गुण/gun

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गुण  : पुं० [सं०√गुण् (आमंत्रण)+अच्] १. किसी वस्तु की वह महत्वपूर्ण या विशिष्ट निजी विशेषता जिसके कारण वह दूसरी वस्तुओं से अलग मानी तथा रखी जाती है। २. किसी वस्तु का वह तत्त्व जिसके प्रभाव से खराबियाँ तथा बुराइयों दूर होती हैं। गुणकारी तथा लाभदायक तत्त्व। जैसे–औषध का गुण। (क्वालिटी,प्रापर्टी) ३. किसी व्यक्ति की वह प्राकृतिक विशेषता जिसके कारण समाज में उसकी प्रशंसा होती हो अथवा होनी चाहिए। मुहावरा–(किसी की) गुण गाना=किसी के किये हुए उपकार या अच्छे कामों का खूब चर्चा करना। गुण मानना=उपकृत होने पर कृतज्ञता प्रकट करना। उदाहरण–मानूँ रे ननदियाँ मै तेरा गुण मानू।–गीत। ४. किसी कला विद्या शास्त्र आदि में प्राप्त की जानेवाली निपुणता। प्रवीणता। ५. कला या विद्या। हुनर। ६. प्रकृति के अंतर्गत मानी जानेवाली तीन प्रकार की वृतियाँ जो जीव-जन्तुओं मनुष्यों, वनस्पतियों आदि में पाई जाती हैं। यथा–सत्त्व, रज और तम। विशेष–सत्त्व,रज और तम ये तीनों गुण सांख्य में कहे गये हैं। परन्तु योगशास्त्र में शम,दम,और तितिक्षा ये तीनो गुण कहे गये है। ७. (उक्त वृतियों के आधार पर) तीन की संख्या का सूचक शब्द। ८. राजनीति में, परराष्ट्र के साथ व्यवहार करने के ६. ढंग-संधि विग्रह, यान, आसन द्वैध और आश्रय। ९. संस्कृत व्याकरण में ‘अ’, ‘ए’, और ओ स्वर। १॰. साहित्य में वह तत्त्व जिससे काव्य की शोभा बढती है। जैसे–ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि। ११. प्रकृति। १२. रस्सी या तागा। डोरा। 1३. धनुष की डोरी। प्रत्यय एक जो किसी संख्या के अंत में लगकर उसका उतनी ही बार और होना सूचित करता है। जैसे–द्विगुण, त्रिगुण, चतुर्गुण आदि। अव्यय के अनुसार। उदाहरण-इंगित जामै समय,गुण,बरनहु दूत अलोभ।–केशव।
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गुण-कर  : वि० [ष० त० ] गुणकारी। लाभदायक।
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गुण-कारक  : वि० [ष० त० ] गुण करनेवाला। फायेदेमंद। लाभदायक।
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गुण-गौरी  : स्त्री० [तृ० त०] १. गौरी के समान गुणवाली सौभाग्यवती स्त्री। २. स्त्रियों का एक प्रकार का व्रत और पूजन। गनगौर। (देखें)।
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गुण-ग्राहक  : पुं० [ष० त० ]१. गुण को परखकर उसका आदर और सम्मान करनेवाला व्यक्ति। कदरदान। २. गुणियों का सम्मान करनेवाला।
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गुण-दोष  : पुं० [द्व० स०] किसी वस्तु की अच्छी और बुरी बातें। अच्छाइयाँ और बुराइयाँ। (मेरिट्स)
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गुण-धर्म  : पुं० [द्व० स०] किसी पदार्थ में विषेश रूप से पाया जानेवाला उसका कोई गुण या धर्म। वस्तुगत विशेषता (प्रापर्टी)।
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गुण-वाचक  : वि० [ष० त०] जो किसी चीज या बात का गुण या विशेषता सूचित करता हो। जैसे–गुणवाचक विशेषण, गुणवाचक संज्ञा।
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गुण-वाद  : पुं० [ष० त०] मीमांसा में अर्थवाद का एक भेद।
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गुण-विधि  : स्त्री० [ष० त०] मीमांसा में वह विधि जिसमें गुण-कर्म का विधान हो।
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गुण-व्रत  : पुं० [मध्य० स०] जैनियों में मूलव्रतों की रक्षा करने वाले तीन व्रत-दिग्व्रत, भोगोपभोगनियम और अनर्थ-दंड-निषेध।
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गुण-संग  : पुं० [ष० त०] गुणों का पारस्परिक मेल या सामंजस्य।
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गुण-सागर  : वि० [ष० त०] (व्यक्ति) जिसमें बहुत से अच्छे-अच्छे गुण हों। बहुत बड़ा गुणी। पुं० एक राग जो हिंडोल राग का पुत्र कहा गया है।
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गुण-हीन  : वि० [तृ० त०] जिसमें किसी प्रकार का या कोई गुण अथवा विशेषता न हो।
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गुणक  : पुं० [सं०√गुण+ण्वुल्-अक] १. वह अंक जिससे किसी अंक को गुणा करे। (मल्टिप्लायर) २. मालाकार। माली।
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गुणकरी  : स्त्री० [सं० गुणकर+ङीष्] सबेरे के समय गाई जानेवाली एक रागिनी जो किसी के मत से भैरव राग की और किसी के मत से डिंडोल राग की भार्या है।
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गुणकली  : स्त्री०=गुणकरी (रागिनी)।
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गुणकार  : पुं० [सं०गुण√कृ(करना)अण्] १. गुणवान्। गुणी। २. संगीतज्ञ। ३. रसोइया। ४. भीमसैन जो अज्ञातवास में रसोइए का काम करते थे।
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गुणकारी (रिन्)  : वि० [सं० गुण√कृ+णिनि] =गुणकारक।
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गुणग्राही (हिन्)  : वि० [सं० गुण√ग्रह (ग्रहण करना)+णिनि] [स्त्री० गुणग्राहिणी] =गुण-ग्राहक।
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गुणघाती (तिन्)  : वि० [गुण√हन् (हिसा)णिनि] गुण न मानकर उलटे अपकार करनेवाला। कृतघ्न।
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गुणज  : वि० [सं० गुण√जन् (उत्पन्न होना)+ड] (अंक) जिसका गुणा किसी विशेष दृष्टि या प्रकार से हो सकता हो। (मल्टीपुल्) जैसे–सार्वगुणज। (कामन मल्टीपुल्)
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गुणज्ञ  : वि० [सं० गुण√ज्ञा (जानना)+क] १. गुण को जानने और पहचानने वाला। गुण का पारखी। २. (व्यक्ति) जिसमें बहुत से गुण हों।
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गुणन  : पुं० [सं०√गुण+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० गुण्य, गुणीय, गुणित] १. गणित में, एक संख्या को दूसरी संख्या से गुणा करना। ज़रब देना। २. हिसाब करना गिनना। ३. अनुमान कल्पना या विचार करना। ४. उद्धरणी करना। रटना। ५. मनन करना। सोचना।
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गुणन-फल  : पुं० [ष० त० ] वह संख्या जो एक संख्या को दूसरी संख्या से गुणन करने पर प्राप्त होती है। (प्राडक्ट)
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गुणना  : स० [सं० गुणन] १. गुणन या गुणा करना। जरब देना। २. मन में सोचना, समझना या विचार करना। गुनना।
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गुणनिका  : स्त्री० [सं०√गुण+युच्-अन+कन्-टाप्] १. नाटक में पूर्वरंग। २. नृत्य की कला या विद्या। ३. रत्न। ४. हार। ५. शून्य।
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गुणनीय  : वि० [सं०√गुण्+अनीयर] जिसका गुणन या गुणा हो सके अथवा किया जाने को हो।
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गुणमै  : पुं०=गुणमोती। वि०=गुणमोती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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गुणमोती  : पुं० [सं० गुण-मौक्तिक] एक प्रकार का बहुमूल्य मोती। सर्पमणि या गजमुक्ता की भाँति राजस्थानी साहित्य में आभा एवं सौन्दर्य की दृष्टि से इसका विशेष स्थान है। उदाहरण–गुणमोती मखतूल गुण।–प्रिथीराज।
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गुणवंत  : वि० [सं० गुणवत्] [स्त्री० गुणवती] (व्यक्ति) जिसमें अनेक अच्छे गुण हों। गुण या गुणों से युक्त। गुणवान्।
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गुणवान् (वत्)  : वि० [सं०गुण+मतुप्, वत्व] [स्त्री० गुणवती] (व्यक्ति) जो अनेक प्रकार के गुणों से युक्त हो। गुणी।
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गुणा  : पुं० [सं० गुणन] [वि० गुण्य, गुणित] गणित की वह क्रिया जो यह जानने के लिए की जाती है कि किसी अंक या संख्या को एक से अधिक बार जोड़ने पर फल कितना होता है। जरब। (मल्टीप्लिकेशन) जैसे–यदि यह जानना हो कि ८ को लगातार ५ बार जोड़ने से कितना होगा तो ८ से ५ का गुणा करना पड़ेगा।
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गुणांक  : पुं० [गुण-अंक, ष० त०] गणित में वह राशि या संख्या जिसमें किसी दूसरी राशि या संख्या (गुण्यक) को गुणा किया जाता है।
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गुणाकर  : वि० [गुण-आकर, ष० त०] जिसमें अनेक गुण हों। बहुत बड़ा गुणवान। गुणों की खान।
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गुणाढ्य  : वि० [गुण-आढ्य,तृ० त०] बहुत गुणोंवाला। गुण–पूर्ण। पुं० पैशाची भाषा के एक प्रसिद्ध प्राचीन कवि।
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गुणातीत  : वि० [गुण-अतीत,द्वि० त०] १. गुणों से अल्पित,परे और भिन्न। २. जिसका सत्त्व, रज आदि गुणों से कोई संबंध न हो और जो इन सब से परे हो। (परमात्मा या ब्रह्म का एक विशेषण। पुं० परमात्मा। ब्रह्म।
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गुणानुवाद  : पुं० [गुण-अनुवाद, ष० त०] किसी के अच्छे गुणों की चर्चा या वर्णन। गुण-कथन। तारीफ। प्रशंसा।
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गुणान्वित  : वि० [गुण-अन्वित,तृ० त०] गुणों से युक्त।
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गुणालय  : वि० [गुण-आलय, ष० त०] बहुत से गुणों वाला। गुणाकर।
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गुणिका  : स्त्री० [सं०√गुण्+इन्+क-टाप्] शरीर पर होनेवाली गाँठ या सूजन।
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गुणित  : भू० कृ० [सं०√गुण् (आवृत्ति)+क्त] जिसका गुणन किया गया हो। गुणा किया हुआ।
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गुणी (णिन्)  : वि० [सं० गुण+इनि] (व्यक्ति) जिसमें अनेक गुण हों। गुणों से युक्त। पुं० १. कला-कुशल पुरुष। हुनरमंद। २. वह जिसमें विशेष या अलौकिक गुण या शक्ति हो। ३. झाड़-फूँक करनेवाला ओझा।
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गुणीभूत  : वि० [सं० गुण+च्वि√भू (होना)+क्त] १. मुख्य अर्थ से रहित। २. गौण बना हुआ।
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गुणीभूत व्यंग्य  : पुं० [कर्म० स०] काव्य में व्यंग्य का वह भेद या प्रकार जिसमें अर्थ या तो रसों आदि का अंग होता है या काकु से आक्षिप्त या वाच्यार्थ का उपपादक होता है अथवा अर्थ अस्फुट रहता है। इसमें वाच्यार्थ ही प्रधान रहता है, व्यंग्य नहीं।
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गुणेश्वर  : पुं० [गुण-ईश्वर, ष० त०] १. तीनों गुणों पर प्रभुत्व रखनेवाला। पमेश्वर। ईश्वर। २. चित्रकूट पर्वत।
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गुणोपेत  : वि० [गुण-उपेत,तृ० त०]१. गुणों से युक्त। २. गुणवान्। गुणी।
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गुण्य  : पुं० [सं० गुण+यत्] १. वह संख्या जिसका गुणन करना हो अथवा किया जा सकता हो। २. गुणी।
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गुण्यांक  : पुं० [गुण्य-अंक,कर्म० स०] वह संख्या या राशि जिसे गुणा किया जाए।
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