कर्ण/karn

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कर्ण  : पुं० [सं०√कर्ण् (भेदन)+ अच् या√क (बिखेरना) +नन्] १. प्राणियों के शरीर का वह अवयव या इंद्रिय जिसके द्वारा वे सुनते हैं। कान। २. उक्त इंद्रिय के ऊपर का या बाहरी चौड़ा भाग। कान। ३. नाव की पतवार। ४. कुंती का बड़ा पुत्र जो उसके कुमारी रहने की दशा में सूर्य के अंश से उत्पन्न हुआ था। ५. गणित में, वह रेखा जो किसी चतुर्भूज के आमने-सामने के कोणों को मिलाती हो। ६. छप्पर का एक भेद। ७. पिंगल में चार मात्राओं वाले गणों की एक संज्ञा।
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कर्ण-कटु  : विं० [स० त०] १. जो कानों को अप्रिय, उग्र या कुट प्रतीत होता हो। २. कानों में खटकनेवाला।
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कर्ण-कुहर  : पुं० [मध्य० स०] कान के बीच का वह छेद जिससे शब्द अन्दर पहुँचता है।
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कर्ण-घंट  : पुं० [ब० स०] शिव के एक प्रकार के उपासक जो इसलिए अपने कानों में घंटी या घंटा बाँधें रहते थे कि उसके रव में विष्णु का नाम दब जाय और उनके कानों में न पहुँचने पावे। घंटाकर्ण।
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कर्ण-नाद  : स्त्री० [मध्य० स०] १. कान में सुनाई पड़ती हुई गूँज। २. एक प्रकार का रोग जिसमें कान में हर दम कुछ गूँज सुनाई पड़ती हैं।
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कर्ण-परम्परा  : स्त्री० [ष० त०] सुनी-सुनाई हुई बात के बहुत-से लोगों में फैलने की परपरा।
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कर्ण-पिशाची  : स्त्री० [ष० त०] एक तांत्रिक देवी जिसे सिद्ध कर लेने पर मनुष्य सब बातें सुन तथा जान लेता है।
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कर्ण-पुर  : पुं० [ष० त०] आधुनिक भागलपुर का पुराना नाम (अंग-देश की प्राचीन राजधानी)। चंपा नगरी।
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कर्ण-मूल  : पुं० [ष० त०] १. कान की जड़ या नीचे वाला भाग। २. उक्त स्थान में होनेवाला कनपेड़ा नामक रोग।
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कर्ण-मृदंग  : पुं० [मध्य० सं०] कान के अन्दर की चमड़े की वह झिल्ली जिस पर आघात होने से शब्द सुनाई पड़ता है। (ईयर ड्रम)
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कर्ण-वर्जित  : वि० [तृ० त०] जिसे कान न हों। कर्णहीन। पुं० सर्प। साँप।
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कर्ण-वेध  : पुं० [ष० त० ] हिंदुओं में एक संस्कार जिसमें छोटे बालकों (विशेषतः लड़कियों के) के कान छेदे जाते हैं। कन-छेदन।
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कर्ण-स्त्राव  : पुं० [ष० त० ] १. कान बहने का रोग। २. कान में से निकलने या बहनेवाला मवाद।
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कर्ण-हीन  : वि० [तृ० तृ०] जिसे कान न हों। बिना कानों का। पुं० साँप।
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कर्णक  : पुं० [सं०√कर्ण,+ण्वुल्—अक] १. किसी चीज में कान की तरह बाहर निकला हुआ अंग। २. वृक्ष की डालियाँ और पत्ते। ३. एक प्रकार की लता। ४. एक प्रकार का सन्निपात जिसमें रोगी बहरा हो जाता है। (वैद्यक)
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कर्णधार  : पुं० [सं० कर्ण√धृ (धारण) +णिच् +अण्] १. वह मल्लाह जिसके हाथ में नाव की पतवार रहती है। २. केवट। मल्लाह। ३. पतवार। ४. वह व्यक्ति जिसके हाथ में किसी बड़े काम की सारी व्यवस्था हो।
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कर्णपाली  : स्त्री० [सं० कर्ण√पाल् (रक्षा करना) + अण्-ङीप्] १. कान का नीचे की ओर लटकनेवाला बाहरी कोमल भाग। कान की लौ। २. कान में पहनने का एक आभूषण। बाली।
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कर्णपूर  : पुं० [सं० कर्ण√पूर् (पूर्ण करना) +अण्] १. सिरिस का पेड़। २. अशोक वृक्ष। ३. नीला कमल। ४. करनफूल।
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कर्णाट  : पुं० [सं० कर्ण√अट् (गति) +अच्] १. दक्षिण भारत का कर-नाटक नामक प्रदेश। २. संपूर्ण जाति का एक राग जो मेध राग का पुत्र कहा गया है।
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कर्णाटक  : पुं० [सं० कर्णाट+ कन् ] =कर्णाट।
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कर्णाटी  : स्त्री० [सं० कर्णाट+ ङीष्] १. कर्णाट देश की स्त्री। २. कर्णाट देश की भाषा ३. हंसपदी लता। संपूर्ण जाति की एक शुद्ध रागिनी जो मालव या किसी मत से दीपक राग की पत्नी है। ५. शब्दालंकार अनुप्रास की एक वृत्ति जिसमें केवल कवर्ग के अक्षर आते हैं।
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कर्णादर्श  : पुं० [कर्ण-आदर्श, ष० त०] कान में पहनने का फूल। करनफूल।
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कर्णारि  : पुं० [कर्ण-अरि, ष० त०] कर्ण के शत्रु, अर्जुन।
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कर्णिक  : वि० [सं० कर्ण+ठन्—इक] १. (प्राणी) जिसे कान हों। कानोंवाला। २. (व्यक्ति) जिसके हाथ में कर्ण या पतवार हो। पुं० कर्णधार। माँझी।
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कर्णिका  : स्त्री० [सं० कर्ण + कन्—टाप्, इत्व] १. कान में पहनने की बाली। २. कमल का छत्ता। ३. सफेद गुलाब। सेवती। ४. अरनी का पेड़। ५. मेठासींगी। ६. लिखने की कलम। लेखनी। ७. हाथ में की बीच की उँगली। ८. पौधों, वृक्षों आदि का वह डंठल जिसमें फल-फूल लगते हैँ। ९. हाथी की सूंड की नोक। १॰ एक पकार का योनि-रोग।
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कर्णिकाचल  : पुं० [सं० कर्णिका-अचल० मध्य० स०] सुमेरु पर्वत।
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कर्णिकार  : पुं० [सं० कर्णि√कृ (करना)+अण्] १. कनकचंपा का पेड़ और फूल। २. एक प्रकार का अलतास।
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कर्णी  : स्त्री० [सं० कर्ण+ङीष्] १. एक प्रकार का बाण जिसका अगला भाग (नोक) कान के आकार का होता था।
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कर्णी (र्णिन्)  : वि० [सं० कर्ण+इनि] १. कानवाला। जिसे कान हों। २. बड़े कानोंवाला। पुं० १. पुराणानुसार सात वर्ष पर्वतों में से एक। २. कर्णधार, माँझी।
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कर्णोंपर्णिका  : स्त्री, [सं०—कर्ण-उपकर्ण, सुस्सुपा सं० +ठन्—इक्, टाप्,]= कर्ण परंपरा। (देखें)
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