इह/ih

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इह  : सर्व० [सं० इदम्+ह, इ आदेश] १. यह। जैसे—इह काल, इह लोक आदि। २. पुरानी हिंदी में ‘यह’ का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने से पहले प्राप्त होता है। उदाहरण—दास तुलसी खेद खिन्न आपन्न इह, सोक संपन्न अतिसै सभीतं।—तुलसी।
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इह-काल  : पुं० [कर्म० स०] इस लोक में प्राप्त होनेवाला जीवन।
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इह-लीला  : स्त्री० [सं०] इस लोक में बीतनेवाला जीवन या उसमें होनेवाले सब कार्य। जैसे—तीस ही वर्ष की आयु भोगकर उन्होंने अपनी इह-लीला समाप्त की।
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इह-लोक  : पुं० [कर्म० स०] (नरक, बैकुंठ, स्वर्ग आदि से भिन्न) यह जगत या लोक जिसमें हम सब लोग रहते हैं।
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इह-लौकिक  : वि० [सं० ऐहलौकिक] इस लोक से संबंध रखनेवाला।
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इहइ  : सर्व० =यही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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इहवाँ  : क्रि० वि० [सं० इह] इस जगह। यहाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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इहवैं  : क्रि० वि० =यहीं। (इसी जगह)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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इहाँ  : क्रि० वि० =यहाँ। उदाहरण—इहाँ प्रात जागे रघुराई।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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इहामृग  : पुं० =ईहामृग।
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इहिं  : सर्व० [सं० इह] १. इसको। इसे। २. इसके। उदाहरण—कहा प्रीति इहिं लेखे।—तुलसी। ३. इस। उदाहरण—इहिं आँगन बिहरत मेरे बारे।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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इहे  : सर्व० [?]=इहै।
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इहै  : सर्व०=यही। (यह ही)। उदाहरण—इह हमार बड़ी सेवकाई।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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