अपर/apar

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अपर  : वि० [सं०√पृ (पूर्ण करना)+अप्, न० त०] [स्त्री० अपरा, भाव० अपरत्व] १. जो पर या बाद का न हो। पहला। २. जिसके बाद या उपरांत कुछ या कोई न हो। ३. जिससे बढ़कर और कोई न हो। ४. प्रस्तुत से भिन्न। और कोई। दूसरा। ५. क्रम, श्रेष्ठता आदि के विचार से किसी के उपरांत या बाद में पड़नेवाला। परवर्ती। ६. जितना हो या हो चुका हो, उससे और अधिक या आगे का। (फर्दर) जैसे—अपर उपशम। ७. पीछे की ओर का। पिछला। जैसे—अपर काय=शरीर का पिछला भाग। ८. किसी दूसरी जाति या वर्ग का। विजातीय। ९. अधम। नीच। पु० हाथी का पिछला आधा भाग। २. बैरी। शत्रु।
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अपर बल  : वि० [सं० प्रबल] १. बलवान। २. उद्धत। ३. बहुत अधिक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अपर-दक्षिण  : पुं० [अव्य० स०] दक्षिण और पश्चिम का कोना। नैऋत्य कोण।
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अपर-दिशा  : स्त्री० [कर्म० स०] पश्चिम दिशा।
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अपर-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. सौर मास का कृष्ण पक्ष। २. प्रतिवादी। मुद्दालेह।
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अपर-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] वंशज।
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अपर-प्रणेय  : वि० [तृ० त०] सहज में दूसरों से प्रभावित होनेवाला।
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अपर-भाव  : पुं० [कर्म० स०] १. भिन्न होने का भाव। २. अन्तर। भेद।
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अपर-रात्र  : पुं० [एकदेशि त० स०] रात का अंतिम या पिछला पहर। तड़का। प्रभात।
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अपर-लोक  : पुं० [कर्म० स०] १. अन्य या दूसरा लोक। २. स्वर्ग।
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अपर-वस्त्र  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके विषम चरणों में दो नगण, एक रगण और लघु गुरु तथा सम चरणों में एक नगण, दो जगण और रगण होता है।
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अपरक्त  : वि० [सं० अप√रञ्ज (राग)+क्त] अपरक्ति या अपराग से युक्त। २. जिसमें कोई रंग या रंगत न हो। ३. असंतुष्ट और खिन्न। ४. जिसमें रक्त न हो। रक्तहीन।
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अपरंच  : अव्य० [सं० द्व० स०] १. और भी। २. फिर भी। ३. इसके पीछे या बाद। उपरांत।
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अपरछन  : वि० [सं० अप्रच्छन] जो प्रच्छन (छिपा या ढका हुआ) न हो। खुला हुआ। स्पष्ट। वि०=प्रच्छन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरज  : वि० [अपर√जन् (उत्पत्ति)+ड] जो बाद में उत्पन्न हुआ हो। पुं० प्रलयाग्नि।
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अपरता  : स्त्री० [सं० अपर+तल्—टाप्] अपर होने की अवस्था या भाव। परायापन। स्त्री० [सं० अ=नहीं+परता=परायापन] भेद-भाव—शून्यता। अपनापन।
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अपरति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अनुराग, प्रेम या रति का अभाव। २. असंतोष। ३. अलगाव। विच्छेद।
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अपरती  : स्त्री० [हिं० आप+सं० रति=लीनता] केवल अपना ध्यान रखना। स्वार्थ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरत्र  : अव्य० [सं० अपर+त्रल्] और कहीं। अन्यत्र।
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अपरत्व  : पुं० [सं० अपर+त्व] १. ‘अपर’ होने का भाव। २. न्यायशास्त्रानुसार चौबीस गुणों में से एक।
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अपरना  : स्त्री० [सं० अ=नहीं+पर्ण=पता] पार्वती का एक नाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरंपार  : वि० [सं० अपर=दूसरा+हिं० पार=छोर] १. जिसका पारावार या कूल-किनारा न हो। अपार। २. बहुत अधिक। बेहद। असीम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपरमपार  : वि० =अपरंपार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अपररूप  : पुं० [कर्म० स०] [भाव० अपर-रूपता] रसायन शास्त्र में किसी तत्त्व का कोई ऐसा दूसरा रूप जो कुछ दूसरे विशिष्ट गुणों से युक्त हो या कुछ भिन्न प्रकार का हो। (एल्लोट्रोप) जैसे—कार्बन नामक तत्त्व काजल, कोयले, सीसे और हीरे में रहता तो है, पर अपने अपर रूपों में रहता है।
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अपररूपता  : स्त्री० [सं० अपररूप+तल्-टाप्] अपररूप होने की अवस्था, गुण या भाव। (एल्लोट्रोपी)
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अपरवश  : वि० [सं० न० त०] जो परवश न हो।
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अपरस  : वि० [सं० अ०+हिं० परस=स्पर्श] १. जिसे किसी ने छुआ न हो। २. अस्पृश्य। ३. अनासक्त। पुं० हथेली या तलुए में होनेवाला एक चर्म रोग।
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अपरा  : स्त्री० [सं० अपर+टाप्] १. अध्यात्म या ब्रह्मविद्या को छोड़कर अन्य विद्या। २. लौकिक या पदार्थ-विद्या। ३. पश्चिम दिशा। ४. ज्येष्ठ के कृष्ण पक्ष की एकादशी।
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अपरांग  : पुं० [सं० अपर—अंग, ष० त०] गुणीभूत व्यंग्य का एक भेद। (साहित्य)
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अपराग  : पुं० [सं० अप√रञ्ज्+घञ्] १. प्रेम या राग का विरोधी भाव। २. वैर। शत्रुता। ३. अरुचि। ४. दे० ‘अपरक्ति’।
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अपराग्नि  : स्त्री० [सं० अपर-अग्नि, कर्म० स०] १. गार्हपत्य अग्नि। २. चिता की आग।
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अपराजित  : वि० [सं० न० त०] जो पराजित न हुआ हो। पुं० १. विष्णु। २. शिव।
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अपराजिता  : स्त्री० [सं० अपराजित+टाप्] १. विष्णुक्रांता लता। कौवाठोठी। २. कोयल। ३. दुर्गा। ४. शंखिनी आदि पौधे। ५. अयोध्या का एक नाम। ६ उत्तर-पूर्व विदिशा। ७. एक योगिनी। ८. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, एक रगण, एक सगण, एक लघु और एक गुरु होता है।
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अपराजेय  : वि० [सं० न० त०] जो पराजित न किया जा सके। स्त्री० पराजित न होने का भाव। अपराजय।
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अपरांत  : पुं० [सं० अपरा-अंत, ष० त०] पश्चिम का देश या प्रांत।
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अपरांतक  : पुं० [सं० अपरांत+कन्] पश्चिम दिशा में स्थित एक पर्वत। (पुरा०)
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अपरांतिका  : स्त्री० [सं० अपरांत+कन्—टप्, इत्व] वैताल छंद का वह भेद जिसमें चौथी और पाँचवीं मात्राएँ मिलकर दीर्घ अक्षर बन जाती हैं।
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अपराद्ध  : वि० [सं० अप√राध् (सिद्धि)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसने अपराध किया हो। २. (कार्य) जिसका आचरण कानून की दृष्टि में अपराध माना जाय।
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अपराध  : पुं० [सं० अप√राध्+घञ्] १. ऐसा अनुचित कार्य जिसने किसी का अपमान या हानि हो। (आफेन्स) २. कोई ऐसा अनुचित फलतः दंडनीय काम जो किसी विधि या विधान के विरुद्ध हो। ३. कोई अनुचित या बुरा काम। ४. दोष। ५. पाप। ६. भूल-चूक।
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अपराध-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि लोग अपराध क्यों करते हैं और उनकी यह प्रवृत्ति कैसे ठीक हो सकती है। (क्रिमिनालजी)
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अपराध-स्वीकरण  : पुं० [ष० त०] न्यायाधीश अथवा किसी उच्च अधिकारी के सामने अपना किया हुआ अपराध स्वीकार करना। (कन्फेशन)
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अपराधशील  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जो प्रायः और स्वभावतः अपराध करता रहता हो। (क्रिमिनल)
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अपराधि-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] दे० ‘भेद-साक्षी’।
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अपराधिक  : वि० दे० ‘अपराधिक’।
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अपराधी (धिन्)  : वि० , पुं० [सं० अप√राध्+णिनि] १. वह जिसने अपराध किया हो। २. कानून की दृष्टि में ऐसा व्यक्ति जिसने अपराध किया हो।
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अपरामृष्ट  : वि० [सं० न० त०] १. जिसको किसी ने छुआ न हो। अछूता। २. अव्यवहृत। कोरा।
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अपरार्क  : वि० [सं० अपर—अर्क, कर्म० स०] सूर्य के समान तेजस्वी।
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अपरांर्द्ध  : पुं० [सं० अपर—अर्द्ध, कर्म स०] दूसरा या बादवाला आधा अंश। उत्तरार्द्ध।
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अपरावर्त्ती (तिन्)  : वि० [सं० परा√वृत् (बरतना)+णिनि, न० त०] १. न लौटनेवाला। २. पीछे न हटनेवाला। ३. किसी काम से मुँह न मोड़नेवाला। मुस्तैद।
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अपराह्ल  : पुं० [सं० अपर—अहन्, एकदेशि त० स०] १. दिन का वह भाग जो दोपहर या मध्याह्न के बाद आरंभ होता है। (पी०एम०) २. साधारण बोलचाल में तीसरा पहर।
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अपराह्ल  : पुं०=अपराह्ल।
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अपरिक्त  : स्त्री० [सं० अप√रञ्ज+क्तिन्] १. अपरक्त होने की अवस्था या भाव। अपराग। २. अनुराग, प्रेम, सद्भावना आदि का अभाव। (डिस-एफेक्शन)
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अपरिक्रम  : वि० [सं० न० ब०] १. जो चल न सके । २. जिसमें परिक्रम का अभाव हो। उद्योगहीन। ३. कार्य अथवा परिश्रम करने में असमर्थ।
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अपरिगत  : वि० [सं० न० त०] १. जो पहचाना हुआ न हो। अपरिचित। २. जो जाना हुआ न हो। अज्ञात।
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अपरिगृहीत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिग्रहण न हुआ हो। २. जो गृहीत न हुआ हो। ३. अस्वीकृत। ४. त्यक्त।
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अपरिगृहीतागमन  : पुं० [सं० अपरिगृहीता, न० त०, अपरिगृहीता-गमन, तृ० त०] जैन शास्त्रानुसार कुमारी या विधवा के साथ गमन करना जो अतिचार माना गया है।
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अपरिग्रह  : पुं० [सं० न० त०] १. दान न लेना। २. जीवन निर्वाह के लिए जो अति आवश्यक हो उसे छोड़कर और कुछ ग्रहण न करना। ३. मोह, राग-द्वेष, हिंसा आदि का त्याग। ४. योगशास्त्र में पाँचवाँ यम। संगत्याग। ५. ब्रह्मचर्य।
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अपरिग्राह्य  : वि० [सं० न० त०] जो ग्रहण या स्वीकृत किये जाने के योग्य न हो।
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अपरिचय  : पुं० [सं० न० त०] [वि० अपरिचित] परिचय का अभाव। जान-पहिचान न होना।
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अपरिचयिता  : स्त्री० [सं० अपरिचयिन्+तल्—टाप्] अपरिचित होने की अवस्था या भाव।
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अपरिचयी (यिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिचय औरों से न हो। २. जो अधिक लोगों से परिचय या मेल-जोल न रखता हो।
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अपरिचित  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिससे परिचय न हो। २. (विषय) जिसका पहले से परिज्ञान न हो।
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अपरिच्छद  : वि० [सं० न० ब०] १. आच्छादन या आवरण से रहित। खुला हुआ। २. नंगा। नग्न। ३. दरिद्र। (क्व०)
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अपरिच्छन्न  : वि [सं० न० त०] १. जो ढका न हो। आवरण-रहित। २. जिसका विभाग न हो सके। अभेद्य। मिला हुआ। ४. असीम। ५. सर्वव्यापक।
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अपरिच्छेद  : पुं० [सं० न० त०] १. बिलगाव, भेद, विभाग आदि का अभाव। २. निर्णय, न्याय या विवेक का अभाव।
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अपरिणत  : वि० [सं० न० त०] १. जो परिणित न हुआ हो। २. जिसमें कोई परिवर्तन या विकार न हुआ हो। ज्यों का त्यों।
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अपरिणय  : पुं० [सं० न० त०] १. परिणय न होने का भाव। २. विवाहित न होने की अवस्था। जैसे—कौमार्य, ब्रह्मचर्य आदि।
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अपरिणामी (मिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें परिणाम या विकार न हो। २. जिसका दशा में कोई परिवर्त्तन न हो, फलतः एक रूप या एकरस।
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अपरिणीत  : वि० [सं० न० त०] जिसका परिणय या विवाह न हुआ हो। अविवाहित।
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अपरिपक्व  : वि० [सं० न० त०] १. जो परिपक्व न हो। कच्चा। २. जो अच्छी तरह पका या पूरा न हुआ हो। अध-कचरा। अधूरा।
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अपरिपणित संधि  : स्त्री० [सं० परि√पण् (व्यवहार करना) +क्त, न० त०, अपरिणित—संधि, कर्म० स०] दूसरे को धोखा देने के लिए की जानेवाली कपट-संधि।
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अपरिमाण  : वि० [सं० न० ब०] जिसका परिमाण या माप न हो। अपरिमित। पुं० परिमाण का अभाव।
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अपरिमित  : वि० [सं० न० त०] १. जो परिमित न हो। २. जिसकी कोई सीमा न हो। असीम। बेहद। (अनलिमिटेड) ३. असंख्य। अनगिनत।
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अपरिमेय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिमाण जाना न जा सके। जिसकी नाप-जोख न हो सके। २. जो कूता न जा सके। ३. बहुत अधिक।
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अपरिवर्त  : वि० [सं० परि√वृत्+घञ्, न—परिवर्त, न० ब०] जिसमें किसी प्रकार का परिवर्त्तन या फेर-बदल न हो सकता हो या न होता हो।
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अपरिवर्तनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें परिवर्त्तन न हो सके। जो बदला न जा सके। २. जो बदले में न दिया जा सके। ३. जिसमें परिवर्त्तन न होता हो। सदा एक-रस रहनेवाला। नित्य।
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अपरिवर्तित  : वि० [सं० न० त०] जिसमें कोई परिवर्त्तन या फेर-बदल न हुआ हो। ज्यों का त्यों।
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अपरिवृत  : वि० [सं० न० त०] जो ढका या घिरा न हो, अपरिच्छन्न।
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अपरिशेष  : वि० [सं० न० ब०] जिसका परिशेष न होता हो। अविनाशी। नित्य।
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अपरिष्कृत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिष्करण या संस्कार न हुआ हो। असंस्कृत। ३. जो ठीक या साफ न किया गया हो। ३. मैला-कुचैला या गंदा। ४. अनगढ़। बेडौल।
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अपरिसर  : वि० [सं० न० ब०] १. जो निकट न हो। दूर। २. जिसमें विस्तार का अभाव हो। विस्तार-रहित। ३. अप्रशस्त। पुं० [न० त०] विस्तार का अभाव।
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अपरिहरणीय  : वि० [सं० न० त०] जिसका परिहरण करना अनुचित या निषिद्ध हो।
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अपरिहार  : वि० [न० ब०]=अपरिहार्य। पुं० [न० त०] दूर करने के उपाय का अभाव।
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अपरिहारित  : भू० कृ० [सं० न० त०] जिसका परिहार न किया गया हो।
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अपरिहार्य  : वि० [सं० न० त०] १. जिसका परिहार या त्याग न हो सके। अत्याज्य। २. जिसके बिना काम न चल सके। अनिवार्य। ३. न छीनने योग्य।
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अपरीक्षित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी परीक्षा न की गई हो अथवा न ली गई हो। २. जिसके रूप, गुण, वर्ण आदि का अनुसंधान न हुआ हो। ३. अप्रमाणित।
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अपरुष  : वि० [सं० न० त०] जो परुष या कठोर न हो। कोमल। मृदुल।
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अपरूप  : वि० [सं ब० स०] १. बुरे रूपवाला। कुरूप। बदशकल। २. भद्दा। वि० [सं० आत्म-रूप] परम सुंदर। (बँगला से गृहीत) उदा०—मनु निरखने लगे ज्यों ज्यों कामिनी का रूप, वह अनंत प्रगाढ़ छाया फैलती अपरूप।—प्रसाद।
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अपरेण  : क्रि० वि० [सं अपर शब्द का तृतीयांत रूप] किसी की आड़ में या पीछे। किसी ओर हटकर। पुं० १. गणित ज्योतिष में, किसी आकाशस्थ पिंड का (पृथ्वी की गति और प्रकाश-किरण के विचलन के कारण) अपने स्थान से कुछ हटा हुआ या इधर-उधर दिखाई देना। २. नियत मार्ग या स्थान से इधर-उधर होना। (एबरेशन)
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अपरोक्ष  : वि० [सं० न० त०] १. जो परोक्ष न हो। प्रत्यक्ष। २. जिसे अपने सामने देख, समझ या सुन सकें।
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अपरोध  : पुं० [सं० अप√रुध् (रोकना)+घञ्] १. रुकावट। २. मनाही। वर्जन।
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अपरोप  : पुं० [सं० अप√रुह् (जनमना)+णिच्+घञ्] १. उन्मूलन। २. विध्वंस। ३. राज्यच्युति।
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अपर्ण  : वि० [सं० न० ब०] (वृक्ष) जिसमें पर्ण या पत्ते न हों।
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अपर्णा  : स्त्री० [सं० अपर्ण+टाप्] १. पार्वती जी का उस समय का नाम जब शिव के लिए तपस्या करते समय उन्होंने पत्ते तक खाना छोड़ दिया था। २. दुर्गा।
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अपर्तु  : वि० [सं० अप-ऋतु, प्रा० ब०] १. उचित समय पर न होनेवाला। बे-मौसम। २. (स्त्री) जिसकी ऋतु का समय बीत चुका हो।
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अपर्यंत  : वि० [सं० न० ब०] जिसका पर्यंत (सीमा) न हो। असीम।
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अपर्याप्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो पर्याप्त (पूरा या यथेष्ट) न हो। २. (न० ब०) असीम।
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अपर्याप्त-कर्म (न)  : पुं० [कर्म० स०] जैन-शास्त्रानुसार वह पाप-कर्म जिसके उदय से जीव के पूर्णता प्राप्त करने में बाधा होती है।
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अपर्याप्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] १. अपर्याप्त होने की अवस्था या भाव। २. पूर्णता का अभाव। कमी। त्रुटि। ३. अक्षमता। अयोग्यता।
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अपर्याय  : वि० [सं० न० ब०] जिसमें या जिसका कोई क्रम न हो। क्रम-हीन।
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अपर्व (न्)  : पुं० [सं० न० ब०] वह दिन जिसमें कोई पर्व न हो। वि० जिसमें पर्व या संधि न हो।
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अपर्वक  : वि० [सं० न० ब०, कप्] जिसके बीच में पर्व (जोड़ या संधि) न हो।
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