मोह/moh

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मोह  : पुं० [सं०√मुह् (मुग्ध होना)+घञ्] १. बेहोशी। मुर्च्छा। २. अज्ञान। नासमझी। ३. बेवकूफी। मूर्खता। ४. अज्ञान या भ्रम के कारण होनेवाला दोष या भूल। ५. दार्शनिक क्षेत्रों में मन की वह भूल या भ्रम जो उसे आध्यात्मिक या पारमार्थिक सत्य का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होने देता, और जिसके फलस्वरूप मनुष्य लौकिक पदार्थों को ही वास्तविक तथा सत्य समझकर इन्द्रियजन्य सुख-भोगों को ही प्रधान या मुख्य मानकर सांसारिक जंजालों में फँसा रहता है। ६. उक्त के आधार पर साहित्य में, तैतीस संचारी भावों में से एक जिसमें आघात, आपत्ति, चिन्ता, दुःख, भय आदि के कारण चित्त बहुत ही विफल हो जाता है। सिर में चक्कर आना, उचित-अनुचित का ज्ञान न रह जाना साफ दिखायी न देना और मूर्छित हो जाना इसके अनुभव बतलाये गये हैं। यथा-अदभुत दरसन, वेग, भय, अतिचिन्ता अति कोहू। जहाँ मूर्च्छन बिसमरन, लम्भत्तादि कहु मोह।—दे०। उदाहरण—राम को रूप निहारत जानकी मंगल कंकन के नग की परछाँही। याते सबै सुधि भूलि गई कर टेक रही, पल टारत नाही।—तुलसी। ७. प्राचीन भारत में एक प्रकार की तांत्रिक क्रिया जिसके द्वारा शत्रु का ज्ञान नष्ट करके उसे या तो भ्रम में डाल देते थे या मूर्च्छित कर देते थे। ८. लोक में ऐसा प्रेम या मुहब्बत जिसके फलस्वरूप विवेक ठीक तरह से काम करने के योग्य न रह जाय। ९. कष्ट। दुःख।
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मोह-निद्रा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. मोह के कारण आनेवाली निद्रा या बेहोशी। २. वह अवस्था जिसमें मनुष्य अज्ञान, अहंकार या भ्रमवश वास्तविक स्थिति की अपेक्षा करता है।
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मोह-रात्रि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. पुराणानुसार वह प्रलय काल जो ब्रह्मा के पचास वर्ष बीतने पर होता है। दैनंदिनी प्रलय। पुं० जन्माष्टमी की रात्रि। भाद्रपद कृष्णा अष्टमी।
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मोहक  : वि० [सं०√मुह्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. मोह उत्पन्न करनेवाला। लुभावना। मोहने-वाला। जिसके कारण मोह हो। २. मन को आकृष्ट या मोहित करनेवाला।
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मोहकार  : पुं० [हिं० मुँह+कड़ा या कार (प्रत्यय)] धातु के घड़े का गला समेत मुँहड़ा। (ठठेरा)
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मोहठा  : पुं० [सं०] दस अक्षरों का एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन रगण और एक गुरु होता है। बाला।
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मोहड़ा  : पुं० [हिं० मुँह+ड़ा (प्रत्यय)] १. किसी पात्र का मुँह या ऊपरी खुला हुआ भाग। मुहावरा—मोहड़ा लगना=फुटकर बिक्री के उद्देश्य से अन्न के बोरे खोलना और उनकी दुकानें या ढेरियाँ लगाना। २. अगला या ऊपरी भाग। ३. मुख। ४. दे० ‘मोहरा’।
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मोहतमिम  : पुं० [अ० मुहतमिम] एहतमाम अर्थात् प्रबन्ध करनेवाला। प्रबन्धक। व्यवस्थापक।
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मोहतमिल  : वि० [अ० मुहतमिल] संदिग्ध।
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मोहतरम  : वि० [अ० मुहतरम्] श्रीमान्। महोदय।
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मोहताज  : वि० [अ०] [भाव० मोहताजी] १. धनहीन। निर्धन। गरीब। २. जिसे किसी चीज या बात की विशेष अपेक्षा हो, और इसीलिए जो औरों पर निर्भर रहता अथवा उनका मुँह ताकता हो। ३. (अपाहिज) जिसे दूसरे की सहायता की आवश्यकता हो।
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मोहताजी  : स्त्री० [हि० मोहताज+ई (प्रत्यय)] मोहताज होने की अवस्था या भाव।
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मोहदी  : पुं० [अ० महदी] सैयद मुहीउद्दीन नामक महात्मा जो जायसी के गुरु थे। उदाहरण—गुरु मोहदी खेववू मैं सेवा।—जायसी।
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मोहन  : वि० [सं०√मुह्+णिच्+ल्यु-अन] १. मोह लेनेवाला। २. मोहित करनेवाला। पुं० १. शिव। २. श्रीकृष्ण। ३. कामदेव के पाँच वाणों में से एक बाण का नाम जिसका काम मोहित करना है। ४. धतूरा। ५. एक तांत्रिक प्रयोग जिससे किसी को मूर्च्छित किया जाता है। ६. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जिससे शत्रु मोह से युक्त या मूर्च्छित किया जाता था ७. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक सगण और एक जगण होता है। ८. संगीत में बारह तालों का एक प्रकार का ताल जिसमें सात आघात और पाँच खाली होते हैं। ९. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग। १॰. कोल्हू की कोठी अर्थात् वह स्थान जहाँ दबने के लिए ऊख के गाँड़े डाले जाते हैं। इसे कुडी और गगरा भी कहते हैं।
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मोहन-भोग  : पुं० [हिं० मोहन+भोग] १. एक प्रकार का हलुआ। २. एक तरह की बंगाली मिठाई। ३. एक प्रकार का केला। ४. एक प्रकार का आम। ५. एक प्रकार का चावल।
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मोहन-माला  : स्त्री० [हिं] सोने की गुरिया या दानों की पिरोई हुई माला।
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मोहनक  : पुं० [सं० मोहन+कन्] १. एक प्रकार का सम-वृत्त वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में गुरु और तीन सगण होते हैं। यथा—आये दशरत्थ बरात सजे। दिग्पाल गयद्रनि देखि लजे।—केशव। २. चैत्र मास।
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मोहना  : अ० [सं० मोहन] १. मोहित होना। २. बेहोश या मूर्च्छित होना। ३. मोह के वश में होना। ४. भ्रम से पड़ना। स० १. मोहित करना। २. मोह या भ्रम में डालना। स्त्री० [सं० मोहन+टाप्] १. तृण। २. एक प्रकार की चमेली।
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मोहनास्त्र  : पुं० [सं० मोहन-अस्त्र, मध्य० स] एक प्रकार का प्राचीन काल का अस्त्र जिसके प्रभाव से शत्रु मोह के वश में या मूर्च्छित हो जाता था।
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मोहनी  : स्त्री० [सं० मोहन+ङीष्] १. ऐसी क्रिया, रूप या शक्ति जिससे किसी को पूरी तरह से मोहित किया जा सके। जैसे—उसकी आँखों में कुछ विलक्षण मोहनी थी। २. कोई ऐसा तांत्रिक प्रयोग अथवा कोई ऐसी क्रिया जिससे किसी को अपने वश में किया जा सके। मुहावरा—मोहनी डालना=ऐसा प्रभाव डालना कि कोई पूरी तरह से मोहित हो जाय। मोहनी लगना=उक्त प्रकार की शक्ति के प्रभाव से किसी पर मोहित होना। मोहनी लाना=मोहनी डालना। (देखें ऊपर) ३. लुभावनी और सुन्दरी स्त्री। ४. ज्ञान-क्षेत्र में माया जो लोगों को मोहित करके अपनी ओर आकृष्ट करती है। ५. एक अप्सरा का नाम। ६. दे० ‘मोहिनी’ (भगवान का स्त्री० रूप)। स्त्री० [सं० मोहन] १. एक प्रकार का लम्बा सूत सा कीड़ा जो हल्दी के खेतों में पाया जाता है। इससे तांत्रिक लोग वशीकरण यंत्र बनाते हैं। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सगण, भगण, तगण, यगण और सगण होते हैं। ३. एक प्रकार की मिठाई। ४. पोई का साग। वि० स्त्री० मोहित करनेवाली।
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मोहनीय  : वि० [सं०√मुह्+णिच्+अनीयर] मोहित किये जाने के योग्य। जिसे मोहित किया जा सके या किया जाने को हो।
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मोहफिल  : स्त्री०=महफिल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहब्बत  : स्त्री०=मुहब्बत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहमिल  : वि० [अ० मोह्-मिल] १. जिसका कोई अर्थ न हो। निरर्थक। २. जिसका अर्थ स्पष्ट न हो। ३. छोड़ा हुआ। त्यक्त।
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मोहर  : स्त्री० [फा० मुह्र] १. कोई ऐसी चीज जिस पर का नाम या और कोई चिन्ह अंकित हो और जिसका ठप्पा कागजों आदि पर मालिक की ओर से यह सूचित करने के लिए लगाया जाता है कि यह प्रामाणिक या असली है। मुद्रा। (सील)। क्रि० प्र०—करना।—देना।—लगना। २. उपयुक्त वस्तु की छाप जो कागज या कपड़े आदि पर ली गई हो। स्याही लगे हुए ठप्पे को दबाने से बने हुए चिन्ह या अक्षर। ३. लाक्षणिक रूप में कोई ऐसी चीज या बात जो किसी प्रकार का मुख या विवर ऊपर से पूरी तरह से बन्द कर देती हो। जैसे—सरकार ने हम लोगों के मुँह पर मोहर लगा रखी है। ४. मुगल शासन में सोने का वह सिक्का जिसकी तौल, धातु आदि की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए टकसाल या शासन का ठप्पा लगा रहता था।
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मोहरा  : पुं० [हिं० मुँह+रा (प्रत्यय)] [स्त्री० मोहरी] १. किसी बरतन का मुँह या ऊपरी खुला भाग। २. किसी पदार्थ का ऐसा अगला या ऊपरी भाग जो प्रायः मुँह के आकार या रूप का हो। ३. सेना की अगली पंक्ति जिसे सब से पहले शत्रु का सामना करना पड़ता है। मुहावरा—मोहरा लेना=सामने से जमकर मुकाबला करना और लड़ना। ४. किसी चीज के ऊपर का छेद या मुँह। ५. वह जाली जो पशुओं के मुँह पर इसलिए बाँधी जाती है कि वे आस-पास की चीजों पर मुँह न डाल सकें। ६. घोड़े के मुँह पर पहनाया जानेवाला एक प्रकार का साज। ७. अँगिया या चोली की तनी या बंध जो स्तनों को अन्दर बन्द रखने के लिए ऊपर से गाँठ दे कर बाँध दिये जाते हैं। ८. शतरंज की गोटी। ९. मिट्टी का वह साँचा जिसमें कड़ा, पिछेली आदि गहने ढाल कर बनाये जाते थे। १॰. लकड़ी शीशे या बिल्लौर का वह बड़ा टुकड़ा जिससे रगड़कर कई तरह की चीजों में चमक लाई जाती है। ११. सोने चाँदी पर नक्काशी करने वालों का वह औजार जिससे रगड़ पर नक्काशी को चमकाते हैं। दुआली। १२. सिगिंया विष। पुं० [फा० मुँह्र] १. कपर्दिका। कौड़ी। २. माला आदि की गुरिया या मनका पुं० दे० ‘जहर मोहरा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहराना  : पुं० [फा० मुह्र+आना (प्रत्यय)] वह धन जो किसी कर्मचारी को मोहर करने के बदले में दिया जाय। मोहर करने का पारिश्रमिक।
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मोहरी  : स्त्री० [हिं० मोहरा का स्त्री० अल्पा०] १. किसी चीज का अगला या वह भाग जो मुँह की तरह हो। जैसे—पाजामे या बरतन की मोहरी। २. ऊपरी खुला हुआ कुछ अंश या भाग। ३. ऊंट की नकेल। स्त्री० [देश] एक प्रकार की मधुमक्खी जो खान-देश में होती है।
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मोहरुख  : वि० [सं० मुमूर्ष] १. जिसका मरण काल आसन्न हो। २. मूर्च्छित। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहर्रिर  : पुं०=मुहर्रिर।
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मोहलत  : स्त्री० [अ] १. फुरसत। अवकाश। २. काम से मिलनेवाली छुट्टी। ३. किसी काम के लिए नियत की हुई अवधि। क्रि० प्र०—देना।—माँगना।—मिलना।—लेना।
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मोहल्ला  : पुं० =मुहल्ला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहसिन  : वि० [अ० मुहसिन] एहसान या उपकार करनेवाला। उपकारक।
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मोहाड़  : पुं० [हिं० मुँह] १. तालाब का बाँध। २. दे० ‘मोहड़ा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहार  : पुं० [सं० मधुकर प्रा० महुअर] १. मधुमक्खी की एक जाति जो सबसे बड़ी होती है। सारंग। २. मधुमक्खी का छत्ता। ३. भौंरा। पुं० [हिं० मुँह+आर (प्रत्यय)] १. मुँह। २. द्वार। पुं०=मोहरा। स्त्री०=मुहार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहारनी  : स्त्री०=मुहारनी।
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मोहाल  : पुं० १. =महाल। २. =मोहार। वि० =मुहाल।
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मोहिं  : सर्व० [सं० मह्यं, पा० मय्हं] मुझे। (अवधी, व्रज)
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मोहित  : भू० कृ० [सं०√मोह+इतच्] १. जिसके मन में मोह उत्पन्न हुआ हो या किया गया हो। २. पूर्ण रूप से आसक्त या मुग्ध। ३. मोह या भ्रम में पड़ा हुआ।
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मोहिनी  : वि० स्त्री० [सं०√मुह+णिच्+णिनि+ङीष्] मोहित करने या मोहनीवाली। स्त्री० १. माया। मोह। २. भगवान् का वह सुंदरी स्त्रीवाला रूप जो उन्होंने समुद्र मंथन के उपरांत अमृत बाँटने के समय असुरों को मोहित करके उन्हें धोखे में डालने के लिए धारण किया था। इसी रूप में उन्होंने देवताओं को अमृत तथा असुरों को विष दिलाया था। ३. पंद्रह अक्षरों के एक वर्णिक छन्द का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सगण, भगण, तगण, यगण और सगण होते हैं। ४. एक प्रकार की अर्धसम वृत्ति जिसके पहले और तीसरे चरणों में सात मात्राएं होती है, और प्रत्येक चरण के अंत में एक सगण अवश्य होता है। ५. वैशाख शुक्ला एकादशी। ६. त्रिपुर नामक पौधा और उसका फूल।
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मोहिल  : वि० [हि० मोह] १. मोह से युक्त। २. मोहित करनेवाला। उदाहरण—नवल मोहिलौ मोहि तजौ जिन, तोहि सौंह प्रिय पावन।—सहचरिशरण।
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मोही (हिन्)  : वि० [सं० मोह+इनि] [स्त्री० मोहिनी] १. मोह या भ्रम में पड़ा हुआ। अज्ञानी। २. मोह करनेवाला। ३. जिसके मन में सभी के प्रति मोह या प्रेम हो। ४. लालची। ५. [√मुह्+णिच्+णिनि] मोहित करनेवाला।
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मोहेला  : पुं० [?] एक प्रकार का चलता गाना।
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मोहेली  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मछली।
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मोहोपमा  : स्त्री० [सं० मोह-उपमा० मध्य० स०] अलंकार साहित्य में उपमा अलंकार का एक भेद जिसे कुछ लोग भ्रांति अलंकार कहते हैं।
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