्था  : स्त्री० [ब० स]=जहद लहल्लक्षणा।
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जहद  : स्त्री० [अ०] १. उद्योग। प्रयत्न। २. परिश्रम। मेहनत।
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जहदजहल्लक्षणा  : स्त्री [सं० जहत्-अजहत्-लक्षणा, ब० स०] लक्षणा का वह भेद जिसमें वक्ता के शब्दों से निकलने वाले कई अर्थों या आशयों में से केवल एक विशिष्ट और संबद्ध अर्थ या आशय ग्रहण किया जाता है।
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जहदना  : अ० [हिं० जहदा] १. कीचड़ होना। २. शिथिल होना।
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जहदा  : पुं० [?] १. कीचड़। २. दलदल।
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जहद्दम  : पुं०=जहन्नुम।
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जहना  : स० [सं० जहन] १. छोड़ना। त्यागना। २. नष्ट करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जहन्नुम  : पुं० [अ०] मुसलमानों के अनुसार एक नरक। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा स्थान जहाँ बहुत कष्ट भुगतना पड़े।
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जहन्नुमी  : वि० [फा०] १. नरक संबंधी। २. नरक में जाने या वास करनेवाला। नारकीय।
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जहमत  : स्त्री० [अ० जहमत] [वि० जहमती] १. आपत्ति। विपत्ति। २. झंझट। बखेड़ा। मुहावरा–जहमत उठाना=कष्ट उठाना। विपत्ति भोगना।
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जहर  : स्त्री० [फा० जह्र] १. ऐसी वस्तु जिसका सेवन या स्पर्श करने पर जीवन के लिए घातक परिणाम होता या हो सकता हो। विष। क्रि० प्र०–खाना।–देना।–पीना। २. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसा अप्रिय, कटु या दोषपूर्ण कार्य या बात जिससे कोई बहुत दुखी या संतप्त होता हो। पद–जहर का बुझाया हुआ=(क) (व्यक्ति) जो बहुत अधिक उपद्रवी या दुष्ट हो। (ख) (कथन या वचन) (ग) (अस्त्रों के संबंध में) जिसे किसी विषाक्त घोल या तरल पदार्थ में इस उद्धेश्य से डुबा लिया गया हो कि उससे प्रहार करने पर उस विष का प्रभाव आहत व्यक्ति के सारे शरीर में फैलकर अंत में उसके प्राण ले ले। जैसे–बहुत सी जंगली जातियाँ जहर में बुझाए हुए तीर चलाती है। जहर की गाँठ=दे० ‘विष की गाँठ’। मुहावरा–जहर उगलना=बहुत ही कटु, चुभती या लगती हुई बातें कहना। (कोई चीज या बात) जहर कर देना=अत्यन्त अप्रिय या कटु अथवा प्रायः असंभव कर देना। जैसे–तुमने झगड़ा करके खाना पीना जहर कर दिया है। जहर का घूँट पीना=बहुत ही अप्रिय बात सुनकर भी चुपचाप सहन कर लेना। जहर मार करना=अनिच्छा, अरुचि या भूख न होने पर भी जबरदस्ती खाना। वि० १. विषाक्त। २. घातक। ३. बहुत ही कड़ुआ।
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जहरगत  : स्त्री० [हिं० जहर+सं० गति] घूँघट काढ़कर नाचने का एक प्रकार।
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जहरदार  : वि० [फा०] जिसमें जहर हो। जहरीला। विषाक्त।
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जहरबाद  : पुं० [फा०] एक प्रकार का फोड़ा जिसमें उत्पन्न होनेवाले जहर के कारण मनुष्य के प्राण संकट में पड़ जाते हैं।
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जहरमोहरा  : पुं० [फा० जहर मुहरा] एक प्रकार का पत्थर जिसमें जहरीला तत्त्व सोख लेने फलतः जहर के प्रभाव से किसी को मुक्त करने की शक्ति होती है।
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जहरी  : वि० [हिं० जहर] जिसमें जहर हो। विषैला।
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जहरीला  : वि० [हिं० जहर+ईला (प्रत्य०)] १. जिसमें जहर भरा या मिला हो। विषैला। २. बहुत अप्रिय या कटु बातें कहनेवाला। २. बहुत अधिक उपद्रवी या दुष्ट। ४. बहुत अधिक अप्रिय। कटु।
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जहल  : स्त्री० [अ०] [भाव० जहालत] अज्ञान। मूर्खता। स्त्री० [?] ताप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जहल्लक्षणा  : स्त्री० [सं० जहत्-लक्षणा, ब० स०]=जहदजहल्लक्षणा।
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जहाँ  : अव्य० [सं० यत्र पा० यत्थ, प्रा० जह] जिस स्थान पर। जिस जगह। जैसे–जहाँ गये वहीं के हो गये। पद–जहाँ का तहाँ=जिस स्थान पर कोई चीज है या थी उसी स्थान पर। जैसे–गिलास जहाँ का तहाँ रख देना। जहाँ-तहाँ-इधर-उधर। किस जगह। जैसे–उनके दूत जहाँ-तहाँ फैले हुए थे। पुं० [फा० जहान] लोक। संसार।
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जहा  : स्त्री० [सं०] गोरखमुंडी।
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जहाँगीर  : वि० [फा०] [भाव० जहाँगीरी] संसार को अपने अधिकार में रखनेवाला।
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जहाँगीरी  : स्त्री० [फा०] हथेली के पिछले भाग पर पहना जानेवाला एक गहना जिसके आगे पाँचों उँगलियों में पहनने के लिए पाँच अँगूठियाँ लगी रहती है।
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जहाज  : पुं० [अ० जहाज] १. समुद्रों में चलनेवाली बहुत बड़ी नाव। पद–जहाज का पंछी=ऐसा व्यक्ति जिसका आधार या आश्रय एक ही व्यक्ति या स्थान हो। एक को छोड़कर जिसका और कहीं ठिकाना न लगे। २. दे० जलयान। ३. दे० वायुयान। विशेष–जो पक्षी कहीं से जहाज पर आ बैठता है, वह जहाज के बीच समुद्र में पहुँच जाने पर इधर-उधर आश्रय नहीं पाता और चारों ओर से घूम-फिरकर उसी जहाज पर आ बैठने के लिए विवश होता है। इसी आधार पर यह पद बना है।
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जहाजी  : वि० [अ०] १. जहाज या जहाजों पर बनने, रहने या होने वाला। पद–जहाजी कौआ (क) जहाज के अन्तर्गत जहाज के पंछी। (ख) बहुत बड़ा चालाक या धूर्त्त। २. जहाज के कर्मचारियों से संबंध रखनेवाला। पुं० १. जहाज का कर्मचारी। खलासी। २. जहाज पर यात्रा करने वाला व्यक्ति। स्त्री० पुरानी चाल की एक प्रकार की तलवार।
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जहाजी सुपारी  : स्त्री० [हि०] एक प्रकार की सुपारी जो साधारण सुपारी से कुछ बड़ी होती है।
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जहाद  : पुं० [अ० जिहाद] धर्म की सुरक्षा अथवा अपने सहधर्मियों के लिए किया जानेवाला युद्ध। (मुसलमान)।
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जहादी  : वि० [हिं० जहाद] जहाद संबंधी। जहाद का। पुं० वह व्यक्ति जो सहाद में सम्मिलित होता हो।
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जहाँदीद (ा)  : वि० [फा०] जिसने संसार को देखा परखा हो। अनुभवी।
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जहान  : पुं० [फा०] जगत। लोक। संसार।
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जहानक  : पुं० [सं०√हा (त्याग)+शानच्, द्वित्वादि,+कन्] प्रलय।
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जहाँपनाह  : वि० [फा०] संसार की रक्षा करनेवाला। पुं० १. ईश्वर। २. राजा।
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जहालत  : स्त्री० [अ०] १. अज्ञान। २. मूर्खता।
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जहिया  : वि० [सं० यद्+हिं० हिया] १. जिस समय। जब। २. जिस दिन।
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जहीं  : क्रि० वि० [सं० यत्र, पा० यत्थ] [हिं० जहाँ+ही (प्रत्यय)] जिस स्थान पर ही। जहाँ ही। विशेष–तहीं और वहीं इसके नित्य संबधी है। जैसे–जहीं देखो तहीं या वहीं लोग यही चर्चा क रहे थे। अव्य-ज्यों ही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जहीन  : वि० [अ० जहीन] १. बर बात को जल्दी सीख या समझ लेनेवाला। २. समझदार। बुद्धिमान।
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जहु  : पुं० [सं०√हा+उण्, द्वित्वादि] संतान।
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जहूर  : पुं० [अ० ज़हूर] जाहिर अर्थात् प्रकट करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। प्रकाश में आना या होना।
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जहूरा  : पुं० [अ० ज़हूर] १. प्रताप। २. अभिव्यक्ति। ३. दृश्य। ४. ठाठ-बाट।
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जहेज  : पुं०=दहेज।
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जह्र  : पुं० [फा० जह्र] जहर।
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जह्रु  : पुं० [सं०√हा (छोड़ना)+नु, द्वित्वादि] १. विष्णु। २. एक ऋषि जिन्होंने गंगा नदी का पान कर लिया था और फिर राजा भगीरथ के प्रार्थना करने पर उसे कान के रास्ते से बाहर निकाल दिया था।
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जह्रु-तनया  : स्त्री० [ष० त० ] गंगा नदी।
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जह्रु-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त० ] गंगा नदी।
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जह्रु-सप्तमी  : स्त्री० [ष० त० ] दे० ‘गंगा सप्तमी’।
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जह्रुँ-सुता  : स्त्री० [ष० त० ] गंगा।
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जाँ  : अव्य० [सं० यंत्र०] जहाँ। उदाहरण–जो वै जाँ गृहि गृहि जगन जागवै।–प्रिथीराज। स्त्री०=जान। वि० [फा० जा] उचित। वाजिब।
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जा  : स्त्री० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+ड-टाप्] १. माँ। माता। २. देवरानी। वि० स्त्री० समस्त पदों के अंत में उत्पन्न होनेवाली। जैसे–गिरिजा जनकजा। सर्व० [हिं० जो] जिस। वि० [फा०] उचित। मुनासिब। पद–जा बेजा=उचित और अनुचित। स्त्री० [फा०] जगह। स्थान।
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जा-नमाज  : पुं० [फा० जान(=जगह)+अ० नमाज] वह छोटी जाजिम या दरी जिस पर बैठकर मुसलमान नमाज पढ़ते हैं।
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जा-नशीन  : पुं० [फा०] [भाव० जा-नशीनी] १. किसी दूसरे के स्थान पर विशेषतः किसी अधिकारी के न रहने या हट जाने पर उसके पद या स्थान पर बैठनेवाला व्यक्ति। उत्तराधिकारी।
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जा-बजा  : क्रि० वि० [फा०] जगह-जगह पर। बहुत सी जगहों में।
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जाँ-बाज  : वि० [फा०] [स्त्री० जांबाजी] प्राणों की बाजी लगानेवाला। प्राण तक देने को तैयार रहनेवाला।
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जाइ  : वि० [हिं० जाना] व्यर्थ। निष्प्रयोजन। बे-फायदा। क्रि० वि० व्यर्थ। बे–फायद। वि० [फा० जा] उचित। वि० [सं० यानि] जितना। सर्व० [सं० यत्] जिसकी।
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जाइफर(फल)  : पुं=जायफल।
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जाइस  : पुं०=जायस।
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जाई  : वि० [फा० जाया (वि) का स्त्री रूप] कन्या। पुत्री। स्त्री०=जाही। (पौधा और फूल)।
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जाईदा  : वि० [फा० जइदः] समस्त पदों के अन्त में, उत्पन्न या पैदा किया हुआ। जना या जाया हुआ। जात। जैसे–नवाब जाईदाँ=नवाब का पैदा किया हुआ।
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जाउक  : पुं०=जावक (अलता)।
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जाँउत्त  : पुं०=जामुन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाउर  : स्त्री० [हिं० चाउर=चावल] खीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाउरि  : स्त्री०=जाउर। (खीर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाएँ  : क्रि० वि०=जायँ।
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जाएल  : वि० [देश०] क्रि० वि०=जायँ।
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जाएल  : वि० [देश०] (खेत) जो दो बार जोता गया हो। पुं० दो बार जोता हुआ खेत। वि० [अ० जायल] १. नष्ट भ्रष्ट। २. जो व्यर्थ हो गया हो।
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जाक  : पुं० [सं० यक्ष](यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) यक्ष। स्त्री० [हिं० जकना] जकने की क्रिया या भाव।
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जाकट  : स्त्री=जाकेट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाकड़  : पुं० [हिं० जाकर] १. कोई चीज इस शर्त पर लेना कि यदि पसंद न आई तो वापस कर दी जायगी। २. उक्त शर्त पर दी या ली जानेवाली वस्तु।
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जाकड़-बही  : स्त्री० [हिं० जाकड़+बही] वह बही जिसमें दूकानदार जाकड़ दी जानेवाली वस्तुओं का विवरण आदि लिखता है।
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जाकिट  : स्त्री०=जाकेट।
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जाकिर  : वि० [अं० जैकेट] जिक्र अर्थात् उल्लेख चर्चा या वर्णन करनेवाला।
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जाकेट  : स्त्री० [अं० जैकेट] सदरी की तरह का एक आधुनिक पहनावा।
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जाखन  : स्त्री० [देश०] जमवट। (दे०)-जमघट। (कूएँ में की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाखिनी  : स्त्री=यक्षिणी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाँग  : पुं० [देश०] घोड़ों की एक जाति। स्त्री०=जाँघ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाग  : पुं० [सं० यज्ञ] यज्ञ। स्त्री० [हिं० जगह] १. जगह। स्थान। २. गृह। घर। स्त्री० [हिं० जागना] जागने अथवा जागेत रहने की अवस्था, क्रिया या भाव। पुं०=जामन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [देश०] बिलकुल काले रंग का कबूतर।
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जाँगड़ा  : पुं० [देश०] प्राचीन काल में राजाओं का यश गानेवाला। भाट या बंदी।
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जागत  : पुं० [सं० जंगती+अण्] जगती छंद।
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जागता  : वि० [हिं० जागना] [स्त्री० जागती] १. जागा हुआ। २. जो जाग रहा हो। २. सतर्क। सावधान। ४. जो अपने अस्तित्व, शक्ति आदि का पूरा और स्पष्ट परिचय या प्रमाण दे रहा हो। जैसे–जागती कला, जागता जादू।
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जागता  : स्त्री०=योग्यता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जागतिक  : वि० [सं० जगत्+ठञ्-इक] १. जंगत संबंधी। जगत का। २. जगत् या संसार में रहने या होनेवाला।
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जागती कला  : स्त्री० [हिं० जागती+सं० कला] देवी-देवता आदि का ऐसा प्रभाव जो स्पष्ट दिखाई देता हुआ माना जाता हो।
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जागती जोत  : स्त्री० [हिं० जागता+सं० ज्योति] १. कोई देवीय चमत्कार। २. दीपक। दीया।
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जागना  : अ० [सं० जागरण] १. सोकर उठना। नींद खुलने पर चेतन होना। २. जागता हुआ होना। निद्रारहित होना। ३. सजग या सावधान होना। ४. प्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से अपने अस्तित्व, प्रभाव आदि का प्रमाण दे सकने की अवस्था में होना। ५. देवी-देवताओं का अपना प्रभाव दिखलाना। ६. उत्तेजित होना। ७. विख्यात होना। ८. (आग का) अच्छी तरह जलना।
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जागनौल  : स्त्री० [देश०] प्राचीन काल का एक अस्त्र।
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जागबलिक  : पुं०=याज्ञवल्क्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जागयाँ  : स्त्री० [सं०√जागृ+यक्-टाप्] जागरण।
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जाँगर  : पुं० [हि० जान या जाँघ] १. देह। शरीर। क्रि० प्र०–=चलना। २. शरीर का बल विशेषतः कोई काम करते समय उसमें लगनेवाला बल। पौरुष। पद–जाँगरचोर-(दे०)। पुं० [देश०] ऐसा डंठल जिसमें से अन्न झाड़ या निकाल लिया गया हो। उदाहरण–तुलसी त्रिलोक की समृद्धि सौज संपदा अकेलि चाकि राखी रासि जांगर जहान भो।–तुलसी।
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जागर  : पुं० [सं०√जाग् (जागना)+घञ्] १. जागरण। जागने की क्रिया। २. वह स्थिति जिसमें अंतःकरण की सब वृत्तियाँ जाग्रत अवस्था में होती हैं। ३. कवच।
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जागरक  : वि० [सं०√जागृ+ण्वुल्-अक] १. जागता हुआ। २. जागनेवाला।
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जांगरचोर  : पुं० [हिं० जाँगर+चोर] वह व्यक्ति जो आलस्य आदि के कारण जान-बूझकर अपनी पूरी शक्ति किसी काम में न लगाता हो।
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जागरण  : पुं० [सं०√जागृ+ल्युट-अन] [वि० जागरित] १. जागते रहने की अवस्था या भाव। २. किसी उत्सव, पर्व आदि की रात को जागते रहने का बाव। ३. लाक्षणिक अर्थ में, वह अवस्था जिसमें किसी जाति, देश, समाज आदि को अपनी वास्तविक परिस्थितियों और कारणों का ज्ञान हो जाता है और वह अपनी उन्नति तथा रक्षा करने के लिए सचेष्ट हो जाता है।
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जागरन  : पुं०=जागरण।
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जाँगरा  : पुं०=जाँगड़ा (भाट)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जागरा  : स्त्री० [सं०√जागृ+अच्-टाप्] जागरण।
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जागरित  : वि० [सं०√जागृ+क्त] १. जाग्रत या जागता हुआ। २. (वह अवस्था) जिसमे मनुष्य को इंद्रियों द्वारा सब प्रकार के व्यवहारों और कार्यों का अनुभव और ज्ञान होता हों। (सांख्य)।
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जागरू  : पुं० [देश०] १. दाँयी हुई फसल का वह अंश जिसमें भूसा और कुछ अन्न कण मिलें हों। २. भूसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जागरूक  : वि० [सं०√जागृ+ऊक] १. (व्यक्ति) जो जाग्रत अव्सथा में हो। २ (वह) जो अच्छी तरह सावधान होकर सब ओर निगाह या ध्यान रखता हो। (विजिलेन्ट)। पुं० -पहरेदार।
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जागरूप  : वि० [हिं० जागना+सं० रूप] जिसका रूप बहुत ही प्रत्यक्ष और स्पष्ट हो।
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जागर्ति  : स्त्री० [सं०√जागृ+क्तिन्] १. जाग्रत होने की अवस्था या भाव। २. जागरण। ३. चेतनता।
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जांगल  : पुं० [सं० जंगल+अण्] १. ऐसा ऊसर तथा निर्जन प्रदेश जिसमें वर्षा कम होने तथा गरमी अधिक पड़ने के कारण वनस्पतियाँ वृक्ष आदि बहुत थोड़े हों। २. उक्त प्रदेश में रहने तथा होनेवाला जीव या वस्तु। जैसे–जल, लकड़ी, हिरन आदि। ३. हिरन आदि पशुओं का मांस। ४. तीतर। वि० १. जंगल संबंधी। २. जंगली या वन्य अर्थात् जो पालतू न हो।
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जांगलि  : पुं० [सं० जंगल+इञ्] जांगलिक।
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जांगलिक  : वि० [सं० जंगल+ठक्-इक] १. जंगल संबंधी। २. जंगली। पुं० [जंगली+ठन्-इक] १. साँप पकड़ने वाला व्यक्ति। २. साँप के काट खाने पर चढ़नेवाले विष उतारने या दूर करनेवाला। गारुड़ी।
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जांगली  : स्त्री० [सं० जांगल+ङीष्] केवाँच। कौंछ।
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जाँगलू  : स्त्री० [सं० जांगल] १. जंगल संबंधी। २. जंगली। ३. अशिष्ट और असभ्य। उजडु।
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जाँगी  : पुं० [?] नगाड़ा।
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जागी  : पुं० [सं० यज्ञ] भाट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जागीर  : स्त्री० [फा०] वह भूमि जो मध्ययुग में राजाओं, बादशाहों आदि की ओर से बड़े-बड़े लोगों को विशिष्ट सेवाओं के उपलक्ष्य में सदा के लिए दी जाती थी।
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जागीरदार  : पुं० [फा] वह जिसे जागीर मिली हो। जागीर का मालिक।
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जागीरी  : स्त्री० [फा० जागीर+ई (प्रत्यय)] १. जागीरदार होने की अवस्था या भाव। २. रईसी। वि० जागीर संबंधी। जैसे–जागीर आमदनी।
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जागुड़  : पुं० [सं० जगुड़+अण्] १. केसर। २. एक प्राचीन देश। ३. उक्त देश का निवासी।
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जांगुल  : पुं० [सं० जंगल+अण्] १. तोरी नामक पौधा और उसकी फली। २. विष।
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जांगुलि(क)  : वि० पुं० [सं० जंगल+इञ्]=जांगलिक।
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जांगुली  : स्त्री० [सं० जांगल+ङीप्] वह विद्या या मंत्र-शक्ति जिसके द्वारा विष का प्रभाव को दूर किया जाता है।
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जागृति  : स्त्री० [सं०√जागृ+क्तिन्]=जाग्रति।
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जागृवि  : पुं० [सं०√जागृ+क्विन्] १. राजा। २. आग। वि=जाग्रत।
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जाग्रति  : स्त्री० [सं० जाग्रति] १. जाग्रत होने की अवस्था या भाव। २. जागते रहने की क्रिया। जागरण।
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जाग्रत्  : वि० [सं०√जागृ+शतृ] १. जागता हुआ। २. सचेत। सावधान। ३. जो अपने दूषित वातावरण को बदलने और अपनी उन्नति तथा रक्षा के लिए तत्पर हो चुका हो। ४. प्रकाशमान। पुं० दर्शनशास्त्र में, जीव या मनुष्य की वह अवस्था जिसमें उस सब बातों का परिज्ञान होता हो और वह अपनी इंद्रियों के सब विषयों का बोग कर सकता हो।
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जाँघ  : स्त्री० [सं० जंघा=पिंडली] मनुष्यों और चौपायों के घुटने और कमर के बीच का अंग। मुहावरा–(अपनी) जाँघ उघाड़ना या नंगी करना=अपनी बदनामी या कलंक की बात स्वयं करना। उदाहरण–करियै कहा लाज मरियै जब अपनी जाँघ उघारी।–सूर। पद–जाँघ का कीड़ा-बहुत ही तुच्छ और हीन व्यक्ति।
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जाघनी  : स्त्री० [सं० जंघन+अण्-ङीप्] जंघा। जाँघ।
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जाँघा  : पुं० [देश०] १. हल। (पूरब) २. कूएँ पर बना हुआ गड़ारी रखने का खंभा। ३. वह धुरा जिसमें उक्त गड़ारी पहनाई जाती है।
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जांघिक  : वि० [सं० जंघा+ठन्-इक] १. जाँघ संबंधी। २. बहुत तेज चलनेवाला। पुं० १. ऐसा जीव जो बहुत तेज चलता हो। जैसे–ऊँट, हिरन, हरकारा आदि। २. मृगों की एक जाति। श्रीकारी जाति के मृग।
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जाँघिया  : पुं० [सं० जाँघ+इया (प्रत्यय)] १. कमर में पहना जानेवाला एक प्रकार का सिला हुआ छोटा पहनावा जिससे दोनों चूतड़ और जाँगे ढकी रहती है। २. मालखंभ की एक प्रकार की कसरत।
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जाँघिल  : वि० [सं० जंघा+इलच्] बहुत तेज दौड़नेवाला। वि० [देश०] खाकी या मटमैले रंग की एक शिकारी चिड़िया। वि० [हिं० जाँघ] चलने में जिसका पैर कुछ लचकता हो। (पशु) स्त्री० [देश०] खाकी या मटमैले रंग की एक शिकारी चिड़िया।
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जाँच  : स्त्री० [हिं० जाँचना] १. जाँचने की क्रिया या भाव। (क) वस्तु के संबंध में, उसकी शुद्धता या उसमें के शुद्ध अंश का किसी प्रक्रिया से पता लगाना। (ख) बात के संबंध में, उसकी सत्यता का पता लगाना। (ग) घटना आदि के संबंध में, उसके घटित होने के कारण पता लगाना। (घ) कार्य के औचित्य या अनैचित्य का पता लगाना। (ङ) व्यक्ति के संबंध में, उसकी कार्य कुशलता, योग्यता स्थिति आदि का पता लगाना। २. अनुसंधान या छान-बीन करने काकाम। ३. पूछ-ताछ।
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जांचक  : पुं० दे० ‘याचक’। वि० [हिं० जाँचना] जाँचनेवाला। वि०=याचक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जाचक  : वि० पुं०=याचक। (माँगनेवाला या भिखमंगा)।
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जाँचकता  : स्त्री० [हिं० जाँचक+ता (प्रत्यय)] जाँचक होने की अवस्था या भाव।
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जाचकता  : स्त्री०=याचकता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जांचना  : स० [सं० याचन] १. किसी प्रक्रिया, प्रयोग आदि द्वारा (क) किसी वस्तु की प्रामाणिकता शुद्धता आदि का पता लगाना, जैसे–घी, तेल या दूध जाँचना। (ख) किसी मिश्रण के संयोजक तत्त्वों अथवा उसमें मिली हुई अन्य वस्तुओं का पता लगाना। जैसे–खन थूक या पेशाब जाँचना। २. किसी बात, सिद्धांत आदि की उपयुक्तता सत्यता का पता लगाना। जैसे–कवित्त की परिभाषा जाँचना। ३. घटना आदि के घटित होने के कारणों का पता लगाना। ४. किसी कृत्य या क्रिया के औचित्य, अनौचित्य अथवा ठीक होने या न होने का पता लगाना। जैसे–हिसाब जाँचना। ५. किसी की शारीरिक या मानसिक कार्य-कुशलता, योग्यता, समर्थता स्थिति आदि का पता लगाना। जैसे–(क) डाक्टर का रोगी को जाँचना। (ख) सेना में भरती करने से पहले रंग-रूटों को जाँचना। ६. अनुसंधान या छान-बीन करना। ७. पूछ-ताछ करना। ८. याचना करना। मांगना। स० [सं० यातना](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. यातना या कष्ट देना। २. नष्ट करना। उदाहरण–ह्नै गई छान छपा छपाकर की छबि जामिनि जोन्ह मनौ जम जांची।–देव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जाचना  : स० [सं० याचन] याचना करना। माँगना। स०=जाँचना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाज-मलार  : पुं० [देश०] संपूर्ण जाति का एक संकर राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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जाजम  : स्त्री.दे.‘जाज़िम’।
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जाँजरा  : वि० [सं० जर्ज्जर] जीर्ण-शीर्ण। जर्जर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जाजरा  : वि० [सं० जर्जर] [वि० स्त्री जाजरी] १. बहुत पुराना। जर्जर। जैसे–जाजरा शरीर। २. जिसमें बहुत से छेद हों। जैसे–जाजरी नाव।
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जाजरी  : पुं० [देश०] चिड़ीमार। बहेलिया।
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जाजरूर  : पुं० [फा० जा+अ० जरूर] वह विशिष्ट स्थान जहाँ पर टट्टी की जाय। मल-त्याग करने का स्थान। पाखाना।
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जाजल  : पुं० [सं०] अर्थर्ववेद की एक शाखा।
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जाजलि  : पुं० [सं०] एक प्रवर्तक ऋषि।
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जाजात  : स्त्री०=जायदाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाजिब  : वि० [फा० जाजिब] १. (तरल पदार्थ) जज्द करने या सोखनेवाला। २. अपनी ओर खींचनेवाला। आकर्षक।
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जाजिम  : स्त्री० [तु० जाजम] १. फर्श आदि पर बिछायी जाने वाली छपी हुई चादर। २. बिछाने की कोई चादर। ३. कालीन।
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जाजी(जिन्)  : पुं० [सं०√जज् (युद्ध)+णिनि] योद्धा।
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जाजुलित  : वि=जाज्वल्यमान।
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जाज्वल्यमान  : वि० [सं०√ज्वल् (दीप्ति)+यङ्, द्वित्व+शानच्] १. खूब चमकता हुआ या प्रकाश-मान्। २. अच्छी तरह सब को दिखाई देनेवाला। ३. तेजपूर्ण।
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जाँझ ( ा)  : पुं० [सं० झंझा] वह गहरी वर्षा जिसके साथ तेज हवा भी चल रही हो।
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जाँट  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़। रोया।
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जाट  : पुं० [?] भारत की एक प्रसिद्ध जाति जो समस्त पंजाब, सिंध, राजपूताना और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में रहती और मुख्यतः खेती-बारी करती है। २. खेती-बारी करनेवाला व्यक्ति। कृषक। ३. एक प्रकार का चलता गाना। वि० उजड्ड। गँवार। उदाहरण–ऐसे कुमति जाट सूरज कौं प्रभु बिनु कोउ न धात्र।–सूर। पुं०=जाठ।
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जाटालि  : स्त्री० [सं०] पलाश की जाति का मोरवा नामक पेड़।
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जाटालिका  : स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका।
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जाटिकायन  : पुं० [सं०] अथर्ववेद के एक ऋषि।
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जाटू  : स्त्री० [हिं० जाट] करनाल, रोहतक, हिसार, आदि के जाटों की बोली। बाँगडू। हरियानी।
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जाठ  : पुं० [सं० यष्टि] १. लकड़ी का वह मोटा तथा लंबोत्तरा लट्ठा जो कोल्हू की कुंडी में लगा रहता है और जिसकी दाब से ऊख की गँड़ेरियों में से रस अथवा तिलहन में से तेल निकलता है। २. उक्त के आधार पर लकड़ी का कोई मोटा तथा लंबोत्तरा लट्ठा विशेषतः तालाब आदि के बीच में गड़ा हुआ।
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जाठर  : वि० [सं० जठर+अण्] जठर अर्थात् पेट-संबंधी। जठर का। जैसे–जाटर अग्नि या रोग। पुं० १. जठर। पेट। २. उदर या पेट की वह अग्नि जिसकी सहायता से भोजन पचता है। जठराग्नि। ३. श्रुधा। भूख। ४. संतति। संतान।
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जाठराग्नि  : स्त्री०=जठराग्नि।
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जाठरानल  : पुं०=जठराग्नि।
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जाठि  : स्त्री०=जाठ।
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जाड़  : पुं० [सं० जाडच्] जड़ता। वि० बहुत अधिक। अत्यन्त। पुं०=जाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाडचारि  : पुं० [सं० जाड्य-अरि, ष० त०] जंभीरी नीबू।
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जाडच्  : पुं० [सं० जड़+ष्यञ्] जड़ होने की दशा या भाव। ज़ड़ता।
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जाड़ा  : पुं० [सं० जड़] १. छः ऋतुओं में से एक जो हमारे यहाँ मुख्यतः पूस-माघ में पड़ती है और जिसमें तापमान अन्य ऋतुओं की अपेक्षा बहुत कम हो जाता है और अधिकतर जीव फलस्वरूप ठिठुरने लगते हैं। शीतकाल। २. शीत। सरदी।
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जाणगर  : वि० [हिं० जान+फा० गर] जानकार। जाननेवाला। (राजस्थान)
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जाणि  : अव्य० [सं० ज्ञान] जानों। मानों। जैसे–उदाहरण–छीणे जाणि छछोहा छूटा।–प्रिथीराज।
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जाणिक  : अव्य० [सं० ज्ञान] जानों। मानों। उदाहरण–जाणिक रोहणीउ तप्पइ सूर।–नरपतिनाल्ह।
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जाँत  : पुं०=जाँता।
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जात  : वि० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+क्त] १. जिसने जन्म लिया हो। उत्पन्न। जैसे–नवजात। २. यौगिक के आरम्भ में, (क) जिसमें या जिसे कुछ उत्पन्न हुआ हो। जैसे–जात-दंत=जिसके दाँत निकल आये हों, (ख) जिसने कुछ उत्पन्न किया हो। जैसे–जात-पुत्रा= जिसने पुत्र जन्माया हो। ३. यौगिक के अंत में, जो किसी में या किसी से उत्पन्न हुआ हो। जैसे–जल-जात=जल में या जल से उत्पन्न। ४. जन्म से संबंध रखनेवाला। जैसे–जातकर्म। (दे.) ५. जो घटना के रूप में हुआ हो। घटित। ६. एकत्र किया हुआ। संगृहीत। ७. प्रकट। व्यक्त। ८. उत्तम। श्रेष्ठ। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. चार प्रकार की संतानों में से वह, जिसमें प्रधानतः उसकी माता के से गुण हों। ३. जीव। प्राणी। ४. वर्ग। ५. समूह। स्त्री० [सं० जाति से फा० ज़ात] १. व्यक्ति। जैसे–किसी की जात से फायदा उठाना। २. देह। स्त्री०=जाति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जात-कर्म(न्)  : पुं० [सं०] हिंदुओं में, बालक के जन्म के समय होनेवाला एक संस्कार।
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जात-कलाप  : पुं० [ब० स०] मोर।
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जात-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] जातकर्म। (दे०)।
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जात-दंत  : वि० [ब० स०] (बच्चा) जिसके दाँत निकल आये हों।
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जात-देव(स्)  : पुं० [ब० स०] १. अग्नि। २. सूर्य। ३. परमेश्वर। ४. चीता नामक वृक्ष। चित्रक।
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जात-दोष  : वि० [ब० स०] दोषी।
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जात-पक्ष  : वि० [ब० स०] जिसमें से पर निकले हों। पुं० पक्षी।
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जात-पाँत  : स्त्री० [सं० जाति+पंक्ति] जातियों और उपजातियों से संबंध रखनेवाला विभाग।
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जात-मृत  : वि० [कर्म० स०] जो जन्मते ही मर गया हो।
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जात-रूप  : वि० [ब० स०] रूपवान्। सुन्दर। पुं० [जात+रूपम्] १. सोना। स्वर्ण। २. धतूरा।
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जात-वेश्म(न्)  : पुं० [ष० त०] १. वह कमरा, कोठरी या घर जिसमें बालक जन्मा हो। सौरी। सूतिकागार।
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जातक  : पुं० [सं० जात+कन्] [स्त्री० जातकी] १. नवजात शिशु। २. बच्चा। बालक। ३. फलित ज्योतिष में, फल कहने का वह प्रकार जिसमें जन्म-कुंडली देखकर उसके आधार पर भविष्य की सब बातें बतलाई जाती है। ४. बौद्धों मे भगवान् बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ या कहानियाँ जो ५॰॰ से ऊपर हैं। ५. बौद्ध भिक्षु। ६. बेंत। ७. हींग का वृक्ष।
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जातना  : स्त्री०=यातना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० =जाँतना-दबाते हुए पीसना।
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जातमात्र  : वि० [सं० जात+मात्रच्] हाल का जन्मा हुआ।
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जातरा  : स्त्री०=यात्रा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जांतव  : वि० [सं० जंतु+अण्] १. जीव-जंतुओं से सम्बन्धित। २. जीव जंतुओं से उत्पन्न होने या मिलने वाला। जैसे–जांतव विष।
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जांतविक  : वि० [सं० जंतु+ठक्-इक]=जांतव।
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जातवेदसी  : स्त्री० [जातवेदस्+ङीष्] दुर्गा।
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जाँता  : पुं० [सं० यंत्रम्; पा० यन्तम्; प्रा० यन्तम्; प्रा० जन्तम्, बँ० जात, जाति, सि० जण्डु, मरा० जातें] १. गेहूँ आदि पीसने की हाथ से चलाई जानेवाली पत्थर की बड़ी चक्की जो प्रायः किसी स्थान पर गाड़ दी जाती है। २. सोनारों, तारकसों आदि का जंती नामक औजार।
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जाता  : स्त्री० [सं० जात+टाप्] कन्या। पुत्री। बेटी। वि० स्त्री० सं० जात(विशेषण) का स्त्री। पुं०=जाँता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाति  : स्त्री० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+क्तिन्] १. जन्म। पैदाइश। २. हिंदुओं में, समाज के उन मुख्य चार विभागों में से हर एक जिसमें जन्म लेने पर मनुष्य की जीविका निर्वाह करने के लिए विशिष्ट कार्य-क्षेत्र अपनाने का विधान है। वर्ण। विशेष दे ‘वर्ण’। ३. उक्त में से हर एक बहुत से छोटे-छोटे विभाग और उपविभाग। जैसे–पांडेय, शक्ल, लोहार, सोनार आदि। ४. किसी राष्ट्र (या राष्ट्रों) के वे निवासी जिनकी नसल एक हो। जैसे–अंगरेज जाति, हिंदू जाति। विशेष–ऐसी जातियों के सदस्यों की शारीरिक बनावट, उनके स्वभाव, परम्पराएँ, विचारधाराएँ भी प्रायः एक-सी होती हैं। जैसे–आर्य, मंगोल या हब्शी जातियाँ। ५. पदार्थों या जीव-जंतुओं की आकृति, गुण धर्म आदि की समानता के विचार से किया हुआ विभाग। कोटि। वर्ग। (जेनस) जैसे–पशु जाति, पक्षी जाति। ६. उक्त में के छोटे-छोटे विभाग और उपविभाग। जैसे–घोड़े या हिरन की जाति का पशु। ७. कुल। वंश। ८. गोत्र। ९. तर्कशास्त्र और न्यायदर्शन में,किसी हेतु का वह अनुपयुक्त खंडन या उत्तर जो तथ्य के आधार पर नहीं बल्कि केवल साधर्म्य के आधार पर हो। १॰. मात्रिक छंद। ११. छोटा आँवला, चमेली, जायफल, जावित्री आदि पौधों की संज्ञा। १२. मालती नामक लता और उसका फूल।
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जाति-कर्म(न्)  : पुं० [ष० त०] जातकर्म।
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जाति-कोश(ष)  : पुं० [ष० त०] जायफल।
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जाति-कोशी(षी)  : स्त्री० [जातिकोश+ङीष्] जावित्री।
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जाति-पत्र  : पुं० [ष० त०] जावित्री।
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जाति-पत्री  : स्त्री० [ष० त०] जावित्री।
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जाति-पर्ण  : पुं० [ष० त०] जावित्री।
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जाति-पाँति  : स्त्री० दे० ‘जात-पाँत’।
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जाति-फल  : पुं० [मध्य० स०] जायफल।
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जाति-ब्राह्मण  : पुं० [तृ० त०] वह ब्राह्मण जिसका केवल जन्म किसी ब्राह्मण कुल में हुआ हो परन्तु अपने जाति-धर्म का पालन न करता हो।
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जाति-भ्रंश  : पुं० [ष० त०] जाति भ्रष्टता।
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जाति-भ्रष्ट  : वि० [तृ० त०] जाति-च्युत।
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जाति-लक्षण  : पुं० [ष० त०] किसी जाति में विशिष्ट रूप से पाये जानेवाले चिन्ह या लक्षण।
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जाति-वाचक  : वि० [ष० त०] १. जाति बतानेवाला। २. जाति के हर सदस्य का समान रूप से सूचक। जैसे–जातिवाचक संज्ञा।
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जाति-वाद  : पुं० [ष० त०] [वि० जातिवादी] यह विचार-धारा या सिद्धान्त कि हमारी अथवा अमुक जाति और सब जातियों की तुलना में श्रेष्ठ है। (रेशियलिज्म)।
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जाति-विद्वेष  : पुं० [तृ० त०] जाति-वैर।
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जाति-वैर  : पुं० [तृ० त०] एक जाति के जीवों का दूसरी जाति के जीवों के प्रति होनेवाला प्राकृतिक या वंशगत वैर।
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जाति-शस्य  : पुं० [ष० त०] जायफल।
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जाति-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें मनुष्यों की जातियों के विभागों, पारस्परिक संबंधों, जातीय गुणों आदि का विवेचन होता है। (एन्थालोजी)।
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जाति-संकर  : पुं० [ष० त०] दोगला। वर्णसंकर।
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जाति-सार  : पुं० [ष० त०] जायफल।
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जाति-स्मर  : पुं० [ष० त०] वह अवस्था जिसमें मनुष्य को अपने पूर्वजन्म की बातें याद आती या रहती हैं।
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जाति-स्वभाव  : पुं० [ष० त०] एक अलंकार जिसमें आकृति और गुण का वर्णन किया जाता है।
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जाति-हीन  : वि० [तृ० त०] नीच जाति का।
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जातिच्युत  : वि० [तृ० त०] (व्यक्ति) जिसके साथ किसी (उसी की) जाति के लोगों ने व्यवहार छोड़ दिया हो।
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जातित्व  : पुं० [सं० जाति+त्व] जातीयता।
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जातिधर्म  : पुं० [ष० त०] १. वे सब कार्य, गुण या बातें जो किसी जाति में समान रूप से होती हैं। १. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का अपना अपना अथवा अपनी अपनी जाति के प्रति होनेवाला विशिष्ट कर्त्तव्य।
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जातिभ्रंशकर  : पुं० [सं० जातिभ्रंश√कृ (करना)+ट] मनु के अनुसार नौ प्रकार के पापों में से एक जिसमें मनुष्य अपनी जाति आश्रम आदि से भ्रष्ट हो जाता है।
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जाती  : स्त्री० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+क्तिन्-ङीष्] १. चमेली। २. मालती। ३. जायफल। ४. छोटा आँवला। पुं० [?] हाथी। (डिं०) स्त्री०=जाति। वि० [सं० जातीय से फा० जाती] १. स्वयं अपना निजी। २. व्यक्तिगत।
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जाती-कोश(ष)  : पुं० [ष० त०] जायफल।
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जाती-पत्री  : स्त्री० [ष० त०] जावित्री।
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जाती-फल  : पुं० [मध्य० स०] जायफल।
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जाती-रस  : पुं० [ब० स०] बोल नामक गंध द्रव्य।
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जातीपूग  : पुं० [ष० त०] जायफल।
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जातीय  : वि० [सं० जाति+छ-ईय] १. जाति संबंधी। जाति का। २. जाति में होनेवाला। ३. सारी जाति अर्थात् राष्ट्र या समाज का। (नैशनल)।
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जातीयता  : स्त्री० [सं० जातीय+तल्-टाप्] १. जाति का भाव। २. किसी जाति के आदर्शों, गुणों, मान्यताओं, विचारधाराओं आदि की सामूहिक संज्ञा। जैसे–प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जातीयता का अभिमान होना चाहिए।
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जातु  : अव्य० [सं०√जन्+क्तुन्, पृषो० सिद्धि] कदाचित्।
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जातु-क  : ब० [जातु=निदित क=जल, ब० स०] हींग।
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जातु-धान  : पुं० [जातु=निंदित+धान=सामीप्य, ब० स०] असुर। राक्षस।
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जातुज  : पुं० [सं० जातु√जन्+ड] गर्भिणी की इच्छा। दोहद।
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जातुष  : वि० [सं० जतु+अण्, पुषक् आगम्] १. लाख संबंधी। २. लाख का बना हुआ।
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जातू  : पुं० [सं० ज√ तुर्व (मारना)+क्विप्, दीर्घ] वज्र।
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जातूकर्ण  : पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार एक उपस्मृतिकार ऋषि जिनका जन्म अट्ठाइसवें द्वापर में हुआ था। (हरिवंश)।
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जातेष्टि  : स्त्री० [सं० जात-इष्टि, ष० त०] जातकर्म।
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जातोक्ष  : वि० [जात-उक्षन कर्म० स० चट्] (वह बैल) जिसे छोटी अवस्था में ही बधिया किया गया हो।
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जात्य  : वि० [सं० जाति+यत्] १. किसी की दृष्टि में, जो उसी की जाति का हो। नातेदार। सजातीय। जैसे–जात्य भाई। २. जो अच्छे कुल या जाति में उत्पन्न हुआ हो। कुलीन। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। ४. सुन्दर। सुरूप।
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जात्यंध  : वि० [सं० जाति-अंध, तृ० त०] (जीव) जो जन्म से ही अंधा हो।
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जात्यारोह  : पुं० [सं० जात्य-आरोह, कर्म० स०] खगोल के अक्षांश की गिनती में वह दूरी जो मेष में पूर्व की ओर प्रथम अंश से ली जाती है।
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जात्यासन  : पुं० [सं० जात्य-आरोह, कर्म० स० ] तांत्रिक साधना में, एक विशिष्ट आसन जिसमें हाथ और पैर साथ-साथ जमीन पर रखते हुए चला जाता है।
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जात्रा  : स्त्री=यात्रा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जात्री  : पुं०=यात्री।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाथका  : स्त्री० [सं० जूथिका] ढेर। राशि।
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जादगरी  : स्त्री० [फा०] १. जादूगर का काम, पेशा या वृत्ति। २. लाक्षणिक अर्थ में, कोई बहुत ही अदभुत तथा विलक्षण काम जो अलौकिक सा जान पड़ता हो।
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जादव  : स्त्री० [सं० यादव] यादव। यदुवंशी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जादव-पति  : पुं० [सं० यादवपति] श्रीकृष्णचन्द्र।
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जादवसपति(ती)  : पुं० [सं० यादसांपति] जल-जंतुओं के स्वामी। वरुण।
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जादा  : वि=ज्यादा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० जात से फा० ज़ादः] [स्त्री० जादी] जो किसी से उत्पन्न हुआ हो। उत्पन्न। जात। जैसे–नवाबजादा, साहबजादा।
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जादुई  : वि० [हिं० जादू] जादू का। जादू संबंधी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जादू  : पुं० [फा०] १. वह क्रिया या विद्या जिसकी सहायता से किसी दैवी शक्ति (जैसे–आत्मा, देवता भूत-प्रेत आदि) का आराधना किया जाता है और उसी के द्वारा कोई अभिप्रेत कार्य-संपन्न कराया जाता है। जैसे–लड़की पर किसी ने जादू कर दिया है। पद–जादू टोना-तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेतों आदि के द्वारा कोई काम कराने की क्रिया या भाव। २. बुद्धि के कौशल और हाथ की सफाई से दिखाया जानेवाला कोई ऐसा खेल जिसका रहस्य न समझने के कारण लोग उसे अलौकिक कृत्य समझें। ३. किसी वस्तु में वह गुण या शक्ति जिसके कारण उस वस्तु की ओर लोग बरबस आकृष्ट हो जाते हों। जैसे–इनकी आँखों में भी जादू है। ४. उक्त गुण या शक्ति का किसी पर पड़नेवाला प्रभाव। क्रि० प्र–डालना। मुहावरा–जादू जगाना=ऐसा कार्य या प्रयोग करना कि लोगों को जादू का सा प्रभाव दिखाई दे। जादू जमाना=किसी पर प्रभाव डालकर उसे पूरी तरह अपने वश में करना। पुं०=यदु।
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जादूगर  : पुं० [फा०] [स्त्री० जादूगरनी] १. जादू के खेल दिखानेवाले व्यक्ति। २. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसा व्यक्ति जो आश्चर्यजनक रीति से कोई कठिन या विलक्षण कार्य कर दिखलाता हो।
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जादूनजर  : वि० [फा०] (व्यक्ति) जिसकी आँखों में जादू हो। बहुत ही सुन्दर तथा लुभावनी आँखोंवाला।
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जादौ  : वि० पुं०=यादव (यदुवंशी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जादौराय  : पुं० [सं० यादव]=यादवराय (श्रीकृष्ण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जान  : स्त्री० [फा०] १. वह प्राकृतिक गुण या तत्त्व जिसके द्वारा मनुष्य जीव-जंतु, पशु-पक्षी, वनस्पतियाँ आदि जीवित रहती तथा अपने सब काम (जैसे–खाना-पीना, फलना-फूलना, अपने वर्ग का अभिवर्धन आदि) अच्छी तरह करती चलती हैं। जीवन। प्राण। पद–जान का गाहक=(क) ऐसा व्यक्ति जो किसी की जान लेने अथवा उसका अंत कर देने पर उतारू हो। (ख) बहुत दिक, तंग या परेशान करनेवाला व्यक्ति। जान का लागू=दे० जान का गाहक। जान जोखिम या जान जोखों-ऐसा काम या बात जिसमें जान जाने या मरने का डर हो। मुहावरा–(किसी में) जान आना=किसी मरती हुई या बेदम वस्तु का फिर से सक्रिय और स्वस्थ होना। (जान में) जान आना=धैर्य तथा स्थिरता होना। जान के लाले पड़ना=ऐसे संकट में फँसना कि जान बचना कठिन हो जाय। प्राण संकट में पड़ना। (किसी की) जान को रोना=ऐसे व्यक्ति को कोसना जिसके कारण बहुत दुख उठाना पड़ा हो। (किसी की) जान खाना=बार-बार दिक या परेशान करना। जान खोना=प्राण गवाँना। (किसी काम से) जान चुराना=परिश्रम का काम करने से कतराना या भागना। जी चुराना। जान छुड़ाना=झँझट या संकट से पीछा छुड़ाना या छुटकारा पाने का प्रयत्न करना। जान छूटना=झंझट या संकट से छुटकारा मिलना। जान जाना=प्राण निकलना। मरना। जान तोड़कर=बहुत अधिक परिश्रम करके। जान दूर भर होना=जीवन-यापन में बहुत अधिक कष्ट होना। जीना कठिन होना। (अपनी) जान देना=(क) प्राण-त्यागना। (ख) बहुत अधिक परिश्रम करना। (किसी पर) जान देना=(क) प्यार करना। बहुत अधिक प्रेम या स्नेह करना। (ख) जान निछावर करना। (किसी वस्तु के पीछे या लिए) जान देना=किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए बहुत अधिक व्यग्र होना। (अपनी जान को) जान न समझना=किसी बहुत बड़े काम की सिद्धि में अपने प्राणों तक को सकट में डालना। (दूसरे की जान को) जान न समझना-किसी के साथ बहुत ही निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार करना। जान निकलना= (क) प्राण निकलना। मरना। (ख) किसी से बहुत अधिक भयभीत होना। जैसे–वहाँ जाने पर अथवा उनके सामने होने पर उसकी जान निकलती है। (किसी में) जान पड़ना=(क) मृत शरीर में प्राणों का फिर से संचार होना। (ख) फिर से प्रफुल्लित, प्रसन्न तथा स्वस्थ होना। (किसीकी) जान पर आ बनना=ऐसी स्थिति उत्पन्न होना जिससे जीवित रहना बहुत कठिन जान पड़ता हो। (अपनी) जान पर खेलना=(क) प्राणों को संकट में डालकर जोखिम काकाम करना। (ख) किसी के लिए वीरतापूर्वक जान देना। जान पर नौबत आना=जान पर आ बनना। (दे०) जान बचाना=(क) प्राण रक्षा करना। (ख) पीछा छुड़ाना। (किसी की) जान मारना या लेना=(क) वध या हत्या करना। (ख) अधिक कष्ट देना या सताना। जान सूखना=चिंता,भय आदि के कारण निर्जीव सा होना। जान से जाना=प्राण गवाना। मर जाना। जान से मारना=वध या हत्या करना। जान से हाथ धोना=जान से जाना। जान हलाकान करना=बहुत अधिक दुःखी और परेशान करना (होना)। २. शीरीरिक बल या सामर्थ्य। ३. कोई ऐसी चीज या बात जो किसी दूसरी चीज या बात को सजीव या सार्थक करती अथवा उसे यथेष्ठ प्रभावशाली तथा सबल बनाती हो। मूल तत्त्व। सार भाग। जैसे–यही पंक्ति तो इस कविता की जान है। ४. लाक्षणिक रूप में, वह चीज जिसके कारण किसी दूसरी वस्तु की महत्ता या शोभा बहुत अधिक बढ़ जाती हो। मुहावरा–(किसी चीज में) जान आना=बहुत अधिक शोभा बढ़ाना। जैसे–चित्र टाँगने से इस कमरे में जान आ गई है। वि० प्रिय। उदाहरण–जान महा सहजे रिझवार।-आनंदघन। स्त्री० [सं० ज्ञान] १. जानकारी। परिचय। परिज्ञान। पद–जान पहचान=परिचय। जान में=ध्यान या जानकारी में। २. ख्याल। समझ। वि० जाननेवाला। जानकार। पुं० १. यान। २. जानु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जान-पहचान  : स्त्री० [हिं० जानना+पहचानना] आपस में एक दूसरे को जानने तथा पहचानने की क्रिया, अवस्था या भाव (केवल व्यक्तियों के संबंध में प्रयुक्त। विशेष–दो व्यक्तियों में जान-पहचान होने के लिए यह आवश्यक है कि उनमें परस्पर परिचय हुआ हो और कई बार-बात-चीत भी हुई हो।
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जान-पहचानी  : वि० [हिं० जान-पहचान] (व्यक्ति) जिससे जान-पहचान हो। परिचित।
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जान-बख्शी  : स्त्री० [फा०] १. प्राण-दंड जिसे दिया जा सकता हो उसे कृपाकर छोड़ देने की क्रिया या भाव। २. किसी को दिया जानेवाला ऐसा आश्वासन या वचन कि तुम्हें प्राण-दंड नही दिया जायगा।
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जान-बीमा  : पुं० [फा० जान+अ० बीमा] वह संविधा या व्यवस्था जिसमें बीमा करनेवाला कुछ निश्चित समय के अनंतर बीमा करानेवाले को अथवा उसकी मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी को कुछ निश्चित धन देता है। विशेष–बीमा करानेवाले को भी संविधा के अनुसार कुछ धन किस्तों के रूप में कुछ समय तक देना पड़ता है।
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जानकार  : वि० [हिं० जानना+कार (प्रत्य)] १. जाननेवाला। अभिज्ञ। २. परिचित। ३. किसी बात या विषय में कुशल या उसका अच्छा ज्ञाता।
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जानकारी  : स्त्री० [हिं० जानकार] जानकार होने की अवस्था गुण या भाव।
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जानकी  : स्त्री० [सं० जनक+अण्-ङीप्] जनक की पुत्री सीता।
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जानकी रवन  : पुं० दे० ‘जानकी रमण’।
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जानकी-जानि  : पुं० [सं० जानकी-जाया, ब० स०, नि० आदेश] श्री रामचंद्र।
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जानकी-नाथ  : पुं० [ष० त०] श्री रामचंद्र।
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जानकी-रमण  : पुं० [ष० त०] श्री रामचंद्र।
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जानदार  : वि० [फा०] १. जिसमें जान हो। सजीव। जीवधारी। २.जिसमें जीवन-शक्ति हो। प्रबल। शक्तिशाली। जैसे–जानदार पौधा। ३. बहुत ही महत्त्वपूर्ण। जैसे–जानदार बात। पुं० प्राणी।
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जाननहार  : पुं० [हिं० जानना+हार(प्रत्यय)] जाननेवाला। ज्ञाता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जानना  : सं० [सं० ज्ञान] १. किसी बात, वस्तु विषय आदि के संबंध की वस्तु स्थिति का ज्ञान होना। जैसे–(क) किसी का घर या पता जानना। (ख) अँगरेजी या हिंदी जानना। पद–जान बूझकर=अच्छी तरह समझते हुए और इच्छापूर्वक। मुहावरा–जान कर अनजान बनना=किसी बात के विषय में जानकारी रखते हुए भी किसी को चिढ़ाने, धोखा देने या मतलब निकालने के लिए अपनी अनभिज्ञता प्रकट करना। जान रखना=सचेत तथा सावधान रहना। जैसे–जान रखो, ईंट का जबाब पत्थर से मिलेगा। २. परिचय या सूचना पाना। पद–जान कर=सूचना मिलने पर। जैसे–आप के पत्र से यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप काशी पधार रहे हैं। ३. इस बात की जानकारी तथा समर्थता होना कि कोई काम कैसे किया जाता है। जैसे–वह इंजन तथा मोटर चलाना जानता है। ४. किसी क्रिया बात आदि की सत्यता पर विश्वास होना। जैसे–मैं जानता हूँ कि पिता जी ऐसे कामों से अवश्य असंतुष्ट होंगे। ५. मनोभाव के संबध में, (क) भाँप लेना। जैसे–मेरे बिना कुछ कहे ही वह मेरे आंतरिक भाव जान लेता है। (ख) अनुभूत करना। जैसे–वैष्णव जन तो तेने जो पीर पराई जाने रे।–नरसी मेहता।
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जानपद  : वि० [सं० जनपद+अण्] १. जनपद। संबंधी। जनपद का। पुं० १. जनपद। प्रदेश। २. जनपद का निवासी। जन। ३. जमीन पर लगनेवाला कर। माल-गुजारी। ४. मिताक्षरा के अनुसार लेख्य (दस्तावेज) के दो भेदों में एक जो प्रजावर्ग के पारस्परिक व्यवहार के संबंध में होता है।
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जानपदी  : स्त्री० [सं० जानपद+ङीप्] १. वृत्ति। २. महाभारत में एक अप्सरा जिसने इंद्र के कहने के अनुसार शरद्वान ऋषि की तपस्या भंग की थी।
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जानपना  : पुं० [हिं० जान+पन (प्रत्यय)](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) १. जानकार होने का भाव। २. चतुराई। बुद्धिमत्ता।
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जानपनी  : स्त्री०=जानपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जानमनि  : पुं० [हिं० जान+सं० मणि] बहुत बड़ा ज्ञानी या विद्वान।
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जानराय  : पुं० [हिं० जान+राय] बहुत बड़ा जानकार या ज्ञानी पुरुष।
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जानवर  : पुं० [फा०] १. वह जिसमें जान या प्राण हो। प्राणी। २. मनुष्य से मिलने, चलने-फिरने, उड़ने या तैरनेवाले अन्य जीव। जैसे–समुद्र में हजारों प्रकार के जानवर होते हैं। ३. उक्त जीवों में से विशेषतः वे जीव जिनके चार पैर हों। चौपाया। पशु। जैसे–वह जानवर चराने गया है। ४. लाक्षणिक अर्थ में, कम अक्लवाला उजड्ड या गँवार आदमी। ५. पशुओं का सा आचरण या व्यवहार करनेवाला।
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जानहार  : वि० [हिं० जाना+हारा (प्रत्यय)](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. जानेवाला। २. जो हाथ से निकल जाने को हो। ३. जो नष्ट होने को हो। वि० [हिं० जानना+हार(प्रत्यय)] जाननेवाला।
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जानहु  : अव्य० [हिं० जानना] जानों। मानों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जानाँ  : स्त्री० [फा० जान का बहु] प्रेमपात्र। प्रेयसी।
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जाना  : अ० [अ० या प्रा जा+हिं० प्र० ना] १. एक स्थान से चलकर अथवा और किसी प्रकार की गति में होकर दूसरे स्थान तक पहुँचने के लिए आगे या उसकी ओर बढ़ना। गमन या प्रस्थान करना। जैसे–(क) अपने मित्र के घर जाना। (ख) रेल पर बैठकर कलकत्ते अथवा हवाई जहाज पर बैठकर अमेरिका जाना। मुहावरा–(कहीं) जा पड़ना=अचानक कहीं पहुँचना या उपस्थित होना। २. किसी उद्देश्य की सिद्धि या कार्य की पूर्ति के लिए कहीं प्रस्थान करना। जैसे–लड़के का कहीं का खेलने या पढ़ने जाना। (ख) कर्मचारी का अधिकारी के पास जाना। (ग) सेना का युद्ध जाना। ३. यानों, आदि के संबंध में, अथवा उनसे भेजी जानेवाली चीजों के संबंध में, नियत या नियमित रूप से यात्रा आरंभ करना। जैसे–(क) यहाँ से रोज सन्ध्या को एक नाव या मोटर जाती है। (ख) हजारों रुपये के बरतन बाहर जाते हैं। ४. भौतिक या यांत्रिक प्रक्रियाओं से होनेवाले कामों या बातों के संबंध में, किसी प्रकार के वाहक साधन के द्वारा प्रसारित या प्रेषित होना। जैसे–(क) अब अनेक स्थानों से हिंदी में भी तार जाने लगे हैं। (ख) अह तो रेडियो के सब जगह खबरें जाने लगी हैं। (ग) हवा चलने पर इस फूल की सुगंध बहुत दूर तक जाती है। ५. तरल पदार्थ का आधार या पात्र में से निकलना, बहना या रसना। जैसे–आँखों से पानी जाना, फोड़ा से मवाद जाना, गले या नाक से खून जाना। ६. रेखा आदि के रूप में होनेवाली कृतियों, रचनाओं आदि के संबंध में एक बिंदु या स्थान से दूसरे बिंदु या स्थान तक विस्तृत रहना या होना। जैसे–यह गली उनके मकान तक अथवा यह सड़क दिल्ली से अमृतसर तक जाती है। ७. मन, विचार आदि के संबंध में, किसी की ओर उन्मुख या प्रवृत्त होना। जैसे–किसी काम, बात या व्यक्ति की ओर ध्यान या मन जाना। मुहावरा–किसी बात पर या किसी की बात पर जाना=महत्त्वपूर्ण समझकर उसकी ओर ध्यान देना। जैसे–आप इनकी बातों पर न जाएँ, ये तो यों ही बकते रहते हैं। ८. किसी स्थान से किसी चीज का उठाने या हटाने पर वर्तमान न रहना। जैसे–मेज पर से घड़ी चोरी जाना, घर से माल या समान जाना। ९. किसी के अधिकार, कार्यक्षेत्र, वश आदि से निकलना या बाहर होना। जैसे–(क) मुकदमेबाजी में उनके दोनों मकान गये। (ख) हमारी घड़ी जायगी तो तुम्हें दाम देना पड़ेगा। मुहावरा–जाने देना=(क) अधिकार, नियम आदि शिथिल रखकर किसी की प्रस्थान आदि की अनुमति देना। जैसे–लड़कों को खेलने कूदने के लिए भी जाने दिया करो। (ख) किसी को उपेक्ष्य या तुच्छ समझकर उसकी चिंता या विचार न करना अथवा उस पर ध्यान न देना। जैसे–अब लड़ाई-झगड़े की बातें जाने दो, और काम की बातें करो। १॰. कहीं या किसी से छूटकर अलग होना या रहना। जैसे–(क) घर से बीमारी या रोग जाना। (ख) किसी की नौकरी या यजमानी जाना। ११. न रह जाना। नष्ट होना। जैसे–आँखों की ज्योति जाना। पद–गया गुजरा या गया बीता-जो बहुत नष्ट या विकृत हो चुका हो। मुहावरा–क्या जाता है=कुछ चिंता नहीं। कोई हानि नहीं है। जैसे–हमारा क्या जाता है, वह जो चाहे सो करे। १२. मरना। जैसे–(क) उसके माँ-बाप तो पहले ही जा चुके थे। (ख) जो आया है वह जायगा ही। १३. काल या समय व्यतीत होना। गुजरना। बीतना। जैसे–इस महीने में भी चार दिन जा चुके हैं। १४. बेचा जाना या बिकना। जैसे–यह मकान दस हजार रुपए से कम में नहीं जायगा। विशेष–‘जाना’ क्रिया प्रायः दूसरी क्रियाओं के साथ संयोज्य क्रिया के रूप में प्रयुक्त होकर कई प्रकार के अर्थ देता या भाव सूचित करता है। यथा–(क) मुख्य क्रिया की पूर्णता या समाप्ति। जैसे–बन जाना, मर जाना, मिट जाना हो जाना। (ख) कुछ जल्दी या सहज में, परन्तु पूरी तरह से। जैसे–खा जाना, निगल जाना, समझ जाना। (ग) कोई कठिन बड़ा या महत्वपूर्ण कार्य कौशलपूर्वक कर डालना। जैसे–(क) आप भी कभी-कभी बहुत-कुछ कह जाते हैं। (ख) वह भी बहुत कुछ कर जायँगे।
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जानि  : स्त्री० [सं० जाया] स्त्री। भार्या। वि० [सं० ज्ञानी] जानकार। उदाहरण–सेनापति देखत ही जानि सब जानि गई-सेनापति। अव्य० तुल्य। समान। उदाहरण–वाणी पाणि सुवानि जानि दधिजा हंसा रसा आसनी।–चंदवरदायी।
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जानिब  : स्त्री० [अ०] ओर। तरफ। दिशा।
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जानिबदार  : वि० [फा०] [भाव० जानिबदारी] तरफदारी या पक्षपात करनेवाला।
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जानिबदारी  : स्त्री० [फा०] विवाद आदि में, किसी का पक्ष लेने की क्रिया या भाव। तरफदारी करना।
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जानी  : वि० [फा०] १. जान या प्राणों से संबंध रखनेवाला। जैसे–जानी दुश्मन। २. जान या प्राणों के समान परम प्रिय। जैसे–जानी दोस्त या जानी मित्र। स्त्री० [फा० जान] परमप्रिय स्त्री।
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जानु  : पुं० [सं०√जन्+त्रुण्] १. टाँग के बीच का जोड़। घुटना। स्त्री० [फा० जान] परमप्रिय स्त्री। २. उक्त जोड़ तथा उसके आस-पास का स्थान। जैसे–जानु में दर्द होता है। ३. जंघा। रान।
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जानु-पाणि  : क्रि० वि० [द्व० स०] घुटनों और हाथों से। घुटनों और हाथों के बल।
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जानु-विजानु  : पुं० [सं०] तलवार चलाने का एक ढंग।
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जानुपानि  : क्रि० वि०=जानु-पाणि।
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जानुवाँ  : पुं० [सं० जानु] पशुओं विशेषतः हाथियों को होनेवाला एक रोग जिसमें उनके घुटनों में पीड़ा होती है तथा जिसमें कभी कभी घुटनों की हड्डियों उभर भी आती हैं।
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जानू  : पुं० [सं० जानु से फा० जानू] जंघा। जाँघ।
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जाने  : अव्य० [हिं० न जाने] ज्ञान या जानकारी नहीं कि। मालूम नहीं कि। उदाहरण–जाने किसकी दौलत हूँ मैं।–दिनकर। पद–न जाने=नहीं जानता हूँ कि।
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जानो  : अव्य [हिं० जानना] १. ऐसा या इस प्रकार प्रतीत या भासित होता है कि। २. इस प्रकार जान या समझ लो कि।
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जान्य  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि। (हरिवंश)।
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जाप  : पुं० [सं०√जप् (जप करना)+घञ्] इष्ट देवता के नाम, मंत्र आदि का बार-बार उच्चारण। जप। (दे०)। स्त्री=जप माला। (क्व०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० जप] नाम, मंत्र आदि जपने की माला। जप-माला। उदाहरण–बिरह भभूत जटा बैरागी। छाला काँध जाप कँठ लागी।-जायसी।
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जापक  : वि० [सं०√जप्+ण्वुल्-अक] जाप करने या जपनेवाला।
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जापन  : पुं० [सं०√जप्+णिच्-ल्युट-अन] १. जपने की क्रिया या भाव। २. जप।
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जाँपना  : स० [? अथवा हिंदी चाँपना का अनु०] चाँपना। दबाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जापना  : अ० [सं, ज्ञपन] जान पड़ना। मालूम होना। उदाहरण–अनमिल आखर अरथ न जापू।–तुलसी। स०=जपना।
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जाँपनाह  : पुं=जहाँपनाह।
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जापा  : पुं० [सं० जनन] १. स्त्री का संतान उत्पन्न करना। प्रसव। २. प्रसूतिका-गृह। सौरी।
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जापान  : पुं० [हिं०] १. एशिया के पूर्वी समुद्र-तट पर के कई द्वीपों की सामूहिक संज्ञा। २. उक्त द्वीपों का राष्ट्र।
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जापानी  : वि० [हिं० जापान (देश)] १. जापान देश का। जापान संबंधी। २. जापान में बनने या होनेवाला। पुं० जापान देश का निवासी। स्त्री० जापान देश की भाषा।
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जापी(पिन्)  : वि० [सं०√जप्+णिनि] जाप या जप करनेवाला।
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जाप्य  : वि० [सं०√जप्+ण्यत्] १. जप करने या जपने योग्य। २. जो जपा जाने को हो।
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जाफ  : स्त्री० [अ० जोफ़] १. दुर्बलता, रोग आदि के कारण होनेवाली बेहोशी। मूर्च्छा। २. घुमटा। चक्कर।
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जाफत  : स्त्री० [अ० जियाफत] बन्धु-बान्धवों, मित्रों आदि को दिया जानेवाला प्रीतिभोज। दावत।
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जाफरान  : पुं० [अ० जाफ़रान] [वि० जाफ़रानी] १. केसर। २. अफगानिस्तान में रहनेवाली एक तातरी जाति।
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जाफरानी  : वि० [अ०] १. जिसमें जाफरान या केसर पड़ा हो। केसरिया। २. जाफरान या केसर के रंग का पीला। केसरिया।
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जाफरानी ताँबा  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का बढ़िया ताँबा जिसका रंग केसर की तरह पीला होता है।
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जाफरी  : स्त्री० [अ० जअफर] १. बाँसों अथवा उसकी खपचियों की बनी हुई टट्टी अथवा परदा। २. एक प्रकार का गेंदा। (पौधा और उसका फूल)।
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जाँब  : पुं० [सं० जाँबब] जामुन का वृक्ष और उसका फल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाब  : पुं०=जवाब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाबड़ा  : पुं०=जबड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाबता  : पुं०=जाब्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाबर  : वि० [?] बुड्ढा। वृद्ध। (डिं०)। पुं०=जावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाँबव  : पुं० [सं० जंबू+अण] १. जामुन का वृक्ष और उसका फल। वि० १. जामुन संबंधी। २. जामुन के रस से बना हुआ। जैसे–शराब, सिरका आदि।
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जाँबवक  : पुं० [जंबू+वुञ्-अक] =जांबव।
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जाँबवंत  : पुं०=जाँबवान्।
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जांबवती  : स्त्री० [सं० जांबवत्+अण्-ङीप्] १. द्वापर युग के जांबवान की वह कन्या जिसके साथ श्रीकृष्ण ने विवाह किया था। २. नागदौनी।
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जाँबवान्(वत्)  : पुं० [सं०] राम की सेना का एक रीछ जो राजा सुग्रीव का मंत्री था।
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जाँबवि  : पुं० [सं० जंबू+इञ्] वज्र। स्त्री० जांबवती।
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जांबवौष्ठ  : पुं० [सं० जाबंव-ओष्ठ, ब० स०] दे० जांबोष्ठ।
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जाबाल  : पुं० [सं० जवाला+अण्] सत्यकाम नामक वैदिक ऋषि।
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जाबालि  : पुं० [सं० जाबाला+इञ्] महाराज दशरथ के एक मंत्री का नाम जो उनके गुरु भी थे।
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जाबित  : वि० [अ० जाबित] जब्त करनेवाला।
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जाबिर  : वि० [फा०] १. (वह) जो जबर हो। जबरदस्ती करनेवाला। २. अत्याचारी। ३. उग्र। प्रचंड।
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जांबीर  : पुं० [सं० जंबीर+अण्] जंबीरी नीबू।
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जांबील  : पुं० [सं०] घुटने पर की गोल हड्डी। चक्की।
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जाँबु  : पुं०=जामुन।
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जांबुवत्  : पुं०=जांबवान्।
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जांबुवान  : पुं०=जांबवान्।
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जांबू  : पुं०=जंबू (द्वीप)।
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जांबूनद  : पुं० [सं० जंबू-नदी+अण्] १. धतूरा। २. सोना।
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जांबूमाली(लिन्)  : पुं० [सं०] एक राक्षस जिसका वध हनुमान जी ने अशोक वाटिका में किया था।
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जांबोष्ठ  : पुं० [सं० जांबवौष्ठ] एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र जिसकी सहायता से फोड़ों आदि को जलाया या दागा जाता था। (शल्य चिकित्सा)।
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जाब्ता  : पुं० [अ० जाब्तः] १. नियम। २. कानून। विधान। जैसे–जाब्ता दीवानी या जाब्ता फौजदारी (अर्था्त आर्थिक व्यवहार से या दंडनीय अपराधों से संबंध रखनेवाला विधान) ३. प्रबंध। व्यवस्था।
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जाम  : पुं० [सं० जम्बू](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. जामुन का पेड़ या फल। २. एक प्रकार का वृक्ष जिसमें छोटे मीठे फल लगते हैं। ३. उक्त वृक्ष का फल। पुं० जिमि (जिस प्रकार या ज्यों ही)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदाहरण–जाम हड्ड पल कटे, ताम बाँधत वीर दम।–चंद्रवरदाई। पुं०=याम। (पहर)। पुं० [फा०] एक विशिष्ट प्रकार का कटोरा या प्याला जो प्रायः मद्य पीने के काम आता था। २. मद्य पीने का पात्र। मुहावरा–जाम चलना=शराब का दौर शुरू होना। पुं० [अनु० झम=जल्दी] जहाज की दौड़। (लश०)। वि० [अ० जैम, मि० हिं० जमना] अधिकता, दबाव आदि के कारण चारों ओर से कसे या दबे होने के कारण अपने स्थान पर अड़ा या रुका हुआ। जैसे–काँटा या कील जाम होना, रास्ता जाम होना।
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जामगिरी  : स्त्री० [?] बंदूक का पलीता।
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जामगी  : स्त्री=जामगिरी।
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जामण  : पुं० [सं० जन्मन्] १. जन्म। उदाहरण–छूटा जामण मरण, सूँभवसागर तिरियाह।–बाँकीदास। २. दे० ‘जामन’।
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जामदग्न्य  : पुं० [सं० जमदग्नि+ष्यञ्] जमदग्नि ऋषि के पुत्र, परशुराम।
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जामदानी  : पुं० [फा० जामः दानी] १. पहनने के कपड़े रखने की पेटी या बाक्स। २. वह पेटी जिमसें बच्चे अपने खिलौने आदि रखते हैं। ३. कपडो़ पर होनेवाला एक प्रकार का कसीदे का काम या कढ़ाई। ४. एक प्रकार की मलमल जिस पर उक्त प्रकार का काम होता था।
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जामन  : पुं० [हिं० जमाना] वह खट्टा दही जो दूध को जमाने के लिए उसमें छोड़ा जाता है। पुं०=जामुन। पुं० [हिं० जन्मना] जन्म लेने की क्रिया या भाव।
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जामना  : अ०=जमना। स=जन्मना।
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जामनी  : स्त्री० [सं० यामिनी] रात। वि०=यवनी (यवनों का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जामबेतुआ  : पुं० [हिं० जाम+बेंत] १. बाँसों की एक जाति। २. उक्त जाति का बाँस।
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जामल  : पुं०=रुद्रयामल।
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जामवंत  : पुं०=जांबवान्।
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जामा  : पुं० [फा० जामः] १. पहनने का वह सिला हुआ कपड़ा जिससे गला, छाती, पीठ तथा पेट ढका रहे। मुहावरा–जामे से बाहर होना=इतना अधिक क्रुद्ध होना कि अपनी मर्यादा का ध्यान न रह जाय। २. घुटने तक लम्बा एक विशेष प्रकार का पहनावा जिसमें कमर के नीचे का भाग घेरदार होता है और जो प्रायः विवाह के समय वर को पहनाया जाता है।
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जामा-मसजिद  : स्त्री० [अ०] नगर की सब से बड़ी और मुख्य मसजिद जिसमें सब मुसलमान पहुँचकर नमाज पढ़ते हों।
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जामात  : पुं=जमायत।
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जामाता(तृ)  : पुं० [सं० जाया√मा(मान करना)+तृच्] १. संबंध में वह व्यक्ति जिसके साथ किसी ने अपनी कन्या का विवाह किया हो। दामाद। २. हुलहुल का पौधा।
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जामातु  : पुं०=जामाता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जामि  : स्त्री० [सं०√जम्+(खाना)+इञ्] १. बहन। भगिनी। २. कन्या। लड़की। ३. पुत्री। बेटी। ४. पुत्र-वधू। ५. अपने कुल, गोत्र या परिवार की स्त्री० ६. अच्छे कुल की स्त्री। महिला।
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जामिक  : पुं० [सं० यामिक] १. पहरा देनेवाला। २. रक्षक। रखवाला।
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जामित्र  : पुं० [जायामित्र] जन्म-कुंडली में लग्न से सातवां स्थान जिसका विचार विवाह के समय इस दृष्टि से होता है कि भावी जाया या पत्नी से कितना और कैसा सुख-दुःख मिलेगा।
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जामित्र-वेध  : पुं० [ष० त० ] ज्योतिष में एक अशुभ योग जो लग्न से सातवें स्थान में सूर्य,शनि या मंगल होने पर होता है। यह भावी पत्नी से प्राप्त होनेवाले सुख में बाधक होता है।
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जामिन  : पुं० [अ०] १. वह व्यक्ति जो अभियुक्त की जमानत करे। २. वह व्यक्ति जो किसी दूसरे के कार्य करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले। पुं० [हिं० जमाना] वह छोटी लकड़ी या लकड़ी का टुकड़ा जो नैचे की दोनों नालियों को अलग रखने के लिए चिलमगर्दे और चूल के बीच में बाँधा जाता है।
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जामिनदार  : पुं० [अ.जामिन+फा० दार] जमानत करनेवाला। जमानतदार।
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जामिनी  : स्त्री०=यामिनी। स्त्री=जमानत।
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जामी  : स्त्री० १. दे० यामी। २. दे० जामि। पुं० [सं० जन्म] जन्म देनेवाला अर्थात् पिता। बाप (डिं०)
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जामुन  : पुं० [सं० जंबु] १. गरम देशों में होनेवाला एक सदा बहार पेड़ जिसके गोल, छोटे, काले फल सकैलापन लिये मीठे होते हैं। २. उक्त वृक्ष के फल जो खाने और सिरका बनाने के काम आता है।
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जामुनी  : वि० [हिं० जामुन] १. जामुन का वृक्ष अथवा उसके फल से बनने, होने या संबंध रखनेवाला। जैसे–जामुनी लकडी, जामुनी सिरका। २. जामुन के रंग का। कुछ नीलापन लिये हुए काले रंग का। पुं० जामुन के फल की तरह का नीलापन लिये काला रंग।
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जामेय  : पुं० [सं० जामि+ढञ्-एय] बहन का लड़का। भांजा।
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जामेवार  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का दुशाला जिस पर बेल-बूटे कढे रहते हैं। २. उक्त प्रकार की छपी हुई छींट।
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जाँय  : क्रि० वि० [फा० बेजा] व्यर्थ। बे-फायदे। उदाहरण–भरतहिं दोसु देइ को जायँ।–तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जायँ  : क्रि० वि=जायँ। (व्यर्थ)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जाय  : वि० [फा० जा-ठीक] उचित। वाजिब। वि० [अ० जायः-नष्ट] निष्फल। व्यर्थ। क्रि० वि० व्यर्थ। स्त्री० [देश०] भूने हुए चने और उड़द की पकाई हुई दाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जाय-नमाज  : स्त्री०=जा-नमाज।
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जायक  : पुं० [सं०√जि (जीतना)+ण्वुल्-अक] पीला चंदन।
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ज़ायका  : पुं० [अ० जायकः] किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वह खाई जाने पर प्रिय लगती या रुचिकर होती है। स्वाद।
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जायकेदार  : वि० [अ० जायकः+फा० दार] (खाद्य पदार्थ) जिसमें अच्छा जायका या स्वाद हो। स्वादिष्ट।
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जायचा  : पुं० [फा० जायचः] जन्म-कुंडली।
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जायज  : वि० [अ० जायज] १. जो नियम, विधान आदि के अनुसार ठीक हो। वैध २. उचित। मुनासिब। वाजिब।
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जायजरूर  : पुं० [फा० जा+अ० जरूर] वह स्थान जहाँ लोग पाखाना फिरते हों। टट्टी। शौचालय।
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जायजा  : पुं० [अ० जायजः] १. जाँच-पड़ताल। २. किये हुए कामों का दिया या लिया जानेवाला विवरण। कैफियत। क्रि० प्र०–देना। लेना। ३. नित्य और नियमित रूप से लिखाई जानेवाली उपस्थिति। हाजिरी।
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जायद  : वि० [फा० जायद] १. अधिक। ज्यादा। २. अतिरिक्त।
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जायदाद  : स्त्री० [फा०] १. वह वस्तु अथवा वस्तुएँ जो किसी के निजी अधिकार में हों अथवा जिन पर कोई निजी अधिकार जतलाता हो। जैसे–हमारी जायदाद का उपभोग हमारे शत्रु करे, यह हमें सह्य नहीं हो सकता। २. उक्त के आधार पर विशेषतः वह वस्तु या वस्तुएँ जिन्हें उपभोग करने, बेचने आदि का पूरा अधिकार किसी को न्यायतः प्राप्त होता है।
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जायपत्री  : स्त्री०=जावित्री।
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जायफर  : पुं०=जायफल।
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जायफल  : पुं० [सं० जातीफल] एक प्रकार का सुंगधित फल जो औषध और मसाले के काम आता है।
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जायरी  : पुं० [देश०] नदियों के किनारे की पथरीली भूमि में होनेवाली एक प्रकार की लता।
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जायल  : वि० [फा०] जिसका नाश हो गया हो। जो नष्ट हो चुका हो। विनष्ट।
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जायस  : पुं० [देश०] उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में एक गाँव। (मलिक मुहम्मद जायसी की जन्म-भूमि)।
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जायसवाल  : पुं० [हिं० जायस] १. जायस नामक गाँव में अथवा उसके आस-पास रहनेवाला व्यक्ति। २. कुरमियों, कलवारों आदि का एक वर्ग।
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जायसी  : वि० [हिं० जायस] १. जायस गांव में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २ जायस गाँव में रहनेवाला (व्यक्ति)।
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जायसी।  :
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जायसी।  :
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जायसी।  :
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जाया  : स्त्री० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+यक्-आत्व,–टाप्] १. विवाहिता स्त्री, विशेषतः ऐसी स्त्री जो किसी बालक को जन्म दे चुकी हो। २. जोरू। पत्नी। ३. जन्म कुंडली में लग्न से सातवाँ स्थान जहाँ से पत्नी के संबंध में गणना या विचार किया जाता है। पुं० [हिं० जाना-जन्म देना] १. वह जो प्रसव कर के उत्पन्न किया गया हो। २. पुत्र। बेटा। वि० [अ० जायः] जो उपयोग या उपभोग में ठीक प्रकार से न लाया गया हो और फलतः यों ही नष्ट हो गया हो।
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जायाघ्न  : पु० [सं० जाया√हन् (मारना)+टक्] १. फलित ज्योतिष में एक योग जो पत्नी के जीवन के लिए घातक माना जाता है। २. व्यक्ति, जिसकी कुंडली में उक्त योग हो। ३. शरीर में का तिल।
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जायाजीव  : पुं० [सं० जाया=आजीव, ब० स०] १. वह जो अपनी पत्नी से व्यभिचार अथवा और कोई काम कराके अपनी जीविका चलाता हो। २. बगला पक्षी।
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जायानुजीवी(विन्)  : पुं० [सं० जाया-अनु√जीव् (जीना)+णिनि]=जायाजीव।
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जायी(यिन्)  : पुं० [सं०√जि (जीतना)+णिनि] संगीत में एक ताल।
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जायु  : पुं० [सं०√जि+उण्] औषध। दवा। वि० जीतनेवाला। जेता।
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जाँर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़।
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जार  : पुं० [सं०√जृ (जीर्ण होना)+घञ्] १. किसी स्त्री के विचार से वह पर-पुरुष जिसके साथ उसका अनुचित संबंध हो। उपपति। यार। पुं०=यार (मित्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० जलाना] जलाने, नष्ट करने या मारनेवाला। पुं० जलने की क्रिया या भाव। पुं०=जाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [फा० जार] स्थान। जैसे–गुलजार सब्जजार। पुं० [लै० सीजर] रूस के पुराने बादशाहों की उपाधि।
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जार-कर्म(न्)  : पुं० [ष० त०] छिनाला। व्यभिचार।
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जार-जन्मा(न्मन्)  : वि० [ब० स०] जारज।
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जार-जात  : वि० [तृ० त०] स्त्री के उपपति या जार से उत्पन्न। जारज।
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जार-भरा  : स्त्री० [जार√भृ (पोषण करना)+अच्-टाप्] अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष से संबंध रखनेवाली स्त्री।
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जारक  : वि० [सं०√जृ+ण्वुल्-अक] १. जलानेवाला। २. क्षीण या नष्ट करनेवाला। ३. पाचक।
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जारज  : पुं० [सं० जार√जन्+ड] वह बालक जो किसी स्त्री के साथ उप-पति के योग से उत्पन्न हुआ हो।
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जारज-योग  : पुं० [मध्य स०] फलित ज्योतिष में एक योग जिसमें उत्पन्न होनेवाला बालक जारज समझा जाता है।
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जारजेट  : स्त्री० [अं० जार्जेट] एक प्रकार का बढ़िया महीन कपड़ा।
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जारण  : पुं० [सं०√जृ+णिच्+ण्वुल्-अन] १. जलाने की क्रिया भाव या विधि। २. पारे की भस्म बनाने के समय होनेवाली एक क्रिया या संस्कार
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जारणी  : स्त्री० [सं० जारण+ङीष्] सफेद जीरा।
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जारदवी  : स्त्री० [सं० जरदगव+अण्-ङीष्] ज्योतिष में एक वीथी का नाम जिसमें वराहमिहिर के अनुसार श्रवण, धनिष्ठा तथा शतभिषा और विष्णु पुराण के अनुसार विशाखा, अनुराधा तथा ज्येष्ठा नक्षत्र हैं।
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जारन  : पुं० [सं० जारण] १. जलाने की क्रिया या भाव। २. जलाने की लकड़ी। ईधन। जलावन।
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जारना  : सं०=जलाना।
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जारा  : पुं०=जाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जारिणी  : स्त्री० [सं० जार+इनि-ङीष्] वह स्त्री जो किसी अन्य पुरुष से प्रेम करती हो।
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जारी  : वि० [अ०] १. जिसका चलन या प्रचलन बराबर हो रहा हो। जो चल रहा हो। जैसे–कार-बार या रोजगार जारी रहना। २. जिसका प्रवाह या बहाव बराबर हो रहा हो। प्रवाहित। जैसे–गले के कफ या खून जारी होना। ३. (निमय आदि) जो इस समय लागू हो। जैसे–अध्यादेश आज ही जारी होगा। पुं० अ० जारी-रोना] मुहर्रम से ताजियों के सामने गाया जानेवाला एक प्रकार का गीत। स्त्री० [सं० जार+ई (प्रत्यय)] पर स्त्री गमन। जार-कर्म। जैसे–चोरी-चारी करना। पुं० [देश०] झरबेरी का पौधा।
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जारुत्थ  : पुं०=जारुथ्य।
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जारुथी  : स्त्री० [सं० जरुथ+अण्-ङीप्] एक प्राचीन नगरी। (हरिवंश)
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जारुधि  : पुं० [सं० जारू√धा (रखना)+कि] एक पर्वत का नाम।
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जारूथ्य  : पुं० [सं० जरूथ+यञ्] वह अश्वमेघ जिसमें तिगुनी दक्षिणा दी जाय।
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जारोब  : स्त्री० [फा०] झाड़ू। बुहारी।
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जारोब-कश  : पुं० [फा०] झाड़ू देने या लगानेवाला व्यक्ति।
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जार्य्यक  : पुं० [सं०√जृ (जीर्ण होना)+ण्यत्-कन्] मृगों की एक जाति।
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जाल  : पुं० [सं०√जल् (घात)+ण, बँ० पं० जाल्; सि० जारु, गु० जाडू, मरा० जाड़े] [स्त्री० अल्पा० जारी] १. धागे सुतली आदि की बुनी हुई वह छेदोंवाली रचना जो चिड़ियाँ मछलियाँ आदि फँसाने के काम आती है। मुहावरा–जाल डालना या फेंकना=मछलियाँ आदि पकड़ने के लिए जलाशय या नदी में जाल छोड़ना। जाल फैलाना या बिछाना-चिड़ियों पशु-पक्षियों आदि को फँसाने के लिए जाल लगाना। २. उक्त के आधार पर छेदोंवाली कोई रचना जिसमें कोई चीज फँसती या फँसाई जाती हो। जैसे–मकड़ी का जाल(जाला)। ३. बुनी या बुनाई हुई कोई छेदोंवाली रचना। जैसे–टेनिस या फुटबाल के खेल में खंभों में बाँधा जानेवाला जाल। ४. झरोखा। ५. जाल की तरह का तंतुओं रेशों आदि का उलझा हुआ रूप। जैसे–जटा या जड़ों का जाल। ६. रेखा या रेखाओं के आकार की वस्तुओं के एक दूसरे को काटते हुए मिलने से बननेवाला उक्त प्रकार का रूप। जैसे–(क) किसी देश में बिछा हुआ नदियों का जाल। (ख) साड़ी में बना हुआ जरदोजी के तारों का जाल। ७. आपस में गुथी हुई तथा दूर तक फैली हुई चीजों का विस्तार या समूह। जैसे–पद्य जाल। ८. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसी युक्ति जिसके कारण कोई दूसरा व्यक्ति प्रायः असावधानता के कारण धोखा खाता हो। जैसे–तुम्हारे जाल में वे भी फँस जायँगे। मुहावरा–(बातों के संबंध में) जाल बिछाना या फैलाना=कोई ऐसी युक्ति निकालना जिससे कोई दूसरा व्यक्ति धोखा खा जाय। (व्यक्ति के संबंध में) जाल बिछाना=स्थान-स्थान पर किसी को पकडऩे के लिए व्यक्ति खड़े करना। ९. इंद्र-जाल १॰. अभिमान। घमंड। ११. वनस्पतियों आदि को जलाकर तैयार किया हुआ क्षार। खार। १२. कदंब का वृक्ष। १३. फूल की कली। १४. पुरानी चाल की एक प्रकार की तोप। पुं० [अ० जअल मि० सं० जाल] [वि० जाली] १. कोई दुष्ट उद्देश्य़ सिद्ध करने के लिए किसी वास्तविक वस्तु का तैयार किया हुआ नकली रूप। २. विधिक क्षेत्र में, ऐसे पत्र, लेख आदि जो वास्तविक न होने पर भी वास्तविक के रूप में उपस्थित करना। (फोरजरी)।
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जाल-कारक  : पुं० [ष० त०] मकड़ा।
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जाल-कीट  : पुं० [ब० स०] १. मकड़ी। २. [मध्य० स०] मकड़ी के जाल में फँसा हुआ कीड़ा।
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जाल-गर्दभ  : पुं० [मध्य० स०] एक क्षुद्र रोग जिसमें शरीर में सूजन, ज्वर आदि होते हैं। (सुश्रुत)।
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जाल-जीवी(विन्)  : पुं० [सं० जाल√जीव् (जीना)+णिनि] मछुआ। धीवर।
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जाल-पाद  : पुं० [ब० स०] १. हंस। २. एक प्राचीन देश। ३. ऐसा जंतु या पक्षी जिसके पैर जालीदार झिल्ली से ढकें हो। जैसे–चमगादड़, बत्तख आदि।
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जाल-प्राया  : स्त्री० [ब० स०] कवच। जिरह-बकतर।
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जाल-बर्बुरक  : पुं० [मध्य० स०] बबूल की जाति का एक प्रकार का पेड़।
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जाल-रंध्र  : पुं० [ब० स०] जालीदार खिड़की। झरोखा।
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जालक  : पुं० [सं०√जल् (संवरण)+घञ्√कै (प्रतीत होना)+क] १. चिड़ियाँ, मछलियाँ आदि फंसाने का जाल। २. घास, भूसा आदि बाँधने का जाल। ३. झुंड। समूह। ४. कली। ५. झरोखा। ६. केला। कदली। ७. चिड़ियों का घोंसला। ८. अभिमान। घमंड। ९. गले में पहनने का मोतियों का एक गहना।
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जालकि  : पुं० [सं०] १. जाल लगाकर पशु-पक्षी या मछलियों को पकड़ने वाला व्यक्ति। २. बाज। ३. मकड़ा। ४. जादूगर।
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जालकिनी  : स्त्री० [सं० जालक+इनि-ङीप्] भेड़ी। मेषी।
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जालकिरच  : स्त्री० [हिं० जाल+किरच] वह पेटी जिसके ऊपर परतला लगा हो और नीचे तलवार लटकती हो।
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जालकी(किन्)  : पुं० [सं० जालक+इनि] बादल। मेघ।
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जालदार  : वि० [हिं० जाल+फा० दार] १. जिसमें जाल की तरह बहुत से छोटे-छोटे छेद हो। जालीदार। २. (वस्त्र) जिस पर धागों अथवा जरदोजी आदि के तारों का जाल बुना हो। जैसे–जालदार साड़ी।
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जालंधर  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि। २. जलंधर नामक दैत्य।
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जालंधरी विद्या  : स्त्री० [सं० जालंधर+अण्-ङीप्, जालंधरी और विद्या व्यस्त पद] इन्द्र जाल।
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जालना  : स०=जलाना।
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जालबंद  : पुं० [हिं० जाल+फा० बंद] एक प्रकार का गलीचा जिस पर कढ़ी हुई बहुत-सी लताओं, बेल-बूटों आदि के एक दूसरे को काटने के कारण जाल-सा बन जाता है।
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जालव  : पुं० [सं०] एक दैत्य जिसका वध बलदेव जी ने किया था। (पुराण)।
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जालसाज  : पुं० [अ० जअल+फा० साज़] ऐसा व्यक्ति जो धोखादेकर अपना काम निकालने के लिए असल चीज की जगह वैसी ही नकली चीज तैयार करता हो।
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जालसाजी  : स्त्री० [फा०] १. जाल साज होने की अवस्था या भाव। २. जालसाज का वह काम जो जाल के रूप में हो।
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जाला  : पुं० [सं० जाल] [स्त्री० अल्पा० जाली] १. घास भूसा आदि बाँधने की बड़ी जाली। २. बहुत से तंतुओं का वह विस्तार जो मकड़ी अपना शिकार फँसाने के लिए दीवारों के कोनों आदि में बनाती है। ३. आँख का एक रोग जिसमें अंदर की ओर मैल के बहुत से तंतु इधर-उधर फैल कर दृष्टि में बाधक होते हैं। ४. सरपत की जाति की एक घास जिससे चीनी साफ की जाती है। ५. पानी रखने का मिट्टी का एक प्रकार का घड़ा। पुं०=जाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=ज्वाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जालाक्ष  : पुं० [सं० जाल-अक्षि, ब० स० षच्] झरोखा। गवाक्ष।
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जालिक  : पुं० [सं० जाल+ष्ठन्-इक] १. वह जो रस्सियों आदि का जाल बनाता या बुनता हो। २. वह जो जाल में जीव-जंतु फँसाता हो। बहेलिया। ३. बाजीगर। इंद्रजालिक। ४. मकड़ी। डिं०)
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जालिका  : स्त्री० [सं० जाल+ठन्-इक, टाप्] १. जाली। २. पाश। फंदा। ३. विधवा स्त्री। ४. मकड़ी। ५. कवच या जिरह-बक्तर। ६. लोहा। ७. झुंड। समूह।
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जालिनी  : स्त्री० [सं० जाल+इनि-ङीप्] १. कद्दू, घीया, तरोई आदि फल जिनकी तरकारी बनती है। २. परवल की लता। ३. चित्रशाला। ४. प्रमेह के रोगियों को होनेवाला एक रोग जिसमें मांसल अंगों में फुन्सियाँ होती है।
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जालिनी-फल  : पुं० [ष० त०] तरोई। घीया।
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जालिम  : वि० [अ०] जुल्म अर्थात् अत्याचार करनेवाला अत्याचारी।
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जालिमाना  : वि० [अ] अत्याचार संबंधी। अत्याचारपूर्ण।
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जालिया  : पुं० [अ० जअल-फरेब+इया(प्रत्यय)] वह जो नकली दस्तावेज आदि बनाकर जालसाजी करता हो और इस प्रकार दूसरों की सम्पत्ति छीनता हो। जालसाज। पुं० [हिं० जाल] १. कोई ऐसी रचना जिसमें प्रायः नियत और नियमित रूप से थोड़ी दूर पर छेद या कटाव हो। जैसे–दीवार में बनी हुई सीमेंट की जाली। २. एक प्रकार का कपड़ा जिसमें उक्त प्रकार के बहुत छोटे-छोटे छेद हो। ३. कच्चे आम के अंदर का तंतुजाल। ४. वह क्षेत्र जिसका पानी ढलकर किसी नदी में मिलता हो। ढलान। (कैचमेंट एरिया) ५. दे० ‘रंध्र’ (किले का)। ६. कुट्टी या चारा काटने का गड़ाँसा। ७. डोरियों आदि की वह जालदार रचना जिसमें घास-भूसा आदि बाँधते हैं। वि० जो जाल रचकर धोखा देने के लिए बनाया गया हो। झूठा और नकली या बनावटी। जैसे–जाली, दस्तावेज, जाली सिक्का।
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जालीदार  : वि० [देश०] (रचना) जिसमें जाली कटी या बनी हो।
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जाल्म  : वि० [सं०√जल् (दूर करना)+णिच्+म] १. नीच। २. मूर्ख।
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जाल्मक  : वि० [सं० जाल्म+कन्] १. घृणित। २. नींच।
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जाव  : पुं०=जवाब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जावक  : पुं० [सं० यावक] १. अलता। अलक्तक। २. मेंहदी।
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जाँवत  : वि० [सं० यावत्] १. सब। २. जितना। उदाहरण–जाँवत गरब गहीलि हुति।–जायसी।
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जावत  : अव्य०=यावत्।
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जावन  : पुं०=जामन।
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जावन्य  : पुं० [सं० जवन+ष्यञ्] १. तेजी। वेग। २. जल्दी। शीघ्रता।
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जाँवर  : पुं० [हिं० जाना] गमन। जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जावर  : पुं० [?] १. ऊख के रस में पकाई हुई एक प्रकार की खीर। २. कद्दू के टुकड़ों के साथ पकाया हुआ चावल।
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जावा  : पुं० [हिं० जामन या जमना] वह मसाला जिससे शराब चुआई जाती है। पाँस। बेसवार।
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जावित्री  : स्त्री० [जातिपत्री] जायफल के ऊपर का सुंगधित छिलका जो दवा, मसाले आदि के काम आता है।
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जाषक  : पुं० [सं०√जस् (छोड़ना)+ण्वुल्-अक, पृषो० षत्व] पीला चंदन।
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जाषिणी  : याक्षिणी।
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जासु  : सर्व० [हिं० जो] १. जिसको। जिसे। २. जिसका।
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जासू  : पुं० [देश०] वे पान जो मदक बनाने के लिए अफीम में मिलाये जाते हैं। सर्व =जासु।
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जासूस  : पुं० [अ० ] वह व्यक्ति, जो प्रायः छिपकर अपराधियों, प्रतिपक्षियों आदि की काररवाइयों का पता लगाता हो। गुप्तचर। भेदिया।
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जासूसी  : स्त्री० [अ०] १. जासूस होने की अवस्था या भाव। २. जासूस का काम, पद या विद्या। वि० १. जासूस संबंधी। २. (साहित्य में उपन्यास, कहानी आदि) जिसमें जासूसों की कारगुजारियों का उल्लेख हो।
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जास्ती  : वि०=ज्यादा। स्त्री०=ज्यादती।
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जास्पति  : पुं० [सं० जाया-पति, ष० त० नि० सिद्धि] जामाता। दामाद।
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जाह  : पुं० [फा०] १. पद। पदवी। २. वैभव। ३. गौरव। मर्यादा।
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जाहक  : पुं० [सं०√दह् (चमकना)+ण्वुल्-अक, पृषो, सिद्धि] १.गिरगिट। २. जोंक। ३. घोंघा। ४. बिस्तर। बिछौना।
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जाहर-पीर  : पुं० [फा० जहर+पीर] १४ वीं शताब्दी के पंजाब के एक प्रसिद्ध संत जो विषवैद्य भी थे। पंजाब तथा मारवाड़ में अब भी नागपंचमी के दिन इनकी धूमधाम से पूजा की जाती है।
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जाहि  : स्त्री० [सं० जाति] मालती नामक लता और उसका फूल।
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जाहिद  : पुं० [अ.] ऐसा व्यक्ति जो सांसारिक प्रपंचों,बखेड़ों,बुराइयों आदि से दूर रहकर ईश्वर का ध्यान करता हो।
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जाहिर  : वि० [अ०] जो स्पष्ट रूप से सबके सामने हो। २. प्रकट। ज्ञात। विदित।
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जाहिरदारी  : स्त्री० [अ०] केवल ऊपर से दिखाने के लिए (शुद्ध हृदय से नहीं) किया जानेवाला सदव्यवहार। दिखौआ। शिष्टाचार।
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जाहिरा  : क्रि.वि० [अ०] ऊपर से देखने पर। वि० ऊपर या बाहर से दिखाई देनेवाला।
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जाहिरी  : वि० [अ०] १. जो जाहिर हो। २. ऊपर या बाहर से दिखाई देनेवाला। ३. ऊपरी। दिखौआ। बनावटी।
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जाहिल  : स्त्री० [अ०] जाहिल होने की अवस्था या भाव। मूर्खता।
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जाही  : स्त्री० [सं० जाती] १. चमेली की जाति का एक पौधा। २. उक्त पौधे के छोटे सुगंधित फूल। ३. एक प्रकार की आतिशबाजी जिसमें से उक्त प्रकार के फूल छूटते हैं।
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जाहूत  : पुं० [अ० लाहूत का अनु०] ऊपर से नौ लोकों में से अंतिम या नवाँ लोक। (मुसल०)।
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जाह्ववी  : स्त्री० [सं० जह्व+अण्-ङीष्] जह्व ऋषि की पुत्री। गंगा।
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जिअना  : पुं० [सं० जीवन](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. जीवन। २. जल। अ०–जीना (जीवित रहना)।
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जिआ  : स्त्री० पुं०=जिया।
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जिआना  : स० १.=जिलाना। २. पालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिउ  : पुं०=जीव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिउकिया  : पुं० [सं० जीविका] किसी विशिष्ट कार्य से जीविका निर्वाह करने वाला व्यापारी,विशेषतः जंगलों और पहाड़ों से चीजें लाकर नगरों में बेचनेवाला व्यापारी।
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जिउतिया  : स्त्री=जीवित-पुत्रिका। (व्रत)।
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जिउलेबा  : वि० [सं० जीव+हिं० लेना] जीवन या प्राण लेनेवाला। प्राण-घातक।
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जिकड़ी  : स्त्री० [देश०] व्रज में गाये जानेवाले एक तरह के गीत जिसमें दो दल में प्रायः होड़ बद कर एक दूसरे के प्रश्नों का उत्तर देते हैं।
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जिकिर  : पुं०=जिक्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिक्र  : पुं० [अ० जिक्र] १. किसी घटना या विषय का विवेचनात्मक वर्णन। चर्चा। २. भाषण, लेख आदि में होनेवाला किसी असंबद्ध या गौण घटना या विषय का उल्लेख। संक्षिप्त कथन। ३. परमात्मा के नाम कास्मरण। (सूफी संप्रदाय)।
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जिगन  : स्त्री०=जिगिन।
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जिगर  : पुं० [सं० यकृत से फा०] १.कलेजा। यकृत। २. साहस। हिम्मत। ३. चित्त। मन। ४. किसी चीज का वह भीतरी अंश जिसमें उसका सार भाग रहता हो। जैसे–इमारती लकड़ी का जिगर।
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जिगर-कीड़ा  : पुं० [फा० जिगर+हिं० क्रीड़ा] १. भेडों आदि का एक रोग जिसमें उनके कलेजे में कीड़े पड़ जाते हैं। २. उक्त रोग का कीड़ा।
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जिगरा  : पुं० [हिं० जिगर] वह मनोभाव जिसके कारण मनुष्य बिना भय-भीत हुए बहुत बड़ा और प्रायः विकट काम करने के लिए उद्यत होता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिगरी  : वि० [फा०] १. जिगर संबधी। जिगर का। २. आंतरिक और हार्दिक। जैसे–जिगरी बात। ३. अभिन्न हृदय। घनिष्ठ। जैसे–जिगरी दोस्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिगिन  : स्त्री० [सं० जिगनी] एक प्रकार का जंगली पेड़।
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जिंगिनी  : स्त्री० [√जिंग (गति)+णिनि-ङीष्] जिगिन का पेड़।
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जिंगी  : स्त्री० [सं०√जिंग+अच्, ङीष्] मजीठ।
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जिगीषा  : स्त्री० [सं०√जि(जीतना)+सन् द्वित्वादि,+अ-टाप्] १. किसी विषय पर विजय प्राप्त करने अथवा किसी को अधीन या वशीभूत करने की इच्छा। २. लड़ने-भिड़ने या युद्ध करने की इच्छा। ३. उद्योग। प्रयत्न।
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जिगीषु  : वि० [सं०√जि+सन् द्वित्वादि,+उ] १. (व्यक्ति) जिसमें जिगीषा हो। विजय का इच्छुक। २. युद्ध करने या चाहनेवाला। युयुत्सु।
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जिगुरन  : पुं० [देश०] चकोरों की एक जाति।
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जिघांसक  : वि० [सं०√हन् (मारना)+सन् द्वित्वादि√ण्वुल्-अक] (व्यक्ति) जो किसी का वध करना चाहता हो।
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जिघासा  : स्त्री० [सं०√जि+सन् द्वित्वादि,+अ-टाप्] वध करने की इच्छा।
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जिघांसु  : वि० [सं०√जि+सन् द्वित्वादि,+उ]=जिघांसक।
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जिघ्र  : वि० [सं०√घ्रा (सूँघना)+श, जिघ्र आदेश] १. सूँघनेवाला। २. शंका या संदेह करनेवाला।
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जिच  : स्त्री० [फा० जिच्च] १. शतरंज के खेल में वह स्थिति जिसमें बादशाह की शह तो न लगे पर उसके चलने के लिए कोई घर न रह जाय। २. उक्त के आधार पर प्रतियोगिता, विवाद में उत्पन्न होनेवाली ऐसी स्थिति जिसमें दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे और समझौते आदि के लिए आगे कोई रास्ता न दिखाई देता हो। (डेड-लॉक)
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जिजिया  : स्त्री=जीजी। पुं०=जजिया (मुसलमानी कर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिजीविषा  : स्त्री० [सं०√जिव् (जीना)+सन्, द्वित्वादि,+अ-टाप्] जीने की इच्छा।
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जिजीविषा  : वि० [सं०√जीव्+सन् द्वित्वादि,+उ] जो अधिक समय तक जीवित रहना चाहता हो।
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जिज्ञासा  : स्त्री० [सं०√ज्ञा (जानना)+सन् द्वित्वादि,+अ-टाप्] १. मनुष्य की वह इच्छा या भावना जिसके कारण वह नई तथा अद्भुत चीजों, बातों आदि के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त होता है। २. जानने अथवा जानकारी प्राप्त करने के लिए किसी से कुछ पूछना।
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जिज्ञासित  : भू० कृ० [सं०√ज्ञा+सन्, द्वित्वादि,+क्त] (वस्तु या विषय) जिसके संबंध में किसी से जिज्ञासा की गई हो। पूछा हुआ।
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जिज्ञासु  : वि० [सं०√ज्ञा+सन्, द्वित्वादि,+उ] १. जिज्ञासा करने वाला। २. (वह) जो किसी के विषय के संबंध में नई बातों का पता लगा रहा हो।
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जिज्ञासू  : वि=जिज्ञासु।
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जिज्ञास्य  : वि० [सं०√ज्ञा+सन्, द्वित्वादि,+ण्यत्] १. जिसके संबंध में जिज्ञासा की जाय। २. जिज्ञासा किये जाने के योग्य।
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जिठाई  : स्त्री०=जेठाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिठानी  : स्त्री०=जेठानी।
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जित-मन्यु  : वि० [ब० स०] जिसने क्रोध आदि मनोविकारों को जीत लिया हो।
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जित-लोक  : वि० [ब० स०] (वह) जिसने स्वर्ग को जीत लिया हो।
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जित-शत्रु  : वि० [ब० स०] जिसने शत्रु पर विजय पाई हो।
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जित-स्वर्ग  : वि० [ब० स०] जिसने स्वर्ग की जीत लिया हो।
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जितना  : वि० [सं० इयत् अथवा हिं० जिस+तना(प्रत्यय)] [वि.स्त्री जितनी] जिस मान,मात्रा या संख्या में हो या हो सकता हो। जैसे–(क) जितना धन चाहो लुटा दो। (ख) जितने लड़के आये हैं उनमें मिठाई बाँट दो। क्रि० वि० जिस मात्रा या परिमाण में। जैसे–जितना चाहो उतना बोलो। स०=जीतना।
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जितरा  : पुं० [हिं० जिता] वह कृषक जो किसी दूसरे कृषक की मजदूरी करने के बदले उससे हल, बैल आदि लेकर अपने खेत जोतता हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जितवना  : स० [हिं० जताना का पुराना रूप] जतलाना। परिचित कराना। उदाहरण–जितवत जितवत हित हुए किये तिरीछै नैन बिहारी । स=जिताना। (जीत कराना)।
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जितवाना  : स० [हिं० जीतना का प्रे० रूप] दूसरे की जीत कराना।
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जितवार  : वि० [हिं० जीतना] १. जीतनेवाला। विजेता। २. जितेंद्रिय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जितवैया  : वि० [हिं० जीतना+वैया] जीतने या विजय प्राप्त करने वाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिता  : वि०=जितना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० जोतना] वह सहायता जो किसान लोग परस्पर जोताई, बोआई आदि के समय करते हैं।
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जिताक्ष  : वि० [जित-अक्ष, ब० स०] जितेंद्रिय।
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जिताक्षर  : वि० [जित-अक्षर, ब० स०] अच्छी तरह पढ़ने लिखनेवाला।
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जितात्मा(त्मन्)  : वि० [जित-आत्मन्, ब० स०] जितेंन्द्रिय।
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जिताना  : स० [हिं० जीतना का प्रे० रूप] १. ऐसा काम करना जिससे कोई जीता जाय। २. कुछ जीतने में किसी की सहायता करना।
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जितार  : वि.[सं० जित्वर] १. जीतनेवाला। विजेता। २. प्रबल। बलवान। ३. भारी। वजनी। (क्व०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जितारि  : वि० [जित-अरि, ब० स०] १. शत्रुओं को जीतनेवाला। २. काम, क्रोध, आदि मनोविकारों को जीतनेवाला। पुं० गौतम बुद्ध का नाम।
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जिताष्टमी  : स्त्री० [सं० जिता-अष्टमी, कर्म० स०] आश्विन् कृष्ण अष्टमी जिस दिन हिन्दू स्त्रियाँ अपने पुत्रों के कल्याण के लिए उपासना, व्रत आदि करती है। जीवित-पुत्रिका।
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जिति  : स्त्री० [सं०√जि (जितना)+क्तिन्] १. जीत। विजय। २. प्राप्ति। लाभ।
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जितुम  : पुं० [यू० डिडुमाई] मिथुन राशि।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जितेंद्रिय  : वि० [जित-इंद्रिय, ब० स०] जिसने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली हो। अर्थात् उन्हें अपने वश में कर लिया हो।
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जितै  : क्रि० वि० [सं० यंत्र प्रा० यत्त] जिस ओर। जिस दिशा में। जिधर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जितैया  : वि० [हिं० जीतना+ऐया(प्रत्यय)] जीतनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जितो  : क्रि० वि० [हिं० जिम] जितना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जित्  : वि० [सं० (पूर्व पद रहनेपर)√ जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] यौगिक शब्दों में, जिसने किसी को जीत लिया हो। जैसे–इंद्र जित् (जिसने इंद्र को जीता हो)। पुं० जीत। विजय। क्रि० वि० जिस ओर। जिधर।
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जित्तम  : पुं० [यू० डिडुमाइ] मिथुन राशि।
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जित्य  : पुं० [सं०√जि+क्यप्.तुक्] [स्त्री.जित्या] १. एक प्रकार का बड़ा हल। २. पाटा। हेंगा।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जित्या  : स्त्री० [सं० जित्य+टाप्] १. विजय। २. प्राप्ति। लाभ। ३. हल और उसका फाल।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जित्वर  : वि० [सं०√जि+क्वरप्,तुक्] वह जिसे विजय मिली हो। जीतनेवाला। विजयी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जित्वरी  : स्त्री० [सं० जित्वर+ङीष्] काशी पुरी का एक प्राचीन नाम।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जिंद  : पुं० जिन (भूत-प्रेत)। स्त्री०=जंद (फारस की पुरानी भाषा)। स्त्री०=जिंदगी। (पंजाब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जिद  : स्त्री० [अ० जिद] [वि० जिद्दी] १. अपनी बात किसी से पूरी कराने के लिए उस पर अड़े रहने और दूसरे की बात न मानने की अवस्था या भाव। हठ। २. अनुचित रूप से किसी के लिए किया जानेवाला आग्रह या हठ। दुराग्रह। क्रि० प्र०–करना।–चढ़ना।–पकड़ना।–बाँधना।
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जिंदगानी  : स्त्री० [फा०] जिंदगी।
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जिंदगी  : स्त्री० [फा०] १. जीवित रहने की अवस्था। जीवन। २. पूरी आयु या जीवन-काल। मुहावरा–जिंदगी के दिन पूरे करना=जैसे–तैसे या बहुत कष्ट से जीवन बिताना। ३. निश्चित और प्रसन्न रहने की मनोवृत्ति।
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जिंदा  : वि० [फा० जिंदः] १. जिसमें जीवन या प्राण हो। जीवित। २. जिसमें जीवनी-शक्ति हो। सक्रिय और सचेष्ट। ३. प्रफुल्ल। हरा भरा। पद–जिनंदाबाद=अमर हो। सदा जीवित रहे।
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जिंदादिल  : वि० [फा०] [भाव० जिंदादिली] १. (व्यक्ति) जो सदा प्रसन्न रहता हो। हँसमुख। २. उत्साही।
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जिदियाना  : अ० [हिं० जिद] जिद करना। स० किसी को जिद करने में प्रवृत्त करना।
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जिंदु  : स्त्री०=जिंदगी।
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जिद्द  : स्त्री०=जिद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिद्दन्  : क्रि० वि० [अ०] जिद अर्थात् दुराग्रह या हठ करते हुए।
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जिद्दी  : वि० [फा०] वह जो बहुत अधिक जिद (दुराग्रह या हठ) करता हो और दूसरों की बात न मानता हो। दुराग्रही।
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जिधर  : क्रि० वि० [हिं० जिस+घर (प्रत्यय)] जिस ओर। जिस तरफ। जैसे–जिधर जी चाहे उधर चले जाओ। पद–जिधर-तिधर=अधिकतर स्थानों में। जहाँ-तहाँ।
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जिन  : पुं० [सं०√जि+नक्] १. विष्णु। २. सूर्य। ३. गौतम बुद्ध. ४. जैनों के एक तीर्थकार। वि० १. जयी। २. राग-द्वेष आदि को जीतनेवाला। ३. बहुत बुड्ढा। वि० सर्व० हिं० जिस का विभक्ति युक्त बहु-वचन रूप। जैसे–जिन (लोगों) को चलना हो, वे यहाँ आ जायँ। पुं० [फा०] भूत-प्रेत।
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जिनगी  : स्त्री=जिंदगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिनस  : पुं=जिंस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिना  : पुं० [अ० ज़िना] पर-पुरुष या पर-स्त्री से होनेवाला अनुचित संबंध। छिनाला। व्यभिचार।
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जिना-बिल-जब्र  : पुं० [अ०] पर-स्त्री से बलात् किया जानेवाला संभोग जो विधिक दृष्टि से बहुत बड़ा अपराध है। बलात्कार।
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जिनाकार  : वि० [अ० जिना+फा० कार] [भाव० जिनाकारी] परस्त्री गमन करनेवाला।
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जिनि  : अव्य० [हिं० जनि] मत। नहीं।
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जिनिस  : स्त्री०=जिंस।
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जिनिसवार  : पुं०=जिंसवार।
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जिनेंद्र  : पुं० [जिन-इंद्र, ष० त०] १. एक बुद्ध। २. एक जैन संत।
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जिन्नात  : पुं० [अ० ‘जिन’ का बहु रूप] भूत-प्रेत आदि।
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जिन्नी  : वि० [अ०] जिन या भूत संबंधी। पुं० वह व्यक्ति जिसके वश में कोई जिन या भूत हो।
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जिन्स  : स्त्री०=जिंस।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
जिन्ह  : सर्व० जिन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० जिन (भूत प्रेत)।
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जिप्सी  : पुं० [ई० जिप्ट (मिस्र देश)] १. भारतीय मूल से उत्पन्न एक यायावर जाति जो पहले मिस्र देश में रहती थी और जो अब संसार के अनेक भागों में फैल गई है। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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जिबह  : पुं०=जबह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जिब्भा  : स्त्री० जिह्वा (जीभ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिब्रील  : पुं० [अ० जिब्रईल] इस्लाम में एक देव-दूत।
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जिभला  : वि० [हिं० जीभ+ला (प्रत्यय)] चटोरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिमखाना  : पुं० [अ० जिमनास्टिक में का जिम+फा० खानः] वह सार्वजनिक स्थान जहाँ तरह तरह के खेलाड़ी इकट्ठे होकर व्यायाम करते और शारीरिक श्रम के खेल खेलते हों।
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जिमाना  : स० [हिं० जीमना का स० रूप] भोजन कराना। खिलाना।
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जिमि  : क्रि० वि० [हिं० जिम+इमि (प्रत्यय)] जिस प्रकार से। जैसे।
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जिमित  : पुं० [सं०√जिम् (खाना)+क्त] भोजन।
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जिमीदार  : पुं०=जमींदार।
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जिम्मा  : पुं० [अ० ज़िम्मः] १. किसी वस्तु के संरक्षण का भार। २. कोई कार्य संपादित करने या कराने का भार। ३. किसी प्रकार के परिणाम या फल की जवाबदेही। उत्तरदायित्व।
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जिम्मादार(वार)  : पुं० [भाव० जिम्मादारी(वारी)] जिम्मेदार।
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जिम्मेदार  : पुं० [फा०] वह जिस पर किसी कार्य, वस्तु अथवा और किसी बात की जवाबदेही हो।
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जिम्मेदारी  : स्त्री० [फा०] जिम्मेदार होने की अवस्था या भाव।
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जिम्मेवार  : वि० [भाव० जिम्मेवारी]=जिम्मेदार।
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जिय  : पुं० [सं० जीत] जी। मन। चित्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिय-बधा  : वि० [सं० जीव+वध] जीवों को वधने या उनकी हत्या करनेवाला। हत्यारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० जल्लाद।
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जियन  : पुं०=जीवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जियरा  : पुं० [हिं० जी] मन। हृदय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जिया  : स्त्री० [हिं० जी या जिलाना] दूध पिलानेवाली दाई। (मुसलमान स्त्रियाँ)। पुं० जी(मन)।
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जिया जंतु  : पुं०=जीव-जंतु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिया पोता  : पुं० पुत्र=जीवा(पेड़)।
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जियादा  : वि० [भाव० जियादती]=ज्यादा।
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जियान  : पुं० [अ०] १. नुकसान। हानि। २. आर्थिक हानि। घाटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जियाना  : स०=जिलाना (पूरब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जियाफत  : स्त्री० [अ०] १. आतिथ्य। मेहमानदारी। २. दावत। भोज।
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जियारत  : स्त्री० [अ० जियारत] मुसलमानों में, किसी महापुरुष अथवा किसी पवित्र स्थान के दर्शनार्थ की जानेवाली यात्रा।
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जियारतगाह  : पुं० [जियारत+फा० गाह] १. धार्मिक दृष्टि से यह पवित्र और पूज्य स्थान जहाँ लोग दर्शन, पूजन आदि के लिए जाते हों
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जियारती  : वि० [फा० जियारती] १. जियारत (दर्शन,पूजन आदि) से संबंध रखनेवाला। २. जियारत करने के लिए कहीं जानेवाला।
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जियारी  : स्त्री० [हिं० जिय=जीव] १. जीवन। जिंदगी। २. जीविका। ३. जीवट। साहस। हिम्मत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिरगा  : पुं० [फा० जिरगः] १. दल मंडली। २. पठानों आदि में किसी एक ही कुल, परिवार आदि के ऐसे लोगों का समूह जो प्रायः एक ही क्षेत्र या स्थान में रहते हों। ३. उक्त प्रकार के लोगों की सामूहिक सभा या सम्मेलन।
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जिरण  : पुं० [सं०√जिर् (हिंसा करना)+ल्युट्-अन] जीरा।
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जिरह  : पुं० [अ० जुरह] १. व्यर्थ में किया जानेवाला तर्क। २. न्यायालय में, किसी की कही हुई बातों की सत्यता की जाँच के लिए की जानेवाली पूछ-ताछ। स्त्री० [फा० जि रह] लोहे की कड़ियों का बना हुआ एक प्रकार का जाल जिसे युद्ध के समय छाती पर पहना जाता था।
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जिरही  : वि० [हि० जिरह] (योद्धा) जिसने जिरह पहना हो।
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जिराअत  : स्त्री० [अ० जिराअत] खेती। कृषि। क्रि० प्र०–करना। पद–जिराअत पेशा=किसान। खेतिहर।
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जिराफा  : पुं० [अं० जेराफ़] अफ्रीका के जंगलों में रहनेवाला हिरन की जाति का एक पशु।
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जिरायत  : स्त्री०=जिराअत।
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जिरिया  : पुं० [हिं० जीरा] एक प्रकार का धान जिसमें से निकलनेवाले चावल जीरे के समान छोटे तथा पतले होते हैं।
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जिला  : स्त्री० [अ०] १. अच्छी तरह साफ करके खूब चमकाने की क्रिया या भाव। २. उक्त प्रकार से उत्पन्न की हुई चमक-दमक। ओप। क्रि० प्र०–करना।–देना। पुं० [अ० ज़िलऽ] १. प्रदेश। प्रांत। २. आज-कल किसी राज्य का वह छोटा विभाग जो किसी एक प्रधान अधिकारी (कलक्टर या डिप्टी कमिश्नर) की देश-रेख में हो और जिसमें कई तहसीलें हों। ३. किसी इलाके या प्रदेश का कोई छोटा विभाग। ४. किसी बात या विषय की वह निश्चित सीमा जिसका उल्लंघन अनुचित माना जाता हो। जैसे–जिले की दिल्लगी=शिष्ट सम्मत परिहास (छूट की दिल्लगी से भिन्न)।
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जिला बोर्ड  : पुं० [अ० ज़िला+अं० बोर्ड] वह अर्द्ध सरकारी संस्था जिसे किसी जिले की जनता चुनती है और जो स्थानीय प्रशासन तथा लोक-सेवा संबंधी कार्य करती है।
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जिला-जज  : पुं० [अ० ज़िला+अं. जज] न्यायालय में, वह अधिकारी जिसे जिले भर के दीवानी और फौजदारी मुकदमों की अपीलें सुनने का अधिकार होता है।
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जिलाकार  : पुं० [अ० जिला+फा० कार] धातुओं को माँजकर तथा रोगन आदि के द्वारा उन्हें चमकानेवाला कारीगर।
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जिलाट  : पुं० [?] पुरानी चाल का एक प्रकार का चमड़े का बाजा।
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जिलादार  : पुं०=जिलेदार।
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जिलादारी  : स्त्री०=जिलेदारी।
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जिलाना  : स० हिं० जीना का स०] १. मृत शरीर को फिर से जीवित करना। जीवन डालना या देना। २. मरते हुए को मरने से बचाना। ३. ऐसा उपाय, प्रयत्न या व्यवस्था करना जिसमें कोई अच्छी तरह जीवित रह सके। ४. (पशु-पक्षी आदि) पालना-पोसना। ५. धातु की भस्म को फिर से धातु के रूप में परिवर्तित करना (कल्पित)।
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जिलासाज  : पुं० [फा०] धातुओं के बरतनों, हथियारों आदि का ओप चढ़ानेवाला कारीगर।
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जिलाह  : वि० [अ० जल्लाद] अत्याचारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जिलेदार  : पुं० [फा०] मध्य युग में, बड़े जमींदारों या छोटे राजाओं का वह अधिकारी जो किसी छोटे भू-भाग या जिले की देख-रेख करता और वहाँ से कर, लगान आदि वसूल करता था।
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जिलेदारी  : स्त्री० [फा०] जिलेदार का काम, पद या भाव।
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जिलेबी  : स्त्री०=जलेबी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिल्द  : स्त्री० [अ०] [वि० जिल्दी] १. शरीर के ऊपर की खाल या चमड़ा। त्वचा। २. कागज, चमड़े आदि से मढ़ी हुई वह दफ्ती जो किसी पुस्तक के ऊपर और नीचे उसके पृष्ठों की रक्षा के लिए लगाई जाती है। क्रि० प्र०–चढ़ाना।–बाँधना।–मढ़ना। ३. पुस्तक की प्रति। ४. पुस्तक का ऐसा खंड जो अलग भाग के रूप में हो। भाग।
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जिल्दगर  : पुं० [फा०] जिल्द बंद।
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जिल्दबंद  : पुं० [फा०] पुस्तकों पर जिल्दें बाँधनेवाला कारीगर।
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जिल्दबंदी  : स्त्री० [फा०] जिल्द बाँधने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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जिल्दसाज  : पुं० [फा०] [भाव० जिल्दसाजी] जिल्द बाँधनेवाला व्यक्ति। जिल्दबंद।
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जिल्दसाजी  : स्त्री० [फा०] जिल्द बाँधने का काम या पेशा।
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जिल्दी  : वि० [अ०] त्वचा संबंधी। जैसे–जिल्दी बीमारी।
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जिल्लत  : स्त्री० [अ०] अपमानित, तिरस्कृत और तुच्छ या दुर्दशाग्रस्त होने की अवस्था या भाव। दुर्गति। क्रि० प्र०–उठाना।
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जिल्ली  : पुं० [देश०] बाँसों की एक जाति।
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जिल्होर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का अगहनी धान।
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जिव  : पुं०=जीव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिवड़ा  : पुं० [सं० जीव] प्राण। उदाहरण–स्याम बिना जिवडो मुरझावे।–मीराँ।
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जिवड़ी  : स्त्री० [सं० जीव] शरीर। उदाहरण–जो इहाँ परि पालै जिवड़ी।–प्रिथीराज।
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जिवाजिव  : पुं० [सं०=जिवञ्जीव, पृषो० सिद्धि] चकोर। (पक्षी)।
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जिंवाना  : स०=जिमाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिवाँना  : स० १.=जिमाना। २.=जिलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जिवाना  : स० १=जिलाना। २=जिलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जिष्णु  : वि० [सं०√जि (जीतना)+ग्स्नु] विजय प्राप्त करनेवाला। जेता। विजयी। पुं० १. विष्णु। २. सूर्य। ३. इंद्र। ४. वसु। ५. अर्जुन।
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जिंस  : स्त्री० [फा० जिन्स] १. चीज। पदार्थ। २. गेहूँ, चावल आदि अनाज। ३. जीवों, पदार्थों आदि की जाति, प्रकार या वर्ग।
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जिस  : वि० [सं० यः यस्] हिंदी विशेषण जो का वह रूप जो उसे विभक्ति से युक्त विशेष्य के पहले लगने पर प्राप्त होता है। जैसे–जिस, व्यक्ति को, जिस जीवन का, जिस नौकर ने, जिस कमरे में आदि। सर्व० हिं० सर्वनाम जो की वह रूप जो विभक्ति लगने से पहले प्राप्त होता है। जैसे–जिसने, जिससे, जिसपर, जिसमें, जिसको आदि। पद–जिसका तिसका=किसी निश्चित व्यक्ति का। चाहे किसी व्यक्ति का। जैसे–सारी संपत्ति जिसकी तिसकी हो जायगी।
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जिंसवार  : पुं० [फा०] पटवारियों या लेखपालों का वह कागज जिसमें वे परताल के समय खेत में बोई हुई फसल का नाम लिखते हैं।
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जिसिम  : पुं=जिस्म (शरीर)।
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जिंसी लगान  : पुं० [हिं० जिंस+लगान] १. पकी हुई फसल का वह अंश जो जमींदार या सरकार की ओर से लगान के रूप में लिया जाय। २. जिंस के रूप में लगान उगाहने की प्रथा।
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जिस्ट  : वि० [?] १. बड़ा। २. भारी। उदाहरण–जग्य जिस्ट उचिष्ट करै, कातर कृत हारिय।-चन्द्रबरदाई।
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जिस्ता  : पुं० १.=जस्ता। २.=दस्ता।
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जिस्म  : पुं० [फा०] [वि० जिस्मानी] १. देह। बदन। शरीर। २. स्त्री या पुरुष का गुप्त अंग। भग या लिंग (क्व०)।
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जिस्मानी  : वि० [फा०] जिस्म या शरीर से संबंध रखने या उनसे होनेवाला। शारीरिक।
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जिस्मी  : वि०=जिस्मानी।
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जिह  : स्त्री० [फा० सं० ज्या] धनुष का चिल्ला। ज्या। वि० सर्व०=जिस। उदाहरण–जिह जिह बिधि रीझे हरी सोई विधि कीजै हो।–मीराँ।
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जिहन  : पुं० [अ० जिहन]=जेहन। (बुद्धि)।
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जिहाद  : पुं० [अ०] [वि० जिहादी] १. धार्मिक उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जानेवाला युद्ध। २. वह युद्ध जो मध्य युग में मुसलमान अपने धार्मिक प्राचार के लिए दूसरे धर्मावलम्बियों से करते थे। मुहावरा–जिहाद का झंडा खड़ा करना=मजहब के नाम पर लड़ाई छेड़ना।
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जिहादी  : वि० [अ०] १. जिहाद संबंधी। २. जिहाद करनेवाला।
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जिहानक  : पुं० [सं०√हा(गति)+शानच्+कन्] प्रलय।
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जिहालत  : स्त्री०=जहालत (मूर्खता)।
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जिहासा  : स्त्री० [सं०√हा (त्यागना)+सन् द्वित्वादि+अ-टाप्] त्याग की इच्छा।
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जिहासु  : वि० [सं०√ हा+सन् द्वित्वादि+उ] त्याग की इच्छा रखनेवाला।
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जिहीर्षा  : स्त्री० [सं०√हृ(हरण करना)+सन् द्वित्वादि+अ-टाप्] हरने या हरण करने की इच्छा।
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जिहीर्षु  : वि० [सं०√हृ+सन् द्वित्वादि+उ] हरण करने की इच्छा या कामना करनेवाला।
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जिह्म  : वि० [सं०√हा (त्याग)+मन् सन्वद्भाव द्वित्वादि] १. टेढ़ा। वक्र। २. क्रूर। निर्दय। ३. कपटी। छली। ४. दुष्ट। पाजी। ५. खिन्न। दुःखी। ६. धीमा। मंद। पुं० १. अधर्म। २. तगर का फूल।
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जिह्म-गति  : वि० [ब० स०] जिसकी गति या चाल टेढ़ी हो। टेढा चलनेवाला। पुं० साँप।
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जिह्मक्ष  : वि० [जिह्म-अक्षि] टेढ़ी या तिरछी आँखवाला। ऐंचा या भेंगा।
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जिह्मग  : वि० [सं० जिह्म√ गम् (जाना)+ड] १. टेढ़ी-तिरछी चाल चलनेवाला। २. धीमी चाल से चलनेवाला। ३. चालबाज। धूर्त्त। पुं० सर्प। सांप।
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जिह्मगामी(मिन्)  : वि० [सं० जिह्म√ गम्+णिनि] [स्त्री० जिह्मगामिनी]=जिह्माग।
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जिह्मता  : स्त्री० [सं० जिह्म+तल्-टाप्] १. टेढ़ापन। वक्रता। २. धीमापन। मंदता। ३. कुटिलता ४. दुष्टता। ५. धूर्तता।
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जिह्मित  : वि० [सं० जिह्म+इतच्] १. टेढ़ा। २. घूमा हुआ। ३. चकित। विस्मित।
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जिह्मीकृत  : वि० [सं० जिह्य+च्वि√कृ (करना)+क्त, दीर्घ] झुकावा या टेढ़ा किया हुआ।
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जिह्वक  : पुं० [सं०√ह्व(बुलावा)+ड, द्वित्वादि+कन्] एक प्रकार का सन्निपात रोग जिसमें रोगी से स्पष्ट बोला नहीं जाता और उसकी जीभ लड़खड़ाती है। इसके रोगी प्रायः गूगें या बहरे हो जाते हैं।
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जिह्वल  : वि० [सं० जिह्व√ला (लेना)+क] चटोरा।
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जिह्वा  : वि० [सं०√लिह् (चाटना)+व, नि० सिद्धि] १. जीभ। २. आग की लपट।
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जिह्वा-रद  : पुं० [ब० स०] पक्षी।
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जिह्वा-रोग  : पुं० [ष० त०] जीभ में होनेवाले रोग जो सुश्रुत में ५ प्रकार के माने गये हैं।
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जिह्वाग्र  : पुं० [जिह्वा-अग्र, ष० त०] जीभ का अगला भाग। वि० (कथन, बात या विषय) जो जीभ के अगले भाग पर अर्थात् हर समय उपस्थित या प्रस्तुत रहे। जैसे–सारी गीता उन्हें जिह्वाग्र है।
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जिह्वाच्छेद  : पुं० [ष० त०] वह दंड जिसमें किसी की जीभ काट ली जाती है।
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जिह्वाजप  : वि० [तृ० त०] एक प्रकार का जप जिसमें केवल जीभ हिले।
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जिह्वाप  : वि० [सं० जिह्वा√ पा(पीना)+क] जीभ से जल पीनेवाला। जैसे–कुत्ता, गदहा, घोड़ा आदि।
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जिह्वामूलीय  : वि० [सं० जिह्वा-मूल, ष० त०+छ-ईय] १. जो जिह्वा के मूल से संबंध रखता या उसमें होता हो। २. (व्याकरण में उच्चारण की दृष्टि से वर्ण) जिसका उच्चारण जीभ के मूल या बिलकुल पिछले भाग से होता है। जैसे–यदि क या ख से पहले विसर्ग हो तो क या ख का उच्चारण (जैसे–दुःख में के ख का उच्चारण) जिह्वामूलीय हो जाता है।
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जिह्वालिह  : पुं० [जिह्वा√लिह् (चाटना)+क्विप्] कुत्ता।
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जिह्विका  : स्त्री० [सं० जिह्वा+ठन्-इक, टाप्] जीभी।
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जिह्वोल्लेखनी  : स्त्री० [जिह्वा-उल्लेखनी, ष० त०] जीभी।
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जी  : पुं० [सं० जीव] चित्त, मन, हृदय, विशेषतः इनका वह पक्ष या रूप जिसमें इच्छा, कामना, दुःख-सुख, प्रवृत्ति,संकल्प-विकल्प,साहस आदि का अवस्थान होता है। विशेष–‘जी’ हमारे शारीरिक अस्तित्व रुचि, विचार आदि सभी का प्रतिनिधित्व करता या प्रतीक होता है, और इसी लिए अनेक अवसरों पर कलेजा, चित्त, जान, मन, हृदय आदि से संबंध कुछ मुहावरे भी जी के साथ चलते और प्रायः उसी प्रकार के अर्थ देते हैं। जैसे–जी या मन का उदास या दुःखी होना, जी या मन फिर जाना, जी या चित्त चाहना, जी या मन करना या चाहना, जी या मन का बुखार निकालना आदि। पद–जी का=जीवटवाला। साहसी। हिम्मती। जी चला-मन चला (देखें) जी जानता है=हृदय ही अनुभव करता है कहा नहीं जा सकता है। जी से-चित्त या मन लगाकर पूरी तरह से ध्यान देते हुए। मुहावरा–जी अच्छा होना=शारीरिक आरोग्य के फल-स्वरूप चित्त शांत सुखी और स्वस्थ होना। (किसी व्यक्ति पर) जी आना= श्रृंगारिक दृष्टि से, मन में किसी के प्रति अनुराग या प्रेम उत्पन्न होना। जी उकताना या उचटना=किसी काम, बात या स्थान से प्रवृत्ति या मन हटना और विकलता या विरक्ति होना। जी काँपना=मन ही मन बहुत अधिक भय होना। जी उड़ जाना=आशंका भय आदि से चित्त सहसा व्यग्र हो जाना। धैर्य और होश-हवास जाता रहना। जी करना या चाहना=कुछ करने, पाने आदि की इच्छा या प्रवृत्ति होना। (किसी बात से) जी काँपना=बहुत अधिक दुर्भावना या भय होना। बहुत डर लगना। जी का बुखार निकालना=कुछ कठोर बातें कहकर मन में दबा हुआ कष्ट या संताप दूर या हल्का करना। जी का बोझ हल्का होना=इच्छा पूरी होने, खटका या चिंता दूर होने आदि पर निश्चित और स्वस्थ होना। जी की जी में रहना=अभिलाषा, कामना अथवा ऐसी ही और कोई बात पूरी न होना और मन में ही रह जाना। जी की निकालना=(क) मन में दबी हुई कटु या कठोर बात मुँह से कहकर जी हल्का करना। (ख) जी की उमंग, वासना या हौसला पूरा करना। जी की पड़ना=प्राण बचाना कठिन हो जाना। (किसी के) जी को जी समझना=दूसरे को क्लेश न पहुँचाना दूसरों पर दया करना। जी को मार कर रखना=प्रवृत्ति, वासना आदि को दबा या रोककर रखना। (कोई बात) जी को लगना=(क) चिंता आदि का मन में घर करना या स्थायी होना। (ख) मन पर पूरा प्रभाव डालना। जैसे–उनकी बात हमारे जी में लग गई। (किसी के) जी को लगना=किसी के पीछे पड़ना। किसी को सुख से न रहने देना। जैसे–यह लड़का तो खिलौने के लिए जी को लग जाता है। जी खटकना=मन में कुछ आशंका या खटका होना। (किसी से) जी खट्टा होना=किसी की ओर से (कष्ट पहुँचने पर) चित्त या मन में विरक्ति उत्पन्न होना। जी खपाना=बहुत अधिक परिश्रम या सिर पच्ची करना। जी खरा-खोटा होना=मन कभी स्थिर और कभी चंचल होना। यह निशान न कर पाना कि अमुक अच्छा काम करे या अमुक बुरा काम। जी खोलकर=(क) खूब अच्छी या पूरी तरह से और शुद्ध हृदय से। यथेच्छ। जैसे–जी खोलकर दान देना या बातें करना। जी गिरा जाना=जी बैठा जाना। जी घबराना=मन में विकलता, व्यग्रता आदि उत्पन्न होना। (किसी चीज पर) जी चलना=कुछ पाने या लेने की इच्छा या प्रवृत्ति होना। जी चाहना=इच्छा या कामना होना। जी चुराना=कोई काम करने से बचने के लिए इधर-उधर हटना या होना। जी छूटना=(क) मन में उत्साह, साहस आदि न रह जाना। (ख) पिंड या पीछा छूटना। छुटकारा मिलना। जैसे–चलो इस झगडे से तो जी छूटा। जी छोटा करना= (क) निराश या विफल होने पर उदास या खिन्न होना। (ख) उदारता के भावों से रहित या संकीर्णता के विचारों से युक्त होना। जी छोड़ना=हृदय की दृढ़ता या साहस खोना। हिम्मत हारना। जी छोड़कर भागना=अपने बचाव या रक्षा के लिए पूरी शक्ति से दूर निकल जाने का प्रयत्न करना। जी जलना=चित्त बहुत ही दुःखी या संतप्त होना। मन में बहुत अधिक कष्ट या संताप होना। (किसी का) जी जलाना=किसी को बहुत अधिक दुःखी और संतप्त करना। मुहावरा–(किसी काम में) जी जान लड़ाना या जी जान से लगना= किसी कार्य या प्रयत्न में अपनी सारी शक्ति लगा देना। (कोई काम या बात) जी जान को या जी जान से लगना=किसी काम या बात की इतनी अधिक चिंता होना कि हर समय उसका ध्यान बना रहे या उसकी सिद्धि का प्रयत्न होता रहे। (किसी ओर जी टँगा या लगा रहना=हर समय चिंता बनी रहना और ध्यान लगा रहना। जी टूट जाना=उत्साह भंग हो जाना। नैराश्य होना। जी ठंडा होना=अभिलाषा पूरी होने से चिंत शांत और संतुष्ट होना। प्रसन्नता होना। (किसी में) जी डालना=(क) मृत शरीर में प्राणों का संचार करना। (ख) किसी के मन में आशा उत्साह, बल आदि का संचार करना। (किसी के) जी में जी डालना= प्रेम, सौहार्द आदि दिखाकर किसी को अपनी ओर अनुरक्त करना। जी डूबना या ढहा जाना=चिंता, निराशा, व्याकुलता आदि के कारण बहुत ही शिथिल और हतोत्साह होना। जी दहलाना=मन में कुछ भय का संचार होना। जी दुखना=मन में कष्ट या दुःख होना। (किसी के लिए) जी देना=किसी पर जीवन या प्राण निछावर करना। जी दौड़ना= कुछ करने या पाने के लिए मन का प्रवृत्त होना। जी धँसा जाना=दे० ‘जी बैठा जाना।’ जी धक-धक करना या धड़कना=भय या आशंका से चित्त का स्थिर न रहना और उसमें धड़कन होना। जी निकलना=प्राणों के निकलने की सी अनुभूति या कष्ट होना। (व्यंग्य) जैसे–रुपया खरच करते हुए तो इनका जी निकलता है। जी निढाल होना=दुःख चिंता शिथिलता आदि के कारण चित्त ठिकाने न रहना। (किसी से) जी पर जाना=बहुत दुःखी या संप्तत होने के कारण बहुत अधिक उदासीनता या विरक्ति हो जाना। जी पकड़ा जाना= खुटका, विपत्ति आदि सुन या संभावना देखकर मन में बहुत चिंता या विकलता होना। जी पर आ बनना=किसी घटना या बात के कारण ऐसी स्थिति होना कि प्राणों पर संकट आ जाय और फलतः सुख शान्ति का अंत हो जाय। जी पर खेलना=कोई विकट काम पूरा करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देना। अपना जीवन संकट में डालना। (किसी से) जी फट जाना=किसी से बहुत दुःखी होने के कारण पूरी तरह से विरक्त हो जाना। (किसी की ओर से) जी फिर जाना=चित्त का उदासीन, खिन्न और विरक्त हो जाना। (किसी से) जी फीका होना=किसी के साथ होनेवाले व्यवहार या संबंध में पहले की सी सरसता न रह जाना। जी बाँटना=(क) मन लगाकर कोई करते रहने की दशा में किसी बाधा के कारण चित्त या ध्यान इधर-उधर होना। (ख) दे० ‘जी बहलना।’ (किसी ओर अपना) जी बढ़ाना=अपना ध्यान, मन या विचार किसी ओर प्रवृत्त करना। (किसी का) जी बढ़ाना= प्रोत्साहित करना। बढ़ावा देना। जी बहलना=ऐसा काम या बात करना जिससे खिन्न चिंतित या दुःखी मन कुछ समय के लिए प्रसन्न हो और खेद, चिंता या दुःख न रह जाय अथवा कम हो जाय। जी बिगड़ना या बुरा होना=(क) उदासीनता खिन्नता या विरक्ति होना। (ख) कै या उलटी करने को जी चाहना। मिचली होना। (ग) मन में कोई अनुचित या बुरा भाव उत्पन्न होना। जी बैठा जाना=आशंका, चिंता, दुर्बलता आदि के कारण मन आंतरिक शक्ति या साहस का बहुत ही क्षीण होने लगना। जी भर आना=करूणा आदि के कारण मन का दरिद्र होना। जी भरकर=जितना जी चाहे उतना। मनमाना। यथेष्ट। (किसी काम, चीज या बात की ओर से) जी भर जाना=(क) कटु अनुभव होने के कारण प्रवृत्ति न रह जाना। (ख) भोग आदि की अधिकता के कारण मन में पहले का सा अनुराग या उत्साह न रह जाना। (अपना जी) भरना=संदेह आदि दूर करके आश्वस्त, निश्चित या संतुष्ट होना। (किसी का) जी भरना=किसी की शंका संदेह आदि दूर करके उसका पूरा समाधान करना। जी भारी होना=रोग आदि के आगमन से कुछ पहले मन में अस्वस्थता का बोध होना। जी भिटकना=घृणा का अनुभव होने के कारण मन में विरक्ति होना। जी मलमलाना=विवशता की दशा में मन में खेद और पछतावा होना। जी मारना= कामना, वासना आदि का दमन करना। जी मिचलना या मितलाना=उलटी या कै करने की इच्छा या प्रवृत्ति होना। (किसी से) जी मिलना=प्रवृत्ति व्यवहार आदि की अनुकूलता दिखाई देने पर परस्पर प्रीति और सद्भाव उत्पन्न होना। जी में आना=किसी काम या बात की इच्छा कामना या प्रवृत्ति होना। जैसे–जो हमारे जी में आयेगा, वह हम करेगें। जी में चुभना, गड़ना या घर करना=बहुत ही प्रिय और सुखद होने के कारण मन में अपने लिए विशिष्ट स्थान बनाना। जी में जी आना=चिंता भय आदि का कारण दूर होने पर मन निश्चित और सांत होना। जी में डालना=चिंता, भय आदि का कारण दूर करके आश्वस्त और निश्चित करना। (कोई बात) जी में धरना=किसी बात या विचार को अपने मन में स्थान देना और उसके अनुसार आचरण करने का निश्चय करना। (कोई बात) जी में बैठना=बिलकुल उचित या ठीक जान पड़ना। मन पर पूरा प्रभाव होना। (कोई बात) जी में रखना=अपने मन में छिपा या दबाकर रखना। जल्दी किसी पर प्रकट न होने देना। (किसी का) जी रखना=इसलिए किसी का अनुरोध या आग्रह मान लेना कि वह अपने मन मे दुःखी या हताश न हो। (किसी काम में) जीन लगना=अनुकूल, रूचिकर आदि जान पड़ने के कारण यथेष्ट रूप से तत्पर या संलग्न होना। काम में अच्छी तरह चित्त लगाना। (किसी व्यक्ति से) जी लगना=अनुराग या प्रेम होना। (किसी ओर) जी लगा रहना=चिंता आदि के कारण बराबर ध्यान लगा रहना। जी लरजना=दे० जी काँपना। जी ललचाना=कुछ पाने के लिए मन में बहुत अधिक लालच या लोभ होना। (किसी का) जी लुभाना=किसी को मोहित करके अपनी ओर आकृष्ट करना। (किसी का) जी लेना=(क) बातों ही बातों में किसी की इच्छा, प्रवृत्ति या विचार का पता लगाने का प्रयत्न करना। (ख) जीवन या प्राण लेना। जी सन्न होना=बहुत अधिक घबराहट, चिंता आदि के कारण स्तब्ध हो जाना। जी से उतर जाना=कटु अनुभव होने या दोष आदि दिखाई देने पर किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति होनेवाला अनुराग नष्ट हो जाना। जी से जाना=जीवन या प्राण गँवाना। मरना। (किसी व्यक्ति या वस्तु से) जी हट जाना=पहले का सा अनुराग या प्रवृत्ति न रह जाने के कारण उदासीनता या विरक्ति होना जी हवा हो जाना=भय या आशंका आदि के कारण चित्त ठिकाने न रह जाना। होश-हवास गुम हो जाना। (किसी का) जी हाथ में करना, रखना या लेना=किसी को अपने अनुकूल वश में करना या रखना। जी हारना=उत्साह साहस आदि से रहित या दीन हो जाना। हिम्मत हारना। जी हिलना=(क) मन में करूणा, दया आदि का आविर्भाव होना। (ख) दे.जी दहलना। जी ही में जी जलना=ईर्ष्या,क्रोध,दुर्भाव आदि के कारण मन ही मन बहुत दुःखी होना। अव्य १. धार्मिक स्थानों मान्य व्यक्तियों आदि के अल्लों और नामों के पीछे लगनेवाला आदर सूचक अव्यय। जैसे–गया जी, गाँधी जी,शुक्ल जी आदि। २. किसी के द्वारा बुलाये जाने पर उत्तर में कहा जानेवाला एक आदर-सूचक शब्द। जैसे–जी शहर जा रहा हूँ। ३. किसी मान्य व्यक्ति के आदेश,कथन आदि के उत्तर में सहमति,स्वीकृति आदि जतलाने वाला अव्यय। जैसे–जी ऐसी ही होगा।
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जीअ  : पुं०=जीव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=जी।
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जीअन  : पुं०=जीवन।
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जीउ  : पु०=जीव।
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जीउका  : स्त्री० दे० ‘जीविका’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीकाद  : पुं० [अ० जीकाद] हिजरी सन् के ग्यारहवें महीने का नाम।
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जींगन  : पुं०=जुगनू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीगन  : पुं०=जूगनूँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीगा  : पुं० [तु०] कलगी। तुर्रा।
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जीजना  : अ०=जीना (जीवित रहना)।
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जीजा  : पुं० [हिं० जीजी] भाई (या बहन) की दृष्टि में, उसकी बड़ी बहन।
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जीजूराना  : पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़ियाँ।
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जीट  : स्त्री० [हिं० सीटना] डींग।
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जीण  : पुं०=जीवन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीत  : स्त्री० [सं० जिति] १. युद्ध में, जीतने की अवस्था या भाव। विजय। २. उक्त के आधार पर, किसी प्रतियोगिता, मुड़भेड़ शर्त आदि में मिलनेवाली या होनेवाली सफलता। ३. लाभ। स्त्री० [?] जहाज में पाल का बुताम या बटन। (लश०)
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जीतना  : स० [हिं० जीत+ना (प्रत्यय)] १. युद्ध में शत्रु को हराकर विजय प्राप्त करना। विजयी होना। २. किसी प्रतियोगिता, मुठभेड़, शर्त में सफल होना। जैसे–दौड़ जीतना। ३. उक्त के आधार पर तथा जीत में सफल होने पर पुस्तक या पुरस्कार जीतना।
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जीता  : वि० [हिं० जीना] १. जिसमें अभी जीवन या प्राण हो। जिन्दा। जीवित। २. तौल, नाप आदि में जो आवश्यक या उचित से थोड़ा अधिक या बढ़ा हुआ हो। जिंदा।
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जीता लोहा  : पुं० [हिं० जीना+लोहा] चुंबक।
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जीतालू  : पुं० [सं० आलू] अरारोट।
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जीति  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की लता जिसका मोटा तना धनुष की डोरी के रूप में काम में लाया जाता था।
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जीन  : पुं० [फा० जीन] १. घोड़े आदि की पीठ पर रखने की गद्दी। चारजामा। काठी। २. कजावा। पलान। ३. एक प्रकार का बढ़िया, मजबूत तथा मोटा सूती कपड़ा। वि०=जीर्ण।
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जीन सवारी  : स्त्री० [देश०] घोड़े की पीठ पर जीन रखकर की जानेवाली सवारी।
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जीन-साज  : पुं० [फा०] [भाव.जीनसाजी] फोड़ों की जीने बनाने वाला कारीगर।
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जीनत  : स्त्री० [फा० जीनत] १. शोभा। २. सजावट।
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जीनपोश  : पुं० [फा० जीन पोश] जीन पर बिछाया जानेवाला कपड़ा।
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जीनपोशी  : स्त्री०=जीनपोश।
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जीना  : अ० [सं० जीवति, प्रा० जिअइ, जीअन्त, मरा० जिणें] १. जीवित रहना। काया या शरीर में प्राण रहना।
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जीपना  : स० [सं० जिति] जीतना। उदाहरण–हल जीपिस्यै जू वाहिस्यइ हाथ।–प्रिथीराज।
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जीभ  : स्त्री० [सं० जिह्वा, जिह्विका, प्रा० जिब्भा, जिब्भया, जैन, प्रा० जिब्भा, जीहा] १. मुँह में तालु के नीचे का वह चिपटा लंबा तथा लचीला टुकड़ा जिसमें रसों का आस्वादन और ध्वनियों का उच्चारण किया जाता है। जबान। रसना। पद–छोटी जीभ=गले के अंदर की घंटी। कौआ। गलशुंडी। मुहावरा–जीभ करना=ढिठाई से जबाव देना। जीभ खोंलना=कुछ कहना। जीभ चलना=(क) विभिन्न वस्तुओं के स्वाद लेने की इच्छा होना। (ख) बहुत ही उग्र बातें कहना। जीभ निकालना=दंड देने के लिए जीभ उखाड़ना या काट लेना। (किसी की) जीभ पकड़ना=(क) किसी को कोई बात न कहने देना। किसी को विवश करना कि वह कोई विशिष्ट बात न कहे। (ख) किसी को उसकी कही हुई बात के पालन के लिए विवश करना। जीभ हिलना=मुँह से कुछ कहना। (किसी की) जीभ के नीचे जीभ होना=किसी का अपने सुभीते के अनुसार कई तरह की बातें कहना। अपने कथन या वचन का ध्यान न रखना। २. जीभ के आकार की कोई चिपटी तथा लंबोतरी वस्तु। जैसे–निब।
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जीभा  : पुं० [हिं० जीभ] १. जीभ के आकार की कोई बड़ी वस्तु। जैसे–कोल्हू का पच्चर। २. एक रोग जिसमें चौपायों की जीभ के काँटे कुछ सूज तथा बढ़ जाते हैं और जिसके कारण उन्हें कुछ खाने में बहुत कष्ट होता है। ३. एक रोग जिसमें बैलों की आँख के आगे का मांस बढ़कर लटकने लगता है।
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जीभी  : स्त्री० [हिं० जीभ] १. धातु आदि का बना हुआ वह पतला धनुषाकार पत्तर जिससे जीभ पर जमी हुई मैल उतारी या छीली जाती है। २. मैल साफ करने के लिए जीभ छीलने की क्रिया। ३. कलम की निब। ४. छोटी जीभ। गलशुंडी।
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जीमट  : पुं० [सं० जीमूत=पोषण करनेवाला] पेड़, पौधों आदि की टहनी या धड़ में का गूदा।
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जीमणवार  : स्त्री०=ज्यौनार।
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जीमना  : स० [सं० जेमन] कहीं बैठकर अच्छी तरह भोजन करना।
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जीमूत  : पुं० [सं०√जि (जीतना)+क्त, मूट्, दीर्घ] १. पर्वत। पहाड़। २. बादल। मेघ। ३ नागरमोथा। ४. देव-ताड़ नामक वृक्ष। ५. घोषा नाम की लता। ६. शाल्मलि द्वीप के एक वर्ष का नाम ७. इंद्र। ८. सूर्य। ९. विराट की एक सभा का मल्ल। १॰. एक प्रकार का दंडक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और ग्यारह रगण होते हैं। वि० जीवित रखने या पोषण करनेवाला।
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जीमूत मुक्ता  : स्त्री० [मध्य० स] एक प्रकार का कल्पित मोती जिसकी उत्पत्ति बादलों से मानी गयी है।
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जीमूत मूल  : पुं० [ब० स०] गंधमूली।
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जीमूत-कूट  : पुं० [ब० स०] पर्वत।
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जीमूत-केतु  : पुं० [ब० स०] शिव।
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जीमूत-वाहन  : पुं० [सं०] इंद्र।
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जीमूतवाही(हिन्)  : पुं० [सं० जीमूत√वह् (ले जाना)+णिनि] धुआँ।
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जीय  : पुं०=जीव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीयट  : पुं०=जीवट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीयति  : स्त्री० [हिं० जीना] जीवन। जिंदगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीयदान  : पुं०=जीव-दान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीर  : पुं० [सं०√जु (गति)+रक्, ई आदेश] १. जीरा। २. फूलों का केसर। ३. तलवार। वि० जल्दी या तेज चलनेवाला। पुं० [फा० जिरह] जिरह। कवच। वि०=जीर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीरक  : पुं० [सं० जीर+कन्] जीरा।
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जीरण(रन)  : वि०=जीर्ण।
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जीरना  : अ० [सं० जीर्ण] १. जीर्ण या पुराना होना। उदाहरण–वह हाई वह जीरई साकर संग निवेदि।–कबीर। २. कुम्हलाना मुरझाना। ३. फटना।
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जीरह  : पुं०=जिरह।
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जीरा  : पुं० [सं० जीरक] १. एक पौधा जिसके सुगंधित छोटे फूल सुखाकर मसाले के काम में लाये जाते हैं। २. उक्त पौधे के सुखाये या सूखे हुए फूल। ३. उक्त आकार की कोई छोटी महीन लंबी चीज। ४. फूलों का केसर।
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जीरिका  : स्त्री० [सं०√जृ (जीर्ण होना)+रिक्, ई, आदेश+कन्-टाप्] वंशपत्री नामक घास।
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जीरी  : पुं० [हिं० जीरा] १. फूलों आदि का छोटा कण। २. एक प्रकार का अगहनी धान। ३. काली जीरी।
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जीरोपटन  : पुं० [देश०] एक पौधा और उसका फूल।
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जीर्ण  : वि० [सं०√जृ+क्त, ईत्व, नत्व] [स्त्री० जीर्णा] १. जो बहुत पुराना होने के कारण इतना कट-फट या टूट-फूट गया हो कि ठीक तरह से काम में न आ सकता हो। जैसे–जीर्ण दुर्ग जीर्ण वस्त्र। २. (व्यक्ति) जो बुड्ढा होने के कारण जर्जर और शिथिल हो गया हो। ३. बहुत दिनों का पुराना। जीर्ण रोग। ४. जो पुराना होने के कारण अपना महत्व गँवा चुका। जैसे–जीर्ण विचार। ५. पेट में पहुँचकर अच्छी तरह पचा हुआ। पचित या पाचित। जैसे–जीर्ण अन्न।
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जीर्ण-ज्वर  : पुं० [कर्म० स०] वैद्यक में, वह ज्वर जो २१ या अधिक दिनों तक आता हो। पुराना बुखार।
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जीर्ण-दारु  : पुं० [ब० स०] वृद्धदारक वृक्ष। विधारा।
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जीर्ण-पत्र  : पुं० [ब० स०] कदंब का पेड़।
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जीर्ण-वज्र  : पुं० [कर्म० स०] वैक्रांत मणि।
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जीर्णक  : वि० [सं० जीर्ण+कन्]=जीर्ण।
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जीर्णता  : स्त्री० [सं० जीर्ण+तल्-टाप्] १. जीर्ण होने की अवस्था या भाव। २. बुढ़ापा।
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जीर्णा  : स्त्री० [सं० जीर्ण+टाप्] काली जीरी।
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जीर्णि  : स्त्री० [सं० जृ+क्तिनन्, ईत्व, नत्व] १. जीर्णता। २. पाचन।
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जीर्णोद्वार  : पुं० [सं० जीर्ण-उद्धार, ष० त०] किसी पुरानी वास्तु रचना का फिर से होनेवाला उद्धार, सुधार या मरम्मत। टूटी-फूटी इमारत या चीज फिर से ठीक और दुरुस्त करना।
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जील  : स्त्री० [फा० जीर] १. जीमा या हलका शब्द। २. संगीत में, नीचा या मध्यम स्वर। ३. तबले आदि में बाँया (बाजा)।
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जीला  : वि० [सं० झिल्ली] [स्त्री० जीली] १. झीना। पतला। २. बारीक। महीन।
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जीलानी  : पुं० [अ०] एक प्रकार का लाल रंग। वि० उक्त प्रकार का, लाल।
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जीव  : पुं० [सं०√जीव+घञ्] १. वह जिसमें चेतना और जीवन या प्राण हो और जो अपनी इच्छा के अनुसार खा-पी और हिल डुल सकता हो। जीवधारी। प्राणी। २. प्राणियों में रहनेवाला चेतन तत्त्व। जीवात्मा। ३. जान। प्राण। ४. विष्णु। ५. वृहस्पति। ६. आश्लेषा नक्षत्र। ७. बकायन का पेड़।
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जीव-दया  : स्त्री० [स० त०] जीवों पर उनके जीवन की रक्षा के विचार से की जानेवाली दया।
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जीव-दान  : पुं० [ष० त०] १. वश में आये हुए अपराधी या शत्रु को बिना उसके प्राण लिए छोड़ देना। २. किसी मरते हुए प्राणी की रक्षा करके उसे मरने से बचाना।
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जीव-धन  : पुं० [ब० स०] वह जो जीवों अर्थात् पशु पक्षियों आदि को रखकर उनसे जीविका चलाता हो। वह जिसके लिए जीव या जानवर ही धन हो। वि० जो किसी के जीवन का धन या सर्वस्व हो। परमप्रिय। जीवन–धन।
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जीव-धातु  : स्त्री० [ष० त०] कुछ विशिष्ट रासायनिक तत्त्वों से बना हुआ वह पारदर्शक स्वच्छ तत्त्व या धातु जिसमें जीवनी-शक्ति होती है और जो आधुनिक विज्ञान में जीवों, जंतुओं वनस्पतियों आदि के भौतिक स्वरूप का मूल आधार माना जाता है। (प्रोटो प्लाज्म)।
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जीव-धानी  : स्त्री० [ष० त०] वह आधार जिस पर जीव रहते हैं पृथ्वी।
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जीव-न्यास  : पुं० [ष० त०] मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करते समय कहा जानेवाला एक मन्त्र।
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जीव-पति  : पुं० [ष० त०] धर्मराज।
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जीव-पत्नी  : स्त्री० [ब० स०] स्त्री, जिसका पति जीवित हो। सधवा।
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जीव-पत्री  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] जीवंती नामक लता।
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जीव-पुत्र  : पुं० [ब० स०] [स्त्री० जीवपुत्रा] वह जिसका पुत्र जीवित हो।
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जीव-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०] बड़ी जीवंती।
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जीव-प्रभा  : स्त्री० [ष० त०] आत्मा। रूह।
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जीव-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] हरीतकी। हर्रे।
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जीव-बन्धु  : पुं० [ष० त०] गुल दुपहिया या बंधूक नामक पौधा और उसका फूल।
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जीव-भद्रा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] जीवंती नामक लता।
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जीव-मातृका  : स्त्री० [ष० त०] १. वे सात देवियाँ जो जीवों का कल्याण पालन आदि माता के समान करती है। विशेष–ये सात देवियाँ है-कुमारी, धनदा, नंदा, विमला, मंगला बला और पद्मा। २. उक्त देवियों में से हर एक।
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जीव-याज  : पुं० [तृ० त०] वह यज्ञ जिसमें पशुओं की बलि दी जाती हो।
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जीव-योनि  : स्त्री० [कर्म० स०] १. सजीव सृष्टि। २. [ष० त०] जीव-जंतु का वर्ग या समूह। पुं० वह जीव या प्राणी जो इंद्रियों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता हो।
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जीव-रक्त  : पुं० [मध्य० स०] रजस्वला स्त्री की योनि से जानेवाला रक्त।
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जीव-लोक  : पुं० [ष० त०] वह लोक जिसमें जीव रहते हों। भू-लोक।
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जीव-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] क्षीर काकोली (पौधा)।
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जीव-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान जिसमें जीवों की उत्पत्ति, विकास शारीरिक रचना और उनके रहन सहन पर विचार किया जाता है। इसी विज्ञान की शाखाओं के रूप में, वनस्पति विज्ञान, प्राणिविज्ञान आकारिकी आदि की गिनती होती है(बायलाँजी)
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जीव-वृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. जीव की वृत्ति अर्थात् गुण, धर्म और व्यापार। २. [कर्म० स०] जीव-जंतुओं का पालन-पोषण करके चलाई जानेवाली जीविका।
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जीव-शाक  : पुं० [कर्म० स०] मलाया में बहुतायत से पाय़ा जानेवाला एक प्रकार का साग। सुसना।
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जीव-शुक्ला  : स्त्री० [कर्म० स०] क्षीर काकोली (पौधा)।
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जीव-संक्रमण  : पुं० [ष० त०] जीव का एक योनि से दूसरी योनि अथवा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना।
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जीव-साधन  : पुं० [ष० त०] धान।
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जीव-सुत  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० जीव-सुता] वह जिसका पुत्र जीवित हो।
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जीव-स्थान  : पुं० [ष० त०] हृदय, जिसमें जीव निवास करता है।
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जीव-हत्या  : स्त्री० [ष० त०] १. जीवों को मारने की क्रिया या भाव। २. धार्मिक दृष्टि से वह पाप जो जीवों को मारने से लगता है।
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जीव-हिंसा  : स्त्री० [ष० त०] जीव-हत्या।
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जीवक  : पुं० [सं० जीव+कन्] १. जीवधारी। प्राणी। २. [√जीव्+णिच्+ण्वुल्-अक] बौद्ध क्षपमक या भिक्षु। ३. सूद-ब्याज से जीविका निर्वाह करनेवाला व्यक्ति। महाजन। ४. मनुष्य के वे सब कार्य जो सामूहिक रूप में उसकी उन्नति या अवनति के सूचक होते हैं। (केरियर) ५. सँपेरा। ६. नौकर। सेवक। ७. पीतसाल नामक वृक्ष। ८. वैद्यक में अष्ट-वर्ग के अन्तर्गत एक प्रकार का कंद जो कामोद्दीपक और बलवर्द्धक कहा गया है।
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जीवंजीव  : पुं० [सं० जीव√ जीव् (जीना)+णिच्+च्, मुम्+] १. चकोर पक्षी। २. एक वृक्ष का नाम।
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जीवजीव  : पुं० [सं०=जीवञ्जीव,पृषो० सिद्धि] चकोर पक्षी।
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जीवट  : पुं० [सं० जीवक] हृदय की वह दृढ़ता जिसके कारण मनुष्य साहसिक कार्यों में निर्भय होकर प्रवृत्त होता है। दम। साहस हिम्मत।
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जीवड़ा  : पुं० [सं० जीव] १. जीव, विशेषतः तुच्छ जीव। २. जीवन। ३. जीवन। ४. धोबी, नाई आदि को उनकी सेवाओं के बदले दिया जानेवाला अनाज।
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जीवंत  : पुं० [सं०√जीव्+झ-अन्त] १. जीवनी शक्ति। प्राण। २. औषध। दवा। ३. जीव नाम का साग। वि० जिसमें प्राण हों। जीता जागता। जीवित।
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जीवंतक  : पुं० [सं० जीवंत+कन्] जीव शाक।
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जीवति  : स्त्री० [सं० जीवत्] जीविका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवंतिका  : स्त्री० [सं० जीवंत+कन्-टाप्, इत्व] १. वह वनस्पति जो दूसरे वृक्षों पर रहकर और उन्हीं के शरीर से रस चूसकर फैलती या बढती हो। बंदा। बाँदा। २. गुडूची। गुरुच। ३. जीव नामक साग। ४. जीवंत लता। ५. एक प्रकार की पीली हर्रे। ५. शमी वृक्ष।
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जीवंती  : स्त्री० [सं० जीवंत+ङीष्] १. एक प्रकार की लता जिसकी टहनियों में दूध होता है और जिसकी पत्तियाँ दवा के काम में आती है। २. एक प्रकार की पीली हर्रे। ३. गुडूची। गुरुच। ४. परगाछा। बाँदा। ५. शमी वृक्ष।
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जीवत्  : वि० [√जीव्+शतृ]=जीवित। (मुख्यतः यौगिक पदों के आरम्भ में, जैसे–जीवत्पति=सधवा स्त्री)।
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जीवत्तोका  : स्त्री० [जीवत-तोक, ब० स] वह स्त्री जिसके बच्चे जीते हों।
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जीवत्पत्ति  : स्त्री० [ब० स०] वह स्त्री जिसका पति जीवित हो। सधवा या सौभाग्यवती स्त्री।
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जीवत्पितृक  : पुं० [ब० स० कप्] वह जिसका पिता जीवित हो।
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जीवत्पुत्रिका  : वि० [जीवत्-पुत्र, ब० स०+कन्-टाप्, इत्व] (स्त्री) जिसका पुत्र या जिसके पुत्र जीवित हों अर्थात् वर्तमान हों।
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जीवत्पुत्रिका व्रत  : पुं० [सं०] आश्विन् कृष्ण अष्टमी को होनेवाला स्त्रियों का एक व्रत या जो वे अपनी सन्तान के कल्याण के लिए कामना से करती हैं।
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जीवथ  : पुं० [सं०√जीव्+अथ] १. जीवनी शक्ति। प्राण। २. बादल। मेघ। ३. मोर। ४. कछुआ। वि० १. दीर्घ जीवी। २. =धर्म निष्ठ।
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जीवद  : वि० [सं० जीव√दा (देना)+क] जीवन या प्राण देनेवाला। पुं० १. वैद्य। २. जीवक पौधा। ३. जीवंती। ४. शत्रु।
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जीवद्बर्तृका  : स्त्री० [सं० जीवत्-भर्तृ, ब० स० कप्, टाप्]=जीवत्पति।
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जीवद्भत्सा  : वि० स्त्री० [सं० जीवत-वत्स, ब० स०] जिसका पुत्र जीवित हो।
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जीवधारी(रिन्)  : वि० [सं० जीव√धृ (धारण)+णिनि] (वह) जिसमें जीव अर्थात् जीवनीशक्ति हो। जीव-युक्त। पुं० प्राणी।
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जीवन  : पुं० [सं०√जीव्+ल्युट-अन] [वि० जीवित] १. वह नैसर्गिक शक्ति जो प्राणियों, वृक्षों आदि को अंगों और उपांगों से युक्त करके सक्रिय और सचेष्ट बनाती है और जिसके फलस्वरूप वे अपना भरण-पोषण करते हुए अपने वंश की वृद्धि करते हैं। आत्मा या प्राणों से पिंड या शरीर से युक्त रहने की दशा या भाव। जान। प्राण। विशेष–आधुनिक विज्ञान के मत से वह विशिष्ट प्रकार की क्रिया-शीलता है जो समस्त जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों और मानव जाति में पाई जाती है। इसके ये मुख्य पाँच लक्षण माने गये हैं-गतिशीलता, अनुभूति या संवदेन, आत्मपोषण, आत्म-वर्धन और प्रजनन। जब तक भौतिक तत्त्वों से बने पिंड या शरीर में आत्मा या प्राण रहते हैं तब तक वह चेतन और जीवित रहता है। इसकी विपरीत दशा में वह नष्ट हो जाता या मर जाता है। जिन पदार्थों में आत्मा या प्राण होते ही नहीं, वो अचेतन और निर्जीव कहलाते हैं २. किसी विशिष्ट रूप या शरीर में आत्मा के बने रहने की सारी अवधि या समय। जिंदगी। जैसे–अमर या शाश्वत जीवन, पार्थिव या भौतिक जीवन। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के आदि से अन्त तक अथवा जन्म से मरण तक की सारी अवधि या समय। जैसे–(क) इस प्रकार के भवनों (या मंदिरों) का जीवन कई सौ वर्षो का होता है। (ख) बहुत से कीड़ों-मकोड़ो का जीवन कुछ घंटों या (दिनों) का होता है। ४. भौतिक शरीर में प्राणों के बने रहने की अवस्था या दशा। जैसे–(क) हमारे लिए यह जीवन मरण का प्रश्न है। (ख) डूबे हुए बच्चे को तुरंत जल से निकाल कर उसमें फिर से जीवन लाया गया। ५. किसी प्राणी के अस्तित्व काल का वह विशिष्ट अंग, अंश या पक्ष जिसमें वह किसी विशेष प्रकार से या विशेष रूप में रहकर अपने दिन बिताता हो। जैसे–(क) आध्यात्मिक या वैवाहिक जीवन। (ख) ग्राम्य, नागरिक सभ्य या सैनिक जीवन। (ग) दरिद्रता या पराधीनता का जीवन। ६. किसी विशिष्ट प्रकार के क्रिया-कलाप, व्यवसाय या व्यापार में बिताई जानेवाली कोई अवधि या उसका कोई अंश। जैसे–(क) खेल-कूद या भोग-विलास का जीवन। (ख) बढ़इयों, लोहारों या सुनारों का जीवन। ७. वह तत्त्व, पदार्थ या शक्ति जो किसी दूसरे तत्व पदार्थ या व्यक्ति का अस्तित्व बनाये रखने के लिए अनिवार्य अथवा उसे सुखमय रखने के लिए परम आवश्यक हो। जैसे–जल (या वायु) ही सब प्राणियों का जीवन है। ८. उक्त के आधार पर, कोई परम प्रिय वस्तु या व्यक्ति। उदाहरण–जीवन मूरि हमारी अली यह कौन कह्यौ तोहि नंद लला है।-बलबीर। ९. वह जिससे किसी को कुछ करने या अपना अस्तित्व बनाये रखने की पूरी प्रेरणा या शक्ति प्राप्त होती है। जान। प्राण। जैसे–आप ही तो इस संस्था के जीवन हैं। १॰. वह तत्त्व या बात जिसके वर्तमान होने पर किसी दूसरे तत्त्व या बात में यथेष्ठ ऊर्जा, ओज आदि अथवा यथेष्ठ वांछित प्रभाव उत्पन्न करने या फल दिखाने की शक्ति दिखाई देती है। जैसे–किसी जाति या दल का संघटन में दिखाई देनेवाला जीवन। ११. वायु। हवा। १२. जल। पानी। १३. नवनीत। मक्खन। १४. हड्डियों के अन्दर का गूदा। मज्जा। १५. जीविका निर्वाह का साधन। वृत्ति। १६. पुत्र। बेटा। १७. परमात्मा। परमेश्वर। १८. जीवक नामक ओषधि। वि० परम प्रिया। बहुत प्यारा।
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जीवन-कारण  : पुं० [ष० त०] न्याय-दर्शन में जीव या प्राणी के वे कृत्य या प्रयत्न जो बिना इच्छा, द्वेष आदि के आप से आप और प्राकृतिक रूप से बराबर होते रहते हैं। जैसे–श्वास, प्रश्वास आदि।
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जीवन-चरित्र  : पुं०=जीवन-चरित।
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जीवन-धन  : वि० [ष० त०] १. जो किसी के जीवन का धन अर्थात् सर्वस्व हो। परम प्रिय। २. प्राणाधार। प्राण-प्रिय।
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जीवन-नौका  : स्त्री० [ष० त०] वह छोटी नौका जो बड़ों जहाजों पर इसलिए रखी जाती है कि जब जहाज डूबने लगे तब लोग उस पर सवार होकर अपनी जान बचा सकें। (लाइफ बोट)।
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जीवन-प्रभा  : स्त्री० [ष० त०] आत्मा।
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जीवन-प्रमाणक  : पुं० [ष० त०] इस बात का प्रमाण कि अमुख व्यक्ति अमुक दिन या तिथि तक जीवित था अथवा इस समय जीवित हैं। (लाइफ सर्टिफिकेट)
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जीवन-बूटी  : स्त्री० [सं० जीवन+हिं० बूटी] १. वह कल्पित जड़ी या बूटी जिसके संबंद्ध में प्रसिद्ध है कि वह मरे हुए आमदी को जिला देती है। संजीवनी। २. लाक्षणिक अर्थ में, वह चीज जो किसी के जीवन का आधार हो। ३. प्राण-प्रिय वस्तु।
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जीवन-वृत्  : पुं० [ष० त०] १. जीवन-चरित। २. किसी जीव या प्राणी के आदि से अंत तक की सब घटनाओं या बातों का वर्णन या इतिहास। (लाइफ-हिस्ट्री)।
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जीवन-वृत्तांत  : पुं० [ष० त०] जीवन-वृत्त।
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जीवन-संग्राम  : पुं०=जीवन-संघर्ष।
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जीवन-संघर्ष  : पुं० [ष० त०] प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित बने रहने या जीविका उपार्जन करने के लिए किया जानेवाला विकट प्रयत्न या प्रयास। (स्ट्रगल फार एक्जिस्टेन्स)।
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जीवन-हेतु  : पुं० [ष० त०] जीविका। रोजी।
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जीवनक  : पुं० [सं० जीवंन+कन्] १. आहार। २. अन्न।
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जीवनमूरि  : स्त्री०=जीवन-बूटी।
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जीवनवृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] जीविका। रोजी।
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जीवना  : पुं० [सं०√जीवन+णिच्+युच्-अन, टाप्] १. महौषध। अ०=जीना (जीवित रहना)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=जीमना (भोजन करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवनाघात  : पुं० [सं० जीवन-आघात, ब० स०] विष।
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जीवनांत  : पुं० [जीवन-अंत, ष० त०] जीवन का अंत अर्थात् मृत्यु।
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जीवनार्ह  : पुं० [सं० जीवन-अर्ह, ष० त०] १. अन्न। २. दूध।
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जीवनावास  : वि० [सं० जीवन-आवास, ब० स०] जल में रहनेवाला। पुं० १.=वरुण। २. =देह। शरीर।
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जीवनि  : वि० [सं० जीवनी] १. (ऐसी ओषधि या वस्तु) जो किसी को जीवित रखने में विशिष्ट रूप से समर्थ हो। २. अत्यन्त प्रिय (वस्तु या व्यक्ति)। पुं० १. संजीवनी बूटी। २. काकोली। ३. तिक्त जीवंती। डोडी। ४. मेदा नाम की ओषधि। स्त्री=जीवनी।
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जीवनी  : स्त्री० [सं० जीवन+ङीष्] १. काकोली। २. जीवंती। ३. महामेदा। ४. डोडी। तिक्त जीवंती। स्त्री=जीवन-चरित।
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जीवनीय  : वि० [सं०√जीव+अनीयर] १. जो जीवित रखने या रहने योग्य हो। जी सकने वाला। २. जीवन या जीवनी शक्ति प्रदान करने वाला। ३. अपनी जीविका आप चलानेवाला। पुं० १. =जल। पानी। २. जयंती वृक्ष। ३. दूध (डिं०)।
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जीवनीय-गण  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में बलकारक ओषधों का एक वर्ग जिसके अंतर्गत अष्टवर्ग, पर्णिनी, जीवंती, मधूक और जीवन नामक वनस्पतियाँ हैं।
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जीवनीया  : स्त्री० [सं० जीवनीय+टाप्] जीवंती नामक लता।
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जीवनेत्री  : स्त्री० [सं० जीव√नी (ढोना)+तृच्-ङीष्] सैंहली वृक्ष।
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जीवनोपाय  : पुं० [सं० जीवन-उपाय,ष० त० ] जीवन के निर्वाह और रक्षा के उपाय या साधन। जीविका। रोजी।
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जीवनौषध  : स्त्री० [जीवन-औषध, ष० त०] वह औषध जिसमें मरता हुआ प्राणी जी जाय। जीवन बूटी। संजीवनी।
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जीवन्मुक्त  : वि० [सं०√जीव्+शतृ, जीवन-मुक्त, कर्म० स०] [भाव० जीवनमुक्ति] (जीव) जिसने आत्म ज्ञान प्राप्त कर लिया हो और इसी लिए जो आवागमन के बंधन से मुक्त हो गया हो।
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जीवन्मुक्ति  : स्त्री० [सं० जीवत्-मृत, कर्म० स०] जीवन्मुक्त होने की अवस्था या भाव।
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जीवन्मृत  : वि० [सं० जीवत्-मृत्,कर्म.स०] (अधम प्राणी) जो जीवित होने पर भी मरे हुए के समान हो।
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जीवपुत्रक  : पुं० [सं० जीवपुत्र+कन्] १. जिया-पोता या पुत्रजीव नामक वृक्ष। २. इंगुदी का पेड़। हिंगोट।
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जीवबंद  : पुं०=जीवबंधु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवरा  : पुं०=जीव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवरी  : स्त्री०=जीवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवला  : स्त्री० [सं० जीव√ला (लेना)+क-टाप्] सिंह पिप्पली।
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जीवसू  : स्त्री० [सं० जीव√सू (प्रसव)क्विप्] वह स्त्री जिसकी सन्तान जीवित हो।
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जीवा  : स्त्री० [सं०√जीव्+णिच्+अच्-टाप्.] १. एक सिरे से दूसरे सिरे तक जानेवाली सीधी रेखा। ज्या। २. धनुष की डोरी। ३. जीवंती नामक लता। ४. बच। बचा। ५. जमीन भूमि। ६. जीविका। ७. जीवन।
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जीवाजून  : स्त्री०=जीव-योनि।
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जीवाणु  : पुं० [जीव-अणु, ष० त०] १. सेन्द्रिय जीवों का वह मूल और बहुत सूक्ष्म रूप जो विकसित होकर नये जीव का रूप धारण करता है। २. जीवनी-शक्ति से युक्त ऐसे अणु जो प्रायः अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। (जर्म)।
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जीवांतक  : वि० [जीव-अतंक, ष० त०] जीव या प्राण अथवा जीवों या प्राणियों का अन्त या नाश करनेवाला। पुं० १. यमराज। २. वधिक। ३. बहेलिया। व्याध।
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जीवातु  : पुं० [सं०√जीव्+आतु] वह ओषधि जिससे प्राणों की रक्षा होती हो। प्राण-दान करनेवाली ओषधि।
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जीवातुमत्  : पुं० [सं० जीवातु+मतुप्] आयुष्काम यज्ञ के एक देवता जिनसे आयुवृद्धि की प्रार्थना की जाती है।
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जीवात्मा(त्मन्)  : पुं० [जीव-आत्मन् ष० त०] १. जीव या प्राणियों में रहनेवाली आत्मा। वह शक्ति जिसके कारण प्राणी जीवित रहते हैं। २. हृदय। जैसे–किसी की जीवात्मा नहीं दुखानी चाहिए।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवादान  : पुं० [जीव-आदान, ष० त०] बेहोशी। मूर्च्छा।
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जीवाधार  : पुं० [जीव-आधार, ष० त०] हृदय जो आत्मा का आधार या आश्रय माना जाता है।
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जींवानुज  : पुं० [जीव-अनुज, ष० त०] गर्गाचार्य मुनि जो बृहस्पति के वंशज और किसी के मत से बृहस्पति के भाई कहे जाते हैं।
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जीवावशेष  : पुं० [जीव-अवशेष, ष० त०]=जीवाश्म।
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जीवाश्म-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि भिन्न प्राचीन युगों में कहाँ-कहाँ और किस प्रकार के जीव होते थे। पुराजैविकी। (पेलिएन्टालोजी)
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जीवाश्म(न्)  : पुं० [जीव-अश्मन्, ष० त०] बहुत प्राचीन काल के जीव-जंतुओं, वनस्पतियों आदि के वे अवशिष्ट रूप जो जमीन की खोदाई करने पर निकलते हैं। जीवावशेष। पुराजीव। (फ़ासिल)।
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जीवास्तिकाय  : पुं० [जीव-अस्तिकाय, ष० त०] जैन दर्शन के अनुसार विशिष्ट कर्म करने और उनके फल भोगनेवाले जीवों का एक वर्ग।
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जीविका  : स्त्री० [सं०√जीव्+अ+कन्-टाप् इत्व] वह काम-धंधा पेशा या वृत्ति जिसके द्वारा मनुष्य को जीवन-निर्वाह के लिए धन तथा अन्य आवश्यक पदार्थ मिलते हों। क्रि० प्र०–चलना।–चलाना।–लगना।–लगाना।
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जीवित  : वि० [सं०√जीव्+क्त] १. जिसे फिर से जीवन या प्राण मिले हों। २. जो अभी जी रहा हो। जिसमें जीवन या प्राण हों। ३. (पदार्थ) जिसकी क्रियात्मक शक्ति काम कर रही हो या वर्त्तमान हो। (एलाइव) जैसे–जीवित कारतूस, बिजली का जीवित तार। पु० १. जीवन। २. जीवन-काल।
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जीवित-काल  : पुं० [ष० त०] जीवित रहने का पूरा या सारा समय। आयु। उमर।
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जीवित-नाथ  : पुं० [ष० त०] पति।
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जीवितव्य  : पुं० [सं०√जीव्+तव्यम्] जीवित रखने या रहने योग्य।
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जीवितांतक  : पुं० [जीवित-अंतक, ष० त०] शिव।
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जीवितेश  : पुं० [जीवित-ईश, ष० त०] १. जीवन का स्वामी। २. यम। ३. इंद्र। ४. सूर्य। ५. इड़ा और पिंगला नाडियाँ। वि० प्राणों से भी बढ़कर प्रिय। प्राणाधार।
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जीवी(विन्)  : वि० [सं० जीव+इनि] १. जीनेवाला। २. किसी विशिष्ट प्रकार की जीविका से अपना निर्वाह करनेवाला। जैसे–श्रमजीवी। शस्त्र-जीवी।
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जीवेश  : पुं० [जीव-ईश, ष० त०] १. जीव या जीवों का स्वामी। ईश्वर। २. प्रियतम।
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जीवोपाधि  : स्त्री० [सं० जीव-उपाधि] जीव की ये तीन उपाधियाँ या अवस्थाएँ–स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत।
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जीसो  : वि०=जैसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीस्त  : स्त्री० [फा०जीस्त] जीवन।
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जीह  : स्त्री० [सं० जिह्वा] जीभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीहि  : स्त्री०=जीह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जु  : अव्य० १.=जो। २.=ज्यों। ३.=जी।
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जुअ  : अव्य० [?] अलग। (दूर या पृथक्)। उदाहरण–बक्खर पक्खर टुट्टि, टुट्टि हय खंड परिय जुअ।–चंदबरदाई।
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जुअती  : स्त्री=युवती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुअना  : स०=जोवना (देखना) उदाहरण–बिरदैत दमित आजान भुअ, उर किवार वर वज्र जुअ।–चंदबरदाई।
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जुअलि  : वि० [सं० युगल] दो। उदाहरण–जुअलि नालि तसु गरभ जेहवी।–प्रिथीराज।
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जुआँ  : स्त्री०=जूँ।
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जुआ  : पुं०=जूआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुआ-चोर  : पुं० [हिं० जूआ+चोर] [भाव० जूआचोरी] बहुत बड़ा ठग या धूर्त्त।
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जुआघर  : पुं=जूआ-खाना।
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जुआठा  : पुं० दे०=जूआ (हल का)।
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जुआनी  : स्त्री=जवानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुआर  : स्त्री०=ज्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुआर भाटा  : पुं०=ज्वारभाटा।
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जुआर-वासी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का पौधा और उसका फूल।
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जुआरा  : पुं० [हिं० जोतार] वह भूखंड जिसे एक जोड़ी बैल एक दिन में जोत सकते हों।
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जुआँरी  : स्त्री० [हिं० जूँ] बहुत छोटी जूँ (कीड़ा) या उसका बच्चा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=ज्वार।
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जुआरी  : पुं० [हिं० जुआ] वह व्यक्ति जिसे जुआ खेलन का व्यसन हो।
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जुआल  : स्त्री०=ज्वाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुइना  : पुं० [सं० यूनि=बंधन या जोड़] घास, फूस आदि को बटकर बनाई जानेवाली रस्सी।
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जुँई  : स्त्री०=जुईं।
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जुई  : स्त्री० [हिं० जूँ] १. बहुत छोटी जूँ (कीड़ा) या उसका बच्चा। २. मटर, सेम आदि की फलियों में लगनेवाला एक प्रकार का छोटा कीडा़।
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जुईं  : स्त्री० [?] लंबा पतला पात्र जिससे हवन करते समय अग्नि में घी छोड़ा जाता है। श्रुवा।
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जुकत्तिय  : स्त्री०=युक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुकाम  : पुं० [अ०] सरदी-गरमी के योग से होनेवाला एक रोग जिसमें नाक से कफ मिला हुआ पानी निकलता और सिर भारी जान पड़ता है। प्रतिश्याय सरदी । (कोल्ड)। मुहावरा–मेंढकी को भी जुकाम होना=किसी छोटे व्यक्ति का भी बड़े बनने या बड़प्पन दिखलाने के लिए बड़े आदमियों का अनुकरण, बराबरी या रीस करना।
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जुकिहारा  : पुं० [हिं० जोंक] [स्त्री० जुकिहारी] जोंक लगनेवाला। उदाहरण–जुकिहारी जौवन लिए हाथ फिरै रस हेत।–रहीम।
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जुकुट  : पुं० [सं०] १. कुत्ता। २. मलय पर्वत।
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जुंग  : पुं० [सं०√जुंग (त्यागना)+अच्] विधारा नामक वृक्ष।
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जुग  : पुं० [सं० युग्म] १. एक ही तरह की दो चीजों की जोड़ी। जोड़ युग्म। मुहावरा–जुग टूटना या फूटना=प्रायः साथ रहनेवाली दो वस्तुओं या व्यक्तियों का किसी प्रकार एक दूसरों से अलग हो जाना। जुग बैठना या मिलना=एक ही तरह की दो वस्तुओं या व्यक्तियों का घनिष्ठ संपर्क या संग-साथ होना। २. चौसर के खेल में दो गोटियों का एक ही घर में एक साथ बैठने की अवस्था। विशेष–ऐसी गोटियों में से कोई गोटी तब तक मारी नहीं जा सकती, जब तक वे दोनों एक दूसरे से अलग या आगे-पीछे न हो जायँ। ३. करघे में का वह डोरा जो ताने के सूतों को अलग-अलग रखने के लिए होता है। पद–पुं० =युग। (काल-विभाग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुगजुग  : अव्य० [हिं० जुग] अनेक युगों अर्थात् बहुत दिनों तक। जैसे–बच्चा तुम जुग-जुग जीओ। (आशीष)।
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जुगजुगाना  : अ० [हिं० जगना=प्रज्वलित होना] १. रह-रहकर थोड़ा थोड़ा चमकना। टिमटिमाना। २. अपने अस्तित्व का परिचय या प्रमाण देते रहना। ३. नया जीवन पाकर हीन दशा से कुछ अच्छी दशा में आना। उभरना।
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जुगजुगी  : स्त्री० [हिं० जुगजुगाना] १. शकरखोरा नाम की चिड़िया। २. गले में पहनने का एक आभूषण। जुगनूँ।
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जुगत  : स्त्री० [सं० युक्ति] [कर्त्ता जुगती] १. बहुत सोच-समझकर किया जाने वाला उपाय। तरकीब। युक्ति। २. आचार, व्यवहार आदि में दिखाई देनेवाला कौशल। जैसे–खूब जुगत से गृहस्थी चलाना।
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जुगती  : पुं० [हिं० जगत] १. व्यक्ति जो समझ-बूझकर कोई विकट काम करने का उत्तम उपाय निकाले। २. किफायत से घर-गृहस्थी का खरच चलानेवाला व्यक्ति। स्त्री०=जुगत (युक्ति)।
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जुगंतै  : वि०=जाग्रत। उदाहरण–जानि जुगेतै जम कौं करण प्रथीपुर अन्त।–रासो।
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जुगनी  : स्त्री०=जुगनूँ।
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जुगनूँ  : पुं० [हिं० जुगजुगाना] १. एक प्रसिद्ध कीड़ा जिसका पिछला भाग रात में खूब चमकता है। खद्योत। २. पान के पत्ते के आकार का गले का एक गहना। जुगजुगी। रामनवमी। ३. गले में पहनने के गहनों में नीचे लटकनेवाला खंड (पेन्डेन्ट)।
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जुगम  : वि०=युग्म।
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जुगराफिया  : पुं० [अ०] भूगोल।
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जुगल  : वि०=युगल।
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जुगलिया  : पुं० [?] जैन कथाओं के अनुसार एक कल्पित प्राणी जिसके ४०९६ बाल मिलकर आज कल के मनुष्यों के एक बाल के बराबर हों।
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जुगवना  : स० [सं० योग+अवना (प्रत्यय)] १. कोई आवश्यक वस्तु कहीं से लाकर उपस्थित करना। २. कोई कठिन कार्य सिद्ध करने की युक्ति। क्रि० प्र०–बैठाना।
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जुगादरी  : वि० [सं० युगादि से] बहुत पुराना।
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जुगादि  : पुं० [सं० युगादि] १. युग का आरंभिक समय। २. बहुत पुराना समय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुगाना  : स०=जुगवाना।
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जुगार  : स्त्री०=जुगाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुगारना  : अ०=जुगालना।
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जुगालना  : अ० [सं० उद्विलन=उगलना] सींगवालें पशुओं (जैसे–गाय भैंस, बकरी आदि), का जुगाली या पागुर करना।
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जुगाली  : स्त्री० [हिं० जुगालना] सींगवाले पशुओं का जल्दी-जल्दी खाये या निगले हुए चारे को गले से थोड़ा निकालकर फिर से अच्छी तरह चबाना। पागुर।
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जुंगित  : वि० [सं०√जुंग+क्त] १. परित्यक्त। २. नीच या शूद्र जाति का।
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जुगुत, जुगुति  : स्त्री०=जुगत।
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जुगुप्सक  : वि० [सं०√गुप् (निंदा करना)+सन् द्वित्वादि+ण्वुल्-अक] दूसरे की व्यर्थ में निंदा करनेवाला। निंदक।
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जुगुप्सन  : पुं० [सं०√गुप्+सन्, द्वित्वादि+ल्युट्-अन] [वि० जुगुप्सु, जुगुप्सित] जुगुप्सा या निंदा करना।
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जुगुप्सा  : स्त्री० [सं०√गुप्+सन्, द्वित्वादि+अ–टाप्] १. दूसरों की की जानेवाली निंदा या बुराई। २. उपेक्षापूर्वक की जानेवाली घृणा। ३. योग शास्त्र के अनुसार अपने शरीर तथा संसार के लोगों के प्रति होनेवाली वह घृणा जो मन के परम शुद्ध हो जाने पर होती है।
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जुगुप्सित  : भू० कृ० [सं०√गुप्+सन्, द्वित्वादि+क्त] १. जिसकी जुगुप्सा हुई हो। निंदक। २. घृणित।
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जुगुप्सु  : वि० [सं०√गुप्+सन्, द्वित्वादि+उ] बुराई करनेवाला। निंदक।
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जुगुल  : वि०=युगल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुग्गिनवै  : पुं० [सं० योगिनी+पति] दिल्ली का राजा पृथ्वीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुग्गिनी  : स्त्री० [सं० योगिनी] योगिनीपुर। दिल्ली।
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जुग्ण  : पुं०=युग।
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जुज  : पुं० [फा० मि० सं० युज] १. अंश। भाग। २. छपे हुए कागज के जुड़े हुए ८ या १६ पृष्ठों का समूह। एक फारम।
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जुजबन्दी  : स्त्री० [फा०] पुस्तकों की सिलाई का वह प्रकार जिसमें प्रत्येक फरमा एक ओर तो अलग-अलग और दूसरी ओर बाकी सब फरमों के साथ मिलाकर भी सीया जाता है। (दफ्तरी)।
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जुजवी  : वि० [फा०] १. जो जुज या बहुत छोटे अंश के रूप में अथवा बहुत थोड़ी मात्रा में किसी किसी के अंतर्गत हो। २. बहुत कम।
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जुजीठल  : पुं०=युधिष्ठिर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुज्झ  : स्त्री० [?] १. जूझने की क्रिया या भाव। जूझ। २. युद्ध। लड़ाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुझवाना  : स० [हिं० जूझना का प्रे०] किसी को जूझने में प्रवृत्त करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुझाऊ  : वि० [हिं० जूझ+आऊ (प्रत्यय)] १. प्रायः जूझता या लड़ता रहनेवाला। लड़का। २. युद्ध या लड़ाई के उपयोग में आनेवाला। युद्ध-संबंधी। जैसे–जुझाऊ जहाज।
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जुझाना  : स०=जुझवाना।
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जुझार  : वि० [हिं० जुज्झ+आर (प्रत्यय)] योद्धा। लड़ाका। पुं० युद्ध। लड़ाई। उदाहरण–का जानसि कस होइ जुझारा।–जायसी।
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जुझारू  : वि० पुं०=जुझार।
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जुझ्झ  : पुं० [सं० युद्ध] १. जूझने की क्रिया या भाव। जूझ। २. युद्ध। लड़ाई।
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जुट  : पुं० [हिं० जुटना] १. एक ही तरह की दो चीजों का जोड़ा। जुग। २. एक साथ काम आनेवाली कई वस्तुओं का समूह। जोड़ा। जैसे–कपड़ों या गहनों का जुट। ३. किसी के जोड़ या मुकाबले की कोई दूसरी चीज। जोड़ा। ४. एक साथ बँधी या लगी हुई चीजों का एक वर्ग या समूह जो प्रायः गुच्छे के रूप में हो। ५. जत्था। दल। मंडली। ६. दे० ‘जुग’।
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जुटक  : पुं० [सं०√जुट् (मिलना)+क+कन्] १. जटा। २. कबरी। जूडा़।
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जुटना  : अ० [सं० युक्त, प्रा० जुत्त+ना (प्रत्यय)] १. एक चीज का दूसरी चीज के बिलकुल पास पहुँचकर उससे लगना या सटना। जुड़ना। जैसे–इमारत में पत्थर के पास पत्थर जुटना। २. इस प्रकार पास या समीप होना कि बीच में बहुत ही थोड़ा अवकाश रह जाय। ३. किसी काम में जी लगाकर योग देना। जैसे–तुम भी आकर जुट जाओ तो काम जल्दी हो जाय। ४. एक या अनेक प्रकार की चीजों, व्यक्तियों आदि का एक जगह इकट्ठा होना। जैसे–(क) धन या पत्थर, लकड़ी आदि जुटना। (ख) तमाशा देखने के लिए भीड़ जुटना। ५. किसी प्रकार प्राप्त या हस्तगत होना। मयस्सर होना। ६. स्त्री का पुरुष से अथवा पुरूष का स्त्री से प्रसंग या संभोग करना। (बाजारू)।
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जुटला  : वि० [हिं० जुटना] [स्त्री० जुटली] लंबे-लंबे बालों की लटोंवाला। पुं० [अल्पा० जुटली] लंबे लंबे बालों की लटा। जटा-जूट।
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जुटाना  : स० [हिं० जुटाना] १. जुटने या एकत्र होने में प्रवृत्त करना। २. इकट्ठा करना। ३. बहुत पास लाकर मिलाना या सटाना।
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जुटाव  : पुं० [हिं० जुटना] जुटाने की क्रिया या भाव।
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जुटि  : स्त्री० [सं० जुड्] १. जोड़ी। २. मेल। ३. संधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुटिका  : स्त्री० [सं० जुटक+टाप्-इत्व] १. चोटी। शिखा। २. बालों का जूड़ा। ३. गुच्छा। ४. एक प्रकार का कपूर।
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जुट्टा  : वि० [हिं० जुटना-मिलना] [स्त्री० जुट्टी] आपस में मिले या सटे हुए (पदार्थ) जैसे–जुट्टी भौंहें। पुं० [स्त्री० अल्पा० जुट्टी] १. घास, डंठलों आदि का बड़ा पूला। २. दे० ‘जुट्टी’।
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जुट्टी  : स्त्री० [हिं० जुटना] १. घास, डंठलों आदि का पूला। २. ऐसे डंठलों, पत्तों आदि का कल्ला जो आरम्भ में प्राय एक में मिले या सटे हुए रहते हैं। ३. एक दूसरी पर रखी हुई एक ही तरह की चीजों की गड्डी या थाक। ४. बेसन में लपेट कर तले हुए पत्ते या साग।
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जुठारना  : स० [हिं० जूठा] १. खाने-पीने की चीज कुछ खा या पीकर जूठी करना। जैसे–कुत्ते का दूध जुठारना। २. नाम मात्र के लिए थोड़ा सा खाकर बाकी देना छोड़। जैसे–थाली जुठारना। ३. नाम मात्र के लिए या बहुत थोड़ा सा खाना, जैसे–मुँह जुठारना।
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जुठिहारा  : पुं० [हिं० जूठा+हारा] [स्त्री० जुठिहारी] दूसरों का जूठा खानेवाला।
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जुठैल  : वि० [सं० जुष्ठ+ऐल] जूठा। उच्छिष्ट। उदाहरण–कातिक राति जगी जम जोइ जुठैल जठेरि सुजठ की जेणी।–देव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुडंगी  : वि० [हिं० जुड़ना+अंग] जिसके साथ अंग और अंगीवाला संबंध हो बहुत ही निकट का संबंधी।
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जुड़ना  : अ० [हिं० जोड़ना का अ०] १. हिंदी ‘जोड़ना’ का अकर्मक रूप। जोड़ा जाना। २. दो या अधिक वस्तुओं का आपस में इस प्रकार मिलना कि एक का कोई भाग या अंग दूसरे के साथ दृढ़तापूर्वक लगा या सटा रहे। दृढ़तापूर्वक संबंद्ध, संश्लिष्ट या संयुक्त होना जैसे–सरेस से कुरसी के पाये जुड़ना। संयो–क्रि०–जाना। ३. संगृहीत या संचित होकर एक स्थान पर एकत्र होना। जुटना। जैसे–किसी के पास धन जुड़ना। ४. किसी प्रकार उपलब्ध, प्राप्त या हस्तगत होना। मयस्कर होना। जैसे–हमें ऐसे कपड़े भला कहाँ जुड़ेगे। ५. गाड़ी, घोड़े, बैल आदि के संबंध में जोता जाना। जुतना। जैसे–इस गाड़ी में दो घोड़े जुड़ते हैं। ६. किसी प्रकार के कठिन या श्रमसाध्य कार्य में किसी व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों का योग देने के लिए सम्मिलित होना। ७. दे० ‘जुटना’।
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जुड़ना  : अ०=जुड़ना।
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जुड़पित्ती  : स्त्री० [हिं० जूड़+पित्त] शीत और पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाला एक रोग जिसमें सारे शरीर में बड़े-बड़े चकते पड़ जाते हैं। और उनमें खुजली या जलन होती है।
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जुड़वाँ  : वि० [हिं० जुड़ना] १. (बच्चे) जो एक साथ जुड़े हुए जन्मे हों। २. (बच्चे) जिनका जन्म एक ही समय में कुछ आगे-पीछे हुआ हो। ३. (कोई ऐसे दो या अधिक पदार्थ) जो आपस में एक साथ जुड़ेलगे या सटें हों। जैसे–जुड़वाँ केले या फलियाँ।
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जुड़वाई  : स्त्री० [हिं० जुड़वाना] जुड़वाने या जोड़ लगवाने की क्रिया या भाव या मजदूरी।
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जुड़वाना  : स० [हिं० जुड़ाना=ठंढा होना] ठंढ़ा या शीतल करना। २. किसी संतप्त को शांत, संतुष्ट या सुखी करना। स० [हिं० जोड़ना का प्रे०] १. जोड़-बैठवाना, मिलवाना या लगवाना। २. जुड़ाना।
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जुड़ाई  : स्त्री०=जोड़ाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० जुड़ाना] १. ठंढे या शीतल होने की क्रिया या भाव। ठंढक। शीतलता २. तृप्ति। स्त्री=जुड़वाई।
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जुड़ाना  : स० [हिं० जुड़ना का स०] १. जुड़ने या जोड़ने में प्रवृत्त करना। २. फलित ज्योतिष के अनुसार योग और फल का मिलान करना। जैसे–जन्म पत्र जुड़ाना अर्थात् वर और कन्या के ग्रहों का मिलान कराके यह जानना कि दोनों का वैवाहिक संबंध कैसा होगा। अ० [हिं० जाड़ा, पू० हिं० जूड़=ठंडा] १. ठंडा या शीतल होना। २. शांत और सुखी होना। जैसे–किसी को देखकर कलेजा जुड़ाना। ३. तृप्त होना। स० ठंडा या शीतल करना। २. शांत और सुखी करना।
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जुड़ावना  : स०=जुड़ाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुड़िया  : वि० पुं०=जुड़वाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुंडी  : स्त्री=जुन्हरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुत  : वि०=युक्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुतना  : अ [सं० युक्त, प्रा० जुत्त] १. घोड़े बैल आदि का गाड़ी में जोता जाना। २. खेत आदि का जोता जाना। ३. जी लगाकर किसी ऐसे काम में सम्मिलित होना जिसमें बहुत अधिक परिश्रम करना पड़ता हो। जैसे–वह दिन भर काम में जुता रहता है।
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जुतवाना  : स० [हिं० जोतना का प्रे०] १. जोतने का काम किसी दूसरे से कराना। २. ऐसा काम करना जिससे कुछ (जैसे–खेत) या कोई (जैसे–घोड़ा या बैल) जोता जाय।
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जुताई  : स्त्री० [हिं० जोतना] जुतने या जोते जाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुताना  : स०=जुतवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=जुतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुतिऔवल  : स्त्री० [हिं० जूता] ऐसी लड़ाई जिसमें दोनों पक्ष एक दूसरे पर जूतों से प्रहार करते हों। जूतों से होनेवाली लड़ाई।
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जुतियाना  : स० [हिं० जूता+इयाना (प्रत्यय)] १. जूतों से किसी पर प्रहार करना। २. किसी को बहुत अधिक खरी खोटी सुनाकर अपमानित तथा लज्जित करना।
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जुत्थ  : पुं०=यूथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुथौली  : स्त्री०=जुठौली।
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जुदा  : वि० [फा०] [स्त्री० जुदी (क्व०)] १. किसी से दूर हटा या बिछुड़ा हुआ। अलग। पृथक्। जैसे–माँ का बेटी से जुदा होना। २. आकार, गुण, महत्त्व, रंग-रूप आदि की दृष्टि से भिन्न प्रकार का। भिन्न। जैसे–यह बात जुदा है कि आप भी जायँगे या नहीं।
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जुदाई  : स्त्री० [फा०] १. जुदा या भिन्न होने की अवस्था या भाव। भिन्नता। २. जुदा या पृथक् होने की अवस्था या भाव। पाथर्क्य। ३. प्रेमियों, मित्रों आदि का पारस्परिक वियोग। बिछोह।
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जुद्ध  : पुं०=युद्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुधवान  : पुं० [सं० युद्ध] १. युद्ध करनेवाला। योद्धा। उदाहरण–जग्गेयं जुधवानं कुंभेनयं कंक लंकायं।-चंदबरदाई। २. जोयुदध कर रहा हो। लड़ता हुआ।
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जुन  : स्त्री० १.=जून (काल या समय) २.=योनि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुनब्बा  : स्त्री० [अ० जुनूब-दक्षिण][स्त्री० अल्पा० जुनब्बी] पुरानी चाल की एक प्रकार की तलवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुनरी  : स्त्री०=जुन्हरी (ज्वार)।
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जुनून  : पुं० [फा०] उन्माद। पागलपन।
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जुनूनी  : वि० [अ०] उन्मत्त। पागल।
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जुनूब  : पुं०=जनूब (दक्षिण)।
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जुन्हरी  : स्त्री० [सं० यवनाल] ज्वार नाम का अन्न।
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जुन्हाई  : स्त्री० [सं० ज्योत्स्ना, प्रा० जोन्हा, हिं० जोन्हीं+ऐया] १. चंद्रमा का प्रकाश। चाँदनी। २. चन्द्रमा।
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जुन्हैया  : स्त्री०=जुन्हाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुफ्त  : पुं० [फा०] १. जोड़ा। २. सम संख्या
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जुब-राज  : पुं०=युवराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुंबर  : पुं० [?] बंदर का बच्चा। (कलंदर)।
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जुंबली  : स्त्री० [हिं० दुंबा] एक प्रकार की पहाड़ी भेड़।
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जुबाद  : पुं० [अ०] एक प्रकार का तरल गंध द्रव्य जो गंध मार्जार या मुश्क बिलाव के अंडकोश से निकलता है।
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जुबान  : स्त्री०=जबान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुबानी  : वि०=जबानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुंबिश  : स्त्री० [फा०] १. हिलते-डुलने की क्रिया या भाव। गति। २. अपने स्थान से थोड़ा हटकर इधर-उधर होने की क्रिया या भाव। मुहावरा–जुंबिश खाना=किसी पदार्थ का अपने स्थान से थोड़ा हटकर इधर-उधर होना।
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जुमकना  : अ० [हिं० जमना या सं० युग्म] १. दृढ़तापूर्वक किसी जगह खड़े रहना। डटना। २. पास या समीप आना। ३. इकट्ठा होना।
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जुमना  : स० [?] खेत में उगी या पड़ी हुई झाड़ियों को जलाकर उनकी खाद बनाना। पुं० खाद बनाने की उक्त क्रिया।
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जुमला  : वि० [फा० जुम्लः] कुल। पूरा। सब। पुं० वाक्य।
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जुमा  : पुं० [अ० जुमऽ] शुक्रवार।
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जुमा मसजिद  : स्त्री० [अ०] जामा मस्जिद।
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जुमिल  : पुं० [?] एक प्रकार का घोड़ा।
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जुमिल्ला  : पुं० [?] करघे की लपेटन की बाई ओर गड़ा रहनेवाला खूँटा।
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जुमुकना  : अ०=जुमकना।
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जुमेरात  : स्त्री० [अ०] गुरुवार। बृहस्पतिवार।
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जुम्मा  : पुं० [अ० जुमा] शुक्रवार। पुं०=जिम्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुयाँग  : पुं० [?] सिंह भूमि के पास पाई जानेवाली एक जंगली जाति जो कोलों से मिलती-जुलती है।
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जुर  : पुं० [सं० ज्वर.] ज्वर। बुखार। उदाहरण–बासर रैनि नाँव लै बोलत भयो बिरह जुर कारो।–सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुरअत  : स्त्री० [फा०] साहस। हिम्मत।
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जुरझना  : अ० स०=झुलसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुरझरी  : स्त्री०=झुरझुरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुरना  : अ० [हिं० जुड़ना का पुराना रूप](यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) १. एक में मिलना। जुड़ना। २. अँगड़ाई लेना। उदाहरण–झुकि झुकि झंपकी है पलनु फिरि फिरि जुरि जमुहाई।–बिहारी। अ०=जुड़ाना। (ठंडा होना)।
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जुरबाना  : पुं०=जुरमाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुरमाना  : पुं० [फा० जुर्मानः] १. किसी अपराध के फल-स्वरूप न्यायालय द्वारा अभियुक्त का दिया जानेवाला अर्थ-दंड। २. किसी प्रकार की चूक, त्रुटि या भूल करने पर किसी अधिकारी द्वारा दिया जानेवाला अर्थ दंड। जैसे–पुस्तकालय में १५ दिन के अंदर पुस्तक न लौटाने पर एक आना रोज जुरमाना लगता है। ३. वह धन जो किसी प्रकार का अपराध, दोष या भूल करने पर दंड स्वरूप देना पड़ता है।
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जुरा  : स्त्री० [सं० जरा] १. बुढ़ापा। वृद्धावस्था। २. मृत्यु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुराना  : अ० स०=जुड़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुराफा  : पुं० [अ० जुर्राफ़ः] ऊँट की तरह का पंद्रह सोलह फुट ऊँचा अफ्रीका का एक जंगली पशु जो संसार का सबसे ऊँचा प्राणी माना जाता है। कहते है कि मादा से विछोह होते ही नर की मृत्यु हो जाती है।
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जुरावना  : अ० स०=जुड़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुरी  : स्त्री०=जूड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुरूर  : क्रि० वि०=जरूर।
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जुर्म  : पुं० [अ०] १. ऐसा अनुचित कार्य जो विधिक दृष्टि से दंडनीय हो। अपराध। २. कोई ऐसी दोष या भूल जिसके लिए दंड मिल सकता हो।
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जुर्माना  : पुं०=जुरमाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुर्रत  : स्त्री० [अ० जुरअत] साहस।
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जुर्रा  : पुं० [फा० जुर्रः] बाज नामक पक्षी में का नर।
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जुर्राब  : स्त्री० [तु०] धागों आदि का बना हुआ पैरों का एक प्रसिद्ध पहनावा। मोजा।
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जुल  : पुं० [सं० छल] [वि० जुलबाज] कोई ऐसी बात जो किसी को धोखा देकर अपना काम निकालने के लिए कही गई हो। क्रि० प्र०–देना।–में आना।
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जुलकरन  : पुं० [अ० जुलकरनैन] सुप्रसिद्ध यूनानी बादशाह सिकंदर की एक उपाधि।
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जुलकरनैन  : पुं०=जुलकरन।
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जुलकराँ  : पुं०=जुलकरन।
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जुलना  : स० [हिं० मिलना का अनु० या हिं० जुड़ना] १. मेल-मिलाप करना या रखना। जैसे–मित्रों से मिलना जुलना। (केवल ‘मिलना’ के साथ प्रयुक्त)
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जुलफ  : स्त्री० [अ० जुल्फ] बालों की लट।
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जुलफिकार  : पुं० [अ० जुलफिकार] अली (मुसलमानों के चौथे खलीफा) की तलवार का नाम।
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जुलबाज  : वि० [हिं० जुल+फा० बाज] [भाव० जुलबाजी] दूसरों को जुल देनेवाला। धोखेबाज।
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जुलम  : पुं०=जुल्म (अत्याचार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुलहा  : पुं०=जुलहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुलाई  : वि० [हिं० जुल+आई (प्रत्यय)] जुल देनेवाला। धोखेबाज। उदाहरण–धाती, कुटिल ढीठ अतिक्रोधी, कपटी कुमति जुलाई।–सूर। स्त्री०=जुलाई। (अँगरेजी का सातवाँ महीना)।
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जुलाब  : पुं० [फा० गुलाब, अ० जुल्लाब] १. रेचन। दस्त। २. दस्त लानेवाली दवा। रेचक औषध। क्रि० प्र०–देना।–लेना। मुहावरा–जुलाब पचना=रेचक ओषध खाने पर भी उसका प्रभाव या फल न होना। ३. किसी से कुछ व्यय कराने की तरकीब या युक्ति। (बाजारू)।
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जुलाहा  : पुं० [फा० जौलाह] १. करघे पर कपड़ा बुननेवाली शिल्पी। कोरी। तंतुवाय। २. कपड़ा बुननेवालों की एक विशिष्ट जाति। ३. योग साधना में साधक। ४. पानी पर तैरनेवाला एक प्रकार का छोटा बरसाती कीड़ा।
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जुलुफ  : स्त्री० [अ० जुल्फ] बालों की लट।
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जुलुम  : पुं०=जुल्म (अत्याचार)।
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जुलुस  : पुं० [अ०] १. सिंहासनारोहण। २. दे० ‘जलूस’।
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जुलोक  : पुं० [सं० द्युलोक] स्वर्ग।
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जुल्फ  : स्त्री० [फा० जुल्फ] सिर के वे लंबे बाल जो पीछे या इधर-उधर लटों के रूप में लटकते रहते हैं।
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जुल्फी  : स्त्री०=जुल्फ।
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जुल्म  : पुं० [अ०] १. किसी प्रबल या शक्तिशाली व्यक्ति का अनीति या अन्यायपूर्ण ऐसा कार्य जिससे असहायों, दुर्बलों तथा निरीहों को कष्ट होता हो। अत्याचार। २. कोई कठोर आचरण या व्यवहार। जैसे–शरीर के साथ जुल्म मत करो। मुहावरा–जुल्म ढाना=(क) कोई बहुत बड़ा अत्याचार करना। (ख) कोई अद्भुत या विलक्षण काम कर दिखाना।
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जुल्मत  : स्त्री० [अ० जुल्मत] अंधकार।
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जुल्मात  : पुं० [अ० ज़ुल्मत का बहु० रूप] १. अंधकार। २. कुछ विशिष्ट अंधकारपूर्ण स्थान। जैसे–स्त्रियों का गर्भाशय, समुद्र का बिलकुल नीचेवाला भाग।
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जुल्मी  : वि० [अ० जुल्मी] १. जुल्म अर्थात् अच्याचार करनेवाला। २. बहुत अधिक उग्र, तीव्र या विकट। प्रचंड। प्रबल।
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जुल्लाब  : पुं०=जुलाब।
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जुव  : पुं०=युवक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुवजन  : पुं० [सं० युवा+जन] नवजवान आदमी। उदाहरण–मनु जगजुवजन जीतन एकहि बिधिना नची बनाय।-भारतेन्दु।
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जुवती  : स्त्री०=युवती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुवराज  : पुं०=युवराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुवा  : वि०=युवा। पुं०=जूआ।
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जुवान  : पुं०=जवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुवानी  : स्त्री=जवानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुवार  : स्त्री०=ज्वार।
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जुवारी  : पुं०=जुआरी।
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जुविराज  : पुं०=युवराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जुष्ट  : वि० [सं०√जु (प्रीति सेवा)+क्त] १. प्रसन्न। २. सेवित। ३. जूठा। पुं०=जूठन।
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जुष्य  : वि० [सं०√जुष्+क्यप्] तलाश।
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जुहाना  : स० [सं० यूथ, प्रा० जूह+आना (प्रत्यय)] १. एकत्र करना। जुटाना। २. वास्तु-रचना में एक पत्थर या लकड़ी को ठीक तरह से दूसरे पत्थर या लकड़ी पर या उसके साथ जमाना या बैठाना। (बढ़ई और राज) ३. चित्र में प्रभाव या रमणीयता लाने के लिए आकृतियों को यथा-स्थान बैठाना। संयोजन करना।
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जुहार  : स्त्री० [सं० अवहार=युद्ध का रुकना या बंद होना] १. राजपूतों में प्रचलित एक प्रकार का अभिवादन। २. अभिवादन। प्रणाम। स्त्री०–ज्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जुहारना  : अ० [हिं० जुहार] अभिवादन या प्रणाम करना। उदाहरण–मंत्री, मित्र कलत्र पुत्र सब आइ जुहारयो।- सं० [जीवहार] किसी से कुछ सहायता माँगना। किसी का एहसान लेना।
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जुहावना  : स०=जुहाना।
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जुही  : स्त्री० [सं० यूथी]=जूही। (एक पौधा और उसका सुंगधित फूल)।
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जुहुराण  : वि० [सं०√हुर्च्छ (कुटिलता)+सन्, द्वित्वादि, आनच्, सन्लुक् छलोप] कुटिल। पुं० चंद्रमा।
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जुहुवान  : पुं० [सं०√हु (देना, लेना+कानच्] १. अग्नि। आग। २. पेड़। वृक्ष। ३. क्रूर या निष्ठुर व्यक्ति।
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जुहू  : पुं० [सं०√हु+क्विप्] १. पलाश की लक़ड़ी का बना हुआ एक प्रकार का अर्द्ध चंद्राकार यज्ञ-पात्र। २. पूर्व दिशा।
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जुहू-राण  : पुं० [सं० जुहू√रण् (शब्द करना)+अण्] १. अग्नि २. अध्यर्यु। ३. चंद्रमा।
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जुहू-वाण  : पुं० [सं० जुह्√वण् (शब्द करना)+अण्] दे० ‘जुहूराण’।
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जुहूर  : पुं० [अ० जहूर] प्रकट या प्रत्यक्ष होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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जुहूवान्(वत्)  : पुं० [सं० जुहू+मतुप्] अग्नि।
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जुहोता  : पुं०=होता।
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जूँ  : स्त्री० [सं० यूका, पा० ऊका] काले रंग का एक बहुत छोटा स्वदेज कीड़ा जो सिर के बालों में पड़ जाता है। (लाउस)। क्रि० प्र०–पड़ना। पद–जूँ की चाल=बहुत धीमी चाल। मुहावरा–(किसी के) कानों पर जूँ तक न रेंगना=किसी के कुछ कहने सुनने पर भी उसका नाम मात्र को भी परिणाम या फल न होना। पुं० [सं० युज्, प्रा० जुआ] जूआ (गाड़ी या हल का)। उदाहरण–जूं सहरी भ्रूह नयण मृग जूता।–प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जू  : स्त्री० [सं०√जू (गमनादि)+क्विप्] १. सरस्वती। २. वायुमंडल। ३. घोड़े, बैल आदि पशुओं के मस्तक पर का टीका। अव्य०=जो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य=जी।
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जूआ  : पुं० [सं० युग] १. गाड़ी हल आदि के आगे की वह लकड़ी जो जोते जानेवाले पशुओं के कंधे पर रखी तथा बाँधी जाती है। २. चक्की में की वह लकड़ी जिसे पकड़कर उसे चलाया जाता है। मूठ। पुं० [सं० द्यूत, प्रा० जूअ] १. वह खेल जिसमें हार या जीत होने पर कुछ निश्चित या नियत धन विपक्षी से लिया या उसे दिया जाता है। २. इस प्रकार धन लगाकर खेल खेलने की क्रिया या भाव। ३. कोई ऐसा जोखिम का काम जिसमें हानि और लाभ दोनों अनिश्चित होते हैं।
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जूआ खाना  : पुं० [हिं० जूआ+फा० खानः] वह घर या स्थान जहाँ बैठकर लोग जूआ खेलते हों।
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जूक  : पुं० [यूना० ज्यूकस] तुला राशि।
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जूजू  : पुं० [अनु०] एक कल्पित जीव जिसका नाम लेकर छोटे बच्चों को डराया जाता है। हौआ।
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जूझ  : स्त्री० [हिं० जूझना] १. जूझने की क्रिया या भाव। २. युद्ध। लड़ाई।
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जूझना  : अ० [सं० युद्ध वा हिं० जूझ] १. शारीरिक बल लगाते हुए किसी से लड़ना। उठा-पटक और हाथा-बाही करना। जैसे–योद्धाओं का आपस में जूझना। २. शारीरिक बल लगाते हुए कोई प्रयत्न करना। जैसे–कुरसी या मेज से जूझना। ३. व्यर्थ ही बहुत अधिक तकरार या हुज्जत करना।
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जूट  : पुं० [सं०√जूट् (मिलना)+अच्] १. सिर के उलझे हुए और ने तथा बड़े बालों की लट या उन्हें लपेट कर बाँधा हुआ जूड़ा। जैसे–सिर पर जटा-जूट रखना। २. शिव की जटा। पुं० [अ०] पटसन।
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जूटना  : स० [हिं० जूटना का स० रूप] जुटाना।
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जूँठ  : स्त्री०=जूठन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जूठ  : वि०=जूठा। स्त्री०=जूठन।
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जूँठन  : स्त्री०=जूठन।
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जूठन  : स्त्री० [हिं० जूठा] १. वह खाद्य पदार्थ जो किसी ने जूठे छोड़े हों। किसी के खाने पीने से बची हुई जूठी वस्तु। मुहावरा–(किसी के यहाँ) जूठन गिराना=किसी के यहाँ निमंत्रित होकर भोजन करना। जैसे–प्रार्थना है कि आज संध्या को मेरे यहाँ आकर जूठन गिराइये। २. वह पदार्थ जो किसी दूसरे के द्वारा एक या अनेक बार काम में लाया जा चुका हो और जिसमें किसी प्रकार की नवलता या नवीनता न रह गई हो।
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जूठा  : वि० [सं० जुष्ठ, प्रा० जुट्ठ] १. (खाद्य पदार्थ) जो किसी के खाने-पीने के बाद बच रहा हो। उच्छिष्ट। २. (खाद्य पदार्थ) जिसे किसी ने मुँह लगाकर या उसमें का कुछ अंश खा-पीकर अपवि या अशुद्ध कर दिया हो। जैसे–कुत्ते या बिल्ली का जूठा भोजन। ३. (पात्र या साधन) जिसके द्वारा अथवा जिसमें कुछ खाया पीया गया हो। जैसे–जूठा बरतन, जूठा हाथ। ४. (कथन या विषय) जिसका किसी ने पहले उपभोग, प्रयोग या व्यवहार कर लिया हो और इसलिए जिसमें कोई चमत्कार या नवलता न रह गई हो। जैसे–दूसरों की जूठी उक्ति। पुं०=जूठन।
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जूड़  : वि० [सं० जड़] [क्रि० जुड़वाना, जुड़ाना] ठंढ़ा। शीतल। पुं०=जूड़ा।
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जूड़न  : पुं० [देश०] कुछ कालापन लिये खैरे रंग का एक प्रकार का बड़ा पहाड़ी बिच्छू।
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जूड़ा  : पुं० [सं० जूट] १. सिर के बड़े-बड़े बालों को लपेटकर गोलाकार बाँधने या गाँठ लगाने से बननेवाला रूप। २. चोटी। कलगी। ३. मूँज आदि का पूला।
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जूँडिहा  : पुं० [हिं० झुंड] वह बैल जो झुंड में सबसे आगे चलता हो।
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जूड़ी  : स्त्री० [हिं० जूड़] जाड़ा देकर आनेवाला ज्वर। विषम ज्वर। शीत ज्वर।
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जूण  : स्त्री०=योनि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जूत  : पुं० [हिं० जूता] १. जूता। २. बड़ा और भारी या मोटा जूता।
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जूता  : पुं० [सं० युक्त, प्रा० जुत्त] १. कंकड़, काँटे, कीचड़, मिट्टी आदि से पैरों की रक्षा करने के लिए उनमें पहने जानेवाले उपकरण की जोड़ी जो चमड़े, टाट, रबर आदि की बनी होती है। उपानह। जोड़ा। विशेष–(क) हमारे देश में इसकी गिनती बहुत ही उपेक्ष्य और तुच्छ चीजों में होती है और इससे मारना बहुत ही अपमान-जनक और तिरस्कार सूचक होता है। (ख) मुहावरों आदि में इसका प्रयोग एक वचन में भी होता है और बहुवचन में भी। मुहावरा–(आपस में)जूता उछलना=(क) अपराध में जूतों से मारपीट होना। (ख) आपस में बहुत ही निकृष्ट प्रकार की कहा-सुनी और थुक्का-फजीहत होना। (किसी पर) जूता उछालना=किसी के संबंध में बहुत ही अपमान-जनक बातें कहना। (किसी का) जूता उठाना=बहुत ही तुच्छ या हीन बनकर छोटी-छोटी सेवाएँ तक करना। (किसी पर) जूता उठाना=जूते से आघात या प्रहार करने पर उद्यत होना। जूता खाना=(क) जूतों की मार खाना। (ख) बहुत ही बुरी तरह से अपमानित और तिरस्कृत होना। जूता घुमाना=जूता चलाना। (देखें)। (आपस में) जूता चलना=(क) आपस में जूतों से मार-पीट होना। (ख) आपस में बहुत बुरी तरह से कहा-सुनी या थुक्का-फजीहत होना। जूता चलाना=छोटे-मोटे चोर का पता लगाने के लिए वह टोना या तांत्रिक उपचार करना जिसमें जूता चारों तरफ घूमता रहता है, पर चोर का नाम लेने पर ठहर या रुक जाता है। (किसी पर) जूता चलाना=किसी को मारने के लिए उस पर जूता फेंकना। (किसी का) जूता चाटना= स्वार्थवश बहुत ही दीन-हीन बनकर किसी की खुशामद और तुच्छ सेवाओं में लगे रहना। (किसी को) जूता देना=जूते से प्रहार करना। (किसी पर) जूता पड़ना=बहुत ही बुरी तरह से अपमानित, तिरस्कृत या लांछित होना। जूता मारना=बहुत ही बुरी तरह से अपमानित या तिरस्कृत करना। (किसी पर) जूता पड़ना या बैठना=बहुत ही अपमान जनक या तिरस्कार सूचक व्यवहार होना। (किसी पर) जूता लगना=जूता पड़ना (देखें ऊपर) (पैर में) जूता लगना=पैर में जूते की रगड़ के कारण घाव होना। (आपस में) जूतों दाल बाँटना=बहुत ही बुरी तरह से या नीचों की तरह लड़ाई-झगड़ा होना। (किसी के साथ) जूतों से बात करना=(क) जूतों से मारना। (ख) बहुत ही बुरी तरह से अपमानित और तिरस्कृत करना। अत्यन्त अनादरपूर्ण व्यवहार करना। २. ऐसा व्यय जो बहुत ही बुरे या प्रहार के रूप में हो। जैसे–इनके फेर में सौ रुपये का जूता तुम्हें भी लगा। (अर्थात् तुम्हें भी व्यर्थ सौ रुपए खर्च करने पड़े)। पद–चाँदी का जूता=घूस आदि के रूप में घन का ऐसा व्यय जो किसी को दबाकर अपने अनुकूल या वश में करने के लिए हो। नगद रिश्वत। जैसे–चाँदी का जूता तुम्हें भी ठीक या (सीधा) कर देगा।
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जूताखोर  : वि० [हिं० जूता+फा० खोर] जो बार-बार अपमानित और तिरस्कृत होने पर भी निंदनीय आचरण या व्यवहार न छोड़ता हो। परम निर्लज्ज और हीन।
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जूति  : पुं० [सं०√जू (वेग)+क्तिन्] वेग। तेजी।
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जूतिका  : स्त्री० [सं० जूति√कै (प्रकाशित होना)+क-टाप्] एक तरह का कपूर।
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जूतिया  : पुं०=जीवत्पुत्रिका (व्रत)।
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जूती  : स्त्री० [हिं० जूता] १. स्त्रियों के पहनने का जूता जो अपेक्षया कुछ छोटा और हलका होता है। विशेष–इससे संबंद्ध अधिकतर मुहावरे मुख्यतः स्त्रियों में ही चलते हैं। मुहावरा–जूतियाँ चटकाना=व्यर्थ इधर-उधर घूमते रहना या मारे मारे फिरना। (किसी की) जूतियाँ सीधी करना=बहुत ही तुच्छ और हीन बनकर किसी की छोटी-छोटी सेवाएँ तक करना। (किसी को) जूती की नोक पर मारना=बहुत ही उपेक्ष्य तुच्छ या हेय समझना। (किसी की) जूती के बराबर न होना=किसी की तुलना में बिलकुल तुच्छ या नगण्य होना। (किसी को) जूती पर रखकर रोटी देना=किसी को बहुत ही तुच्छ या हीन ठहराते हुए अपने पास रखकर खिलाना-पिलाना।
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जूती-पैजार  : स्त्री० [हिं० जूती+फा० पैजार] १. आपस में होनेवाली जूतों की मार-पीट। २. बहुत ही बुरी तरह से या नीच लोगों की तरह होनेवाली कहा-सुनी या लड़ाई-झगड़ा।
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जूतीकारी  : स्त्री० [हिं० जूती+कार] लगातार जूतों की मार। (परिहास) जैसे–जब तक इसकी जूतीकारी न होगी तब तक यह सीधा न होगा।
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जूतीखोर  : वि०=जूताखोर।
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जूतीछिपाई  : स्त्री० [हिं० जूती+छिपाना] १. विवाह के समय की एक रसम जिसमें बधू की बहनें और सहेलियाँ वर को तंग करने के लिए उसके जूते कहीं छिपाकर रख देती हैं। २. उक्त रसम के बाद वह धन या नेग जो जूता चुरानेवाली लड़कियों को दिया जाता है।
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जूथ  : पुं०=यूथ।
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जूथका  : स्त्री०=यूथिका। (जूही)।
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जूथिक  : स्त्री०=यूथिका (जूही)।
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जूँदन  : पुं० [देश०] [स्त्री० जूँदनी] बंदर। (मदारी)।
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जून  : पुं० [सं० द्युवन्=सूर्य] समय। बेला। पुं० [सं० जूर्ण] तिनका। तृण। पुं० [अं०] ईसवीं सन का छठा महीना। स्त्री० [सं० योनि] योनि। जैसे–कुत्ते बिल्ली की जून पाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जूना  : पुं० [सं० जूर्ण-एक तृण] १. घास-फूस आदि बटकर बनाई हुई रस्सी जो बोझ आदि बाँधने के काम आती है। २. घास-फूस आदि का पूला। वि० [सं० जीर्ण](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. पुराना। २. बुड्ढा। वृद्ध। पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पौधा जो प्रायः बागों में शोभा के लिए लगाया जाता है। २. उक्त पौधे का पीले रंग का सुन्दर फूल।
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जूप  : पुं० [सं० द्यूत,प्रा० जूब](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. जूआ (खेल)। २. विवाह के उपरान्त वर और वधू को खिलाया जूए का एक खेल। पुं० [सं० यूप] खंभा। स्तम्भ। उदाहरण–कित गय वे सब भूल भूप लारे बजमारे।-नंददास।
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जूमना  : अ० [अ,.जमा] इकट्ठा होना। जुटना। स० इकट्ठा करना। जुटाना।
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जूँमुँहा  : वि० [हिं० जूँ+मुँह] (वह व्यक्ति) जो देखने में सीधा-सादा होने पर भी वास्तव में बहुत बड़ा धूर्त्त हो।
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जूर  : पुं० [हिं० जुरना] १. जोड़कर रखी हुई चीजों का समूह। संचय। २. ढेर। राशि।
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जूरना  : स०=जोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० [हिं० जूरी] एक पर एक रखकर गड्डियाँ या थाक लगाना।
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जूरा  : पुं० [सं० यून] [स्त्री० अल्पा० जूरी] घास या पत्तों का पूला। जट्टी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=जूड़ा।
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जूर्ण  : पुं० [सं०√जूर् (बढ़ना)+क्त] एक प्रकार का तृण।
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जूर्णि  : स्त्री० [सं० ज्वर् (रोग)+नि] १. तेजी। वेग। २. देह। शरीर। ३. स्त्रियों का एक रोग। वि० १. वेगवान्। तेज। २. गला हुआ। द्रवित ३. तपानेवाला। ४. प्रशंसा या स्तुति करनेवाला। ४. खुशामदी। पुं० १. सूर्य। २. ब्रह्मा। ३. क्रोध। गुस्सा।
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जूर्ति  : स्त्री० [सं०√ज्वर्+क्तिन्] ज्वर।
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जूलाई  : स्त्री० [अं०] अंगरेजी सन् का सातवाँ महीना।
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जूव  : वि० [सं० युवा] नौजवान। युवक। स्त्री०=युवती।
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जूषण  : पुं० [सं०√जूष् (सेवा करना)+ल्युट-अन] १. धाय का पेड़, जो फूलों के लिए लगाया जाता है। २. उक्त पेड़ का फूल।
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जूस  : पुं० [सं० जूष] १. तरकारी, दाल आदि उबालने पर उसका वह पानी या रसा जो प्रायः दुर्बल रोगियों को पथ्य के रूप में दिया जाता है। २. रोगी को दिया जानेवाला पथ्य या बहुत हलका पेय पदार्थ। ३. तरकारियों आदि का झोल या रसा। शोरबा। ४. पके हुए फूल का निचोड़ा हुआ रस। वि० [फा० जुफ्त, मि० सं० युक्त] जो गिनती संख्या में युग्म या सम ठहरे। ताक या विषम का विपर्याय। जैसे–२, ४, १॰, २॰, तब गिनती के विचार से जूस और ३, ५, ११, १९ ताक हैं।
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जूस ताक  : पुं० [हिं० जूस+फा०ताक] एक प्रकार का जूआ जिसमें,मुट्ठी में कौड़ियों भरकर विपक्षी से पूछा जाता है कि इसकी संख्या सम है या विषम।
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जूसी  : स्त्री० [हिं० जूस] ऊख के रस को उबालकर गाढ़ा करते समय उसमें से निकलनेवाली गाढ़ी तल-छट। चोटा।
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जूह  : पुं० [सं० यूथ, प्रा० जूह] १. झुंड। २. समूह।
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जूहर  : पुं०=जौहर।
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जूही  : स्त्री० [सं० यूथी] १. चमेली की तरह का एक प्रसिद्ध पौधा जिसके फूलों की गंध भीनी तथा मधुर होती है। २. उक्त पौधे का फूल।
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जृंभ  : पुं० [सं०√जृंभ् (जंभाई लेना)+घञ्] १. जँभाई। २. आलस्य।
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जृंभक  : वि० [सं०√जृम्भ्+ल्युट-अक] जँभाई लेनेवाला। पुं० १. रुद्र या शिव का एक गण। २. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। (कहते है कि इसके चलने पर विपक्षी योद्धाओं को जँभाइयाँ आने लगती थी और वे सो जाते थे)।
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जृंभण  : पुं० [सं०√जृम्भ्+ल्युट-अन] जँभाई लेना।
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जृंभमान  : वि० [सं०√जृंभ+शानच्] १. जो जंभाई ले रहा हो। जँभाइयाँ लेता हुआ। २. चमकता हुआ। प्रकाशमान्।
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जृंभा  : स्त्री० [सं०√जृंभ+अ-टाप्] १. जँभाई। २, आलस्य। ३. साहित्य में, एक सात्विक अनुभाव जो आलस्य से उत्पन्न माना गया है।
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जृंभिका  : स्त्री० [सं० जृंभा+कन्+टाप्, इत्व] १. जृम्भा। जँभाई। २. आलस्य। ३. एक रोग जिसमें रोगी को प्रायः जँभाई आती रहती हैं और वह धीरे-धीरे शिथिल होता जाता है।
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जृंभी(भिन्)  : वि० [सं०√जृंभ+णिनि] १. जम्हाई लेनेवाला। २. विकसित होनेवाला।
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जे  : सर्व० [सं० ये] १. =जो। २. =‘जो’ का बहु० रूप। अव्य० जो। यदि। (भोजपुरी)।
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जेइ  : सर्व० १.=जो। २.=जिसने।
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जेउँ  : क्रि० वि० [सं० यः+इव] ज्यों। जिस प्रकार। उदाहरण–आपु करै सब भेस मुहमद चादर ओट जेउँ।–जायसी।
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जेऊ  : सर्व०=जो।
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जेकर  : सर्व० [हिं० जें=जो+कर=का] जिसका।
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जेकरा  : सर्व०=देकर (जिसका)।
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जेंगना  : पुं०=जूगनूँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जेगंरा  : पुं० [देश०] वह कटा हुआ डंठल जिसमें से अनाज के दाने निकाल लिए गए हों।
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जेज  : पुं० [देश०] देर। विलम्ब। उदाहरण–हजरत गढ़ कीजे हलो, करो जेज किण कज्ज। बाँकीदास।
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जेट  : स्त्री० [सं० यूथ] १. ढेर। समूह। २. एक पर एक करके रखी हुई एक तरह की चीजों की तह थाक। जैसे–कसोरों या हँड़ियों की जेट, पूरियों या रोटियों की जेट। स्त्री० [?] क्रोड़। गोद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेटी  : स्त्री० [अ०] समुद्र तट का बना हुआ वह स्थान जहाँ पर वे जहाजों पर माल लादा तथा उतारा जाता है। गोदी।
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जेठ  : वि० [सं० ज्येष्ठ, प्रा० जिट्ट, गु० पं० जेठ, जेठु का झेठु, पं० बं० और मरा जेठ] १. बडा। २. मुख्य। ३. उत्तम। पुं० [स्त्री० जेठानी] १. पति का बड़ा भाई। २. वैशाख और आषाढ़ के बीच का महीना।
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जेठरा  : वि०=जेठा।
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जेठरैत  : पुं० [हिं० जेठा+अ० रैत] १. गाँव में सह से बड़ा या सयाना आदमी। २. गाँव का मुखिया। वि० जेठा। बड़ा।
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जेठवा  : वि० [हिं० जेठ] १. जेठ संबंधी। २. जेठ में होनेवाला। पुं० एक प्रकार की बढ़िया कपास जो जेठ मास में तैयार होती है। झुलवा।
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जेठंस  : पुं० [हिं० जेठ (ज्येष्ठ)+अंस (अंश)] १. पैतृक संपत्ति में होनेवाला बड़े भाई का अंश। २. उक्त अंश प्राप्त करने का बड़े भाई का अधिकार।
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जेठंसी  : स्त्री०=जेठंस।
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जेठा  : वि० [सं० ज्येष्ठ] [स्त्री० जेठी] [भाव० जेठाई] १. अवस्था या वय में औरों से बड़ा। जैसे–जेठा लड़का। २. अपेक्षया अच्छा या बढिया। ३. सब के अन्त में और सब से बढ़कर आने या होनेवाला। जैसे–कपड़े की रँगाई में जेठा रंग।
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जेठाई  : स्त्री० [हिं० जेठा] १. जेठ होने की अवस्था या भाव। जेठापन। २. बड़प्पन महत्व।
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जेठानी  : स्त्री० [हिं० जेठ] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से, उसके पति के बड़े भाई की स्त्री।
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जेठी  : वि० [हिं० जेठ+ई (प्रत्य०)] १. जेठ-संबंधी। जेठ मास का। २. जेठ मास में होनेवाला। जैसे–जेठी धान। ३. हिं० जेठा का स्त्री रूप। स्त्री० १. जेठ मास का शेषांश जिसमें अगली फसल के लिए जमीन जोती जाती है। २. जेठ में होनेवाली एक प्रकार की कपास। ३. ‘जेठा’ में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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जेठी-मधु  : स्त्री० [सं० यष्टिमधु] मुलेठी।
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जेठुआ  : वि० [हिं० जेठ] १.=जेठा। २.=दे० ‘जेठी’।
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जेठौत(ा)  : पुं० [सं० ज्येष्ठ+पुत्र] [स्त्री० जोठौती] जेठ अर्थात् पति के बड़े भाई का पुत्र।
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जेणि  : सर्व० [सं० येन] जिसने। उदाहरण–आरंभ मैं कियो जेणि उपायौ।–प्रिथीराज।
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जेतवारु  : वि०=जैतवार (जीतनेवाला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेतव्य  : वि० [सं०√जि (जीतना)+तव्यत्] १. जीते जाने के योग्य। २. जो जीता जा सके।
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जेता(तृ)  : वि० [सं०√ जि+तृच्] जिसे जय या विजय प्राप्त हुई हो। जीतनेवाला। विजयी। पुं० विष्णु। वि० क्रि० वि० [स्त्री० जेती]=जितना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेंताक  : पुं० [सं०] एक प्रक्रिया जिसके द्वारा रोगी को शरीर में इसलिए गरमाहट पहुँचाई जाती है कि उसे पसीना आये और उसके साथ ही रोग के कीटाणु आदि भी निकल जायँ।
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जेतार  : वि० [सं० जित्वर]=जेता।
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जेतिक  : क्रि० वि० [हिं० जितना] जितना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेन-केन  : क्रि० वि=येन-केन (जैसे–तैसे।
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जेंना  : स०=जीमना (भोजन करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जेना  : स०=जीमना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=जितना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेन्यावसु  : पुं० [सं०√जि या√जन् (उत्पत्ति)+णिच्+डेन्य+वसु, ब० स०] १. इंद्र। २. अग्नि
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जेब  : पुं० [फा०] कमीज, कुरते, कोट आदि में प्रायः अन्दर की ओर लगी हुई वह थैली जिसमें छोटी-मोटी चीजें रखी जाती है। खीसा। स्त्री० [फा० जेब] १. शोभा। फबन। २. प्रोत्साहन। बढावा। (क्व०) क्रि० प्र०–देना।–पाना। अव्य०=जिमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेब खरच  : पुं० [हिं०] वह धन जो निजी या वैयक्तिक (पारिवारिक से भिन्न) आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यय किया जाता हो, अथवा किसी को मिलता हो।
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जेबकट  : पुं०=जेबकतरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेबकतरा  : पुं० [हिं० जेब+कतरना] वह व्यक्ति जो दूसरों के जेब काट कर उनमें से रुपये-पैसे निकाल लेता हो।
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जेबघड़ी  : स्त्री० [फा० जेब+हिं० घड़ी] जेब में रखी जानेवाली चिपटी गोल घड़ी।
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जेबदार  : वि० [फा०] शोभा से युक्त। सुन्दर।
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जेबरा  : पुं०=जेबरा (पशु)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेबा  : पुं० [?] जिरह बख्तर। कवच। उदाहरण–जेबा खोलि राग सों मढ़े। लेजिम घालि इराकिन्ह चढ़े।–जायसी। पुं०=जेब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [फा० जेबा] शोभाजनक।
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जेबी  : वि० [फा०] १ जो साधारणतः जेब में रखा जाता हो या रहता हो। जैसे–जेबी घड़ी, जेबी रुमाल। २. जो इतना छोटा हो कि जेब में रखा जा सके जैसे–किताब का जेबी संस्करण।
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जेम  : अव्य=जिमि (जैसे)।
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जेमन  : पुं० [सं०√जिम् (भक्षण)+ल्युट-अन] १. भोजन करना। जीमना। २. ज्योनार।
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जेय  : वि० [सं०√जि (जीतना)+यत्] जीते जाने के योग्य। जो जीता जा सके। वि० [सं० जय] जीतनेवाला। जेता। उदाहरण–अदेव देव जेय भीत रक्षमनि लेखिए–केशव।
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जेर  : वि० [फा० जेर] [भाव० जेरबारी] १. नीचे आया या लाया हुआ। २. पराजित। परास्त। ३. अधिकार या वश में किया हुआ। ४. जिसे बहुत तंग या परेशान किया गया हो। क्रि० वि० नीचे। तले। पुं० [?] सुन्दर वन में होनेवाला एक प्रकार का वृक्ष। स्त्री० दे० ‘आँवल’ (खेड़ी)।
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जेर-बार  : वि० [फा० ज़ेरबार] [भाव० जेरबारी] १. विपत्ति, संकट आदि में दबा हुआ। २. व्यय आदि के भार से दबा हुआ।
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जेरना  : स० [हिं० जेर] १. पराजित करना। २. अधिकार या वश में करना। ३. तंग या परेशान करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जेरपाई  : स्त्री० [फा०] १. स्त्रियों की जूती। २. जूता।
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जेरबंद  : पुं० [फा०] घोड़े के साज की मोहरी में लगा हुआ तस्मा जिसका दूसरा सिरा तंग में बाँधा जाता है।
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जेरी  : स्त्री० [?] १. चरवाहों के हाथ में रहनेवाला डंडा या लाठी। २. खेती-बारी का एक उपकरण। स्त्री० [फा० जेर=नीचे] तंग या परेशान होने की अवस्था या भाव।
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जेल  : पुं० [अं०] वह घिरा हुआ स्थान जिसमें राज्य द्वारा दंडित अपराधी कुछ समय तक दंड भोगने के लिए बंद करके रखे जाते हैं। क्रि० प्र०–काटना।–भोगना। स्त्री० [फा० जेर] परेशानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेलखाना  : पुं० [अं० जेल+फा० खानः] वह इमारत जिसमें अपराधी दंड भोगने के लिए बंद करके रखे जाते हैं। कारागार।
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जेलर  : पुं० [अं०] जेल का अधिकारी या प्रबंधक।
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जेलाटीन  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार का बढ़िया गंधहीन और पारदर्शक सरेस जो हलके पीले रंग का होता है और जिसका प्रयोग औषधों, छायाचित्रों और रासायनिक प्रक्रियाओं में होता है।
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जेली  : स्त्री० [हिं० जेरी] घास या भूसा इकट्ठा करने का एक उपकरण। पाँचा।
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जेवड़ी  : स्त्री०=जेवरी।
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जेंवन  : पुं० [हिं० जेवना] १. जीमने अर्थात् भोजन करने की क्रिया या भाव। २. खाने के लिए बनी या परोसी हुई सामग्री। भोज्य पदार्थ।
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जेंवना  : स० [सं० जेमन] भोजन करना। जीमना। पुं०=जेंवन (भोज्या पदार्थ)।
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जेवना  : स=जीमना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेंवनार  : स्त्री०=ज्योनार।
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जेवनार  : स्त्री० [हिं० जेवना] बहुत से लोगों का प्रायः किसी विशिष्ट अवसर पर एक साथ बैठकर खाना। प्रीतिभोज। दावत।
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जेवर  : पुं० [फा० ज़ेवर] आभूषण। गहना। पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी। स्त्री० =जेवरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेवरा  : पुं०=ज्योरा। पुं० [हिं० जेवरी] मोटा रस्सा।
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जेवरात  : पुं० [फा० ‘ज़ेवर’ का बहु० रूप] बहुत से आभूषण।
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जेवरी  : स्त्री० [सं० जीवा] रस्सी।
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जेवाँ  : पुं० [हिं० जेवना] भोजन। उदाहरण–बिनु ससि सूरहि भाव न जेवाँ।–जायसी।
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जेंवाना  : स० [हिं० जेंवना] अच्छी तरह से भोजन कराना। जिमाना।
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जेष्ठ  : पुं० [सं० ज्येष्ठ] जेठ या ज्येष्ठ मास। वि० अवस्था या वय में बड़ा। जेठा। पुं० जेठ (सभी अर्थों में)।
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जेष्ठा  : स्त्री० [सं० ज्येष्ठा]=ज्येष्ठा।
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जेसिट-पतंग  : पुं० [?] कपास की पत्तियों में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा जिसके पर शरीर के दोनों ओर छप्पर की तरह लटके होते हैं।
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जेह  : स्त्री० [सं० ज्या से फा० जिह=चिल्ला] १. धनुष की डोरी में का वह अंश जो खींचकर आँख के पास लाया जाता है तथा निशाने की सीध में रखा जाता है। चिल्ला। २. दीवार के नीचेवाले भाग में होनेवाला पलस्तर जो साधारणयतः कुछ अधिक मोटा होता है। क्रि० प्र०–उतारना।–निकालना।
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जेहड़  : स्त्री० [हिं० जेट+घट] एक के ऊपर एक करके रखे हुए जल से भरे घड़े।
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जेहड़ि  : अव्य० [?] १. ज्यों ही। २. जैसे ही। (डिं०)
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जेहन  : पुं० [अ० जेहन] [वि० जहीन] समझने-बूझने की योग्यता या शक्ति। धारणा-शक्ति। बुद्धि।
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जेहनदार  : वि०=जहीन (तीक्ष्ण बुद्धिवाला)।
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जेहर  : स्त्री० [?] पैर में पहनने की पाजेब।
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जेहरि  : स्त्री०=जेहर। (पाजेब)।
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जेहल  : स्त्री० [फा० जिहल] [वि० जेहली] १. बेवकूफी। मूर्खता। २. हठ। जिद। पुं० =जेल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेहलखाना  : पुं=जेलखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेहली  : वि० [फा० जिहल] जो कोई बात समझाने-बुझाने पर जल्दी समझता हो।
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जेहवा  : क्रि० वि० [स्त्री० जेहवी]=जैसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जेहा  : क्रि० वि० [स्त्री० जेही]=जैसा।
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जेहि  : सर्व० [सं० यस्] १. जिसको। जिसे। २. जिससे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जै  : स्त्री०=जय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=जितने।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जैकरी  : पं०=जयकरी।
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जैकार  : स्त्री०=जयकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जैगीषव्य  : पुं० [सं० जिगीषु+यञ्] एक मुनि जो योग शास्त्र के वेत्ता थे।
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जैजैकार  : स्त्री=जयजयकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जैजैय  : पुं० [सं० जीव+ढक्-एय] बृहस्पति के पुत्र कच।
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जैजैवंती  : स्त्री० [सं० जयजयवंती] प्रातः काल गाई जानेवाली भैरव राग की एक रागिनी।
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जैढक  : पुं० [सं० जय+हिं० ढक्का] एक प्रकार का बड़ा ढोल। जंगी ढोल।
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जैत  : स्त्री० [सं० जिति] जीत। जय। विजय। पुं० [सं० जयंती] अगस्त की तरह का एक पेड़। पुं०=जैतून।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जैतपत्र  : पुं० [सं० जितिपत्र] जयपत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जैतवार  : वि० [सं० जित्वर] जीतनेवाला। बिजली। उदाहरण–सूर सरदार जैतवार दिगपालन कौ।–सेनापति।
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जैतश्री  : स्त्री० [सं० जितिश्री] एक रागिनी।
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जैंता  : पुं० [सं० जयंती] जैत का पेड़।
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जैती  : स्त्री० [सं० जवंतिका] एक तरह की घास।
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जैतू  : पुं० [अ०] जैतून का तेल।
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जैतून  : पुं० [अ०] १. एक सदाबहार पेड़ जिसके फल दवा के काम आते हैं। २. उक्त वृक्ष के फल अथवा उनका तेल जो दवा के काम आता है।
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जैत्र  : पुं० [सं० जेतृ+अण्] [स्त्री० जैत्री] १. विजेता। विजयी। २. पारा। ३. औषध। दवा।
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जैत्री  : स्त्री० [सं० जैत्र+ङीष्] जैत का पेड़। जयंती।
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जैन  : पुं० [सं० जिन+अण्] १. भारत का एक प्रसिद्ध अनीश्वरवादी धार्मिक संप्रदाय जिसका प्रवर्त्तन महावीर स्वामी ने बुद्ध के समय में किया था। २. उक्त धार्मिक संप्रदाय का व्यक्ति।
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जैनी  : वि० [हिं० जैन] १. जैन धर्म संबंधी। २. जैनियों का। पुं० जैन धर्म को माननेवाला व्यक्ति। जैन–धर्मावलंबी।
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जैनु  : पुं० [हिं० जेवना] आहार। भोजन।
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जैन्य  : वि० [सं० जैन+यत्] जैन संबंधी।
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जैपत्र  : पुं०=जयपत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जैफर  : पुं०=जायफल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जैबो  : अ०=जाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जैमंगल  : पुं० [सं० जयमंगल] १. एक तरह का वृक्ष। जयमंगल। २. राजा की सवारी का हाथी।
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जैमाल (ा)  : स्त्री०=जयमाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जैमिनि  : पुं० [सं०] एक ऋषि जो महर्षि वेद व्यास के शिष्य तथा जो पूर्व मीमांसा के रचयिता थे।
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जैमिनीय  : वि० [सं० जैमिनि+छ-ईय] १. जैमिनी संबंधी। २. जैमिनी द्वारा बनाया हुआ। जैमिनीकृत।
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जैयद  : वि० [अ० जद्द-बहुत बड़ा] १. बहुत बड़ा या भारी। २. प्रचंड। प्रबल। ३. घोर। विकट।
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जैल  : पुं० [अ०] १. पहनने के कपड़े का अगला भाग। आगा। दामन। २. नीचे की ओर का अंश या स्थान। ३. किसी मद, विभाग या शीर्षक के अंतर्गत आनेवाली बातें। ४. इलाका। भू-भाग।
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जैलदार  : पुं० [अ० जैल+फा० दार] मुसलिम शासन-काल में किसी इलाके का प्रधान शासनिक अधिकारी।
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जैव  : वि० [सं० जीव+अण्] १. जीव संबंधी। जीव का। २. जीवों से उत्पन्न होने, निकलने, बनने या मिलनेवाला। ३. बृहस्पति संबंधी। पुं० १. बृहस्पति के क्षेत्र में पड़नेवाली धनु राशि और मीन राशि। २. पुष्य नक्षत्र।
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जैवातृक  : पुं० [सं०√जीव (जीना)+णिच्+आतृ+कन्] १. कपूर। २. चंद्रमा। ३. औषधि। दवा। वि० बड़ी उमरवाला। दीर्घायु।
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जैस  : वि०=जैसा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जैसवार  : पुं०=जायसवाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जैसा  : वि० [सं० यादृश्, प्रा० जारिस, पैशा० जइस्सो] [स्त्री० जैसी] १. जिस आकार-प्रकार या रूप-रंग का। जिस तरह का। पद–जैसा का तैसा=जिस रूप में पहले था, वैसा ही। जैसे को तैसा-(क) जोड़ या मुकाबले का। (ख) पूरी शक्ति से जबाव देने या सामना करनेवाला। जैसे उपयुक्त या समीचीन हो। जैसा होना चाहिए या होता हो। मुहावरा–(किसी की) जैसी की तैसी करना=किसी को शेखी दूर करके उसे फिर पूर्व अवस्था या रूप में कर दिखाना। (उपेक्षा और तिरस्कारसूचक)। २. समान। सदृश। ३. जितना। (क्व०) जैसे–अव्य० [हिं० जैसा] १. जिस तरह से। जिस प्रकार। पद–जैसे–जैसे–जिस क्रम से। ज्यों ज्यों। जैसे–तैसे-(क) बहुत ही साधारण या तुच्छ रूप में। किसी प्रकार। जैसे–यह तो जैसे–तैसे काम चलता करता है। (ख) बहुत कुछ कठिनता से। जैसे–जैसे–तैसे यह झगड़ा भी खतम हुआ। जैसे बने वैसे-जिस प्रकार संभव हो। जिस तरह हो सके। ३. उदाहरणार्थ। यथा।
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जैसो  : वि०=जैसा।
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जो  : सर्व० [सं० यत्, प्रा० जो, गु० सि० पं० बं० जे० मरा० जो] एक संबंधवाचक सर्वनाम जिसका प्रयोग पहले कही हुई किसी बात अथवा पहले आई हुई संज्ञा, सर्वनाम या पद के संबंध में कुछ और कहने से पहले किया जाता है। जैसे–वही कविता सुनाइये जो आपने उस दिन सुनाई थी। वि० किसी अज्ञात या अनिश्चित बात का सूचक विशेषण जैसे–(क) जो बात कहनी हो कह डालो। (ख) जो चाहों सो करो। अव्य० [सं० यद्] यदि। अगर। (पुं० हिं)
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जों जों  : अव्य=ज्यों ज्यों।
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जों तों  : अव्य०=ज्यों त्यों।
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जोअना  : स०=जोवना (देखना)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोइ  : स्त्री० [सं० जाया] पत्नी। भार्या। स्त्री। स्त्री० [?] बड़ा खेमा या तंबू। डिं०)। सर्व० =जो।
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जोइगर  : पुं० [हिं० जोइ+फा० गर] वह जिसकी पत्नी जीवित या वर्त्तमान हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोइनि  : स्त्री० [सं० योनि] १. योनि। २. खान।
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जोइसी  : पुं०=ज्योतिषी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोई  : स्त्री० [सं० जाया] पत्नी। स्त्री०। उदाहरण–तुमहिं पुरुष हमही तोर जोई।–कबीर। अव्य०=जो ही। स्त्री० [फा०] १. ढूँढ़ने की क्रिया या भाव। जैसे–ऐबजोई। २. अनुकूल प्रसन्न या सन्तुष्ट रखने की क्रिया या भाव। जैसे–दिलजोई।
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जोउ  : सर्व० अव्य०=जो।
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जोंक  : स्त्री० [सं० जलौका] १. पानी में रहनेवाला एक प्रसिद्ध कीड़ा जो अन्य जीवों के शरीर में चिपक कर उनका रक्त चूसता है। क्रि० प्र०–लगवाना।–लगना। ऐसा व्यक्ति जो अपना काम निकालने के लिए बुरी तरह से पीछे पड़ता हो। ३. सेवार की बनी हुई चीनी साफ करने की एक प्रकार की चलनी या छाननी।
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जोक  : स्त्री०=जोंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोंकी  : स्त्री० [हिं० जोंक] १. जोंक नामका कीड़ा। २. वह जलन जो पशुओं के पेट में पानी के साथ उतर जाने के कारण होती है। ३. पानी में रहनेवाला एक प्रकार का लाल कीड़ा। ४. लोहे का एक प्रकार का काँटा जो तख्तों या पत्थरों को मजबूती के साथ जोड़ने के काम में आता है ५. चित्र कला में ऐसी फंदेदार या लहरिएदार बेल जो देखने में जोंक की तरह जान पड़ती हो।
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जोख  : स्त्री० [हिं० जोखना] जोखने अर्थात् तौल या वजन करने की क्रिया या भाव।
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जोखता  : स्त्री०=जोषिता (पत्नी)।
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जोखना  : स० [सं० जोषण] १. तौलना। वजन करना। २. किसी बात पर मन ही मन अच्छी तरह विचार करके उसका ऊँच-नीच या भला–बुरा समझना।
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जोखम  : स्त्री०=जोखिम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोखा  : पुं० [हिं० जोखना] १. जोखने अर्थात् तौलने की क्रिया, भाव। जैसे–लेखा-जोखा स्त्री० [सं० योषा] स्त्री।
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जोखाई  : स्त्री० [ हिं० जोखना] जोखने या तौलने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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जोखिउँ  : स्त्री०=जोखिम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जोखिता  : स्त्री० [सं० योषिता] पत्नी। स्त्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जोखिम  : स्त्री० [सं० जोषण] [वि० जोखिमी] १. ऐसी स्थिति जिसमें लाभ या हित की संभावना तो हो, पर साथ ही अहित, संकट या हानि की संभावना भी कम न हो। जैसे–जिस काम में जोखिम हो, उसमें बहुत सोच-सझकर हाथ डालना चाहिए। क्रि० प्र०–उठाना।–में डालना या पड़ना।–सहना। पद–जान जोखिम=ऐसी स्थिति जिसमें प्राण तक जाने की संभावना हो। जोखिम धनी–सिर=एक पद जिसका प्रयोग व्यापारिक क्षेत्रों में माल बेचने या भेजने के समय लिखा-पढ़ी में यह सूचित करने के लिए होता है कि यदि रास्ते में हानि होगी तो उसका जिम्मेदार खरीदने वाला होगा। (ओनर्स रिस्क)। २. अर्थ-शास्त्र में, ऐसा काम जिसके लिए बहुत अधिक धन-शक्ति तथा साहस की अपेक्षा हो, फिर भी जिसकी सिद्धि अनिश्चित हो। झोंकी। (देखें)। ३. कोई ऐसा बहुमूल्य पदार्थ जिसके नष्ट होने या हारे जाने की संभावना हो। जैसे–जोखिम (गहने, धन आदि) साथ में ले चलना ठीक नहीं है।
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जोखिमी  : वि० [हिं० जोखम] जिसमें कोई जोखिम हो या हो सकती हो। जिसमें बहुत कुछ अहित, संकट या हानि की संभावना हो। जोखिम का। जैसे–जोखिमी काम, जोखिमी माल।
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जोखुआ  : पुं० [हिं० जोखना+उआ (प्रत्यय)] माल जोखने या तौलने वाला। बया। वि० जोखा या तौला हुआ। जैसे–जोखुआ अनाज।
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जोखुवा  : पुं०=जोखुआ।
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जोखों  : स्त्री=जोखिम।
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जोंग  : पुं० [√जुंग् (वर्जन)+अप्, पृषो० सिद्धि] अगर या अगरु नाम की सुंगधित लकड़ी।
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जोग  : पुं० [सं० योग] १. एक प्रकार का गीत जो कन्या और वर दोनों पक्षों में विवाह से पहले गाये जाते हैं, जिनमें प्रायः वैवाहिक विधियों का वर्णन होता है। २. जादू। टोना। (पूरब)। मुहावरा–जोग करना=जादू या टोना करना। ३. दे ‘योग’। ४. दे० ‘जोड़’। वि० ‘योग्य’। अव्य० पुरानी चाल की चिट्ठी पत्रियों में, के लिए। को। जैसे–पत्री भाई किशनचन्द्र जोग लिखा काशी से।–
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जोंगट  : पुं० [सं०√जुंग्+अटन्] गर्भिणी स्त्री की इच्छा। दोहद।
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जोगड़ा  : पुं० [हिं० जोगी+डा (प्रत्यय)] १. जोगी। (उपेक्षासूचक)। २. बना हुआ जोगी। नकली या बनावटी योगी।
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जोगंधर  : पुं० [सं० योगधर] शत्रु के अस्त्रों से आत्म-रक्षा करने की एक प्राचीन युक्ति।
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जोगन  : स्त्री०=जोगिन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोगनिया  : स्त्री०=जोगिनिया।
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जोगनैर  : पुं० [सं० योगिनीपुर] दिल्ली। उदाहरण–जोगनैर जोतिग कहै, प्रभुस् होइ प्रथुराव।–चंद्रवरदाई।
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जोगमाया  : स्त्री=योगमाया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोगवना  : स० [सं० योग+अवना (प्रत्यय)] १. योगियों का योगाभ्यास करना। २. उक्त के आधार पर कोई कठिन काम परिश्रम तथा यत्नपूर्वक करना। ३. यत्नपूर्वक कोई चीज सम्हाल कर रखना। ४. एकत्र या संचित करना। ५. किसी का आदर या सम्मान करने के लिए उसकी अच्छी बुरी सभी तरह की बातें मानना, सहना या सुनना। ६. पूरा करना। ७. परखना। ८. प्रतीक्षा करना। रास्ता देखना।
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जोगवाट  : पुं=जोगौटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोगसाधन  : पुं० [सं० योगसाधन] १. तपस्या। २. परिश्रम पूर्वक किया जानेवाला कोई काम।
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जोगा  : वि० [सं० योग्य] किसी काम के लिए उपयुक्त, योग्य या लायक। यौ० के अन्त में। (स्त्रियाँ) जैसे–मरने–जोगा। पुं० [देश०] अफीम छानने पर उसमें से निकलनेवाली मैल। खूदड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोगाड़  : पुं०=जुगाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोगानल  : स्त्री० [सं० योगानल] वह अग्नि, जो योगबल से उत्पन्न की गई हो।
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जोगि  : स्त्री०=योगिन।
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जोगिणी  : स्त्री=योगिनी।
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जोगिंद  : पुं० १.=योगीन्द्र। २. महादेव। (डिं०)
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जोगिन  : स्त्री० [सं० योगिनी] १. योग साधनेवाली विरक्त स्त्री। २. जोगियों या योगियों की तरह आचार-विचार गेरुए वस्त्र पहनने और नियम, व्रत आदि का पालन करते हुए संयमपूर्वक रहनेवाली स्त्री। विशेषतः किसी प्रकार के आराधन या प्रेम से युक्त उक्त प्रकार की स्त्री। ३. एक प्रकार की रण देवी। ४. पिशाचिनी। ५. एक प्रकार का झाड़ीदार पौधा जिसमें नीले रंग के फूल लगते हैं। ६. दे.योगिनी।
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जोगिनिया  : स्त्री० [सं० जोगिन]=जोगिन।
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जोगिया  : वि० [हिं० जोगी+इया (प्रत्यय)] १. जोगी संबंधी। जोगी का। जैसे–जोगिया भेस। २. योगियों के वस्त्रों के रंग का। मटमैलापन लिए हुए। गेरुआ। गैरिक। जैसे–जोगिया कपड़ा पुं० १. गेरू के रंग की तरह का एक प्रकार का लाल रंग जो कुछ मटमैलापन लिए हुए रहता है। २. जोगीड़ा। ३. जोगी। ४. संपूर्ण जाति का एक राग जो प्रातः काल गाया जाता है।
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जोगी  : पुं० [सं० योगी] १. नाथ पंथी जंगम शैव साधु। २. इस वर्ग के कुछ गृहस्थ जो प्रायः सारंगी पर भजन गाकर भीख माँगते हैं। ३. संपूर्ण जाति का एक राग जो प्रातः काल गाया जाता है। जोगिया राग। ४. रहस्य संप्रदाय में मन। ५. दे० ‘योगी’।
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जोगीड़ा  : पुं० [हिंजोगी+डा (प्रत्यय)] १. होली के दिनों में गाया जानेवाला एक प्रकार का गँवारू गाना। २. उक्त गीत गाने–बजानेवाला व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का दल।
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जोगींद्र  : पुं०=योगींद्र।
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जोगीश्वर  : पुं०=योगेश्वर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोगेश्वर  : पुं०=योगेश्वर।
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जोगोटा  : वि०=जोगड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोगौटा  : पुं० [सं० योगपट्ट] १. जोगी। २. योगियों की वह चादर जिसे वे योग साधना करते समय सिर से पैर तक ओढ़ते हैं। ३. जोगियों की झोली।
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जोग्य  : वि० [भाव० जोग्यता] योग्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोजन  : पुं०=योजन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोट  : पुं० [सं० योटक] १. जोड़ा। जोड़ी। २. संगी। साथी। ३. झुंड। ४. समूह। उदाहरण–बाहर जुन्हाई जगी जोतिन की जोट ही।–देव। वि० बराबरी का।
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जोटा  : पुं० [सं० योटक] १. दो चीजों का जोड़ा। २. संगी। साथी। ३. पशुओं की पीठ पर लादा जानेवाला दोहरा थैला या बोरा। गोन। ४. दे० ‘जोड़ा’। वि० [स्त्रीजोटी] १. बराबरी का। २. साथ रहने या होनेवाला।
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जोटिंग  : पुं० [सं० जोट्√इग् (प्रकाशित करना)+अच्, पृषो] शंकर। शिव।
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जोटी  : स्त्री०=जोड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोड़  : पुं० [सं० जुड़] १. जुड़ने या जुड़े होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. दो वस्तुओं का आपस में इस प्रकार जुड़ा, मिला या सटा होना कि वे या तो एक हो जायँ या देखने में एक जान पड़े। ३. वह संधि या स्थान जहाँ दो या अधिक चीजें आपस में मिली या सटी हुई हों। जैसे–हड्डियों का जोड़, पहुँचे और बाँह का जोड़, तख्तों या पत्थरों में का जोड़। क्रि० प्र०–उखड़ना–बैठाना।–लगाना। ४. वह अंग या अंश जो किसी दूसरी चीज के साथ जोड़ा या उसमें लगाया गया हो। ५. दो या अधिक चीजों का आपस में जोड़ने या मिलाने पर उनके संधि स्थान में दिखाई देनेवाला चिन्ह या लक्षण। जैसे–कुरसी के हत्थे में का जोड़ साफ दिखाई पड़ता है। पद–जोड़-तोड़। (दे०) ६. ऐसा मिलान या संयोग जो उपयुक्त, तुल्य अथवा सुन्दर जान पड़े। जैसे–उन दोनों पहलवानों का जोड़ तो अच्छा है। ७. उक्त के आधार पर होनेवाली बराबरी। गुण, धर्म आदि के विचार से होनेवाली समानता। जैसे–उस लड़के के साथ तुम्हारा क्या जोड़ है। क्रि० प्र०–बैठाना। मिलना। ८. एक ही तरह की अथवा साथ-साथ काम में आनेवाली दो या अधिक चीजें। जैसे–एक जोड़ कपड़ा (अर्थात् कुरता, टोपी और धोती अथवा कमीज, या कोट, टोपी और पायजामा) भी साथ रख लो। ९. दे० ‘जोड़ा’। १॰. गणित में, दो या दो से अधिक अंकों, संख्याओं आदि के जुड़े हुए होने या जोड़ने की क्रिया, अवस्था या भाव। ११. इस प्रकार जोड़ने से प्राप्त होनेवाली संख्या। १२. धन आदि का संग्रह।
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जोड़-तोड़  : पुं० [हिं०] १. कभी जोड़ने और कभी तोड़ने की क्रिया या भाव। २. कौशल या धूर्त्तता से की जानेवाली ऐसी युक्तियाँ जिनसे कहीं कोई क्रम या परम्परा जुड़ती और कहीं टूटती हो। कार्य साधन के लिए चालाकी और दाँव-पेंच से मिली हुई कार्रवाई। क्रि० प्र०–बैठाना।–लगाना।
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जोड़ती  : स्त्री० [हिं० जोड़+ती (प्रत्यय)] जोड़ (गणित का)।
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जोड़न  : स्त्री० [हिं० जोड़ना] १. जोड़ने की क्रिया या भाव। २. वह दही या और कोई खट्टा पदार्थ जो दूध में उसे जमाकर दही बनाने के लिए मिलाया जाता है। जामन।
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जोड़ना  : स० [सं०√जुड्, हिं० जोड़+ना (प्रत्य०)] १. दो या अधिक चीजों को किसी क्रिया या युक्ति से आपस में इस प्रकार साथ बैठाना, लगाना या सटाना कि वे या तो एक हो जायँ या एक के समान काम दें और जान पड़े। अच्छी तरह दृढ़तापूर्वक किसी के साथ मिलाना। जैसे–लकड़ी के तख्ते और पाये जो कर कुरसी या मेज बनाना, कपड़े के टुकड़े जोड़कर कुरता या चादर बनाना, लेई से फटे हुए कागज या पुस्तक के पन्ने जोड़ना। २. किसी चीज में का टूटा हुआ अंग या अंश उसमें फिर से इस प्रकार जडना, बैठाना या लगाना कि वह चीज फिर से पूरी हो जाय और पहले की तरह काम देने लगे। जैसे–पैर या हाथ की टूटी हुई हड्डी जोड़ना। ३. किसी चीज के भिन्न-भिन्न या संयोजक अंगों को इस प्रकार क्रम से यथा-स्थान बैठाना, रखना या लगाना कि वह चीज पूरी तरह तैयार होकर अपना काम करने लगे। जैसे–घड़ी या पुरजे या छापे के अक्षर जोड़ना दीवार बनाने के लिए ईंटे, पत्थर आदि (मसाले से) जोड़ना। ४. पहले से जो कुछ रहा हो अथवा मूलतः जो कुछ हो, उसमें अपनी ओर से कुछ और मिलाना या लगाना। वृद्धि करना। बढ़ाना। जैसे–उसने वहाँ का हाल कहते समय अपनी तरफ से भी कई बातें जोड़ दी थी। ५. एक ही तरह की बहुत सी चीजें इकट्ठी करके एक केन्द्र में लाना या एक स्थान पर रखना। एकत्र या संगृहीत करना। जैसे–धन-संपत्ति जोड़ना, संग्रहालय के लिए चित्र, पुस्तकें, मूर्तियाँ आदि जोड़ना। उदाहरण–कौड़ी-कौड़ी माया जोड़ी,जोड़ जमी में धरता है। ६. गणित में दो या अधिक संख्याओं का योग-फल प्रस्तुत करना। मीजान लगाना। ७. लिखना-पढ़ना सीखने अथवा साहित्यिक रचना का अभ्यास करने के लिए अक्षर, पद, वाक्य आदि उपयुक्त क्रम से बैठाना, रखना या लिखना। जैसे–अक्षर जोड़कर शब्द बनाना, शब्द जोड़कर कविता का चरण या पंक्ति बनाना। ८. किसी के साथ किसी प्रकार का संबंध स्थापित करना। जैसे–किसी के साथ नाता या मित्रता जोड़ना। ९. अग्नि, दीपक आदि के संबंध में, जलनेवाली चीज के साथ अग्नि का संयोग कराना। जैसे–रसोई बनाने के लिए आग जोड़ना, प्रकाश करने के लिए दीआ जोड़ना। १॰. गाड़ी, हल आदि के संबंध में, घोड़े या बैल लाकर आगे बाँधना। जोतना। (क्व०) जैसे–तुरंत रथ जोड़ा गया और वे चल पड़े।
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जोड़ना।  :
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जोड़ला  : वि=जुड़वाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोडवाँ  : वि०=जुड़वाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोड़वाई  : स्त्री० [हिं० जोड़वाना] जोड़वाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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जोड़वाना  : स० [हिं० जोड़ना का प्रे०] जोड़ने का काम दूसरे से कराना। किसी से कुछ जोड़ने में प्रवृत्त करना।
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जोड़ा  : पुं० [हिं० जोड़ना] [स्त्री० जोड़ी] १. प्रायः एक साथ रहने, साथ-साथ काम आने या साथ रहने पर उपयुक्त जान पड़ने वाले दो पदार्थ या व्यक्ति। जोड़ी। युग्म। जैसे–धोतियों का जोड़, हाथ में पहनने के कड़ों या पहुँचियों का जोड़ा। क्रि० प्र०–मिलाना।–लगाना। २. एक साथ पहने जानेवाले दो या अधिक कपड़े। जोड़। पद–जोड़ा–जामा। (दे०)। ३. एक ही प्रकार के जीवों, पशु-पक्षियों आदि के नर और मादा का युग्म। जैसे–वर और कन्या का जोड़ा, शेर और शेरनी का जोड़ा, बिच्छुओं और साँपों का जोड़ा। मुहावरा–जोड़ा खाना=पशु-पक्षियों का मैथुन या संभोग करना। ४. दोनों पैरों में पहनने के दोनों जूते। ५. वह जो किसी दूसरे की बराबरी या समता का हो। जोड़। ६. दे० ‘जोड़’।
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जोड़ा-जामा  : पुं० [हिं० जोड़ा+फा० जामः] १. विवाह के समय वर के पहनने के सब कपड़े जो प्रायः उसकी ससुराल से आते हैं। २. पहनने के वे कपड़े जो राजाओं आदि से लोगों को पुरस्कार स्वरूप मिलते थे। खिलअत।
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जोड़ाई  : स्त्री० [हिं० जोड़ना+आई (प्रत्यय)] १. जोड़ने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. दीवार बनाने के समय क्रम से रखने या लगाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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जोड़ासंदेश  : पुं० [देश०] छेने की एक बँगला मिठाई।
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जोड़ी  : स्त्री० [हिं० जोड़ा] १. एक ही आकार-प्रकार, गुण और धर्मवाली दो चीजें। जैसे–मुगदरों की जोड़ी। २. संग-साथ रहनेवाले दो जीवों विशेषतः एक ही जाति के एक नर और एक मादा (जीवों) की सामूहिक संज्ञा। जैसे–बैलों की जोड़ी, भैसों की जोड़ी। ३. वह गाड़ी जिसे दो घोड़े या दो बैल खींचते हैं। जैसे–पहले के रईस जोड़ी पर निकला करते थे। ४. एक साथ रहनेवाले दो मुगदर जो कसरत करने के समय दोनों हाथों में पकड़ कर घुमाये जाते हैं। क्रि० प्र०–भाँजना। ५. एक में बँधी हुई कटोरियों के तरह की वे दोनों चीजें जो गाने-बजाने के समय ताल देने के काम आती हैं। मंजीरा। क्रि० प्र०–बजाना। ६. दे० ‘जोड़’।
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जोड़ी की बैठक  : स्त्री० [हिं० जोड़ी=मुगदर+बैठक=कसरत] वह बैठकों (कसरत) जो मुदगरों की जोड़ी पर हाथ टेक कर की जाती है।
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जोड़ीदार  : पुं० [हिं० जोड़ा+फा० दार] वह जो किसी के साथ उसकी बराबरी का होकर रहता हो। वि० मुकाबले का।
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जोड़ीवाल  : पुं० [हिं० जोड़ा+वला (प्रत्यय)] १. गाने-बजानेवालों के साथ जोड़ी या मंजीरा बजानेवाला। २. दे० ‘जोड़ीदार’।
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जोड़ुआ  : पुं० [हिं० जोड़ा+उआ (प्रत्यय)] पैर में पहनने का चाँदी का एक प्रकार का सिकड़ीदार गहना। वि०=जुड़वाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोड़ू  : स्त्री०=जोरू।
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जोत  : स्त्री० [हिं० जोतना] १. जोतने की क्रिया या भाव। २. वह विशिष्ट अधिकार जो किसी असामी को कोई जमीन जोतने-बोने पर उसके संबंध में प्राप्त होता है। क्रि० प्र०–
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जोतखी  : पुं०=ज्योतिषी।
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जोतगी  : पुं०=ज्योतिषी।
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जोतदार  : पुं० [हिं० जोत+दार] वह असामी जो दूसरों की भूमि पर खेतीबारी करता हो।
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जोतना  : स० [सं० योजन या युक्त, प्रा० जुत्त+ना] १. कोई चीज घुमाने या चलाने के लिए उसके आगे कोई पशु लाकर बाँधना। जैसे–एक्के, गाड़ी आदि में घोड़ा (या घोड़े) अथवा कोल्हू, मोट, रथ आदि में बैल जोतना। विशेष–इस क्रिया का प्रयोग स्वयं उन यानों के संबंध में भी होता है जिनके आगे पशु बाँधे जाते हैं (जैसे–एक्का, गाड़ी या रथ जोतना) और उन पशुओं के संबंध में भी होता है जो उनके बाँधे जाते है (जैसे–घोड़ा या बैल जोतना)। २. उक्त के आधार पर किसी को जबरदस्ती या विवश करके किसी काम में लगाना। जैसे–शिक्षक ने लड़कों को भी उस काम में जोत दिया। ३. खेत को बोये जाने के योग्य बनाने के लिए उसमें हल चलाना। ४. एक दम से, ऊपर से या कहीं से कोई चीज या बात लाकर उसी का क्रम चलाने लगना। जैसे–तुम अपनी ही जोतते रहोगे या दूसरे किसी को भी कुछ करने (या कहने) दोगे।
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जोतनी  : स्त्री० [हिं० जोतना] जुए में लगी हुई वह रस्सी जो जोते जाने वाले पशु के गले में बाँधी जाती है।
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जोतसी  : पुं=ज्योतिषी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोता  : पुं० [हिं० जोतना] १. जुआँठे में बँधी हुई वह रस्सी जिसमें बैलों की गरदन फँसाई जाती है। २. करघे में दोनों ओर बँधी हुई वह रस्सियाँ जो ताने के दोनों सिरों पर सूतों को यथा स्थान रखने के लिए बँधी रहती है। ३. वह बड़ी धरन या शहतीर जो खंभों या उनकी पंक्तियों पर इसलिए रखते है कि उसके ऊपर और इमारत उठाई जा सके। वि० जोतनेवाला (यौ० के अंत० में)। जैसे–हल जोता–हल जोतनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=किसान (खेतिहर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोताई  : स्त्री० [हिं० जोतना+आई (प्रत्यय)] जोते जाने या जोतने की अवस्था, क्रिया भाव या मजदूरी।
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जोतांत  : स्त्री० [हिं० जोतना] खेत में मिट्टी की ऊपरी तह।
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ज़ोतात  : स्त्री=जोतांत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोताना  : स० [हिं० जोतना का प्रे.रूप] जोतने का काम किसी दूसरे से कराना।
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जोति  : स्त्री० [सं० ज्योति] १. किसी देवी-देवता के सामने जलाया जानेवाला दीया। जोत। क्रि० प्र०–जलाना। २. दे० ज्योति। स्त्री० [हिं० जोतना] ऐसी भूमि जो जोती-बोई जाती हो या जोती-बोई जा सकती हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोतिक  : पुं=ज्योतिषी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोतिख  : पुं=ज्योतिष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोतिखी  : पुं०=ज्योतिषी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोतिलिंग  : पुं०=ज्योतिर्लिंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोतिवंत  : वि० [सं० ज्योतिवान्] १. ज्योति अर्थात् प्रकाश से युक्त। प्रकाशमान्। २. चमकदार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जोतिष  : पुं०=ज्योतिष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोतिषी  : पुं०=ज्योतिषी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोतिस  : पुं०=ज्योतिष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोतिहा  : पुं० [हिं० जोतना+हा (प्रत्य०)] १. खेत जोतनेवाला मजदूर। २. कृषक। खेतिहर।
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जोती  : स्त्री० [हिं० जोतना या जोत] १. घोड़े, बैल आदि की लगाम। रास। २. चक्की में की वह रस्सी जो उसके बीचवाली कीली और हत्थे में बँधी रहती है। ३. वह रस्सी जो खेत सींचने की दौरी में बँधी रहती है। ४. वह रस्सी जिससे तराजू के पल्ले बँधे रहते हैं। स्त्री०=ज्योति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोत्स्ना  : स्त्री०=ज्योत्स्ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोंदरी  : स्त्री=जोंधरी (ज्वार)।
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जोध  : पुं=योद्धा।
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जोधन  : स्त्री० [हिं० योग+धन] वह रस्सी जिससे जूए के ऊपर और नीचे वाले भाग आपस में बँधे रहते हैं।
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जोंधरा  : पुं० [हिं० जोंधरी] बड़े दानोंवाली ज्वार।
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जोंधरी  : स्त्री० [सं० चूर्ण] एक तरह की ज्वार जिसके दाने अपेक्षया कुछ छोटे होते हैं।
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जोधा  : पुं०=योद्धा।
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जोधार  : पुं० [हिं० जोधा] योद्धा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोंधैया  : स्त्री० [सं० ज्योत्स्ना] चंद्रमा की चाँदनी। चंद्रिका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जोन  : स्त्री०=योनि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोनरी  : स्त्री०=जोन्हरी (ज्वार)।
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जोना  : स० [हिं० जोवना] १. देखना। २. प्रतीक्षा करना। बाट देखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोनि  : स्त्री०=योनि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोन्ह  : स्त्री० [सं० ज्योत्स्ना] चंद्रमा की चाँदनी। चंद्रिका। ज्योत्स्ना।
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जोन्हरी  : स्त्री [?]=जोंधरी (ज्वार)।
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जोन्हाई  : स्त्री० [सं० ज्योत्स्ना]=जोन्ह।
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जोन्हार  : पुं०=जोंधरी (ज्वार)।
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जोन्हि  : स्त्री०=जुन्हाई (चाँदनी)।
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जोप  : पुं०=यूप (यज्ञ का)।
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जोपै  : अव्य० [हिं० जो+पर] १. अगर। यदि। २. यद्यपि।
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जोफ़  : पुं० [अ०] १. वृद्धावस्था। बुढ़ापा। २. शारीरिक दुर्बलता। कमजोरी। जैसे–जिगर, दिमाग या मेदे का जोफ।
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जोबन  : पुं० [सं०] १. युवा होने की अवस्था या भाव। यौवन। २. युवावस्था में होनेवाली तेज, लावण्य और सौन्दर्य मिश्रित शारीरिक गठन। जैसे–पेड़ या पौधे में जोबन आना। मुहावरा–जोबन पर आना=पूर्ण यौवनावस्था प्राप्त करना। ३. युवा स्त्रियों में स्पष्ट दिखाई देनेवाला आकर्षक और मोहक रूप या रौनक। सौन्दर्य। क्रि० प्र०–आना।–उतरना।–चढ़ना।–ढलना। मुहावरा–(किसी का) जोबन लूटना=किसी स्त्री के साथ भोग-विलास करना। (बाजारू)। ४. स्त्रियों के कुच। स्तन। ५. एक प्रकार का पौधा और उसका फूल।
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जोबना  : स०=जोवना। पुं०=जोबन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोम  : पुं० [अ० जोम] १. उमंग। उत्साह। २. आवेश। जोश। ३. शक्ति आदि का अभिमान। घमंड। क्रि० प्र०–दिखाना। ४. तीक्ष्णता। तीव्रता। पुं० [?] १. झुंड। २. समूह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोय  : स्त्री० [सं० जाया] १. जोरू। पत्नी। २. औरत। स्त्री। सर्व० १.=जो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) २.=जिस।
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जोयण  : पुं०=योजन।
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जोयना  : स० [सं० ज्योति] आग, दीया, आदि जलाना। उदाहरण–दीपक जोय कहा करूँ सजनि पिय परदेश रहावे।–मीराँ। स०=जोबना (देखना)।
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जोयसी  : पुं०=ज्योतिषी।
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जोर  : पुं० [फा० ज़ोर] [वि० जोरदार, जोरावर] १. शरीर का बल या शक्ति। ताकत। मुहावरा–(किसी चीज पर) जोर डालना या देना=शरीर का बार आश्रित या स्थिर करना। २. शारीरिक बल या शक्ति के फल-स्वरूप दिखाई देनेवाला उत्साह तेज, दृढ़ता, सामर्थ्य आदि। ओज। मुहावरा–किसी काम के लिए जोर करना, बाँधना, मारना या लगाना=विशेष शक्ति लगाकर प्रयत्न करना। जैसे–तुम लाख जोर मारो पर होगा कुछ नहीं। ३. आर्थिक, मानसिक, शारीरिक या और किसी प्रकार की योग्यता या सामर्थ्य। जैसे–धन का जोर, विद्या का जोर आदि। ४. कोई ऐसी क्रियात्मक, प्रबल शक्ति जो अपना गुण, प्रभाव या फल स्पष्ट दिखाती हो। जैसे–दवा नशे या बीमारी का जोर। मुहावरा–जोर करना या बाँधना=उग्र, उत्कट या विकट रूप धारण करना। जैसे–शहर में आजकल हैजे ने जोर बाँधा है। ५. अति, वेग आदि के रूप में दिखाई देनेवाली क्रिया की प्रबलता। जैसे–नदी में पानी के बहाव का जोर, आँधी या तूफान के समय हवा का जोर। पद–जोरों का-बहुत उग्र, प्रबल या विकट। जैसे–जोरों की वर्षा। ६. किसी कृति में दिखाई देनेवाली रचना कौशल, विशिष्ट दक्षता या योग्यता अथवा आकर्षक, उत्साहवर्धक या मनोरंजन तत्त्व। ओज। दम। जैसे–कलम, कविता या कहानी का जोर। ७. अनुभूति, आग्रह तर्क आदि में दिखाई देनेवाला बल या शक्ति। जैसे–किसी बात पर दिया जानेवाला जोर, खून या मुहब्बत का जोर। ८. उत्कर्ष, प्रबलता, वृद्धि आदि की ओर होनेवाली प्रवृत्ति। मुहावरा–जोर में आना या जोरों में होना=जल्दी-जल्दी बढ़ना या तेज होना। जैसे–(क) अब यह पेड़ जोरों में आया है, अगले साल खूब फलेगा। (ख) आज-कल शहरों में चोरियाँ और देहातों में डाके खूब जोरों पर है। ९. ऐसा आधार या साधन जिससे किसी को कुछ विशेष बल या साहस प्राप्त हो। सहारा। जैसे–उनकी यह सारी उछल-कूद राजकीय अधिकारियों के जोर पर है। १॰. अधिकार। वश। ११. कसरत। व्यायाम। जैसे–जैसे–अखाड़े में लड़के जोर करने जाते हैं। १२. किसी अंग से अधिक अथवा अनुचित रूप से काम लिए जाने के फलस्वरूप होनेवाला हानिकारक परिणाम या प्रभाव। जैसे–आँखों या आँतों पर जोर पड़ना। १३. शतरंज के खेल में, वह स्थिति जिसमें किसी मोहरे को मुफ्त में या व्यर्थ मारे जाने से रोकने के लिए कोई और मोहरे भी किसी तरफ लगा रहता है। जैसे–घोड़े पर हाथी का जोर है, हमारा घोड़ा मारोगे तो तुम्हारा वजीर मरेगा। मुहावरा–जोर पहुँचाना=उक्त के आधार पर ऐसा काम करना जिससे किसी पर दबाव या प्रभाव पड़े। जैसे–अफसर या हाकिम पर जोर पहुँचाना। वि० अपने कार्य, फल आदि के विचार से असाधारण तेज या बहुत अधिक। काफी। खूब। जैसे–चना जोर गरम। उदाहरण–तौ मै बहुत कठोर जोर इन चने चबाये।–दीनदयालगिरी। पुं० =जोड़ (जोड़ी या युग्म)।
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जोर शोर  : पुं० [फा०] किसी काम को पूरा करने के लिए लगाया जानेवाला जोर और दिखाया जानेवाला उत्साह तथा प्रयास।
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जोरई  : स्त्री० [हिं० जोड़] १. एक ही में बँधे हुए दो बाँस जिसके सिरे पर मोटी रस्सी का फंदा लगा रहता है। २. हरे रंग का एक प्रकार का कीड़ा।
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जोरदार  : वि० [फा०] १. (व्यक्ति) जिसमें जोर अर्थात् बल हो। २. (बात) जो तत्त्वपूर्ण या प्रभावशाली हो।
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जोरन  : स्त्री०=जोड़न। (देखें)।
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जोरना  : स० १=जोड़ना। २. =जोतना।
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जोरा  : पुं०=जोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोरा जोरी  : स्त्री० [फा० जोर] किसी से हठात् कुछ लेने या छीन लेने के लिए किया जानेवाला प्रयत्न। जबरदस्ती। क्रि० वि० बलपूर्वक। बलात्।
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जोराजोर  : पुं०=जोर-शोर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोरावर  : वि० [फा०] १. बलवान्। २. जबरदस्त। शक्तिशाली।
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जोरावरी  : स्त्री० [फा०] १. जोरावर या बलवान होने की अवस्था, गुण या भाव। २. जबरदस्ती। धींगा-धींगी।
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जोरिल्ला  : पुं० [देश०] एक प्रकार का गंध बिलाव।
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जोरी  : स्त्री० १.=जोरावरी। २.=जोड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोरू  : स्त्री० [हिं० जोड़ा] पत्नी। भार्या। स्त्री। पद–जोरू का गुलाम=ऐसा व्यक्ति जो पत्नी के वश में रहकर उसके कहे अनुसार चलता हो। स्त्री-भगत। जोरू-जाँता–पत्नी, घर-गृहस्थी और बाल-बच्चे।
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जोल  : पुं० [?] झुंड। समूह। पुं०=जोर। (क्व०)
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जोलाह  : पुं=जुलाहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोलाहल  : स्त्री०=ज्वाला।
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जोलाहा  : पुं०=जुलाहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोली  : वि० [हिं० जोड़ी] १. वह जिसके साथ बहुत मेल-जोल हो। संगी। साथी। २. बराबरी का। समवयस्क। ३. प्रायः साथ रहनेवाला। जैसे–हम जोली। स्त्री० [हि० झोली] १. जाली या किरमिच का बना हुआ एक प्रकार का बिस्तर जिसके दोनों सिरों पर अदवान की तरह कई रस्सियाँ होती हैं और जो वृक्षों आदि में लटकाकर काम में लाया जाता है। २. वह रस्सी जो जहाजों के पाल चढ़ाने-उतारने के काम में आती है। (लश०) ३. रस्सों के सिरों को बाँधने के लिए उनमें लगाई जानेवाली एक प्रकार की गाँठ।
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जोलो  : पुं० [?] अंतर। फरक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जोवण  : पुं०=यौवन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जोवना  : स० [सं० जुषण=सेवन] १. ध्यानपूर्वक देखना। २. प्रतीक्षा करना। जोहना। 3. तलाश करना। ढूँढ़ना।
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जोवारी  : स्त्री० [देश०] मैना पक्षी की एक जाति।
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जोश  : पुं० [फा०] १. आँच या गरमी के कारण द्रव-पदार्थ में आनेवाला उफान। उबाल। क्रि० प्र०–खाना।–देना। २. वह मनोयोग जिसके कारण मनुष्य अकर्मण्यता, आलस्य या तटस्थता छोड़कर किसी कार्य में आवेश, उत्साह या तत्परतापूर्वक अग्रसर या प्रवृत्त होता है। क्रि० प्र०–आना।–दिलाना। पद–खून का जोश-प्रेम का वह वेग जो अपने कुल, परिवार या वंश के किसी मनुष्य के प्रति हो। जैसे–वह उसके खून का जोश ही या जिससे वह अपने लड़के (या भाई) को बचाने के लिए जलते हुए मकान में घुस गया था। जोश-खरोश-बहुत उत्सुकतापूर्ण आवेश या मनोवेग।
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जोशन  : पुं० [फा०] १. बाँह पर पहनने का एक प्रकार का गहना। २. कवच। जिरहबक्तर। (क्व०)
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जोशाँदा  : पुं० [फा०] १. ओषधियों, जड़ी-बूटियों आदि को उबालकर बनाया हुआ काढ़ा। २. एक में मिली हुई वे सब ओषधियाँ जिनका काढ़ा बनाया जाता है। जैसे–जोशाँदे की पुड़िया।
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जोशी  : पुं०=जोषी।
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जोशीला  : वि० [फा० जोश+ईला (प्रत्यय)] १. (व्यक्ति) जो जोश में हो अथवा जिसे बहुत जल्दी जोश आ जाता हो। २. जोश में आकर अथवा दूसरों को जोश में लाने के लिए कहा या किया हुआ। जैसे–जोशीला भाषण।
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ज़ोष  : पुं० [सं०√जुष् (प्रेम करना)+घञ्] १. प्रीति। प्रेम। २. आराम। सुख। ३. सेवा। स्त्री० [सं० योषा] १. पत्नी। भार्या। २. नारी। स्त्री। स्त्री०=जोख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जोषक  : पुं० [सं०√जुष्+ण्वुल-अक] सेवक।
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जोषण  : पुं० [सं०√जुष्+ल्युट्-अन] १. प्रेम। प्रीति। २. सेवा।
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जोषा  : स्त्री० [सं० जोष+टाप्] नारी। स्त्री।
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जोषिका  : स्त्री० [सं० जोषक+टाप्, इत्व] १. स्त्री। २. कलियों का गुच्छा।
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जोषिता  : स्त्री० [सं०=योषिता, पृषो० य को ज] औरत। नारी। स्त्री।
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जोषी  : पुं० [सं० ज्योतिषी] १. गुजराती, महाराष्ट्र आदि ब्राह्मणों की एक जाति का अल्ल। २. दे० ‘ज्योतिषी’।
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जोस  : पुं०=जोश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोसीड़ा  : पुं० [सं० ज्योतिषी] १. पुरोहित। उदाहरण–जोसिड़ा ने लाख बधाई रे।–मीराँ।
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जोह  : स्त्री० [हिं० जोहना] १. जोहने की क्रिया या भाव २. खोज। तलाश। ३. प्रतीक्षा। ४. कृपापूर्ण दृष्टि। कृपा-दृष्टि।
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जोहड़  : पुं० [देश०] कच्चा तालाब।
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जोहन  : स्त्री० [हिं० जोहना] जोहने की क्रिया या भाव। दे० ‘जोह’।
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जोहना  : स० [सं० जुषण=सेवन] १. अच्छी तरह ध्यानपूर्वक देखना। २. कुछ ढूँढ़ने या पाने के लिए इधर-उधर देखना। तलाश करना। ढूँढ़ना। ३. प्रतीक्षा करना। रास्ता देखना।
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जोहर  : पुं०=जोहड़। पुं०=जौहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोहार  : स्त्री० [सं० जुषण=सेवन] मुख्यतः क्षत्रियों में प्रचलित एक प्रकार का अभिवादन या नमस्कार। पुं०=जौहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जोहारना  : अ० [हिं०] प्रणाम या नमस्कार करना। अभिवादन करना।
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जौं  : अव्य० [सं० यदि] जो। यदि। अव्य०=ज्यों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जौ  : पुं० [सं० यव] १. एक प्रसिद्द पौधा जिसके दानों या बीजों को पीसकर बनाया हुआ चूर्ण रोटी बनाने के काम आता है। विशेष–यह पौधा गेहूँ के पौधे से बहुत कुछ मिलता-जुलता होता है। २. उक्त पौधे का दाना या बीज जो गेहूँ के दाने की अपेक्षा कुछ बड़ा तथा लंबोतर होता है। ३. ६ राई की एक तौल। ४. एक पौधा जिसकी लचीली टहनियों से टोकरे आदि बनते हैं। मध्य एशिया के प्राचीन खंडहरों में इसकी बनी हुई टट्टियाँ भी पाई गई है। अव्य० १.=जो (अगर या यदि)। २.=जब। सर्व०=जो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जौ केराई  : स्त्री० [हिं० जौ+केराव] केराव या मटर के साथ मिला हुआ जौ।
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जौक  : पुं० [तु० जूक=सेना] १. सेना। फौज। २. गोल। झुंड। ३. जत्था। मंडली। ४. पंक्ति श्रेणी। पुं० [अ० जौक] किसी वस्तु या वस्तु से प्राप्त होनेवाला आनंद या सुख। पद–जौक शौक=आनंद उत्साह और प्रसन्नता।
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जौंकना  : स० [अनु० झाँव-झाँव] १. रोष जतलाते हुए ऊँचे स्वर में बोलना। २. एकाएक बहुत जोर से चिल्ला या बोल उठना।
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जौख  : पुं०=जौक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जौगड़वा  : पुं० [जौगढ़=कोई प्रदेश] अगहन में तैयार होनेवाला एक प्रकार का धान।
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जौचनी  : स्त्री० [हिं० जौ+चना] एक में मिले हुए जौ तथा चने के दाने या बीज।
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जौंची  : स्त्री० [देश०] एक रोग जिसमें पौधों की बालें (जैसे–गेहूँ, चने आदि की बालें) काली पड़ कर मुरझा जाती हैं।
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जौजा  : स्त्री० [अ० जौजः] जोरू। पत्नी।
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जौजियत  : स्त्री० [फा० जौजियत] जौजा अर्थात जोरू या पत्नी होने की अवस्था या भाव।
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जौंड़  : स्त्री=जोंवड़ी (रस्सी)
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जौंड़ा  : पुं०=जौरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जौतुक  : पुं=यौतुक (दहेज)।
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जौधिक  : पुं० [सं० यौधिक] तलवार चलाने का एक ढंग, प्रकार या हाथ।
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जौन  : सर्व० [सं० यः हिं जो] जो। वि०=जो। पुं=यवन। स्त्री०=योनि।
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जौनाल  : स्त्री० [सं० यव+नाल] १. जौ के पौधे का डंठल और बाल। २. वह भूमि जिसमें जौ बोया जाता हो। ३. ऐसी भूमि जिसमें रबी की कोई फसल होती है
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जौन्ह  : स्त्री=जोन्ह (चाँदनी)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जौपै  : अव्य० [हिं० जौ+पै-पर] अगर। यदि।
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जौबन  : पुं०=जोबन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जौम  : पुं०=जोम (ताकत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जौर  : पुं० [फा०] अत्याचार जुल्म।
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जौंरा  : पुं०=जौरा।
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जौरा  : पुं० [हिं० जूरा] वह अनाज जो गाँवों में नाई, बारी आदि पौनियों को उनके काम के बदले में प्रति वर्ष दिया जाता है। पुं० [हिं० जेवड़ी] बड़ा रस्सा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=यमराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जौंरा-जौंरा  : पुं० [हिं० भुइँहरा] १. किले या राजमहल का वह तहखाना जिसमें प्राचीन काल में राजे, नवाब आदि सुरक्षा की दृष्टि से सोना, चाँदी, हीरे-मोती रखते थे। २. एकसाथ जन्म लेनेवाले दो बालक। ३. प्रायः या बराबर साथ रहनेवाले दो व्यक्ति।
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जौंरे  : क्रि० वि० [फा० जवार] निकट। समीप।
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जौलाई  : स्त्री०=जुलाई (महीना)।
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जौलाय  : वि० [?] बारह। (दलाल)
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जौवति  : स्त्री०=युवती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जौशन  : पुं०=जोशन।
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जौहड़  : पुं० [पहलवी आवे जोहर=पवित्र जल] १. वह गड्ढा जिसमें बरसाती जल जमा होता हो २. छोटा ताल।
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जौहर  : पुं० [फा० गौहर का अरबी रूप] १. कोई बहुमूल्य पत्थर। जैसे–नीलम, पन्ना, हीरा आदि। २. किसी बात, वस्तु या व्यक्ति में निहित वे तात्त्विक और मौलिक बातें जो उसके गुणों, दोषों, विशेषताओं, त्रुटियों आदि की परिचायक और सूचक होती है। जैसे–आदमी का जौहर विकट परिस्थितियों में, बहादुरों का जोहर लड़ाई के मैदान में अथवा सोने का जौहर उसे तपाने पर खुलते हैं। क्रि० प्र०–खुलना। ३. उक्त के आधार पर लोहे के धारदार औजारों, हथियारों आदि के संबंध में विशिष्ट प्रकार के चिन्ह या धारियाँ जो लोहे की उत्तमता की सूचक होती है। जैसे–तलवार या कटार का जौहर। ४. उत्तमता। श्रेष्ठता। पुं० [सं० जीव-हर] १. मध्य युग में राजपूत स्त्रियों की एक प्रथा जिसमें गढ़ या नगर के शत्रुओं से घिर जाने और अपने पक्ष की हार निश्चित होने पर वे एक साथ उद्देश्य से जलती चिता में कूद पड़ती थीं कि विजयी शत्रु हमारा अपमान तथा हम पर अत्याचार न करने पावें। ३. उक्त उद्धेश्य से बनाई हुई बहुत बड़ी चिंता। क्रि० प्र०–सँजोना।–सजाना। ३. आत्म सम्मान की रक्षा के लिए की जानेवाली आत्म-हत्या। पुं०=जौहड़।
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जौहरी  : पुं० [फा०] १. हीरा लाल आदि बहुमूल्य रत्न परखने और बेचनेवाला व्यापारी। २. किसी काम, चीज या बात के गुण-दोष आदि अच्छी तरह जानने और समझने वाला व्यक्ति। पारखी। जैसे–शब्दों का जौहरी।
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ज्ञ  : ज और ञ के योग से बना हुआ एक अक्षर जिसका उच्चारण हिंदी में ग्य, मराठी में, ‘द्न्य’ और गुजराती में ‘जन’ होता है। पुं० [सं०√ज्ञा (जाना)+क] १. त्रानी पुरुष। २. ब्रह्म। ३. बुध नामक ग्रह ४. मंगल ग्रह। ५. ज्ञान। बोध। वि० जाननेवाला। ज्ञाता। (शब्दों के अन्त में) जैसे–गणितज्ञ, दैवज्ञ, शास्त्रज्ञ आदि।
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ज्ञ-वार  : पुं० [सं० ष० त० ] बुधवार।
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ज्ञपित  : वि० [सं०√ज्ञा+णिच्+क्त, पुक्] १. जाना हुआ। ज्ञात। २. दूसरों को जतलाया या बतलाया हुआ। ४. तृप्त या संतुष्ट किया हुआ। ४. मरा हुआ। हत। ६. (शस्त्र) चोखा या तेज किया हुआ। ७. प्रशंसित या स्तुत।
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ज्ञप्ति  : स्त्री [सं०√ज्ञप् (जानना)+क्तिन्] १. कोई बात जानने या जनाने की क्रिया या भाव। २. जानी या जनाई हुई बात। ३. बुद्धि। ४. मार डालना। मारण। ५. तुष्टि या तृप्ति। ६. प्रशंसा। स्तुति। ७. जलाना।
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ज्ञा  : स्त्री० [सं० ज्ञ+टाप्] ज्ञान। जानकारी।
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ज्ञात  : भू० कृ० [सं०√ज्ञा+क्त] जिसके विषय में सब बातें मालूम हों। विदित। जाना हुआ। पुं०=ज्ञान।
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ज्ञात-नंदन  : पुं० [सं० ज्ञात√नंद (प्रसन्न होना)+णिच्+ल्यु-अन] जैनों के तीर्थकार महावीर स्वामी का एक नाम।
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ज्ञात-यौवना  : स्त्री० [ब० स०] साहित्य में वह मुग्धा नायिका जिसे अपने तारुण्य या यौवन के आगमन का स्पष्ट रूप से आभास या भान होने लगा हो।
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ज्ञातव्य  : वि० [सं०√ज्ञा+तव्यम्] १. जानने के योग्य। (कोई महत्त्वपूर्ण बात) २. जो जाना जा सके। बोध। गम्य। ३. जो दूसरों को जतलाया जाने को हो।
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ज्ञाता(तृ)  : वि० [सं०√ज्ञा+तृच्] [स्त्री० ज्ञात्री] जिससे किसी बात, विषय आदि का पूरा ज्ञान हो। जानकार।
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ज्ञाति  : पुं० [सं०√ज्ञा+क्तिच्] एक ही गोत्र या वंश में उत्पन्न मनुष्य। गोती। भाई-बंधु। बांधव। स्त्री०=जाति।
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ज्ञाति-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. गोत्रज का पुत्र। २. जैन तीर्थकार महावीर स्वामी का एक नाम।
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ज्ञातृत्व  : पुं० [सं० ज्ञा+त्व] अभिज्ञाता। जानकारी।
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ज्ञान  : पुं० [सं०√ज्ञा+ल्युट-अन] १. चेतन अवस्थाओं में इंद्रियों आदि के द्वारा बाहरी वस्तुओं, विषयों आदि का मन को होनेवाला परिचय या बोध। मन में होनेवाली वह धारणा या भावना जो चीजों या बातों को देखने मझने सुनने आदि से होती है। विशेष–न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चारों प्रणामों को ज्ञान का मूल कारण या स्रोत माना गया है। २. लोक-व्यवहार में, शरीर की वह चेतना=शक्ति जिसके द्वारा जीवों, प्राणियों आदि को अपनी आवश्यकताओं और स्थितियों के अनुसार अनेक प्रकार की अनुभूतियाँ और सब बातों की जानकारी या परिचय होता है। कुछ जानने, समझने आदि की योग्यता, वृत्ति या शक्ति। जैसे–(क) वनस्पतियों आदि में भी इतना ज्ञान होता है कि वे गरमी सरदी और दिन-रात का अनुभव करते हैं। (ख) उसकी चेष्टाओं से पता चलता है कि मरते समय उसका ज्ञान बना रहा। विशेष–प्राणि-विज्ञान के अनुसार, हमारे सारे शरीर में स्नायविक तंतुओं का जो जाल फैला हुआ है, उसी की कुछ क्रियाओं से हमें सब बातों और विषयों का ज्ञान होता है। चेतना दृष्टि से उक्त तंतुजाल का केंद्र हमारे मस्तिष्क में हैं, जहाँ सारा ज्ञान पहुँचकर एकत्र होता और हमसे सब प्रकार के काम कराता है। ३. किसी बात या विषय के संबंध में होनेवाली वह तथ्यपूर्ण, वास्तविक और संगत जानकारी या परिचय जो अध्ययन, अनुभव, निरीक्षण, प्रयोग आदि के द्वारा प्राप्त होता है। जैसे–किसी कला, भाषा या विद्या का ज्ञान। ४. आध्यात्मिक और धार्मिक क्षेत्रों में, आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक संबंध, वास्तविक स्वरूप आदि और भौतिक जगत संसार की अनित्यता, नश्वरता आदि से संबंध की होनेवाली अनुभूति, जानकारी या परिचय जो आवागमन के बंधन से छुड़ाकर मुक्ति या मोक्ष देनेवाला माना गया है। तत्त्व-ज्ञान, ब्रह्म-ज्ञान। मुहावरा–ज्ञान छाँटना या बधारना=अनावश्यक रूप से, बहुत बढ़-बढ़कर और केवल अपनी जानकारी या पांडित्य दिखाने के उद्देश्य से ज्ञान संबंधी तरह-तरह की बातें कहना।
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ज्ञान-कांड  : पुं० [ष० त०] वेद में तीन कांडों या विभागों में से एक जिसमें जीव और ब्रह्म के पारस्परिक संबंधों, स्वरूपों आदि पर विचार किया गया है।
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ज्ञान-कृत  : वि० [तृ० त०] (कार्य, व्यापार या पाप) जो ज्ञान रहते अर्थात् जान-बूझकर तथा सचेत अवस्था में किया गया हो।
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ज्ञान-गम्य  : वि० [तृ० त०] (विषय) जिसका ज्ञान प्राप्त किया जा सकता हो।
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ज्ञान-गोचर  : वि० [ष० त०] जो ज्ञान के द्वारा जाना जा सके।
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ज्ञान-चक्षु(स्)  : पुं० [ष० त०] १. अंतर्दृष्टि। २. बहुत बड़ा विद्वान्।
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ज्ञान-दा  : स्त्री० [सं० ज्ञानद+टाप्] सरस्वती।
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ज्ञान-दाता(तृ)  : वि० [ष० त०] ज्ञान कराने या देनेवाला। पुं० गुरु।
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ज्ञान-दात्री  : स्त्री० [ष० त०] सरस्वती।
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ज्ञान-पति  : पुं० [ष० त०] १. परमेश्वर। २. गुरु।
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ज्ञान-पिपासु  : वि० [ष० त०] जो ज्ञान अर्थात् किसी विषय की पूरी जानकारी प्राप्त करना चाहता हो। ज्ञान का जिज्ञासु।
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ज्ञान-प्रभ  : पुं० [ब० स०] एक तथा गत का नाम।
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ज्ञान-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] राम की पूजा की एक मुद्रा। (तंत्रसार)।
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ज्ञान-मूढ़  : पुं० [मध्य० स०] वह जो ज्ञानी होने पर भी मूढ़ों या मूर्खों का सा आचरण या व्यवहार करता हो।
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ज्ञान-यज्ञ  : पुं० [तृ० त०] आत्मा और परमात्मा के अ-भेद का पूरा ज्ञान प्राप्त करके अपने आपकों पूर्ण रूप से ईश्वर में लीन कर देने की क्रिया या भाव।
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ज्ञान-योग  : पुं० [कर्म० स०] वह योग या साधन जिसमें परमात्मा या ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य मोक्ष का अधिकारी बनता है।
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ज्ञान-साधन  : पुं० [ष० त०] १. इंद्रियाँ जिनकी सहायता से ज्ञान-प्राप्त किया जाता है। २. किसी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न।
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ज्ञानतः(तस्)  : क्रि० वि० [सं० ज्ञान+तस्] ज्ञान रहने या होने की दशा में। जान-बूझकर।
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ज्ञानद  : वि० [सं० ज्ञान√दा (देना)+क] [स्त्री० ज्ञानदा] ज्ञान कराने या देनेवाला। पुं० गुरु।
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ज्ञानमय  : वि० [सं० ज्ञान+मयट्] ज्ञान से युक्त। ज्ञान से भरा हुआ। पुं० ईश्वर।
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ज्ञानवान्(वत्)  : वि० [सं० ज्ञान+मतुप्, वत्व] १. जिसे बहुत सी बातों, विषयों आदि की जानकारी हो। २. योग्य या समझदार। ३. आत्मा और परमात्मा के अभेद का ज्ञाता।
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ज्ञानाकर  : पुं० [ज्ञान-आक, ष० त०] बुद्ध।
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ज्ञानाकार  : पुं० [ज्ञान-आकार, ष० त०] गौतम बुद्ध।
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ज्ञानांजन  : पुं० [ज्ञान-अंजन, कर्म० स०] ब्रह्मज्ञान।
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ज्ञानालय  : पुं० [ज्ञान-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ ज्ञान संबंधी चर्चा या विवेचन हो और ज्ञान का लोक में प्रचार होता हो। (इन्स्टिट्यूट)
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ज्ञानावरण  : पुं० [ज्ञान-आवरण, ष० त०] १. वह चीज या परदा जो ज्ञान की प्राप्ति का बाधक हो। २. वह पाप जिसका उदय होने पर ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
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ज्ञानावरयणीयकर्म(र्मन्)  : पुं० [ज्ञान-आवरणीय, ष० त०, ज्ञानावरणीय, कर्मन्, कर्म० स] =ज्ञानावरण।
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ज्ञानाश्रयी  : वि० [सं०] १. ज्ञान पर आश्रित। २. ज्ञान-संबंधी।
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ज्ञानाश्रयी शाखा  : स्त्री० [सं०] १. आध्यात्म एवं धार्मिक साधना आदि में एक प्रवृत्ति जिसमें भक्त भगवान को ज्ञान द्वारा प्राप्त करने के सिद्धांत का समर्थक होता है। २. हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल की एक धारा।
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ज्ञानासन  : पुं० [ज्ञान-आसन, मध्य० स०] योग की सिद्धि का एक आसन।
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ज्ञानी(निन्)  : वि० [सं० ज्ञान+इनि] १. जिसे ज्ञान या जानकारी हो। २. योग्य तथा समझदार। पुं० १. वह जिसे आत्म और ब्रह्म के स्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान हो चुका हो। ब्रह्मज्ञानी। २. चार प्रकार के भक्तों में से एक जो सब बातों का ज्ञान रखकर भक्ति करता और इसी लिए सब में श्रेष्ठ माना जाता है।
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ज्ञानेंद्रिय  : स्त्री० [ज्ञान-इंद्रिय, मध्य० स०] आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा ये पाँच इंद्रियाँ जिनसे भौतिक विषयों का ज्ञान होता है।
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ज्ञानोदय  : पुं० [ज्ञान-उदय, ष० त०] किसी प्रकार के ज्ञान का (मन में) होने वाला उदय।
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ज्ञापक  : वि० [सं०√ज्ञा+णिच्+ण्वुल्-अक] १. ज्ञान प्राप्त करानेवाला। २. जतलाने, बतलाने या परिचय देनेवाला। व्यंजक या सूचक (तत्त्व या बात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्ञापन  : पुं० [सं०√ज्ञा+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० ज्ञापित, वि० ज्ञाप्य] कोई बात किसी को जत-लाने, बतलाने या सूचित करने की क्रिया या भाव।
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ज्ञापित  : भू० कृ० [सं०√ज्ञा+णिच्+क्त] जिसकी जानकारी किसी को कराई जा चुकी हो। जतलाया या बतलाया हुआ।
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ज्ञाप्य  : वि० [सं०√ज्ञा+णिच्+यत्] जिसका ज्ञान प्राप्त किया या कराया जा सकता हो।
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ज्ञेय  : वि० [सं०√ज्ञा+यत्] १. जिसे जानना आवश्यक या कर्त्तव्य हो। जानने योग्य। २. जो जाना जा सके।
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ज्या  : स्त्री० [सं०√ज्य़ा(जीर्ण होना)+अङ-टाप्] १. धनुष की डोरी। २. वह रेखा जो किसी चाप के एक सिरे से दूसरे सिरे तक अथवा किसी वृत्त के व्यास तक गई हो। ३. किसी वृत्त का व्यास। ४. माता। माँ। ५. पृथ्वी।
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ज्या-मिति  : स्त्री० [ब० स०] गणित का वह विभाग जिसमें पिड़ों की नाप-जोख, रेखा कोण, तल आदि का विचार किया जाता है। रेखागणित। (ज्यामेट्री)।
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ज्यादती  : स्त्री० [फा०] १. ज्यादा अर्थात् अधिक होने की अवस्था या भाव। अधिकता.२. अतिरिक्त होने की अवस्था या भाव। अतिरेक। ३. आवश्यक से अधिक अथवा अनावश्यक रूप से किया हुआ कड़ा या कठोर व्यवहार। अत्याचार।
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ज्यादा  : वि० [फा० ज़ियादः] मान या मात्रा में आवश्यकता से अधिक। अतिरिक्त। अधिक। बहुत। जैसे–किसी को ज्यादा बात नहीं कहनी चाहिए।
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ज्यान  : पुं० [फा० जियान] घाटा। नुकसान। हानि। पुं०=ज्ञान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्याना  : स० [हिं० जिलाना] १. जीवित करना। प्राण डालना। जिलाना। २. जीवित रखना। ३. (पशु-पक्षी आदि) पालना-पोसना। उदाहरण–सुक सारिका जानकी ज्याए।-तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्याफत  : स्त्री० [अ० जिफ़ायत] १. दावत। भोज। २. आतिथ्य-सत्कार।
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ज्यारना  : स०=ज्याना (जिलाना)।
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ज्यारा  : वि० [हिं० ज्याना] १. जीवनदान देनेवाला। २. जिलाने अर्थात् पालने-पोसनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्यारी  : स्त्री० [हिं० जी=जीवट] १. कड़े जी या दिलवाला। २. साहसी। हिम्मती।
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ज्यावना  : स०=जिलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्युति  : स्त्री०=ज्योति।
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ज्यूँ  : अव्य=ज्यों।
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ज्येष्ठ  : वि० [सं० वृद्ध+इष्ठन्, ज्य० आदेश] [स्त्री० ज्येष्ठा] १. अवस्था में जो अपने वर्ग के अन्य जीवों से सब से बड़ा हो। जैसे–ज्येष्ठ पुत्र। २. अधिक अवस्थावाला। वृद्ध। बुड्ढा। ३. जो किसी से पद, मर्यादा आदि की दृष्टि से ऊँचा या बढ़कर हो। पुं० १. ग्रीष्म ऋतु का वह महीना जो बैसाख के बाद और असाढ़ से पहले पड़ता है। २. फलित ज्योतिष में वह वर्ष जिसमें बृहस्पति का उदय ज्येष्ठा नक्षत्र में हो। ३. एक प्रकार का सामगान। ४. परमात्मा। परमेश्वर। ५. जीवनी शक्ति। प्राण।
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ज्येष्ठ-बला  : स्त्री० [मध्य० स०] सहदेई नाम की वनस्पति।
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ज्येष्ठ-साम(मन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का साम। आरण्यक साम।
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ज्येष्ठक  : पुं० [सं० ज्येष्ठ+कन्] किसी नगर का प्रधान अधिकारी। (प्राचीन भारत)।
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ज्येष्ठता  : स्त्री० [सं० ज्येष्ठ+तल्-टाप्] १ ज्येष्ठ होने की अवस्था या भाव। २. बड़प्पन श्रेष्ठता।
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ज्येष्ठसामग  : पुं० [सं० ज्येष्ठसामन्√गै (गाना)+क] आरण्यक साम पढ़नेवाला।
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ज्येष्ठा  : स्त्री० [सं० ज्येष्ठ+टाप्] १. २७ नक्षत्रों में से अठारहवाँ नक्षत्र जो तीन तारों से मिलकर बना और कुंडल के आकार का है। २. किसी व्यक्ति की कई पत्नियों में से वह जो उसे सब से अधिक प्रिय हो। ३. हाथ की उँगलियों में बीच की उँगली जो और सब उँगलियों में बड़ी होती है। ४. गंगा नदी। ५. पुराणानुसार अ-लक्ष्मी जो समुद्र मथने के समय लक्ष्मी से पहले निकली थी। ६. छिपकली।
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ज्येष्ठांबु  : पुं० [सं० ज्येष्ठ-अंबु, कर्म० स०] वह पानी जिसमें चावल धोये गये हों। चावलों की धोवन।
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ज्येष्ठाश्रम  : पुं० [सं० ज्येष्ठ-आश्रम, कर्म० स०] गृहस्थाश्रम जो शेष सब आश्रमों का पालक होने के कारण उनमें बड़ा माना गया है।
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ज्येष्ठाश्रमी(मिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] गृहस्थाश्रम में रहनेवाला व्यक्ति। गृहस्थ।
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ज्येष्ठी  : स्त्री० [सं० ज्येष्ठ+ङीष्] छिपकली।
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ज्यों  : अव्य० [सं० यः+इव] १. जिस तरह। जिस प्रकार। जैसे–उदाहरण–ज्यों मुखु मुकुर मुकुरू निज पानी।-तुलसी। पद–ज्यों का त्यों= (क) जैसा पहले हो, या हो रहा हो,वैसा ही या उसी रूप में। जैसे–वह ज्यों का त्यों नकल करके ले आया। (ख) जिसके पूर्व रूप के संबंध में कुछ भी काम न हुआ हो। जैसे–सारा ग्रंथ ज्यों का त्यों पड़ा है। (ग) जिसमें कुछ भी अन्तर, परिवर्तन या फेर-बदल न हो या न किया जाय। जैसे–वह समूचा पेड़ ज्यों का त्यों उखाड़ लाओ। ज्यों ज्यों=जिस क्रम से। जिस मात्रा या मान में। जितना। (वाक्य रचना में इसका नित्य संबंधी त्यों त्यों होता है) जैसे–ज्यों ज्यों वह सयाना होता गया त्यों त्यों वह स्वयं अपने सब काम करने और देखने लगा। उदाहरण–ज्यों ज्यों भीजे कामरी त्यों त्यों गरुई होय। ज्यों त्यों=(क) कठिनाइयों और झंझटों के रहते हुए भी किसी न किसी प्रकार। सहज में या अच्छी तरह नहीं। जैसे–ज्यों त्यों ब्याह के कामों से छुट्टी पाई। (ख) जी न चाहते हुए भी। अनिच्छा या अरुचिपूर्वक। जैसे–ज्यों त्यों उनसे भी मेल हो गया (ग) जिस प्रकार हो सके। जैसे–ज्यों त्यों सबको बुलवाओ। ज्यों ही=ठीक उसी क्षण या समय, जब कोई पहला काम पूरा हुआ हो। कोई काम होते ही ठीक उसी वक्त (इस अर्थ में त्यों ही इसका नित्य-संबंधी होता है) जैसे–ज्यों ही मैं घर से निकला, त्यों ही पानी बरसने लगा, (अथवा आपका सँदेसा मिला)। २. किसी के ढंग, प्रकार या रूप से। किसी के अनुकरण पर। उदाहरण–भीम तैरते समय मगर ज्यों डुबकी साधे आते।–मैथलीशरण ३. ठीक किसी दूसरे की तरह। किसी के तुल्य या समान। उदाहरण–प्रिय न था बिदुर ज्यों जिसे अनय।–मैथलीशरण।
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ज्योति (तिस्)  : स्त्री० [सं०√द्युत् (प्रकाश)+इसुन्, ज आदेश] १. वह चमक या प्रकाश जो किसी चीज के जलने से उत्पन्न होता है। जैसे–अग्नि, दीपक या बिजली की ज्योति। मुहावरा–ज्योति जगाना या जलाना=किसी देवी देवती के पूजन के समय घी का दीया जलाना। २. कहीं से निकलनेवाला उज्जवल और चमकीला प्रकाश। जैसे–किसी महापुरुष की आँखों या मुखड़े की ज्योति। ३. अग्नि। ४. ब्रह्म। ५. सूर्य। ६. विष्णु। ७. नक्षत्र। ८. आँख की पुतली के बीच का काला बिंदु। तिल। ९. दृष्टि। नजर। १॰. मेथी। ११. संगीत में अष्ट-ताल का एक भेद।
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ज्योति-सर  : वि० [ज्योतिस्√सृ (गति)+ट, उप० स०] ज्योति में चलने या सरकने वाला। उदाहरण–पहले का सा उन्नत विशाल ज्योतिः सर।–निराला।
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ज्योतिक  : पुं०=ज्योतिषी
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ज्योतित  : वि० [सं० द्योतित] १. ज्योति के रूप में आया या लाया हुआ। २. ज्योति या प्रकाश से युक्त किया हुआ।
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ज्योतिमान  : वि०=ज्योतिष्मान्।
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ज्योतिरथ  : पुं० [ज्योतिस्-रथ,ब० स०] ध्रुव।
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ज्योतिरिंग  : पुं० [सं० ज्योतिस्√इंग् (गमनादि)+अच्] जूगनूँ।
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ज्योतिरिगंण  : पुं० [सं० ज्योतिस्√इंगु+ल्यु-अन] जुगनूँ।
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ज्योतिर्बीज  : पुं० [ज्योतिस्-बीच, ब० स०] जुगनूँ।
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ज्योतिर्मंडल  : पुं० [ज्योतिस्-मंडल, ष० त०] आकाशस्थ तारों नक्षत्रों आदि का मंडल या लोक।
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ज्योतिर्मय  : वि० [सं० ज्योतिस्+मयट्] बहुत अधिक ज्योति से युक्त। जगमगाता हुआ। परम प्रकाशमान्।
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ज्योतिर्लोक  : पुं० [ज्योतिस्-लोक, ष० त०] १. ध्रुव लोक जो काल-वक्र का प्रवर्तक माना गया है। २. उक्त लोक के अधिष्ठाता देवता, विष्णु। ३. परमात्मा। परमेश्वर।
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ज्योतिर्विंद  : पुं० [सं० ज्योतिस्√विद् (जानना)+क्विप्] ज्योतिषी।
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ज्योतिर्विद्या  : स्त्री० [ज्योतिस्-विद्या ष० त०] ज्योतिष।
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ज्योतिर्हस्ता  : स्त्री० [ज्योतिस्+हस्त, ब० स०] दुर्गा।
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ज्योतिलिंग  : पुं० [ज्योतिस्-लिंग, मध्य० स०] १. महादेव। शिव। २. शिव के मुख्य १२ लिंग जो भारत के भिन्न-भिन्न भागों में स्थापित हैं।
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ज्योतिःशास्त्र  : पुं० [ज्योतिस्-सास्त्र, ष० त०] ज्योतिष। (देखें)।
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ज्योतिःशिखा  : स्त्री० [ज्योतिस्-शिखा, ष० त०] १. जलती हुई लपट या लौ। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके चरण के पहले दल में ३. लघु और दूसरे दल में १६ गुरु वर्ण होते हैं।
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ज्योतिश्चक्र  : पुं० [ज्योतिस्-चक्र मध्य० स०] ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों आदि का चक्र या मंडल।
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ज्योतिश्चुबी(बिन्)  : वि० [ज्योतिस्√चुब् (चूमना)+णिनि][स्त्री० ज्योत्शिचुंबिनी]आकाशस्थ ज्योति को चूमने अर्थात् उसके बहुत पास तक पहुँचने वाला,अर्थात् बहुत ऊँचा। गगनचुंबी। उदाहरण–ज्योतिश्चुबिनी कलश-मधुकर छाया में।-निराला।
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ज्योतिश्छाया  : स्त्री० [ज्योतिस्-छाया, मध्य० स०] १. ज्योति अथवा प्रकाश से युक्त छाया। २. ज्योति अथवा प्रकाश में पड़नेवाली छाया उदाहरण–ज्योतिच्छाय केश-मुख वाली।-निराला
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ज्योतिष  : पुं० [सं० ज्योतिस्+अच्] १. एक प्रसिद्ध विद्या या शास्त्र जिसमें इस बात का विचार होता है कि आकाशस्थ ग्रह, नक्षत्र आदि पिंड कितनी दूर पर है, कितने दिनों में किन मार्गों से चक्कर लगाते हैं उनके कितने प्रकार के वर्म या विभाग हैं आदि आदि। विशेष–बहुत दिनों से इस शास्त्र के मुख्य दो विभाग चले आ रहे है-गणित और फलित। गणित ज्योतिष में पहले प्रायः उन्हीं बातों का अनुसंधान होता था जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है। प्राचीन भारत में इस शास्त्र की गणना छः वेदांगों के अंतर्गत थी। आज-कल पाश्चात्य ज्योतिष में इस बात का भी विचार होता है कि वे किन-किन तत्त्वों के बने होते हैं और वे हमारी पृथ्वी से भी और आपस में एक दूसरे से भी कितनी दूरी पर स्थित हैं। २. आज-कल लोक व्यवहार में उक्त विद्या या शास्त्र का वह पक्ष या विभाग जिसमें इस बात का विचार होता है कि पृथ्वी के निवासियों, प्रदेशों आदि पर हमारे सौर जगत् के भिन्न-भिन्न ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों आदि की स्थितियों पर कैसे-कैसे भौतिक प्रभाव पड़ते हैं। इसी आधार पर अनेक प्रकार के भविष्य कथन भी होते हैं और अनेक प्रकार के कार्यों के लिए शुभाशुभ मुहुर्त्त या समय भी बतलाये जाते हैं। ३. प्राचीन काल में अस्त्रों आदि का एक प्रकार का मारक या रोक जिससे शत्रुओं के चलाये हुए अस्त्र निष्फल किये जाते थे।
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ज्योतिषिक  : वि० [सं० ज्योतिस्+ठक्-इक] ज्योतिष संबंधी। ज्योतिष का। पुं० =ज्योतिषी।
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ज्योतिषी(षिन्)  : पुं० [सं० ज्योतिस्+इनि] १. ज्योतिष शास्त्र का जाननेवाला विद्वान दैवज्ञ। गणक। २. आज-कल मुख्यतः फलित ज्योतिष का ज्ञाता या पंडित जो ग्रहों की गति-विधि आदि के आधार पर भविष्यद्वाणी करता और पर्व, मुहुर्त्त आदि का समय स्थिर करता हो। स्त्री० [सं० ज्योतिष्+ङीष्] तारा।
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ज्योतिष्क  : पुं० [सं० ज्योतिस्√कै(प्रकाशित होना)+क] १. ग्रह, तारे, नक्षत्र आदि आकाश में रहनेवाले पिंड जो रात के समय चमकते हुए दिखाई देते हैं। २. जैनों के अनुसार एक प्रकार का देवता जिनमें आकाशस्थ ग्रह, नक्ष और सूर्य चन्द्रमा आदि भी हैं। ३. मेरु पर्वत की एक चोटी का नाम। ४. चित्रक वृक्ष। चीता। ५. मेथी। ६. गनियारी।
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ज्योतिष्का  : स्त्री० [सं० ज्योतिष्क+टाप्] मालकंगनी।
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ज्योतिष्टोम  : पुं० [ज्योतिस्-स्तोत, ब० स०] एक प्रकार का यज्ञ जिसमें १६ ऋत्विक् होते थे।
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ज्योतिष्ना  : स्त्री=ज्योत्स्ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्योतिष्पथ  : पुं० [ज्योतिस्-पथिन, ष० त०] आकाश।
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ज्योतिष्पुजं  : पुं० [ज्योतिस्-पुंज, ष० त०] आकाशस्थ, ग्रहों नक्षत्रों आदि का समूह।
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ज्योतिष्मती  : स्त्री० [सं० ज्योतिस्+मतुप्-ङीप्] १. रात्रि। रात। २. एक प्रकार का वैदिक छंद। ३. एक प्राचीन नदी। ४. एक प्रकार का पुराना बाजा। ५. मालकंगनी।
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ज्योतिष्मान्(मत्)  : वि० [सं० ज्योतिस्+मतुप्] १. जिसमें ज्योति हो। ज्योतिवाला। २. खूब चमकता हुआ। प्रकाशमान्। पुं० १. सूर्य। २. प्लक्ष द्वीप का एक पर्वत। (पुराण)।
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ज्योतीरस  : पुं० [ज्योतिस्-रस, द्व० स०] एक प्रकार का बहुमूल्य पत्थर।
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ज्योत्स्ना  : स्त्री० [सं० ज्योतिस्+न, इलोप, नि०] १. चंद्रमा का प्रकाश। २. पृथ्वी पर छिटका या फैला हुआ उक्त प्रकाश। चाँदनी। ३. शुक्ल पक्ष की या चाँदनी रात। ४. सौंफ।
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ज्योत्स्ना-प्रिय  : पुं० [ब० स०] चकोर।
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ज्योत्स्ना-वृक्ष  : पुं० [ष० त०] दीपाधार। दीवट।
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ज्योत्स्नाकाली  : स्त्री० [सं०] वरुण के पुत्र पुष्कर की पत्नी जो सोम की कन्या थी।
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ज्योत्स्निका  : स्त्री० [सं० ज्योतिस्+कन्+टाप्, इत्व]=ज्योत्स्ना।
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ज्योत्स्नी  : स्त्री०=ज्योत्स्ना।
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ज्योत्स्नेश  : पुं० [ज्योत्स्ना-ईश, ष० त०] चंद्रमा।
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ज्योनार  : स्त्री० [सं० जेमन=भोजन] १. पका हुआ भोजन। रसोई। २. बहुत से लोगों को बुलाकर एक साथ भोजन कराया जानेवाला भोजन। भोज। दावत। मुहावरा–ज्योनार बैठना=आये हुए लोगों का भोजन करने बैठना। ज्योनार लगाना=आये हुए लोगों के लिए खाने-पीने की चीजें परोसना।
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ज्योरा  : पुं० [सं० जीव=जीविका] गाँवों में चमारों, नाइयों आदि को उनकी सेवाओं के बदले दिया जानेवाला अन्न।
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ज्योरी  : स्त्री० [सं० जीवा] डोरी। रस्सी।
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ज्योहत  : वि० [सं० जीव+हत्] जिसने जीव की हत्या की हो। पुं० १.=आत्म-हत्या। २. जौहर।
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ज्यौं  : क्रि० वि०=ज्यों।
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ज्यौं  : पुं० [सं० जीव] १. आत्मा। जीव। उदाहरण–तनमाया ज्यौ ब्रह्म कहावत सूर सुमिलि बिगरौ।-सूर। २. जीवन। प्राण। उदाहरण–बदी बदी ज्यौ लेत हैं, ए बदरा बदराह।–बिहारी। ३. जी। मन। अव्यय० [सं० यदि] जो। यदि।
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ज्यौतिष  : वि० [सं० ज्योतिष्+अण्] ज्योतिष-संबंधी। पुं०=ज्योतिष।
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ज्यौतिषिक  : पुं० [सं० ज्योतिशष्+ठक्-इक] ज्योतिषी।
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ज्यौत्स्नी  : स्त्री० [सं० ज्योत्स्ना+अण्-ङीप्] पूर्णिमा की रात।
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ज्यौनार  : स्त्री=ज्योनार।
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ज्यौरा  : पुं०=ज्योरा।
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ज्यौहर  : पुं०=जौहर।
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ज्वर  : पुं० [सं०√ज्वर् (जीर्ण होना)+घञ्] १. अनेक प्रकार के शारीरिक विकारों के कारण होनेवाला एक रोग जिसमें शरीर का ताप-मान प्रसम या साधारण से बहुत कुछ बढ़ जाता है और जिसके फलस्वरूप नाड़ी की गति बहुत तीव्र हो जाती है और कभी-कभी मनुष्य बकने झकने लगता या अचेत हो जाता है। ताप। बुखार। क्रि० प्र०–आना–चढ़ना।–होना। २. ऐसी स्थिति जिसमें अशान्ति, आवेग, उत्तेजना मानसिक चंचलता आदि बातें बहुत बढ़ी हुई हों। जैसे–युद्ध भी देशों और राष्ट्रों को चढ़नेवाला ज्वर ही समझना चाहिए।
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ज्वर-कुटुंब  : पुं० [ष० त०] ज्वर के फलस्वरूप या साथ-साथ होनेवाले दूसरे उपद्रव। जैसे–शारीरिक शिथिलता, अधिक प्यास, भोजन के प्रति अरुचि, सिर में दरद आदि आदि।
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ज्वर-हंत्री  : स्त्री० [ष० त०] मजीठ।
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ज्वरघ्न  : वि० [सं० ज्वर√हन् (नाश)+टक्] जिससे ज्वर का अन्त या नाश होता हो। पुं० १. गुडुच। २. बथुआ नामक साग।
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ज्वरा  : स्त्री० [सं० जरा] १. बुढ़ापा। २. मृत्यु।
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ज्वरांकुश  : पुं० [ज्वर-अंकुश, ष० त०] १. कुश की जाति की एक घास जिसकी जड़ में नीबू की सी सुगंध होती है। २. वैद्यक में ज्वर की एक दवा जो गंधक, पारे आदि के योग से बनती है।
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ज्वरांगी  : स्त्री० [सं० ज्वर√अंग् (गति)+अच्-ङीष्] भद्रदंती नामक पौधा।
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ज्वरांतक  : वि० [ज्वर-अतंक, ष० त०] ज्वर का अन्त या नाश करनेवाला। पुं० १. =चिरायता। २.=अमलतास।
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ज्वरापह  : स्त्री० [सं० ज्वर-अप√हन् (मारना)+ड] बैलपत्री।
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ज्वरार्त्त  : वि० [ज्वर-आर्त्त, तृ० त०] ज्वर से पीड़ित।
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ज्वरांश  : पुं० [ज्वर-अंश, ष० त०] मंद या हलका ज्वर जैसा प्रायः जुकाम आदि के साथ होता है और जो कभी-कभी दूसरे रोग के आगमन का सूचक माना जाता है। हराजत।
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ज्वरित  : वि० [सं० ज्वर+इतच्] जिसे ज्वर या बुखार चढ़ा हो।
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ज्वरी(रिन्)  : वि० [सं० ज्वर+इनि] ज्वर से पीड़ित।
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ज्वर्रा  : पुं०=जुर्रा (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्वल  : पुं० [सं०√ज्वल् (दीप्ति)+अच्] १. ज्वाला। अग्नि। २. दीप्ति। प्रकाश।
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ज्वलका  : स्त्री० [सं√ज्वल्+ण्वुल-अक, टाप्] आग की लपट। अग्निशिखा।
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ज्वलंत  : वि० [सं० ज्वलत्] १. जलता और चमकता हुआ। देदीप्यमान। २. बहुत अच्छी तरह और स्पष्ट रूप से दिखाई देनेवाला। जैसे–ज्वलंत उदाहरण या प्रमाण।
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ज्वलन  : पुं० [सं०√ज्वल्+ल्युट-अन] १. कोई चीज जलने की क्रिया या भाव दहन। जलना। २. जलन दाह। ३. [√ज्वल्+युच्-अन] अग्नि। आग। ४. आग की लपट। ५. चित्रक या चीता नामक वृक्ष।
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ज्वलनांक  : पुं० [ज्वलन-अंक, ष० त०] तीव्र तापमान की वह मात्रा या स्थिति जो किसी चीज को जला देने में समर्थ होती है। (बर्निग प्वाईंट)।
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ज्वलनांत  : पुं० [ज्वलन-अंत, ब० स०] एक बौद्ध का नाम।
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ज्वलानाश्मा(श्मन्)  : पुं० [ज्वलन-अश्मन्, कर्म० स०] सूर्यकांत मणि।
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ज्वलित  : भू० कृ० [सं०√ज्वल्+क्त] १. जलता या जलाया हुआ। २. जला हुआ। दग्ध। ३. खूब चमकता हुआ। ४. स्पष्ट रूप से सामने दिखाई देनेवाला।
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ज्वलिनी  : स्त्री० [सं० ज्वल-इनि+ङीष्] मूर्वा लता। मरोड़फली।
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ज्वलिनी सीमा  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] दो गाँवों के बीच की वह सीमा जो ऊंचे पेड़ लगाकर बनाई गई हो।
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ज्वान  : वि० [भाव० ज्वानी]=जवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्वाब  : पुं०=जवाब।
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ज्वार  : स्त्री० [सं० यवनाल, यवाकार या जूर्ण] १. एक प्रसिद्ध पौधा और उसके दाने या बीज जिनकी गिनती अनाजों में होती है। २. समुद्र उससे संबद्ध नदियों की वह स्थिति जब कि उनमें ऊँची-ऊँची तरंगें उठ रही हों। ‘भाटा’ का विपर्याय। विशेष–चंद्रमा और सूर्य के आकर्षक के फलस्वरूप दिन-रात में एक बार बहुत ऊँची-ऊँची लहरें उठती है जिसे ज्वार कहते है और दूसरी बार यह लहरें बिलकुल थम जाती हैं जिससे संबद्ध नदियों का पानी बहुत उतर या घट जाता है। इसी को भाटा कहते हैं। अमावस्या और पूर्णिमा के दिन ज्वार का रूप बहुत ही उग्र या प्रबल होता है। स्त्री०=ज्वाला(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्वार-भाटा  : पुं० [हिं० ज्वार+भाटा] समुद्र में लहरों का वेगपूर्वक बहुत ऊँचे उठना और बराबर नीचे गिरना।
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ज्वारी  : पुं०=जुआरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ज्वाल  : पुं० [सं०√ज्वल् (दीप्ति)+ण वा घञ्]=ज्वाला।
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ज्वाल  : स्त्री० [सं० ज्वाल+टाप्] १. आग की लपट या लौ। अग्निशिखा। २. ताप, विष आदि के प्रभाव से जान पड़नेवाली बहुत अधिक गर्मी। ३. कष्ट, दुःख आदि के कारण मन में होनेवाली पीड़ा। संताप। ४. तक्षक की एक कन्या जिसका विवाह ऋक्ष से हुआ था।
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ज्वालक  : वि० [सं०√ज्वल्+णिच्+ण्वुल्-अक] जलाने या प्रज्वलित करनेवाला। पुं० दीपक, लंप आदि का वह भाग जो बत्ती के जलनेवाले अंश के नीचे रहता है और जिसके कारण दीप-शिखा बत्ती के नीचेवाले अंश तक नहीं पहुँचने पाती। (बर्नर)।
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ज्वालमाली(लिन्)  : पुं० [सं० ज्वाल-माला, ष० त०+इनि] सूर्य।
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ज्वाला-चिह्वा  : पुं० [ब० स] १. अग्नि। आग। २. एक प्रकार का चित्रक या चीता। (वृक्ष)।
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ज्वाला-देवी  : स्त्री० [मध्य० स०] काँगड़े के पास की एक देवी जिसका स्थान सिद्ध पीठों में माना जाता है।
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ज्वाला-मालिनी  : स्त्री० [सं० ज्वाला-माला, ष० त०+इनि-हीष्] तंत्र के अनुसार एक देवी।
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ज्वाला-मुखी  : पुं० [ब० स० ङीष्] पृथ्वी तल के कुछ विशिष्ट स्थानों और मुख्यतः पर्वतों में होनेवाले मुख के आकार के बड़े-बड़े ग़ड्ढे जिनमें से कभी आग की लपटें, कभी गली हुई धातुएँ, पत्थर आदि और कभी धूएँ या राख के बादल निकलते हैं। विशेष–ऐसे गड्ढे जल और स्थल दोनों में होते हैं। जिन पर्वतों की चोटियों पर ऐसे गड्ढें होते हैं उन्हें ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं।
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ज्वाला-हलदी  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की हलदी जिससे चीजें रंगी जाती है।
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ज्वाली(लिन्)  : वि० [सं० ज्वाल+इनि] ज्वालायुक्त। पुं० शिव।
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ज्वैना  : स०=जोवना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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