शब्द का अर्थ
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अर्ध :
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वि० [सं०√ऋध् (वृद्धि)+णिच्+अच्] १. किसी वस्तु के दो बराबर या एक जैसे भागों में हर एक का आधा। (हाफ) जैसे—अर्धवृत्त। २. जो अभी अधूरा, आधे के लगभग या अपूर्ण हो। आँशिक। (सेमी) जैसे—अर्ध सम्य। ३. जो तुलनात्मक दृष्टि से पूरा न होने पर भी थोड़ा बहुत हो। जैसे—अर्ध-बर्बर, अर्ध-सरकारी आदि। ४.किसी निश्चित काल या मान के दो समान भागों में से हर भाग में होनेवाला। (सेमी) जैसे—अर्ध वार्षिक। |
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अर्ध-काल :
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पुं० [ब० स०] शिव। |
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अर्ध-कूट :
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पुं० [ब० स०] शिव। |
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अर्ध-गंगा :
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स्त्री० [एकदेशि, त० स०] दक्षिण भारत की कावेरी नदी। |
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अर्ध-गुच्छ :
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पुं० [कर्म० स०] चौबीस लड़ियों का हार या माला। |
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अर्ध-गोल :
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पु० [एकदेशि, त० स०] दे० गोलार्द्ध। वि० १. गोले का आधा। २. जो आधा गोल हो। |
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अर्ध-चंद्र :
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पुं० [एकदेशित० स०] १. अष्टमी का चंद्रमा जो आधा होता है। २. मोर-पंख पर की आँख या चन्द्रिका जो देखने में आधे चंद्रमा के समान होती है। ३. नखक्षत्र। ४. अर्द्ध चंद्रकार नोक वाला बाण। ५. सानुनासिक ध्वनि का चिन्ह। चंद्रविंदु। ६. एक प्रकार का त्रिपुड। ७. किसी को धक्का देकर निकालने के लिए उसकी गरदन पकड़ने की मुद्रा। गरदनियाँ। (व्यंग्य। |
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अर्ध-चंद्रिका :
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स्त्री० [एकदेशि, त० स०] कन-फोड़ा या तिधारा नाम की लता। |
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अर्ध-जल :
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पुं० [ब० स०] दे० ‘अर्धोंदक’। |
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अर्ध-ज्योतिका :
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स्त्री० [एकदेशि त० स०] संगीत में चौदह मात्राओं का एक ताल। |
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अर्ध-तिक्त :
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पुं० [कर्म० स०] नेपाल में होनेवाली एक प्रकार की नीम। (वृक्ष) |
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अर्ध-तूर :
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पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का पुराना बाजा। |
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अर्ध-नयन :
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पुं० [कर्म० स०] देवताओं का तीसरा नयन या नेत्र जो मस्तक या ललाट पर होता है। |
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अर्ध-नराच :
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पुं० [सं० अर्धनाराच] १. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में जगण, रगण और लघु गुरु होता है। इसे प्रमाणिका भी कहते हैं। २. एक प्रकार का तीर या बाण। |
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अर्ध-नाराज :
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पुं० [कर्म० स०]=अर्ध-नराच। |
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अर्ध-नारायण :
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पुं० [कर्म० स०] विष्णु का एक रूप। |
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अर्ध-नारीश :
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पुं० [अर्ध-अर्धाग्ङ-नारी, स० त०, अर्धनारी-ईश, ष० त०] =अर्ध-नारीश्वर। |
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अर्ध-नारीश्वर :
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पुं० [सं० अर्ध-नारी, स० त०, अर्धनारी-ईश्वर, ष० त०] १. शिव का एक रूप जिसमें उनके शरीर के आधे भाग में स्वयं उनका तथा शेष आधे भाग में पार्वती का रूप होता है। २. वैद्यक में, एक प्रकार का अंजन जो ज्वर उतारने के लिए आँखों में लगाया जाता है। |
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अर्ध-पारावत :
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पुं० [तृ० त०] तीतर। |
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अर्ध-पोहल :
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पुं० [देश०] मोटी पत्तियोंवाला एक पौधा। |
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अर्ध-भाक् :
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वि० [सं० अर्ध√भज् (सेवा)+ण्वि]=अर्ध-भागिक। |
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अर्ध-भागिक :
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वि० [सं० अर्ध-भाग, कर्म० स०, अर्धभाग+ठन्-इक] १. जो आधे भाग या हिस्से का अधिकारी हो। २. जिसने किसी कार्य विशेष में आधा काम किया हो। |
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अर्ध-भास्कर :
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पुं० [कर्म० स०] दोपहर या मध्याह्र का सूर्य। |
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अर्ध-भुजंगी :
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पुं० [कर्म० स०] रसावल नामक छंद का दूसरा नाम। |
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अर्ध-मागधी :
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स्त्री० [कर्म० स०] सागधी और शौरसेनी प्राकृतों का वह मिश्रित रूप जो कौशल में प्रचलित था। विशेष—महावीर और बुद्ध के समय में यही कौशल की लोक-भाषा थी, अतः इसी में उनके धर्मोपदेश भी हुए थे, और अशोक के पूर्वीशिलालेख भी अंकित हुए थे। आज-कल की पूर्वी हिन्दी अर्थात् अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी आदि बोलियाँ इसी से निकली है। (विशेष दे० ‘प्राच्या और मागधी’)। |
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अर्ध-मात्रा :
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स्त्री० [कर्म० स०] १. आधी मात्रा। २. व्यंजन वर्ण। ३. चतुर्दश मात्रा नामक ताल के एक भेद। (संगीत) |
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अर्ध-विसर्ग :
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पु० [कर्म० स०] विसर्ग की तरह का या उसका आधा वह उच्चारण जो क, ख, प, या फ से पहले होता है। विशेष—इसका चिन्ह विसर्ग के चिन्ह ( |
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अर्ध-वृत्त :
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पुं० [एकदेशि त० स०] वृत्त का आधा भाग जो उसकी आधी परिधि या व्यास से घिरा हो। आधा गोल या वृत्त। (सेमी सर्किल) |
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अर्ध-वृद्ध :
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वि० [कर्म० स०] युवावस्था और वृद्धावस्था के बीच का। अधेड़। |
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अर्ध-वैनाशिक :
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पुं० [कर्म० स०] प्राचीन भारत में कणाद के अनुयायियों की संज्ञा। |
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अर्ध-व्यास :
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पु० [कर्म० स०] किसी वृत्त के केंद्र से परिधि तक की दूरी। आधा व्यास। पुं०=त्रिज्या। |
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अर्ध-शफर :
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पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार की मछली। |
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अर्ध-शब्द :
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वि० [ब० स०] जिसका शब्द जोर का नहीं, बल्कि आधा या कुछ धीमा होता है। |
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अर्ध-शेष :
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वि० [ब० स०] जिसका आधा ही शेष रह गया हो, आधा नष्ट हो चुका हो। |
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अर्ध-सम :
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वि० [तृ० त०] (छंद या वृत्त) जिसके पहले तथा तीसरे और दूसरे तथा चौथे चरणों में बराबर-बराबर मात्राएं या वर्ण हो। जैसे—दोहा, सोरठा आदि। |
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अर्ध-हार :
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पुं० [कर्म० स०] ६४ या ४॰ लडियों का हार। |
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अर्धक :
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वि० [सं० अर्ध+कन्] १. आधा। २. अधूरा। |
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अर्धग :
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पुं० दे० ‘अर्धांग’। |
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अर्धंगी :
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पुं० =अर्धांगी। |
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अर्धसमवृत्त :
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पुं० [अर्धसम, तृ० त०, अर्धसमवृत्त, कर्म० स०]=अर्द्धसम। |
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अर्धह्रस्व :
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पुं० [एकदेशि, त० स०] (स्वर) जो लघु या ह्रस्व का भी आधा हो। |
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अर्धाग्ङ :
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पुं० [सं० अर्ध-अंग, कर्म० स०] १. आधा अंग या आधा शरीर। २. शिव का एक नाम। ३. दे० ‘अर्धाग्ङ घात’। |
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अर्धाग्ङ-घात :
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पुं० [स० त०] अंगघात रोग का एक प्रकार जिसमें शरीर के दाहिने या बाएँ सब अंग बिल्कुल अचेष्ट अक्रिय तथा सुन्न हो जाते हैं। (हेमिप्लेगिया) |
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अर्धाग्ङिनी :
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स्त्री० [सं० अर्धाग्ङ+इनि-ङीष्] विवाहित स्त्री या पत्नी जो पुरुष के आधे अंग के रूप में मानी जाती है। |
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अर्धाग्ङी (गिन्) :
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पु० [सं० अर्धाग्ङ+इनि] १. शिव। २. वह जो अर्धाग रोग से पीड़ित हो। |
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अर्धार्ध :
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वि० [सं० अर्ध-अर्ध एकदेशि० त० स०] आधे का भी आधा। एक चौथाई। |
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अर्धाली :
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वि० [सं० अर्ध-अलि] चौपाई (छंद) का आधा भाग जिसमें दो चरण होते हैं। |
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अर्धावभेदक :
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पुं० [सं० अर्ध-अवभेदक, कर्म० स०] अध-कपारी या आधासीसी नामक रोग। |
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अर्धाशन :
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पुं० [अर्ध-शन, कर्म० स०] ऐसा भोजन या भोजन की वह मात्रा जिसमें आधा ही पेट भरें। |
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अर्धाशी (शिन्) :
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वि० [सं० अर्ध-अंश, एकदेशि० स० अर्धाश+इनि] आधे अंश, भाग या हिस्से का अधिकारी या पात्र। |
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अर्धासन :
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पुं० [सं० अर्ध-आसन, एकदेशि, त० स०] किसी को अपनी बराबरी का समझकर उसका सम्मान करने के लिए उसे अपने साथ अपने ही आसन पर बैठाना अथवा अपने आसन का आधा अंश उसे देना। |
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अर्धिक :
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पुं० [सं० अर्ध+टिठन्-इक] १. अधकपारी या आधासीसी नामक रोग। २. ब्राह्मण पिता और वैश्य माता से उत्पन्न संतान। |
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अर्धीकरण :
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पुं० [सं० अर्ध√कृ+च्वि, ऊत्व+ल्युट्-अन] १. दो तुल्य या समान भागों में बाँटने की क्रिया या भाव। २. दो चीजें एक साथ या एक धरातल में बैठाने के लिए दोनों के आधे-आधे भाग छाँट या निकाल देना। |
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अर्धुक :
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वि० [सं०√ऋध् (वृद्धि)+उकञ्] उन्नत, समृद्ध या संपन्न। |
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अर्धेदु :
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पुं० [अर्ध-इंदु, एकदेशि त० स०] अर्द्ध चंद्र। |
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अर्धेदुमौलि :
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पुं० [ब० स०] शिव। |
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अर्धोत्तोलित :
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भू० कृ० [अर्ध-उत्तेलित, कर्म० स०] जो आधा (उचित या ठीक ऊँचाई से कम) उठाया गया हो। जैसे—अर्द्धोत्तोलित ध्वज। |
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अर्धोदक :
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पुं० [अर्ध-उदय, मध्य० स०] हिंदुओं की एक धार्मिक प्रथा जिसे मरणासन्न अथवा मृत व्यक्ति को दाह संस्कार करने से पहले किसी जलाशय या नदी में इस प्रकार रख देते हैं कि उसका आधा शरीर जल के अंदर और आधा शरीर बाहर रहे। |
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अर्धोदय :
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पुं० [अर्ध-उदय० ब० स०] एक पर्व जो माघ की उस अमावस्या को होता है जो रविवार व्यतीतपात योग तथा श्रवण नक्षत्र से युक्त होती है। |
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अर्धोरुक :
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पुं० [सं० अर्ध-उरू,एकदेशि, त० स०, अर्धोरू√काश् (दीप्ति)+ड] जाँघिया जिससे आधे उरु या जाँघे ढकी रहती है। |
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